रविवार, 28 जनवरी 2018

परम्परा आकर्षित ही नहीं करती संरक्षण भी प्राप्त करती है अमरीका जैसे विकसित राष्ट्रों में जहां ऑर्गेनिक फार्म्स भी हैं ऑर्गेनिक खेती भी है उत्पाद भी हैं। किसानों से उपभोक्ता सीधे उत्पाद खरीदता है खेत में जाकर ,फारमर्स मार्किट में जाकर।

भाई रणवीर सिंह जी ने भारतीय नस्ल की गाय के संरक्षण के लिए ट्रेकटर के उपयोग को और बढ़ावा न देकर बैलों की जोड़ी द्वारा  हल चलाने की परम्परा की ओर  लौटने की बात की है। उनकी इस बात में जान है के आज भी भारत के अंदरूनी इलाकों में खेत जोतने का यह तरीका काम कर रहा है। मैं इससे सहमत हूँ दिल्ली से गोहाटी तक की रेलयात्रा में ही नहीं दिल्ली से केरल प्रदेश की यात्रा में भी ,दिल्ली चैन्नई ,दिल्ली मुंबई की यात्राओं में भी मैंने यही नज़ारा देखा है।चैन्नई से बंगलुरु और चैन्नई से पुडुचेरी यात्रा में यही देखा है। चैन्नई से तिरुपति यात्रा में भी।केरल के कन्नूर से ऊटी और उससे और  आगे भी दृश्य यही है। 

  परम्परा आकर्षित ही नहीं करती संरक्षण भी प्राप्त करती है अमरीका जैसे विकसित राष्ट्रों में जहां ऑर्गेनिक फार्म्स भी हैं ऑर्गेनिक खेती भी है उत्पाद भी हैं। किसानों से उपभोक्ता सीधे उत्पाद खरीदता है खेत में जाकर ,फारमर्स मार्किट में जाकर। 

गाय का संरक्षण भारतीय संस्कृति का ही नहीं खेती किसानी का भी संरक्षण साबित हो सकता है। यहां एक साथ ट्रेकर और बैलों से जुताई का काम हो सकता है। छोटी जोत वालों की हैसियत से बाहर ही रहा आया है ट्रेकटर। हिन्दुस्तान में किसी भी चीज़ को कम करने की ज़रूरत नहीं है संशाधनों के विकल्प बढ़ाते जाने की है। 

पर्यावरण की नव्ज़ भी गाय से जुड़ी  है। आखिर ट्रेकटर डीज़ल से ही चलता है बैल को डीज़ल पिलाने की जरूरत नहीं पड़ती है। पर्यावरण का मित्र है बैल। जलवायु का  ढ़ांचा इस दौर में टूटने के संकेत देने लगा है कोरल बीचिज़ का  सौंदर्य 

तेज़ी से विलुप्त होने लगा है उन क्षेत्रों से जो पर्यटन का केंद्र कोरल से ही बने थे। ध्रुवों पे बर्फ भी उतनी नहीं गिर रही है आइस शीट ओज़ोन कवच की तरह दुबला रही है। 

गाय इसके और क्षय को रोक सकती है अपने कर्मठ बेटों (बैलों )के योगदान को केंद्र में लाकर। गाय  बचेगी तभी उसका कुनबा बढ़ेगा। अभी तो दोनों को खतरा है। 

शनिवार, 27 जनवरी 2018

Flu slams schools, shuttering some


Story highlights

  • Schools around the country are closing because children and teachers are sick with flu
  • Cleaning crews are wiping down hard surfaces to keep the illness from spreading
(CNN)Flu is hitting the country hard, especially in schools. There's no official tally, but there are reports of closures of a day or more in at least a dozen states because so many students and teachers are ill.
At least 37 children have died due to flu-related causes this season, according to the latest numbers from the US Centers for Disease Control and Prevention -- and agency officials said there are still many more weeks of flu season to come for most of the country.
The Illinois Mathematics and Science Academy in suburban Chicago is one of them. For the first time in its 30-year history, the Aurora school closed for almost a week due to the flu. On Friday, January 19 there were 25 students who stayed out of class due to flu-like symptoms. By Monday, 88 students were sick and 23% of the faculty were sick with flu-like symptoms, too. Since the school is a residential campus for 10th, 11th and 12th graders, and since the illness spread so rapidly, school officials decided to close its campus, under advisement of the local hospital and health department. The students, who come from counties all over the state, were sent home as a preventive measure. Classes are expected to start again on January 29.
    "We all wanted to nip this in the bud before it got worse," said Tami Armstrong, the school's director of public affairs. The cleaning crew, however, did not get the week off. In fact, they got extra work, having to wipe down all the hard surfaces in the dorms and academic buildings to prevent further spread of the flu.
    The Illinois school is not alone.
    In Port St. Joe, Florida, Gulf District Schools Superintendent Jim Norton told CNN the district decided to close school Friday after more than one-quarter of its 1,900 students and one-third of the 150 teachers called out sick this week due to the flu. The schools are scheduled to reopen next week. The announcement on the closing said buildings will be cleaned and sanitized Friday and sick students will be given a change to recover.
    Similarly ,the Russellville School District in Arkansas closed all of its 10 schools Friday January 19 "due to the high number of students experiencing flu-like symptoms." Students were back in class on Monday January 22.
    In Oklahoma, the Hugo schools were also closed for a couple of days due to the flu. The district's website said that the schools would be sanitized to keep the flu from spreading. It also offered parents advice on when to know if students were too sick to go to school. A flyer from the Oklahoma Department of Health suggested children might be too sick for school if they have fever, diarrhea or vomiting, rash, cough or sore throat or "other conditions" and advised parents to talk to the school nurse or administrators about exclusion policies for these or other illnesses.
    In the state of Texas, officials encouraged "anyone with symptoms to stay home and to see their health care provider, as antiviral medications may shorten the duration of their illness." Amid an outbreak in San Antonio, one school took that advice and closed for a "flu day" a couple of weeks ago.
    In Michigan, the Kalamazoo Public Schools website said while most schools were below the health department's 20% flu-related absentee level for closure, "as a precaution, all KPS schools will be cleaned and disinfected over the upcoming weekend." Elsehwere in the state on Friday, all Gull Lake Community Schools in Richland were closed "due to high illness rates." Activities were canceled, and staff were told not to report, according to the schools' website.
    In Alabama, where the Governor declared a state of emergency on January 11 due to the current flu outbreak, some schools have also been closed including in Huntsville. State health officials asked schools and businesses to consider waiving sick policies.
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    With the pressures to get all the lessons in, a decision to close a school is never easy, but school officials think caution is key when it comes to preventing additional children from getting sick.
    "If we hadn't closed when we did, I wouldn't have wanted to be having a conversation with anyone about why more kids were sick and we didn't do our best to keep students safe," said Armstrong of Illinois Mathematics and Science Academy. "Their health and well-being is our number one priority."

    शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

    श्रवण मंगलम ,ज्ञान मंगलम ,दृश्य मंगलम दीदार मंगलम(IT IS HARD TO LISTEN WHEN YOU CAN'T HEAR (HINDI II )


     बीस साल से कम उम्र के ज्यादातर लोग श्रव्य -सीमा की अधिकतम आवृत्ति वाली बीस हज़ार साइकिल प्रतिसेकिंड की ध्वनि सुन लेते हैं। लेकिन उम्र के साथ श्रवण  ह्रास, श्रवण क्षय का कारण श्रवण (कान )की प्रत्यास्थता इलास्टिसिटी का क्षय होना है ,उम्रदराज़ होते जाने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया का अंग है ,तो भी पचास साला लोग १२,००० साइकिल प्रतिसेकिंड से ऊपर तक की ध्वनियाँ आराम से सुन लेते हैं। 

    क्योंकि बातचीत का सामान्य व्यवहार अमूमन २६० साइकिल प्रतिसेकिंड की ध्वनियों के आसपास ही रहता ही इसलिए पचास साला लोगों को कोई श्रवण सम्बन्धी बाधा यूं पेश नहीं आती है। 

    किसी भी आवाज़ को सही दिशा में कान देने का हमारा गुण इस तथ्य से संचालित रहता है के हमारा कान यदि आवाज़ का स्रोत हमारे दाहिने और है तो दायां कान बाएं की अपेक्षा इस ध्वनि  को ०.००० १ सेकिंड पहले (एक सेकिंड का दस -हज़ारवां  भाग पहले )सुन लेगा। आखिर हमारे दोनों कानों के बीच फांसला भी तो है हमारी दोनों  आँखों की तरह। 

    और इसी से हम कयास लगा लेते हैं दूर से आती किसी बैंड बाजे की आवाज़ का के वह किस दिशा से आ रही है। अलबत्ता यदि आप मुड़के उसी तरफ देखने लगे तब आपके दोनों कानों तक आवाज़  एक साथ ही पहुंचेगी जैसे सामने से आती कोई आवाज़ के लिए कयास नहीं लगाना  पडता है यह वैसे ही है। 

    क्या आप जानते हैं आपको सबसे ज्यादा दिलचस्पी अपनी  आवाज़ को ही सुनने में होती है क्योंकि उसे आप सुनते हैं सुनना चाहते भी है चाव से।  
    अपनी आवाज़ आप वायु के उन कम्पनों द्वारा ही नहीं सुनते हैं जो आपके कान तक पहुँचते हैं ,खोपड़ी से होते हुए अस्थि के चालन द्वारा यानी बोन कंडक्शन भी एक मोड  बनता है आपके श्रवण  का लेकिन तब जब आप अपनी ही आवाज़ सुनते हैं। चाहे वह आपके कुछ खाने पीने  सटकने से ही पैदा हो रही है या कोई कुरकुरी चीज़ खाने चबाने से। दांत के नीचे  किरकरी आने पर आपको कैसा विचित्र आभास और अनपेक्षित अप्रत्याशित आभास होता है ये आप तब महसूस करते हैं जब दाल में  खाना खाते वक्त कोई कंकरी निकल आती है। यही वजह है कई मर्तबा आप अपनी ही रिकार्ड की गई आवाज़ सुनकर हैरानी जतलाते हैं। क्योंकि इसमें बोन कंडक्शन सम्प्रेषण शामिल नहीं है आवाज़ का। अपनी ही आवाज़ की गमक और हुमक ,अनुनाद आपकी खोपड़ी कपाल से होकर ही आरही है निम्न आवृति की ध्वनियों से।रिकार्डिंग में यह नदारद रहती है। इसीलिए रिकार्ड की गई  आवाज़ वीक प्रतीत होती है आपको। 

    और इसीलिए रिकार्ड की गई आवाज में वह जान भी नहीं होती है  अलबत्ता आजकल उसे संशोधित करने वाली अनेक विधियां और साधन संशाधन रिकार्डिंग तामझाम मॉडुलेटर तमाम किस्म के  आ गए  हैं। 

    अफसोसनाक है श्रवन -क्षय आइंदा और भी बढ़ता जाएगा व्यस्त्तता बढ़ने के साथ सिटी नॉइज़ में इज़ाफ़ा होते जाने के साथ। 

    आज की स्थिति पर गौर करते हैं ये बताने के साथ के आज भी हम अपने परिवेश से आती अनेक प्रकार की  ध्वनियाँ  सुनने को राजी  नहीं हैं जो हमारे काम की और ज्ञानवर्धक भी हो सकती हैं उपयोगी भी। क्योंकि हम थके मांदे रहते हैं। 

    युवाभीड़ की स्थिति क्या है ?  

    आपने अक्सर देखा होगा बातचीत के दौरान लोगों को कहते सुनते -'भाई साहब आपने क्या कहा था मैं मिस कर गया मेरा ध्यान कहीं और था या फिर ये के यार थोड़ा वॉल्यूम बढ़ा दो टीवी का कुछ पल्ले नहीं पड़  रहा है।'

    श्रवण ह्रास ही है यह। एक अनुमान के अनुसार इस श्रवण -क्षय(हियरिंग लोस ) से इस समय तकरीबन चार करोड़ अस्सी लाख अमरीकी वयस्क (बालिग़ ,एडल्ट )ग्रस्त हैं।  
    कुछ बढ़ती उम्र के साथ हमारे लाइलाज पुराने पड़  चुके रोग भी इसके लिए कुसूरवार ठहरते हैं तो खासकर जीवनशैली रोग (दिल की बीमारियां ,हाई ब्लडप्रेशर ,डायबिटीज आदि )जिनके चलते हमारे श्रवण उपकरण कानों की ओर  पूरा रक्त या तो नहीं पहुँच पाता  है या सर्कुलेशन कमज़ोर हो जाता है। इससे श्रवण निर्बाध नहीं रहता है। इन रोगों के इलाज़ से भी नुकसानी ही उठानी पड़ती है कानों को इसकी भी कीमत चुकानी पड़ती है। 

    बिना नुश्खे के तथा नुश्खे वाली  दो  सौ  से ज्यादा प्रिक्रिप्शन दवाएं कानों पे भारी पड़  रहीं हैं इनमें मूत्रल दवाएं (diuretics ),एंटीबायोटिक्स यहां तक के जीवन रक्षक एस्पिरिन भी शामिल है। इन दवाओं से अंदरूनी कान असरग्रस्त हो सकता है। 

    अपने चिकित्सक से  भले निस्संकोच पूछिए क्या मैं जो दवाएं ले रहा हूँ वह मेरी श्रवण  शक्ति को प्रभावित करेंगी।

    युवा भीड़ का हाल यह है के आज जितने युवा किशोर -किशोरियां एअरबड्स  और हेडफोन्स लगाए घूम रहें हैं उनसे पैदा तेज़ आवाज़ कानों पे भारी पड़  रही है। इस वक्त गत दशक की बनिस्पत तीस फीसद ज्यादा युवा  नॉइज़ से पैदा श्रवण ह्रास से ग्रस्त हैं। बढ़ता डेसिबेल लेवल उनके कानों को कुतर रहा है। 

    इससे बचने के उपाय आज़माने चाहिए। फिर चाहे वह घास काटने वाले उपकरण हों या आइस की शवलिंग करने के लिए प्रयुक्त तामझाम हो कानों का बचाव ज़रूरी है। आईपॉड का संगीत अच्छा लगता है मगर किस कीमत पर। आज ऐसे डेसिबेल मीटर उपलब्ध हैं जो आपके स्मार्ट फोन को साउंड मीटर में तब्दील कर देते हैं  . आप भांप लेते हैं डेसिबेल से पैदा खतरों को। चर्च का संगीत (डेसिबेल लेवल इस संगीत का ) भी सुरक्षित नहीं माना गया है।एयरप्लग्स ,नॉइज़  केंसलिंग  हेडफोन्स भी आज उपलभ्ध हैं।वैक्यूम क्लीनर ,स्नोब्लोवर के इस्तेमाल के दौरान इन्हें पहन लीजिये। श्रवण के माहिरों की यही सलाह है। बचाव में ही बचाव है। 

    एक सक्षम भरोसेमंद कान के बिना दृश्य जगत की जानकारी अधूरी ही रह जायेगी। संगीत सुनते वक्त टीवी देखते वक्त थोड़ी आवाज़ कम कर लीजिये धीरे -धीरे यही अच्छा लगने लगेगा।इस दूसरी क़िस्त में फिर से दोहरा दें -जीवन और जगत और अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी श्रवण एक बेहद ज़रूरी खिड़की है।

    श्रवण मंगलम ,ज्ञान मंगलम ,दृश्य मंगलम दीदार मंगलम। 

    Hearing is the most social of the senses(HINDI I )

    हमारी यह सृष्टि ये सारी कायनात एक महावाद्यवृन्द रचना में नहाई हुई है वैसे ही जैसे ये विश्व "पृष्ठभूमि विकिरण कॉस्मिक बेक-ग्राउंड रेडिएशन "में संसिक्त है डूबा हुआ है। सृष्टि का प्रादुर्भाव भी ध्वनि से ही हुआ है जिसे ओंकार या ॐ कहा गया है आज भी सूर्यनारायण से यही ध्वनि निसृत हो रही है। लेकिन हमारे कान अपने काम की ही बात सुनने के अभ्यस्त हो चले हैं। हमारे श्रवण की भी सीमा है। 

    इस श्रव्य परास के नीचे  अवश्रव्य और इसके ऊपर पराश्रव्य ध्वनि  हैं। श्रवण चंद आवृतियों ध्वनि तरंगों की लम्बाई तक ही सीमित है। २० साइकिल प्रतिसेकिंड से लेकर २० ,००० साइकिल्स प्रतिसेकिंड फ़्रीकुएंसी (आवृत्ति )की ही ध्वनियाँ हमारे श्रवण के दायरे में आती हैं। 

    अगर हम २० हर्ट्ज़ (एक साइकिल प्रतिसेकिंड को एक हर्ट्ज़ कहते हैं  )से नीचे की ध्वनि सुनने लगें तो जीना मुहाल हो जाए हमारा। सांस की धौंकनी ,पेशियों की गति ,हमारे पदचापों  की ध्वनि हमें चैन से न बैठने दे चरचराहट चरमराहट ,धमाके हम सुनते रहें अपने अंदर से बॉन कंडक्शन के द्वारा। इसीलिए हमें अपनी रिकार्ड की गई आवाज़ अपनी सी नहीं लगती क्योंकि जब हम बोलते हैं तो खुद भी तो अपनी आवाज़ सुनते हैं बॉन कंडक्शन द्वारा। अस्थियां ठोस हैं और ठोस में से ध्वनि की आवाजाही बेहतर होती है। चमकादड़ की तो आँख वे  ध्वनि ही बनतीं हैं जिन्हें हम नहीं सुन पाते हैं। 

    अस्तबल तोड़ के घोड़े भाग खड़े होतें हैं चील कौवे आकाश को छोड़ पेड़ों पर उतर  आते हैं भूकम्पीय तरंगों को भांपकर। हमारे लिए अवश्रव्य हैं ये तमाम ध्वनियाँ। 

    कल्पना करो एक नृत्य नाटिका आप देख रहें हैं संगीतकी माधुरी पर और संगीत को म्यूट कर दिया जाए ,कैसा लगेगा आपको। दृश्य के पूर्ण अवलोकन   के लिए  श्रवण ज़रूरी तत्व है। 
    आवाज़ हमारे हस्ताक्षर हैं आधार कार्ड है हमारा।  दो व्यक्तियों की आवाज़ बेशक यकसां लग सकती है लेकिन उनका रोना धोना झींकना चिल्लाना जुदा   होगा।गली  में खेलते बच्चों में से यदि आपका  बच्चा रो रहा है  तो आप जान लेंगे बच्चा मेरा है। और नींद में भी अगर कोई आपको नाम से पुकारे भले आहिस्ता ,आप सुन लेंगे। माँ साथ में सोये बच्चे की कुनमुनाहट सुन लेगी भले कितनी गहरी नींद में हो उसे  फ़ौरन  थपथपा के सुला देगी। 

    मालिक के कदमों की आहात कुत्ते मीलों दूर से पहचान लेते हैं आप की चाल आपके भावजगत की इत्तल्ला दे देती है। कैट -वाक् का अपना सौंदर्य है। 

    ठुमक ठुमक मत चलो, किसी का दिल धड़केगा ,
    मंद मंद मत हंसों कोई राही भटकेगा। 

    ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां ....

    और अगर पैंजनिया छम- छम न करें तो क्या माता कौशल्या रीझेंगी ?

    आज आदमी अपने परिवेश की आवाज़ों से ही परेशान है और इसीलिए उसका संपर्क अपने ही परिवेश से कमतर होने लगा है। घर हो या बाहर आदमी आवाज़ नहीं सुनना चाहता ,दिन भर की थकान से बेदम है तनाव में है स्ट्रेस में है। 

    जबकि आवाज़ें सामाजिक सच का आइना हैं। सच का एक आयाम तो ज़रूर हैं ही पूरा सच न सही। 

    सलाम करो उस वाद्यवृन्द रचना के कंडक्टर को जिसे ये  इल्म हो जाता है सौ वायालन -कारों में से किस साजिंदे का वायलिन म्यूट है। हमारे कान एक ही आवृति की आवाज़ (टोन  ) के तीन से लेकर चार लाख उतार चढ़ावों को आरोह और अवरोह को ध्वनि की  मात्रा यानी तीव्रता में अंतर कर सकते हैं यह क्षमता उस कंडक्टर के पास है जो वाद्यवृन्द रचना का संचालन कर रहा है। उसकी एक एक  शिरा  में संगीत है। पूरा सुनता है वह सबको सुनता है सबकी सुनता है। आप कितना सुनते हैं  ?किसकी सुनते हैं ?

    कुछ लोग शोर शराबे वाली भीड़ में घुसके ये ताड़ लेते हैं भीड़ का मूढ़ क्या है खासकर शादी ब्याह के मौकों पर आप ऐसा जमघट  देखते होंगें जिसमें घुसने की हिम्मत हर कोई नहीं कर पाता। कानों पर हाथ रख लेता है शोर से आज़िज़  आकर । 
    गति और कम्पन ही ध्वनि है ,हरेक गति एक ध्वनि छिपाए हुए है अपने आगोश में। न्यूक्लियस के गिर्द घूमता इलेक्ट्रॉन भी। परमाणु घड़ी उसी इलेक्ट्रॉन के कम्पन पर आधारित है। 

    स्पर्श एक  वैयक्तिक ऐन्द्रिक सुख है ध्वनि दूर -स्पर्श है -टच एट ए डिस्टेंस। 

    श्रवण एक सामाजिक ऐन्द्रिक अनुभव है। 

    hearing is the most social of the senses .

    आवाज़ें हमें अपने परिवेश के प्रति खबरदार करतीं हैं। निद्रावस्था में भी श्रवण संपन्न होता है  अवचेतन स्तर पर। श्रवण हमें जगाता है। जागृत करता है। 

    उठ जाग मुसाफिर भोर भई ,अब रेन कहाँ जो सोवत है  

    सारा अध्यात्म जगत श्रवण पर खड़ा है कुछ मत कीजिये निरंतर श्रवण कीजिये यही  कालान्तर  में मनन (contemplation )और फिर निद्धियासन (constant contemplation ,मैडिटेशन )बन जाएगा। 

    जड़ चीज़ों के साथ चेतन जैसा व्यवहार करो फिर आप कुर्सी के खिसकने की अलग आवाज़ सुनेंगे। दराज खोलने खिड़की बंद करने की ,तड़के की ,दाल के खदबदाने की आवाज़ों का भी अलग ज़ायका लेंगे।

    कुछ लोगों का श्रवण अति विकसित होता है परिमार्जित  और गहन भी । अलग अलग सिक्कों के गिरने की आवाज़ आपको बतला देंगें।ज्योति हीन  व्यक्ति आपके कमरे की लम्बाई चौड़ाई बतला देगा। उसका संसार ध्वनियों पर ही खड़ा है। ध्वनियाँ जिनसे हम लगातार कटते  जा रहे हैं। 

    सबसे तेज़ आवाज़ (लाउड साउंड )जो हमारा कान सुन सकता है वह उस आवाज़ से जो सबसे ज़्यादा मद्धिम है दस खरब गुना ज्यादा तेज़ी लिए होती है। स्नो फ्लेक्स का गिरना ,सुईं का ज़मींन पे गिरना भी सुन लेते हैं कुछ लोग। 

    ऐसे होता है श्रवण ,ऐसे सुनते हैं हम आवाज़ें ? 

