मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मच्छर काम करेगा मलेरिया रोधी सिरिंज का

एंटी -बाय्तिक्स और मलेरिया -संक्रमित मच्छरों की ऐसी दुर्भि -संधि करवाई है जर्मन साइंसदानों ने जो एक किस्म की बिना सुईं की मलेरिया -रोधी वेक्सीन का काम अंजाम देगी .यानी यकीन मानिए मच्छर के काटने का मतलब होगा "सिरिंज".मच्छर ही खुद मलेरिया रोधी टीका बन जाएगा .हो सकता है इसी रणनीति से दुनिया भर में हर साल उन दस लाख लोगों को बचा लिया जाए जो मलेरिया संक्रमण के बेकाबू हो जाने से मौत के मुह में चले जातें हैं ।

यह रण -नीति उन इलाकों में बचावी चिकित्सा के रूप में कारगर हो सकती है जहां मलेरिया का प्रकोप है .संक्रमित होने के बाद यह खुद बा खुद मरीज़ को बचा लेगी .यहाँ संक्रमण ही एंटी बाय्तिक्स के साथ इलाज़ बन जाएगा ।

साइंस ट्रांस -लेशन मेडिसन में इस अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है .मेक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर इन्फेक्सन बायलोजी (बर्लिन )ने इस रिपोर्ट को एक न्यूज़ रिलीज़ के रूप में ज़ारी किया है ।

अध्ययन में साइंसदानों ने चूहों को मलेरिया -संक्रमित मच्छरों की मदद से

रेडिओ -आइसो -टॉप्सकी कमी का मतलब ....

एक तरफ न्यूक्लीयर मेडिसन की जान हैं रेडियों -धर्मी समस्थानिक दूसरी तरफ रोग -निदान को पुख्ता करने वाला एक भरोसे मंद ज़रिया .बित्ता भर (अल्पांश का भी अल्पांश ,ट्रेस अमाउंट ) काफी रहता है जो सुईं से मरीज़ को दिए जाने के बाद अस्थियों ,ऊतकों में ज़मा होकर वह सब कुछ कह देतें हैं जो डॉ जानता है ।
ओंटारियो कनाडा की एक एटमी भट्टी के यकायक बंद हो जाने से चिकित्साजगत में मायूसी छा सकती है .इलाज़ इस कमी बेशी के चलते पेचीला भी हो सकता है ,महंगा भी ।
रेडियों -आइसोटोप्स स्केन्स को रोशन करतें हैं ।
भारत भी इनका एक निर्यातक देश रहा है .अमरीकी एटम को लेकर जो खफा थे वह अपनी नादानी से वाकिफ नहीं रहें हैं .कुछ रेडियों -आइसा -टॉप्स हमें भी आयात करने पडतें हैं ।
सन्दर्भ -सामिग्री :आइसोटोप्स शोर्तेज़ टू हिट स्कैंस (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अगस्त ३१ ,२०१० ,न्यू -देल्ही ,पृष्ठ १७ .

दिल -ओ -दिमाग दोनों पर गहरी छाप छोडती है माँ ....

जस्ट ए ग्लिप्म्ज़ ऑफ़ योर मोम "लाइट्स अप" दी ब्रेन .इमेज़िज़ ऑफ़ ए पर्सन्स मदर 'लाईट अप "एरियाज़ की टू रिकग्नीशन एंड इमोशन ,व्हाइल फादर्स प्रोड्यूस ए लोवर रेस्पोंस .(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,न्यू -देल्ही ,अगस्त ३१ ,२०१० ,पृष्ठ १७ )।
दिल में हरेक के एक ख़ास जगह लिए रहती है ,माँ .इधर दो हालिया अध्ययनों ने खुलासा किया है ,दिमाग पर भी अमिट और विशिष्ठ छाप छोडती है ,माँ ।
एक कनाडाई अध्ययन में बतलाया गया है ,माँ की झलक मिलते ही व्यक्ति के दिमाग की कोशाओं को उत्तेजन मिलता है .जबकि अमरीकी अध्ययन के अनुसार माँ का स्वर (भले ही दूर ध्वनी से ही आप तक पहुंचा हो ),माँ का स्पर्श आलिंगन व्यक्ति की सारी चिड -चिडाहट सारा गुस्सा काफूर कर देता है .शांत ,आश्वश्त हो जातें है आप ।
कनाडाई अध्ययन में स्वयं सेवियों की दिमागी सक्रियता उन्हें क्रमशय माँ ,पिता,नाम चीन हस्तियों तथा अजनबियों की छवियाँ दिखलाते हुए दर्ज़ की गई ।
माँ की छवि दिमाग के उस हिस्से को रोशन कर देती है जिसका सम्बन्ध हमारे संवेदनों और किसी को पहचानने से है .जान पहचान से है .पिता के मामलेमें यह हिस्से उतने रोशन नहीं होतें हैं .तीसरा और चौथा स्थान इस आलोकित होने के घटते क्रम में नाम चीन हस्तियों और अजनबियों को प्राप्त होता है ।
इतना ही नहीं यह आलोडन उत्तेजन उन लोगों में भी बना रहता है जो बरसों से अपने माँ -बाप से अलग रह रहें हैं .ज़ाहिर है प्रभाव चिरकालिक होता है ।
अमरीकन अध्ययन माँ का चेहरा उसकी आवाज़ भर सुनने से व्यक्ति की आवेग की स्थिति और झून्झ्ल के हवा हो जाने के पीछे हारमोन ओक्सी -तोक्सिन का हाथ देखते हैं जिसका बन्नामाँ -बच्चे के परस्पर स्नेह बंधन से रहा आया है .

सोमवार, 30 अगस्त 2010

वही धूमकेतु जो डाय -नासौरस के विनाश की वजह बने सेब के विकास को नै दिशा दे गए ...

कोस्मिक कोलिज़न देट किल्ड डाय -नोज़ गेव बर्थ टू ?(दी टाइम्स ऑफ़ india ,अगस्त ३०, २०१०)।
डिकोडिंग ऑफ़ एपिल जीनोम सजेस्ट्स कोमेट स्ट्राइक ६५ मिलियन ईयर्स एगो फोर्स्ड प्लांट टू इवोल्व for survival.
saains daanon ke mutaabik ab se takreeban 6.5 karod baras pahle ek taraf pri -thvi se kisi dhoomketu ke aatakraane ki vajah se bhimkaay daay -nausaras kaa safaayaa ho gyaa thaa ,vahin doosri tarf ek shrub ne apne vikaash ki dishaa apne astitv ko banaaye rkhne ke liye badal li .aage jaa kar yahi jhaadi numaa paadap ek vriksh me tabdeel ho gyaa jise ham "Apple"yaa seb ke roop me jaanten hain .jabki svaad me,dekhne me , yah strawberry aur Raspberry padapon ke nazdeek thaa .
DNA tathaa jeens ki poori sanrchnaa aur kram kaa is saptaah khulaasaa huaa hai jis se ptaa chlaa ,ek aanuvanshik raddobadal ke tahat is paadap me ek ke sthaan par do do jivan- ikaaiyaaan panapne lgin aur chhotaa saa paudhaa apne sahodaron se chhitkar ek bhare poore vriksh me tabdeel hogyaa .jeens ke baahulay ne ise visham maahaul me banaaye rkhaa .is ke fal bhi aakaar me bade ho gye . takreeban is paadap ne apne harek jinom ko dupliket kar liyaa .
epil jinom me DNA ke 60 karod bes peyars kaa ptaa chlaa hai .inkaa pooraa kram khngaalaa gyaa hai .

दही का जीवाणु दिलवाएगा खटमलों (बेड बग्स )से निजात

योघर्टबेक्टीरिया टू बेड बग्स वोज (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,न्यू -देल्ही ,अगस्त ३०,२०१० ,पृष्ठ १३ )।
साइंसदानों ने बेड बग्स से निजात दिलवानेके लिए अब दही(योघर्ट )को आजमाया है .आप जानतें हैं दही 'मित्र जीवाणुओं 'से भरपूर है .बस इन्हें चारपाई (मैट्रेस ) जिस यार्न से बनी है उसमे शामिल करवाना पड़ेगा .इस एवज यार्न को एक ऐसे तरल में डूबोये रखना होगा जिसमे अरबों अरब यह मित्र (जीवाणु )कैप्स्युल्स हैं .जब आप मैट्रेस का स्तेमाल करतें हैं दाब से कुछ कैप्स्युल्स टूटकर मित्र जीवाणु को मुक्त कर देतें हैं ,जो बेड बग्स को चट कर जातें हैं.

आधी शीशी के पूरे दर्द से बावस्ता पहला आनुवंशिक सुराग ,जीन वेरिएंट मिला

फस्ट जीन लिंक तू मीग्रैन फाउंड (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,न्यू -देल्ही ,अगस्त ३०,२०१० ,पृष्ठ १३ )।
आनुवंशिक पड़ताल करताओं ने पहली मर्तबा आधी शीशी के पूरे दर्द का रिश्ता एक जीन वेरिएंट से ढूंढ निकाला है .इससे इस परेशान करने वाले सिरदर्द के इलाज़ में नै दवाएं अन्वेषित करने की उम्मीद बंध चली है ।
४० चिकित्सा केन्द्रों के माहिरों ने ५०,००० से भी ज्यादा लोगों के जेनेटिक प्रोफाइल्स का सावधानी पूर्वक तुलनात्मक अध्ययन विश्लेषण करने के बाद जिनमे मीग्रैन के क्रोनिक मरीज़ भी शामिल थे एक ऐसे जीन वेरिएंट का पता लगाया है जिसकी मौजूदगीरोग के खतरे को वन फिफ्त बढा देती है .यह एक डी एन ए वेरिएंट की ओर साफ़ इशारा है .

क्रोनिक हार्ट फेलियोर में भी देर तक असरकारी रहती है स्टेम सेल थिरेपी ....

"बोन मारो सेल्स कैन हेल्प इन हार्ट फेलियोर "(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अगस्त ३० ,२०१० ,पृष्ठ १३ ,न्यू -देल्ही एडिशन )।
जर्मन साइंसदानों के मुताबिक़ अब तक एकसबसे दीर्घकालिक अध्ययन के मुताबिक़ मरीज़ की खुद की मॉस -मज्जा से स्टेम सेल ले कर सुईं लगाने पर तीन माह के अन्दर ही ना सिर्फ़ क्रोनिक हार्ट फेलियोर के बाद दिल का काम काजफिर से सुचारू रूप चलने लगता है पांच साल तक यह कलम कोशा चिकित्सा अपना लाभदायक प्रभाव दिखाती है ।
सालों साल विविध रूप स्टेम सेल्स को माहिरों ने हार्ट फेलियोर के मामलों में आज- माया है लेकिन यह पहली मर्तबा पता चला है यह लाइलाज चले आये हार्ट फेलियोर के मामलों में भी प्रभाव कारी है .

