गुरुवार, 5 अगस्त 2010

र्ह्युमेतिक आर्थ -रैतिस के खिलाफ अनथक संघर्ष की वह दास्ताँ

बेन ऑफ़ दी बोन (ब्यूटी -शीयन रश्मि पेद्नेकर रिकाउनट्स हर १५ -ईयर लॉन्ग बेटिल एगेंस्ट र्युमेतोइड आर्थ -राइटिस/यु /मुंबई मिरर अगस्त ४ ,२०१० ,पृष्ठ २६ )।
१९९४ में विवाह केएक बरस बाद यह जंग छिड़ गई थी रियुमेतिक -आर्थ -राइटिस के संग .आज बेशक १५ बरस हो गए लेकिन जंग ज़ारी है .इस सौन्दर्य -विशेषज्ञ ने हार नहीं मानी है ।
दर्द की दास्ताँ मामूली लेकिन कायम रहने बने रहने वाले कन्धों और ऊंगलियों के दर्द के साथ शुरू हुई .पारिवारिक डॉ ने इसे मामूली कमजोरी और खून की कमी ही माना समझा ।
फिर शुरू हुई रक्त परीक्षणों की श्रृंखला .पता चला रश्मि जी "रियुमेतिक आर्थ -राइटिस पाजिटिव हैं .२२ साल की उम्र बहुत छोटी होती है इस बीमारी के लिए .
दवाओं के रेजिमेन,कोर्सिज और नुस्खों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर थमा नहीं .मामला जोड़ों के बेतरह ना -काबिले -बर्दाश्त दर्द का जो था .थकान और घुटनों के क्रिप्लिंग पैन (अपंग बना देने वाले ,क्षतिग्रस्त कर देने वाले )के चलते एक दिन पार्लर भी छूट गया ।
फिर शुरू हुआ स्तीरोइड्स का दुश्चक्र .कहा गया है ना -"जाके फटी ना पैर बिवाई वो क्या जाने पीर पराई ."घायल की गति घायल जाने .लत पड़ जाती है स्तीरोइड्स की (कुछ देर को आराम ज़रूर आजाता है ,लेकिन साथ ही पार्श्व प्रभाव के खतरों का वजन भी दिनानुदिन बढ़ता जाता है ।)
२००२ तक स्तीरोइड्स के अवांछित प्रभावों ने अपना रंग दिखलाया (आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनाती यह तो होना ही था )।
शरीर अशक्त होता चला गया ।
ऊंगलियों की आकृति बिगड़ने लगी .विकृति और एंठन दोनों की दुर्भि- संधि चल निकली .अब ऊंगलियों को बंद कर मुठ्ठी बनाना भी दुश्वार हो गया .दवाएं भी इसी अनुपात में बढ़तीं गई .ऊँगलियाँ कुछ इस कद्र मुड़ तुड गईं कपड़े पहनना भी दुश्वार हो गया ।
वैकल्पिक चिकित्सा :पुणे के नजदीक पातंजली आयुर्वैदिक आश्रम की शरण में जाना पड़ा .कामशेत आश्रम में स्वामी करमवीर्जी के अनुदेशों का पालन किया ।
एक्यु -प्रेशर ,योग और आयुर्वेद की तिकड़ी ने काम किया .ऊंगलियों की विकृति सुधरने लगी .परिवार का भावात्मक संग साथ दवाओं से ज्यादा सार्थक सिद्ध हुआ ।
अकस्मात डॉ नरेंद्र वैद्य (अस्थि शल्य के माहिर )का साक्षात्कार मेरी बहिन को भी सुनने देखने का इत्तेफाक हुआ ।
संपर्क साधा गया .आपने स्तीरोइड्स बंद करवाए .दर्द कहर बनकर लौटा .लेकिन ठीक होने की प्रत्याशा ने मुझे आत्मविश्वाश से भर दिया .कोरा आश्वाशन ना था ।
मैंने अपने दोनों घुटने रिप्लेस करवा लिए मई २०१० में .उत्तर शल्य गहन देख भाल और फिजियो -थिरेपी ने बाकी काम संपन्न कर दिखाया .मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई .हिम्मते मर्दा मदद दे खुदा ।
चार सालों के बाद यह करिश्मा हुआ ।
आज वाकर के सहारे हूँ .कल इनसे भी पिंड छूटेगा .व्यायाम और प्राणायाम ज़ारी हैं .दर्द भी कभी कभार आता जा ता रहता है ।
मुश्किलें इतनी पड़ीं मुझपे के आसान हो गईं .एक दिन काम पर भी ज़रूर लौटूंगी .हार नहीं मानूँगी .....

कोई टिप्पणी नहीं: