गुरुवार, 26 मई 2016

शिखा ,शिखर से बना है शेखर। जिसे शिव ने अपने मस्तक (शिखर )पे धारण किया हुआ है वे चन्द्रशेखर शिव ही हो सकते हैं।

वे इन दिनों जीवन के शिखर पर थे। हालाकि मुकाम अभी कई और थे जिन्हें वे छू लेना चाहते थे। कई शख्श कई शरीरों में एक साथ रहते हैं। मन :भाव बने रहते हैं कइयों के। मुझे अक्सर ऐसा ही लगा वे मेरा भी एक्सटेंशन हैं। सम्पूर्ण थे शिव की तरह चन्द्र शेखर। जिस भी काम में हाथ डाला एक मुकाम हासिल किया। जीवन के हर अनुभव को उनके साथ सांझा किया था मैंने ,हमने परस्पर। ऐसा लगता है अब अपना ही एक अंग अलग हो गया है। 

जीवन को एक सभाव जिया ,सहभावी रहे हम उनके। और अब यूं चले गए ,निष्कंटक। 

बैठने कौन दे है फिर उसको जो तेरे आस्ताँ से उठता है ,

देख तो दिल के जाँ से उठता है ,ये धुआँ सा कहाँ से उठता है। 

नाम सार्थक कर गए शेखर अपना ,एक शिखर को छू यूं निकलगए ,बे -इत्तला। 

शिखा ,शिखर से बना है शेखर। जिसे शिव ने अपने मस्तक (शिखर )पे धारण किया हुआ है वे चन्द्रशेखर शिव ही हो सकते हैं। कलात्मक ,सौंदर्य सुरुचि संपन्न। 

वीरुभाई !

बुधवार, 18 मई 2016

विलक्षण : स्थूल -सूक्ष्माद देहाद आत्मेक्षिता स्व -दृक । यथाग्निर दारूणों दाह्याद दाहको अन्य : प्रकाशक : । ।

विलक्षण : स्थूल -सूक्ष्माद देहाद आत्मेक्षिता स्व -दृक । 

यथाग्निर दारूणों दाह्याद दाहको अन्य : प्रकाशक : । । 

Just as a blazing fire is different from the wood it burns to provide illumination ,so the know -er within the material body is different from the body itself ,which is pervaded by the consciousness of the soul .It should be firmly understood that the spirit soul and the body have different characteristics because they are two different entities.



Commentary 

One should not maintain the false egoistic conception of "I"and "mine" in relation to the material body .The gross and shuttle bodies covering the living entities are made of the material elements ,but the spirit soul is transcendental to matter.The spirit soul possesses the transcendental qualities of the Lord , but in minute quantity .In this verse the soul is described as self -enlightened .Because the conditioned soul is enlightened by the mercy of the Lord , one may question how this can be .Although the Supreme Personality of Godhead certainly furnishes the living entity with consciousness ,the living entity being endowed with the potency of the Lord ,has himself the capacity to revive and expand his pure consciousness .

In this regard the soul is compared to gold and silver ,which,although having no power of self-illumination ,brightly reflect the rays of the sun .Thus,it may be said that gold and silver possess the power to illuminate ,although not independently .This verse gives an example to illustrate how the spirit soul is different from the body .Just as fire is distinct from the wood it burns ,the soul is distinct from the body it illuminates with consciousness .In the conditioned state ,the spirit soul is compared to fire that is dormant within wood .When the conditioned soul is enlightened ,on the strength of his spiritual knowledge ,he can burn his ignorance to ashes ,just as fire burns wood.

PURPORT

Just as fire is separate from the wood it burns -one is that which burns and the other is that which is burnt -the spirit soul is distinct from the gross body and subtle mind .He is self -manifest and minutely independent.

तो फिर मरता कौन है ?

तो फिर मरता कौन है ?

शरीर तो जड़ है। आत्मा ही उसे चैतन्य किए रहता है। आत्मा की व्याप्ति सारे शरीर में रहती है ,होती है.लेकिन शरीर जब जर्जर हो जाता है आत्मा को सम्भाले नहीं रख पाता ,आत्मा (चैतन्य दिव्यांश परमात्मा का ) ,इसे छोड़ दूसरे शरीर में चला जाता है। अपने कर्मों के अनुरूप उसे नया बाना ( चोला /जीव योनि )मिल जाती है। 

आत्मा सनातन है अनादि है ,सर्वत्र व्याप्त है ,कभी मरता नहीं है ,न कभी पैदा होता है। 

आत्मा का देहांतरण होता है। तो फिर मरता कौन है ?शरीर तो जड़ है ,पाँच तत्वों का जमावड़ा है।क्रिया करनी पड़ती है ,शरीर की आत्मा के निकल जाने के बाद। आँख ,नाक ,कान, मुख ,चमड़ी  सब अभी भी रहते हैं लेकिन न आँख अब देखती है न कान सुनते हैं न मुख अब  बोलता है न चमड़ी स्पर्श का अनुभव करती है। 

कौन है वह जो आँख की भी आँख है ,कान का भी कान है (श्रवण है ),मुख का सम्भाषण है ,चमड़ी का स्पर्श अनुभव करता है। नासिका की गंध है ?कहाँ गया वह। उपनिषद का ऋषि कहता है यह शरीर एक वृक्ष के समान है जिस पर दो पक्षी रहते हैं। एक जो वृक्ष के फल खाता है ,सुख दुःख का भोक्ता है और दूसरा सिर्फ साक्षी भाव से उसको ऐसा करते हुए देखता है। वह पक्षी जो सुख दुःख का अनुभव करता है बद्धजीव है ,दूसरा परमात्मा है। 

जीव जब तक खुद को शरीर मानता है त्रिगुणात्मक प्रकृति (माया ,कृष्ण की बहिरंगा शक्ति ,एक्सटर्नल एनर्जी )से भ्रमित रहता है। वह यह भी नहीं जानता वह न भोक्ता है न कर्ता ।भुक्त है। असली भोक्ता तो कृष्ण है (वह परमात्मा है जो गुणातीत बना रहता ,भोक्ता है फिर भी भोग से अलिप्त रहता है ). कर्ता प्रकृति के तीनों गुण हैं -सतो -रजो -तमो ,क्षण प्रतिक्षण किसी एक गुण का प्राबल्य बना रहता है शेष दो को दबाकर।इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में रमण करती रहतीं हैं।