रविवार, 29 अगस्त 2010

भावी (पीढ़ियों के लिए )डाक ?

व्हाट इज फ्यूचर मेल ?/ओपन स्पेस /दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अगस्त २९ ,२०१० ,पृष्ठ २६ )।
डर था पत्र लेखन की कला कहीं खो ना जाए .बड़े गुमान से ई -मेलियों ने परम्परा गत चिठ्ठी पत्री को नाक भौं सिकोड़ कर "स्नेल मेल "कहा था .
तो ज़नाब मेल ,ई -मेल के बाद अब दौर चलेगा "ऍफ़ -मेल "का यानी फ्यूचर मेल का .इसमें आप खुद को भी आइन्दा किसी ख़ास दिन, तिथि,त्यौहार पर डिलीवर होने के लिए चिठ्ठी पत्री लिख सकतें हैं ।
भेजने वाला जब चाहेगा ठीक उसी घडी पल छिन प्राप्त करता को उसका ख़त मिलेगा .(पैच बस एक ही है इस दरमियान यदि वह व्यक्ति वहां से कूच कर ले ,पता ठिकाना बदल ले ,तब क्या होगा इस भावी -डाक का ?)।

पत्रों के अलावा आप खुद को भी खबरदार रख सकतें हैं भविष्य के किसी ख़ास दिन डिलीवर होने वाले रिमाइन्दर्स(ई -मेल या चिठ्ठी के ज़रिये ) की सहायता से .भूलने की आपकी आदत का यह समाधान हो सकता है । दोनों के अपने अपने दायरे और आयाम है जहां ई -मेल तात्कालिक सूचना प्रवाह ,सूचना संवाद का बेहतरीन ज़रिया है वहीँ इस भावी डाक को आप टाइम कर सकतें हैं ।
दूसरे की भावनाओं से जुड़ने का यह बेहतरीन ज़रिया बन सकती है .चीन में यह "फ्यूचर मेल "दिनानुदिन लोक प्रिय हो रही है जिसके ज़रिये आप उपहार ,बोके आदि कुछ भी ख़ास दिनों पर डिलीवर करवा सकतें हैं .भूलने का कोई चांस नहीं .

क्या है ब्रह्मांडीय सूक्ष्म तरंग ?

व्हाट इज कोस्मिक माइक्रो -वेव ?
बतलादें आपको यह सृष्टि के निर्माण के बादका बचा खुचा अंश है जो उस विधाई क्षण के बाद से निरंतर फैलता विस्तार पाता रहा है ,जिसे महा -विष्फोट (बिग बैंग )कहा जाता है .इस पृष्ठ भूमि विकिरण का तापमान कम होते होते तकरीबन तीन केल्विन (वास्तव में २.७ ) ही रह गया है .
आइये विस्तार से देखतें हैं "कोस्मिक माइक्रो -वेव्स" क्या हैं ?
सृष्टि के बाद के पल में सब कुछ बेहद सघन (डेंस )था .उत्तप्त था .इसलिए वाईट हीट बिखरी हुई थी .उस समय जो भी जैसा भी एट्मोस -फीयर था वह वाईट हॉट ग्लो (बेहद की आभा )से प्रदीप्त था ।
युग युगान्तरों में जैसे जैसे सृष्टिफैलती गई , ठंडीभी होती गई.आदिनांक यह सिलसिला ज़ारी है .लेकिन अब तापमान इस विकिरण का परम शून्य से कुछ केल्विन ही ऊपर है .अलबता ठंडक ज़ारी है ।
सृष्टि के सूदूरआदिम छोर से जब प्रकाश (दृश्य प्रकाश )पृथ्वी पर पहुंचा सृष्टि आलोकित हुई .वह आभा दिखलाई दी ।
अलबत्ता क्योंकि सृष्टि का विस्तार ज़ारी है और इसीलिए दृश्य तरंग (तरंगों की आवृत्ति यानी फ्रीक्युवेंसी )माइक्रो -वेव फ्रीक्युवेंसी में तब्दील हो रही है ।
ऐसा परस्पर प्रेक्षक और सृष्टि के विस्तार शील प्रेक्षित भाग में सापेक्षिक गति की वजह से हो रहा है .जो सितारे ,नीहारिकाएं किसी प्रेक्षक से जितना ज्यादा वेग से पलायन कर रहीं हैं उनके स्पेक्ट्रम की रेखाएं लाल रंग की ओर खिसकती जा रहीं हैं .इसके आगे की सीमा माइक्रो वेव है .यानी लाल तरंग से परे सूक्ष्म तरंग हैं .यह वही तरंगें हैं जो सृष्टि के जन्म के फ़ौरन बाद अस्तित्व में आगें थीं .बिग बैंग का अवशेष हैं यह सूक्ष्म तरंगें .

सोप बबिल्स के अन्वेषक कौन थे ?