    हमारे कान का पर्दा (एअर ड्रम )कम्पन करता है बाहर के किसी भी ध्वनिक उत्तेजन /उद्दीपन से /आवाज़ से। मध्यकान में एक रकाबी की आकृति की अस्थि होती है जो एक पिस्टन  की भाँती काम करते हुए इस कम्पन को आवर्धित कर देती है, एम्पलीफाई करती है। घोंघे  के आकार  सा होता है हमारा अंदरूनी कान जिसमें एक तरल भरा रहता है साथ ही  कोई तीसेक हज़ार हेयर सेल्स भी मौजूद रहतीं हैं। ये आवाज़ की आवृत्ति के अनुरूप बेंड हो जाती है मुड़ जातीं हैं। छोटी लड़ी ऊंची तथा लम्बी लड़ी निम्न फ्रीक्वेंसी के अनुरूप ऐसी अनुक्रिया करतीं हैं। 

    इसी के साथ विद्युत्स्पन्दों की तेज़ी से घटबढ़ होती है जो बा -रास्ता नसों न्यूरॉन्स के ज़रिये दिमाग को खबर देती है दिमाग इसे आवाज़ के रूप में लेता है। 

    दूसरी क़िस्त में पढ़िए :बीस से कम उम्र तक के तमाम लोग तकरीबन उन आवाज़ों को सुनलेते हैं जो प्यानों के उच्चतम C नोट की आवृत्ति होती है।  दूसरे शब्दों में  २० किलोहर्ट्ज़ की तमाम आवाज़ें।लेकिन पचासा आते आते कान  की प्रत्यास्थता एल्स्टिसिटी कम होने से १२ किलोहर्ट्ज़ तक ही सीमित हो जाता है श्रवण। क्यों और क्या हो रहा है  उस युवा भीड़ को जो  शोर के बीच भी  कानों में  हरदम प्लग ठूसें रहतें हैं ,हेड फोन के साथ चलते हैं।  

    गुरुवार, 25 जनवरी 2018

    Difference Between 'Braham ' and 'Big Bang'

    दोस्तों बात में से बात निकलती है इन दिनों सोशल मीडिया पे चर्चा है आदमी का पूर्वज बंदर था या नहीं।विचार और दर्शन प्रश्न से ही पैदा होता है बशर्ते प्रश्न की गुणवत्ता ऊंचे पाए की हो। सारा ज्ञान प्रश्नों की मथानी से ही छनके आया है -चाहे वह 'हाउ थिंग्स वर्क' हो या वे तमाम प्रश्न हो जिसमें जिज्ञासु -शिष्य 'गुरु' से पूछता है -वह कौन सी चीज़ है जिसे जान लेने के बाद और कुछ जान लेना शेष नहीं रहता। 

    उत्तर है वह ब्रह्म ही है -अथातो ब्रह्म ?ब्रह्म क्या है ?

    शाब्दिक और दर्शन में प्रचलित अर्थ लें तो जो निरंतर वृद्धिमान है वह ब्रह्म है। जो पहले भी था अब भी है आइंदा भी रहेगा वही ब्रह्म है। इस सृष्टि में ब्रह्म के  सिवाय दूसरा कोई तत्व है ही नहीं। 

    ब्रह्म विरोधी गुणों का संस्थान है 'बिग बैंग 'की तरह। कहते हैं ये सृष्टि उसी बिग बैंग से प्रसूत है। और यह सृष्टि का आदिम  अणु तब भी था जब कुछ नहीं था -न काल ,कालखंड टाइम इंटरवल और न आकाश। काल के अस्तित्व के लिए तो "पहले" और "बाद" का पहले एक क्रम चाहिए सीक्वेंस चाहिए  . और आकाश का तो अस्तित्व ही नहीं था -सारा गोचर ,अगोचर ,बोध गम्य, अबोधगम्य ,बूझने योग्य ,अबूझ पदार्थ ,डार्क - एनर्जी ,डार्क- मेटर (सामान्य पदार्थ  से भिन्न माना  गया है विज्ञान में डार्क मैटर और डार्क एनर्जी दोनों को। )सब इसी में  था और यह आदिम अणु Primeval atom एक साथ सब जगह था। 
    Its size (volume )was zero density and temperature infinite .

    ब्रह्म की तरह  लेकिन यह अप्रकट रूप था। अन -मैनिफेस्ट था ,निर्गुण था।फिर एक महाविस्फोट में यह फट गया और सृष्टि का कालान्तर में जन्म हो गया। 

    ब्रह्म ने चाहा मैं एक से अनेक हो जावूं और ये साड़ी सृष्टि बानी बनाई प्रकट हो गई ब्रह्म इसी में  प्रवेश ले गया।   

    ब्रह्म -परमात्मा -और भगवान् -ब्रह्म में सारे गुण प्रकट नहीं है गुणों से यह प्रभावित भी नहीं होता इसीलिए इसे निर्गुण कहा गया है।
    It is an impersonal form of God .