हू इन्वें -टिड सोप बबिल्स ?/ओपन स्पेस /दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अगस्त २९ ,२०१० ,पृष्ठ २६
पहले जाने बाबिल है क्या ?
ए थिन फिल्म ऑफ़ समथिंग युज्युअली स्फेरिकल और डोम शेप्ड एंड फिल्ड विद एयर ऑर गैस इज काल्ड ए बबिल।
सोप बबिल सबने देखें हैं .मेले ठेलों में सोप सोल्यूशन से बनाए भी हैं .वैसे साबुन के बुलबुलों का इतिहास साबुन की तरह ही पुराना है लेकिन बबिल सिर्फ साबुन पानी तक सीमित नहीं हैं ।
ताइवान का रहने वाला था वह व्यक्ति जिसे बबिल सोल्यूशन तैयार करने में महारथ हासिल थी .नाम था जैकी लिन. उसके जादुई घोल (विलियन )टॉप सीक्रेट सोल्यूशन का आवश्यक घटक था एक पोलिमर ।
यही बहुलक (पोलिमर )एक बार फूल जाने के बाद बबिल को ना सिर्फ वाष्पीकृत होने से रोकता है (३-४) सेकिंड्स में ही सख्त भी बना देता है ,इतना की सूखे हाथ से छूने पर वह फटता नहीं है ,गुम्बद आकार बनाए रहता है ।
यदि आसपास के माहौल में किसी भी प्रकार का विक्षोभ (डिस्टर्बेंस )ना रहे तो यह बबिल दस दिन तक भी बना रह सकता है ।
यूं भारतीय सन्दर्भ में बुदबुदे का दार्शनिक महत्व रहा है .जीवन की क्षण भंगुरता की और इशारा करता है बुलबुला (बबिल )।
पानी ,केरा बुदबुदा ,अस मानस की जात ,
देखत ही बुझ जाएगा ,ज्यों ,तारा ,परभात .

शनिवार, 28 अगस्त 2010

माँ ही बन गई जीवन रक्षक कवच .

मोम्स कडल ब्रिंग्स न्यू बोर्न बेक टू लाइफ (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २८ ,२०१० ,पृष्ठ २१ ).
माँ का वह स्नेहिल स्पर्श ,वह आलिंगन ही उस समय पूर्व जन्मे बच्चे के लिए जीवन रक्षक कवच ,एक इन -क्युबेटर(ऊष्मा -यित्र) साबित हुआ .सिडनी के एक अस्पताल में कटे ओग्ग ने जुड़वाओं को जन्म दिया था .एक था लडका एक थी लडकी .पेट- अर्नल ट्वीन्स थे ये प्रीमीज़ जो गर्भावाश्था की पूर्ण अवधि से १३ सप्ताह पहले ही पैदा हो गये थे .लडके को मृत घोषित कर दिया गया था .माँ ने उसे अपने निरावृत्त वक्ष का स्पर्श दिया .स्नेह की आंच दी .बुने हुए स्वप्नों की कहानी सुनाई उस नन्नी जान को .सपने जो उसी से ताल्लुक रखते थे जिसका जन्म पूर्व एक नाम भी रख दिया गया था ."जिमी "।
कुछ पल बीते इस कथा वाचन में .कुछ और पल भी बीते और फिर यकायक जिमी ने जैसे सांस के लिए संघर्ष किया हो .डॉक्टर्स ने कहा-रिफ्लेक्स एक्शन है .कुछ और वक्फा भावजगत में डूबती उतराती माँ का जिमी के संग बीता .यह क्या जिमी में जुम्बिश हुई .सांस की धौकनी तेज़ तेज़ चलने से पहले जिमी चौंका .माँ को यकीं ना हुआ ,जिमी ने उसकी ऊंगली पकड़ ली थी .चक्षु खोल दिए थे .और फिर वह माँ के चूचकों को चूस रहा था .माँ ने सायास स्तन पान करवाया था .जिमी जैसे आदेश मान रहा था ।
चमत्कार होतें हैं .चिकित्सा जगत में भी कभी कभार होतें हैं .लेकिन यह तो चमत्कारों के ऊपर का चमत्कार था ।
माँ का जिस्म ,स्पर्श की आंच ,चार्मिक आलिंगन ,जीवन के लिए ज़रूरी स्पर्श की आंच एक जीवन्त इन्क्युबेटर बन चुका था ."केंग्रू केयर" का यह एक और सोपान था .अप्रतिम उदाहरण था .हो सकता है स्किन -टू -स्किन चरम से चरम का स्पर्श ,स्पर्श माँ की ममता मई आंच का एक सजीव इन्क्युबेटर हो ,कृत्रिम -इन्क्युबेटर से अव्वल .आपने देखा नहीं क्या काबिले की औरतें प्रसव के फ़ौरन बाद बच्चे को केंग्रू -नुमा पाउच में बाँध कर आगे बढ़ जाती हैं ,जैसे प्रसव एक सहज सुलभ घटना हो .जीवन का दस्तूर हो .

आदिम नर -भक्षी अतिरिक्त स्वाद और पोषण के लिए मानव मांस का भक्षण करते थे

मिटी मील :फस्ट केनिबल्स एट ईच अदर फॉर एक्स्ट्रा न्यूट्रीशन .इन दी ओल्डेस्ट नोन केस ऑफ़ केनिबलिज्म ,अदर फ़ूड वाज़ अवेलेबिल टू दी डाइनर्स बट ह्यूमेन फ्लेश वाज़ जस्ट पार्ट ऑफ़ देयर मीट मिक्स .(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अगस्त २८ ,२०१० ,पृष्ठ ).
एक नवीन अध्ययन से पता चला है के दुनिया भर में से ज्ञात पहले नर -भक्षी (मानव -भक्षी ,केनिबल्स )परस्पर एक दूसरे को अपनी पोषण सम्बन्धी संतुष्टि के लिए स्वाद वर्धक के रूप में खा जाते थे .मानव गोश्तमीट मिक्स का एक ज़रूरी हिसा था ।
ज़ाहिर है यह किसी रीति या चलन का,अनुष्ठान या कर्म काण्ड का अंग नहीं था .भूखों मरना भीमानव मांस खाने की वजह नहीं था .अन्य खाद्य इस आदिम नर भक्षी को मयस्सर थे .मानव मांस एक मीट मिक्स का हिस्सा भर था ।रोविरा और विर्गिली विश्विद्यालय के माहिरों ने उस दौर के खाद्य अवशेषों ,पाषाण से बने औजारों (लिथिक टूल्स )तथा इन "होमो -एंटी -सेसर्स से जुडी अन्य चीज़ों का विश्लेषण किया है .यह सभी सम्बद्ध चीज़ें एक गुफा के गिर्द मिलीं हैं .इस गुफा का नाम है "ग्रान डोलिना जो "स्पेन के "बुर्गोस" के निकट "'सिएर्रा दे अतपुएर्क " में मौजूद हैं ।
उस दौर के बूचड़ खाने की अपनी रवायत रही लगती है .मकसद रहा है मांस मज्जा प्राप्त करने का आदिम इरादा ,ख्वाहिश .पुष्टिकर तत्वों को अधिक से अधिक प्राप्त करना .भोज के बाद बचे खुचे मानव एवं मानवेतर अवशेषों को पाषाण से बने औजारों से काट पीटकर दबा दिया जाता था ,मलबे के रूप में ।
अन्य लघुतर पशुओं का संशाधन और स्तेमाल बी इसी बिध किया जाता था .स्वाद और पाक कला का,पोषण का हिस्सा था, मानव मांस -भक्षण .मीट मिक्स .अध्ययन से यही ध्वनी निकलती है .

खाद्य समस्या के हल की और एक कदम -व्हीट जीनोम का खुलासा

व्हीट जीनोम ,कैन हेल्प बीट फ़ूड क्राइसिस (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २८ ,२०१० ,पृष्ठ ,२१ ).
ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के साइंसदानों ने गेंहूं की पूरी आनुवंशिक कूट भाषा बूझ लेने ,जीनोम का पूरा खाका तैयार कर लेने का दावा किया है .समझा जाता है इस अन्वेषण से एक ओर खाद्य पदार्थों की बढती कीमत पर लगाम लगेगी दूसरी तरफ प्रति -एकड़ अधिक उपज और रोग ,आघात और जलवायु -परिवर्तन आदि से संभलने में समर्थ गेहूं की अभिनव किस्में तैयार करने का रास्ता साफ़ हो जाएगा .
आये दिन जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रोजेक्शन्स आतें हैं यदि भूमंडलीय तापमान इतना बढ़ गया तो गेहूं की उपज इतनी कम हो जायेगी और उतना बढ़ गया तो फलां फसल चौपट हो जायेगी ।
भूमंडलीय स्तर पर ५५ करोड़ टन से भी ज्यादा गेंहू पैदा होता है .आनुवंशिक तौर पर गेंहू की नै किस्म तैयार करने वाले माहिरों के हाथ में अब ९५ फीसद सभी जीवन इकाइयां गेंहू की उपलब्ध हो जायेंगी ।
जलवायु परिवर्तन का ख़तरा लगातार गेंहू उत्पादन को मुह चिढा रहा है ,दूसरी तरफ बढती आबादी भूख और बर्बादी की ओर कितनो को ले जा रही है इसका कोई निश्चय नहीं ।
रूसी सूखे के बाद अगस्त माह लगते ही गेहूं के दाम गत दो सालों में शिखर को छू रहें हैं .कई और मुल्क गेंहू उत्पादन की समस्याओं से जूझ रहें हैं ।
अब तक यही समझा जाता था गेंहू के जीनोम (एक कोशिका में मौजूद तमाम जीवन इकाइयों ,गुण सूत्रों पर उनके सटीक स्थान को बूझना )नामुमकिन है .आखिर इसमें १७ अरब बेस -पेयर्स हैं उन रसायनों के जो आनुवंशिक पदार्थ डी एन ए का निर्माण करतें हैं .यह मानवीय जीनोम से पांच गुना ज्यादाबड़ा है .इस कूट भाषा को अक्षर दर अक्षर पढना कोई आसान काम ना था .बेशक अभी और काम बाकी है .ताकि जीनोम की फिनिश्ड कोपी तैयार हो सके .गुण सूत्र दर गुण सूत्रकौन सा जीवन खंड कहाँ है इसका सही इल्म हो सके .