    It is beyond all attributes ,omnipresent ,omniscient and all that you and I can imagine .

    परमात्मा जिसका वास हमारे हृदय गह्वर में है -इसमें कुछ सीमित गुण  मुखरित हैं.और भगवान् यह अनंत विरोधी गुणों का एक साथ प्रतिष्ठान है। सारे शरीर इसी के हैं और कोई भी शरीर इसका नहीं है। सारे रूप इसके हैं और यह अरूप है। अजन्मा है लेकिन अवतरित होता है। गुणों का प्राकट्य ही अवतरण है।अमर है लेकिन बहेलिये के हाथों मारा जाता है। यह एक साथ वर्तमान अतीत और भविष्य  में हो सकता है होता है।  

    श्रीराम को रामचरितमानस में परात्पर परब्रह्म कहा गया है वह महाविष्णु है न के  विष्णु का अवतार।जो सारे कायनात में रमा हुआ है रमैया है सब जिसमें रमण करते हैं सबको जो आनंद  देता है वही राम है।  

    त्रिदेव या "देव -त्रय"-ब्रह्मा -विष्णु -महेश इसके उपासक हैं। भागवत पुराण और भगवदगीता में इसी परात्पर ब्रह्म को कृष्ण कह दिया गया है। गुरुग्रंथ साहब में यही वाहगुरु है। दस के दस गुरु उसके सन्देश वाहक हैं। परात्पर ब्रह्म वही है जो ऐसे एक साथ अनंत ब्रह्मा -विष्णु -महेश का सर्जक है। तत्व सब जगह एक ही है दूसरा कोई है ही नहीं। 

    "एक ओंगकार सतनाम" -ईशवर और उसकी सृष्टि एक ही है। वह इसी में हैं कहीं गया नहीं है। हमारे अज्ञान का आवरण उसे अज्ञेय बनाये रहता है। यही माया है इसे प्रकृति कह लो माया का मायावी आवरण ज्ञान से कटे तो वह अनुभूत हो। इन दैहिक नेत्रों का विषय नहीं है वाहगुरु कृष्ण या राम। ज्ञान चक्षु का विषय है ब्रह्म। 
    कई उपनिषदों में एक श्लोक आया है जिसका अर्थ है -वह ब्रह्म अनंत है उसकी यह सृष्टि भी अनंत  है। पूर्ण से पूर्ण ही का प्राकट्य होता है। सृष्टि के उसमें से निकल जाने के बाद वह ब्रह्म न बढ़ता है न घटता है। और सृष्टि के लय (विलय ,डिज़ोल्व )होने पर भी वह ब्रह्म ही रहता है। अनंत का अनंत। 

    वह बिग -बैंग भी निराकार बतलाया गया है शून्य आकारी है आकार हुआ  तो एक साथ सब जगह कैसे होवे । और घनत्व और तापमान उसका अनंत कहा गया  है। और यह सृष्टि यह मात्र एक आवधिक प्राकट्य है टेन्योर है। सारी कायनात एक बार फिर इस आदिम अणु में लय हो जाएगी। ऐसा होता रहता है। होता रहेगा। ये प्राकट्य ही तो माया है। 

    माया  क्या है ?

    'जो हो न' लेकिन दिखलाई  दे।जैसे खरगोश के सींग ,स्वर्ण मृग ,रेगिस्तान में पानी। सागर के ऊपर हवा में लटका हुआ उलटा जहाज। जैसे उड़न तश्तरी। बरमूडा त्रिकोण। यही तो माया है जो है भी नहीं भी है और दोनों ही नहीं है। लेकिन मेरा उसके साथ लेन  देन  है ट्रांसेक्शन है।यही तो उसका छल है कुनबा माया का और मैं कहूँ मेरा। 

    कबीर कहते हैं :

    मन फूला फूला फिरै , जगत में झूठा नाता रे। 

    जब तक जीवै माता रोवै बहन रोये दस मासा रे ,

    और तेरह दिन तक तिरिया रोवे ,

    फेर करे घर वासा रे।



    3:22




    https://www.youtube.com/watch?v=fblWyQP0iKs

    Mitti Se Khelte Ho Bar Bar Kisliye - Classic Hindi Sad Song - Patita - Usha Kiran, Dev 

    बुधवार, 24 जनवरी 2018

    कामकुंठित लीला भंसाली

    इन दिनों चैनलों पर कुछ ऐसे लोग गुटरगूँ में मुब्तिला हैं जिनमें से कइयों को इतिहास और काव्य (पद्मावत )का फर्क नहीं मालूम। पद्मावत सूफी दर्शन से प्रेरित एक महाकाव्य  है इतिहास नहीं है। इतिहास का उल्लेख मोरक्को के आलमी घुमक्कड़ इब्नबतूता करते  हैं   जिन्होनें  सोलह हज़ार वीरांगनाओं समेत महारानी पद्मनी के जौहर का ज़िक्र किया है।  

    इस दौर में काम कुंठित रक्तरंगी (लेफ्टिए ),जेहादी तत्व और तमाम कांग्रेस द्वारा पोषित  देशविरोधी ताकतें एक हो गए हैं.पहले ये मार्क्सवाद के बौद्धिक गुलाम भकुए म -कबूल फ़िदा हुसैन को पकड़के लाये थे बहुत अच्छे चित्रकार थे वह  उनसे इन्होनें थ्री  हंड्रेड रामायण की आड़ में अभद्र अशोभन चित्र बनवाये सनातन प्रतीकों के ,एक  चित्र मरियम का  भी बनवाते ये वर्णसंकर जो अपनी पांच पीढ़ियों के बारे में नहीं बतला सकते वे इतिहास के गौरवपूर्ण पृष्ठों कोआज  तोड़ - मरोड़के के प्रस्तुत कर रहें हैं।