उपवास का खाना

उपवास बेशक तन और मन की शुद्धि का ज़रिया है इसलिए साल में दो बार नव रात्र और रोजों का चलन रहा आया है .बेशक विषाक्त पदार्थों को शरीर से निकाल बाहर करतें हैं व्रत और उपवास लेकिन उपवास के दौर में आप खाते क्यां हैं एहम सवाल यह है ।कितना देर भूखों रहतें हैं ?
आपके बॉडी वेट और उससे भी ज्यादा आपके मसल वेट के अनुरूप प्रोटीन की आपूर्ति ज़रूरी है .यदि आपकी दैनिकी में कसरत या सैर नहीं तब आपको अपने प्रतिएक किलोग्रेम वजन के लिए ०.८ ग्रेम प्रोटीन तथा यदि आप नियमित जोगर हैं ,जिम जातें हैं ,ज़रूरी व्यायाम आपकी दिन चर्या में शामिल है ,तब आपको प्रति किलोग्रेम भार बॉडी वेट के हिसाब से १-३ ग्रेम तक प्रोटीन की ज़रुरत बनी रहती है फिर चाहें व्रत हो या उपवास .और प्रोटीन में भी आप मीट(मांस )की जगह पनीर जो सपरेटा दूध से तैयार किया गया हो तथा सोया ,टोफू (कम चिकनाई युक्त )तथा दूसरे प्रोटीन सम्पूरकों को स्थान दीजिये ।
क्या है आदर्श खुराक व्रत उपवासियों के लिए ?
उपवास का भोजन :
(१)नाश्ता :फलों के साथ दही का योग एक तरफ आवश्यक अमीनो -अम्लों तथा दूसरी तरफ कार्बो -हाइड्रेट्स की ज़रूरीयात को पूरी करवा देता है .फलों में भी सेब (एपिल ),पपीता ,स्वीट लाइम बेहतर हैं क्योंकि इनका ग्लाईकेमिक इंडेक्स कम होता है .इनके सेवन के बाद खून में शक्कर का स्तर एक दम से नहीं बढ़ता है ,अपेक्षा कृत धीरे धीरे और कम बना रहता है .इसलिए ब्लड सुगर लेविल में उछाल से आप बचे रहतें हैं .हाई -ग्लाईकेमिक इंडेक्स वाले फल पहले ब्लड सुगर लेविल को यकदम से बढा देतें हैं और फिर खून में शक्कर का स्तर एकदम से (अपेक्षाकृत जल्दी गिरने लगता है ).गिरकर हाइपो -ग्लाकेमिया की वजह भी बन सकता है ।
उपवास का मतलब आकस्मिक बदलाव नहीं होना चाहिए खुराख में ।
सुबह शाम के भोजन में ज्यादा अंतर रहने से कई लोग अम्ल शूल (एसिडिटी )की शिकायत कर सकतें हैं .उपवास के दिन एसिडिटी होने पर एंटा- सिड(अम्ल को उदासीन बनाने वाले नुश्खें )अपने पारिवारिक डॉ के परामर्श पर ही लें ,मन मर्जी से नहीं ।
उपवास में दोपहर का भोजन :साबूदाना खिचड़ी बा शर्ते इसमें घी तेल बहुत ज्यादा ना हो ,मैश्ड पुटेतोज़(उबले -मसले हुए मुलायम आलू ,आलू की पिठ्ठी ,के साथ लेना स्वास्थ्यकर रहेगा ।
दो मेजर मील्स के बीच भूख लगने पर : फल लें , ड्राई फ्रूट्स (मेवे )खजूर (डेट्स )या फिर कोई ज्यूस ले सकतें हैं ।
उपवास में रात का भोजन :इसमें भरपूर सलाद होनी चाहिए (ब्रोक्क्ली ,गाज़र ,लेत्तुस ,केबेज आदि ),एक चपाती ,पनीर या फिर सोया या दाल .दही के साथ थोड़ा अंकुरित ले सकतें हैं ।
रा फूड्स से बचिए इस दौर में .खूब पानी पीजिये .अम्ल शूल से बचाव रहेगा ।
कसरत बस उतना भर कीजिये जो आपके मसल मॉस को बनाए रहे .हाड तोड़ बर्न आउट से बचें क्योंकि इस दरमियान आपका दम ख़म (एनर्जी लेविल उतना अकसर नहीं रहता है )।मसल मॉस ना घटाएं .
तेज़ दौड़ने वाले उतना तेज़ ना दौड़ें .मसल मॉस को जलाना नहीं है ऊर्जा उड़ा कर ।
सन्दर्भ -सामिग्री :फास्टिंग ,फीसटिंग(हेयर इस आल यु नीड टू नो अबाउट दी डूज़ एंड डोंट्स ऑफ़ फिटनेस एंड डाईट ड्यूरिंग दी फास्टिंग पीरियड )/मुंबई मिरर ,अगस्त २७ ,२०१० ,पृष्ठ २८

कैंसर और मधुमेह के खिलाफ असरकारी है "दालचीनी "

सिन्नामों कैन बीट कैंसर ,डायबिटीज़ :(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २८ ,२०१० ,पृष्ठ २१ )।
अमरीकी कृषि विभाग ,मेरिलेंड की ताज़ा रिसर्च के नतीजों में दालचीनी (सिन्नामों )को कैंसर के खिलाफ असरकारी पया गया है .दालचीनी के पादप की छाल का जल में घुलन -शील सार(सत या एक्स्ट्रेक्त )साइंसदानों ने बढती विकस्तीं कैंसर कोशाओं पर (ग्रोइंग कैंसर सेल्स )पर आजमाया ।
पता चला इस सत में कुछ ऐसे रासायनिक यौगिकों का डेरा है जो शरीर की चयअपचयन (मेटाबोलिज्म )पर इंसुलिन हारमोन की तरह ही असर करतें हैं .यानी इसमें इंसुलिन -मिमेटिक-कंपाउंड्स मौजूद हैं .जीवन शैली रोग सेकेंडरी डायबिटीज़ को काबू में रखने में यह कारगर है क्योंकि यह ब्लड सुगर का विनियमन करने के गुणों की खान है .
जल में घुलन- शील इन यौगिकों को "प्रो -साय-नि -डींस"(टाईपए ) कहा जाता है .

कैंसर और हृद रोगों की काट के लिए ब्लेक राईस

ब्लेक राईस न्यू सुपर फ़ूड टू फाईट कैंसर ,हार्ट दिजीज़िज़ (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २८ ,२०१० ,पृष्ठ २१ )।
खाने की सजावट (फ़ूड ड्रेसिंग )में एशिया के लोग अकसर ब्लेक राईस का स्तेमाल करतें हैं .खाने के सौन्दर्य बोध को बढाने के लिए नूडुल्स ,मीठे (मधुर चीज़ों ),सूशी, आदि में ब्लेक राईस से डिकोरेशन का चलन है .
सूशी :एक जापानी डिश है .कोल्ड कुक्ड राईस के केक्स को सिरके(विनेगर ) से संसिक्त कर इसे जायकेदार बनाया जाता है .अब इसे रा फिश के साथ सर्व किया जाता है .ड्रेसिंग के रूप ब्लेक राईस का स्तेमाल किया जाता है ।
साइंसदानों के मुताबिक़ ब्लेक राईस कैंसर और हृद रोगों की काट में असरकारी पाया गया है .लूशियाना स्टेट यूनिवर्सिटी के माहिरों के मुताबिक़ ब्लेक राईस जिसे चीन में एक आदरणीय स्थान प्राप्त रहा है .पूजा अर्चना की सामिग्री बनता रहा है ,ब्लेक राईस ।
पता चला है यह लो सुगर फ़ूड है (ग्लाईकेमिक इंडेक्स इसका कम है ),स्वास्थाय्कर खाद्य रेशों से भरपूर है .अलावा इसके इसमें ऐसे पादप यौगिक (रसायन समूह )मौजूद हैं जो हृद रोगों और कैंसर का डटके मुकाबला कर सकतें हैं ।
इसमें पाया जाता है एक असरकारी एंटी -ओक्सिडेंट "अन्थोसायनिन"एक चम्मच ब्लू बेरीज से ज्यादा रहता है यह एंटी -ओक्सिडेंट एक चम्मच ब्लेक राईस में ।साथ ही इसमें सुगर कमतर ,भरपूर रेशों के अलावा विटामिन -ई एंटी -ओक्सिडेंटस भी प्रचुरता में हैं ।
दक्षिणी अमरीका में उगाये जाने वाले ब्लेक राईस के शल्क (ब्रान,भूसी )का विश्लेसन करने के बाद हीसाइंसदानों ने यह निष्कर्ष निकालें हैं .पता चला इसमें जल में घुलनशील अन्थो -सायनिन का स्तर बढा हुआ रहता है ।
गौर तलब है कई गहरे रंग के फल और तरकारी अपनी आकर्षक चटख रंगत इसी अन्थो -साइनिंन की वजह से बनाए रहतें हैं .ब्ल्यू -बेरीज की रंगत इसी की देन है .इसी की वजह से ब्लेक राईस काला होता है ।
साइंसदानों के मुताबिक़ गहरे रंग के पादपों के अणु (एंटी -ओक्सिडेंटस ) शरीर से हानि कारक फ्री रेडिकल्स को बाहर खदेड़ देतें हैं .धमनियों की हिफाज़त करतें हैं तथा डी एन ए डेमेज को मुल्तवी रख कर कैंसर से बचाव करतें हैं .बरसों पहले ब्लेक राईस को फोरबी -डीन राईस कहा जाता था .कुलीन वर्ग के लोगों को ही यह मयस्सर था .चीन में आम लोगों के लिए यह वर्जित खाद्य था .