    प्रेम काव्य लिखना है शौक से लिखो और जाकर वाघा बॉर्डर पर फिल्माओ कौन रोकता है आप भी मोमबत्ती जलाओ वाघा बॉर्डर पर जाकर नामचीन लेफ्टिए कुलदीप नैय्यर की तरह।  अपनी नायिकाओं से  मोमबत्ती नृत्य कराओ बीसहज़ार मोमबत्तियां लेकर।

    ये वही लोग है जिन्होनें महात्मा गांधी को  साम्राज्यवादियों  का एजेंट नेता सुभाष को टोबो का स्वान (कुत्ता )बतलाया था। वही पीढ़ी है ये कन्हैया और कन्हैया तत्व उसी जेनयू में पल्लवित हुए हैं जहां कट्टरपंथियों ने पैसा झौंका हुआ है।

    लीला फंसाली उसी सोच के व्यक्ति हैं।पदमावती का विरोध करने वालों को कुछ चैनल और इनके द्वारा पोषित बौद्धिक भकुए गुंडा बतला रहे हैं। पूछा जा सकता  इनसे ये क्या कर रहें हैं कामकुंठित लोगों के समर्थन में खड़े होकर।

    No ban on 'Padmaavat', SC clears pan-India Jan 25 release

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    New Delhi: The Supreme Court on Tuesday cleared the decks for the release of Sanjay Leela Bhansali's Padmaavat on Thursday. Amid unending protests, however, many cinema hall owners are not keen on screening the epic drama. The apex court asked all states to comply with its order not to stand in the way of the controversial film, quashing last ditch efforts by Rajasthan and Madhya Pradesh governments to block its release. The Shri Rajput Karni Sena, at the forefront of the protests, was unhappy. A bench of Chief Justice Dipak Misra, Justice A.M. Khanwilkar and Justice D.Y. Chandrachud said: "People must understand that the Supreme Court has passed an order and it must be complied with. "You can advise them not to watch the movie if they don't like it. We will not modify our order," Misra told Additional Solicitor General Tushar Mehta, who tried to flag the law and order situation as a ground for blocking the film's release. Padmaavat, featuring Deepika Padukone, Ranveer Singh and Shahid Kapoor, is Bhansali's take on 16th century Sufi poet Malik Muhammad Jayasi's epic poem "Padmavat". However, some Rajput outfits claim it does not portray the community's history correctly. Protests were on in parts of Rajasthan but its Home Minister Gulab Chand Kataria said he will focus on maintaining law and order to ensure a "safe" release of the movie. Police said they will ensure there was no untoward incident and keep a close eye on the Karni Sena chief. According to a Karni Sena official, cinema hall owners in Rajasthan and Gujarat have given a written statement saying they will not release the movie while those in Punjab and Haryana have given a verbal assurance. In Uttar Pradesh, some people protested in Barabanki by burning posters and an effigy of Bhansali. Activists set on fire a bus near a hall besides vandalising some public property in Allahabad. There were protests in Agra, Hathras and the state's western region. An official told IANS that the state government would respect the apex court directives. Cinema owners in Lucknow have sought police security to ensure peaceful screening of the movie though they refused to come on record. In Haryana, the police deployed armed security around cinema halls and multiplexes. Because of threats from protesters, some cinema hall and multiplex owners are not keen on screening the movie. In Gujarat, Surat Police Commissioner Satish Sharma said all cinema owners had decided not to release the film though police had assured them security. A spokesperson for PVR Cinemas in Ahmedabad said they were not screening the movie in the state. Madhya Pradesh Law and Legislative Affairs Minister Rampal Singh has said they will look for a way to respect the Supreme Court's order without hurting public sentiments. In Delhi, advance bookings were open were attracting a good response, said capital-based distributor Joginder Mahajan. "There is a little risk but cinema halls have no alternate plan as 'Padmaavat' is a solo release. Some single screen theatres have a little fear but multiplexes will be going ahead with the movie," Mahajan told IANS. It has been a long battle for the filmmakers. From being assaulted on the film's set in Jaipur to his set being vandalised in Kolhapur to getting threats from detractors, Bhansali has been facing Rajput ire since the inception of Padmaavat, originally titled Padmavati. Bhansali Productions and Viacom18 Motion Pictures, its producers, have maintained it's "an ode to the famed valour, legacy and courage of Rajputs".


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    सोमवार, 22 जनवरी 2018

    मुखबरी से अफसरी तक का सफर

    जैसे -जैसे २५ जनवरी नज़दीक आ रही है अंग्रेजी पत्रकारिता का सेकुलर तबका अपने बिलों से निकलके मुखरित हो रहा है। कितना अंतर है दोनों भाषाओं की पत्रकारिता में।लगता है हिंदी पत्रकारिता में एक भी सेकुलर नहीं है।  


    कल एक महोदय जो पूर्व में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से ताल्लुक रखते थे  अंग्रेजी के एक और रिसाले में प्रलाप कर रहे थे। लगता था सनातन धर्म का कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है जो इन महाशय  ने न पढ़ा हो क्या रामचरित मानस क्या वाल्मीकि रामायण ,वृहद् -आरण्यक उपनिषद ,पुराण ,उप -पुराण आगम निगम सबके माहिर लगते थे ज़नाब। 

    'कुमार सम्भव' का हवाला देते हैं ये साहब कहते हैं इसमें शिव पार्वती की रति क्रीड़ा का आत्यंतिक वर्रण है। लेकिन उस वक्त किसी को कोई एतराज न था। तुलसी दास की आलोचना की भी ये बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते -"कुमार सम्भव" लिखने के बाद कालिदास ने "रघुवंश" भी लिखा था तब जाकर वह उस जगत जननी माँ पार्वती के शाप से मुक्त हुए थे जिसके प्रभाव से  कोढ़ हो गया था कालिदास को। 

    वाल्मीकि रामायण चारों वेदों का संयुक्त अवतार है जिसमें जो कुछ है सब वेद सम्मत है और तुलसीदास वाल्मीक का ही अवतार हैं। जिस इंटरनेट का हवाला दे रहे हो बांच लो उसी पर। (स्वामी राघवाचार्य द्वारा वाल्मीक रामायण पर रामकथा श्रृंखला जो समन्वयन है रामायण और रामचरित -मानस का। ) . 

    जो इस देश की आंच रही है काम रस से आगे निकलके राम रस  का आस्वाद लेना उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं आप। 

     ये इन अंग्रेजीपरस्त सेकुलरों   को दिखाई दे भी कैसे। 
    ये अंग्रेज़ों की मुखबरी से शुरू करके आज़ाद भारत में अफसरी तक पहुंचे हैं। इन्हें अपने माँ बाप का चित्रण करना चाहिए जिन्होनें इन्हें पैदा करके इस देश पे बड़ा उपकार कर दिया।इन्हें खुला छोड़ दिया पूर्वजों की निंदा करने के लिए।  

    माँ के पेट से ये काम रसपान करते आएं हैं।सबके सब कामोदरी हैं कहते अपने आपको कॉमरेड्स हैं।  अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करते हैं भले अपने पूर्वजों की इस देश के गौरव की राष्ट्रीय अस्मिता की निंदा करनी पड़े।
    लौंडियाँ ही नँचानी  हैं तो ४०० क्या ८०० दीपकों के साथ नचाओ -कौन रोकता है बीच में इतिहास की उन वीरांगनाओं को क्यों लाते हो जिन्होंने लम्पट लुटेरों  से औरत को लूट का माल समझने वाले यवनों से इस देश की इज़्ज़त को बचाने के लिए जौहर को  गले लगाया। 

    ऊपर से ये महाशय इंटरनेट पर सब कुछ मिलता है जुमला भी उछालते हैं। बिलकुल ठीक है सब कुछ है वहां लेकिन काम -रस के अलावा राम -रस भी है इंटरनेट पर। सावन के अंधे सेकुलरों को केवल हरा ही हरा नज़र आता है। 

    अगर किसी बॉलीवुड भट्ट और भंसाली ने डिब्बे का दूध नहीं पीया है तो "शैतान की आयतें" / "सैटेनिक वर्सेज "पर फिल्म बनाके दिखाए। 

    फिल्म तो दूर तुष्टिकरण की नीति के तहत राजीव गांधी प्रबंध ने इस किताब को भारतीय महाद्वीप  में  घुसने ही नहीं दिया था। सलमान रुश्दी के खिलाफ फतवा ज़ारी हो गया था। बरसों गुमनामी की ज़िंदगी बसर की उन्होंने। 

    भारत धर्मी समाज क्या किसी बॉलीवुड भट्ट की   रखैल है ?अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो मर्ज़ी करे वह।  
    अरे इतिहास ही पढ़ना लिखना है तो "भारत के स्वर्णिम  अध्याय के छः पृष्ठ "पढ़ो -लखनऊ से प्रकाशित है ये किताब दो खंडों में -विनायक दामोदर सावरकर की। 
    मसाला फिल्म बनाने के लिए इतना और ऐसा नाटक करने की कहाँ जरूरत है जिसमें देश का इतिहास कलंकित हो।कभी महाराजा -महारानियों को नृत्य करते देखा है इन सेकुलर पुत्रों ने। कटिप्रदेश को अनावृत करके रस्सा कूदते देखा है ?

    शीर्षक :मुखबरी से अफसरी तक का सफर    


    By banning Padmaavat, state governments are abnegating their primary function | By Karan Thapar

    Under our constitution, freedom of expression is paramount and the duty of the state is to defend this right whilst protecting the citizenry against threats to law and order. The truth is if they cannot fulfil what they are there to do they should, in fact, resign









    What these governments forgot is that because something causes offence is not a reason to ban it. After all, what is freedom of speech if it doesn’t include the right to offend?
    What these governments forgot is that because something causes offence is not a reason to ban it. After all, what is freedom of speech if it doesn’t include the right to offend?(AP)
    I wonder if the six state governments (all BJP ones) that decided to ban Padmaavat are feeling chastened after the Supreme Court struck down their decisions ? They had either announced or proposed a total ban. The Supreme Court deemed this unconstitutional and ordered them to show the film. The Court also warned any other state government from attempting a ban. This amounts to a stinging rebuff and a political embarrassment.
    The state governments argued that showing the film would lead to a disturbed law and order situation which they would be unable to control. Rather than risk tension and violence they opted to ban the film. This argument was not acceptable because it turns on its head the actual duty and raison d’etre of the state.
    Under our constitution, freedom of expression is paramount and the duty of the state is to defend this right whilst protecting the citizenry against threats to law and order. In pleading their inability to defend freedom of expression and protect the citizenry, the state governments were abnegating their primary function. The truth is that if they cannot fulfil what they are there to do they should, in fact, resign. In ordering the film be shown and protection provided, the Court may not have threatened dismissal but it certainly reminded the governments they were in breach of their constitutional duty.
    What these state governments forgot is that because something causes offence is not a reason to ban it. After all, what is freedom of speech if it doesn’t include the right to offend? Indeed, it’s the duty of governments to protect free speech against the villainy or violence of those who make a habit of taking offence. Governments are elected to uphold democratic values, not buckle under and give in.

    Sadly, it still doesn’t follow that Padmaavat will be screened without violence. The Karni Sena is bound to resort to this to intimidate both distributors and viewers. In fact, it’s likely that some or many distributors may themselves choose not to screen the film for fear of what might happen to their cinema halls. Many viewers could stay away as well.