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

मानवीय चमड़ी से रची गईं "यकृत कोशायें "यानी लीवर सेल्स

लीवर सेल्स क्रिए -टिड फ्रॉम ह्यूमेन सेल्स (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २७ ,२०१० ,पृष्ठ २३ ).
माहिरों ने पहली मर्तबा मानवीय चमड़ी से ली गई कोशाओं की रिप्रोग्रेमिंग करके यकृत कोशायें तैयार कर लीं हैं .इस हासिल ने लीवर चिकित्सा के लिए संभावना के नए क्षितिज खोल दिए हैं .
जर्नल ऑफ़ क्लिनिकल इन्वेस्टिगेशन में केम्ब्रिज विश्व -विद्यालय के साइंसदानों ने अपने इस अध्ययन के नतीजे प्रकाशित कियें हैं ।
यह प्रोद्योगिकी ह्यूमेन एम्ब्रियोज़ से (बामुश्किल ५-१५ दिन की उम्र केयानी फ्यू -डेज़ ओल्ड स्टेम सेल्स )कलम कोशायें जुटाने की अपरिहार्य -ता से निजात दिलवा सकती है जिसे लेकर अमरीका में राजनितिक और नीतिगत फसाद है ,वितंडा है और जिसने स्टेम सेल रिसर्च का भी चक्का जाम किया हुआ है .प्रो -लाइफर्स और एबोर्शनिस्ट लोबी एक दूसरे से इस मुद्दे पर बे -तरह टकरातीं रहीं हैं ।
केम्ब्रिज लेबोरेटरी फॉर रिजेंरेतिव रिसर्च के तामीर रशीद के अनुसार हमारे द्वारा तैयार की गई ऋ -प्रोग्रेम्द कोशायें कलम कोशाओं से उन्नीस नहीं हैं .हर मायने में उनका ज़वाब हैं .समझियेएक तरह की एम्ब्रियोनिक स्टेम सेल्स से ही यह लीवर सेल्स प्राप्त की गईं हैं ।
एम्ब्रियोनिक सेल्स को जादुई समझा जाता है .इन्हें कोई भी सोफ्ट वेयर देकर शरीर का कोई भी अंग कोशा या ऊतक ,पेशी आदि तैयार की जा सकतीं हैं .क्योंकि ये अन -दिफ्रेंशियेतिद सेल्स होतीं हैं ।
रशीद और उनकी टीम ने सात मरीजों से उनके स्किन सेम्पिल्स जुटाए .ये विरासत में मिली यकृत बीमारियों से ग्रस्त थे .तुलना के लिए तीन स्वस्थ व्यक्तियों के भी स्किन सेम्पिल्स लिए गये ।
इन्हें , री - प्रोग्रेम किया गया (एक सोफ्ट वेयर दिया गया )और एक तरह की स्टेम सेल्स में ही तब्दील कर दिया गया ,जिन्हें "इन्द्युस्द प्ल्युरी -पोटेंट स्टेम सेल्स" कहा जाता है .अब इन्हें एक बार फिर री -प्रोग्रेम्ड करके ऐसी लीवर सेल्स तैयार की गईं जो तमाम तरह कीउन यकृत बीमारिओं को मिमिक करतीं थीं जिनसे सातों मरीज़ ग्रस्त थे .कम्पेरिजन ग्रुप के स्किन सेम्पिल्स से इसी विध स्वस्थ यकृत कोशायें तैयार की गईं . बस इसी के साथ यकृत बीमारियों के इलाज़ और बेहतर प्रबंधन का एक बेहतरीन ज़रिया लगता है माहिरों के हाथ आ गया है .

कृत्रिम कार्निया से बीनाई (विज़न )लौटा

आर्टिफिशियल कोर्नियाज़ रेस्टोर साईट (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २७ ,२०१० ,पृष्ठ २३ )।
साइंसदानों ने बीनाई (विज़न )की पुनर -प्राप्ति करवाने के लिए एक बायो -सिंथेटिक कोर्निया (जैव -कृत्रिम -स्वच्छ मंडल )का प्रदर्शन किया है .इतना ही नहीं इनका प्रत्यारोप मरीजों को कामयाबी पूर्वक लगाया भी गया है .इसके साथ ही आंशिक तौर पर अपनी बीनाई (वज़न ,नजर ,)गँवा चुके लोगों के जीवन में उजास की उम्मीद बंध चली है .इस एवज पहले तो प्रयोग शाला में मानवीय ऊतक उगाया गया फिर इसे कोंटेक्ट लेंस मोल्ड का स्तेमाल करते हुए वांच्छित आकृति में ढाला गया ।
अब आँख के अग्रांग से क्षतिग्रस्त तथा विक्षत ऊतक (स्कार्ड टिश्यु )को अलग करके उसका जैव -सिंथेटिक स्थानापन्न (रिप्लेसमेंट )यथा स्थान टांक दिया गया ।
आखिरकार कृत्रिम स्वच्छ मंडल के ऊपर अस्तित्वमान स्वस्थ कोशायें तथा ऊतकअसरग्रस्त आँख में उग आये और बीनाई लौट आई ।
कोर्निया ही आँख का बाहरी पारदर्शी रक्षक आवरण होता है .भूमंडलीय स्तर पर तकरीबन एक करोड़ लोग ऐसी बीमारियों से ग्रस्त रहतें हैं जो बीनाई ले उड़तें हैं .कानियल इन्जरीज़ के माम- ले अलग से होतें हैं ।
संदर्भित जैव -कृत्रिम स्वच्छ मंडल केआरंभिक शल्य परीक्षण कामयाब रहें हैं .लाइव टिश्यु इम्प्लांट की तरह ही यह कारगर रहें हैं .कुछ मामलों में मरीज़ की बीनाई पूरी तरह लौट आई है ।
लिंकोपिंग यूनिवर्सिटी स्वीडन के मय ग्रिफ्फिथ्स ने अध्ययन का नेत्रित्व किया है .संतोष की बात यह रही इस कृत्रिम स्वच्छ मंडल ने मानवीय नेत्र के साथ समेकित होकर कोशा और ऊतक पुनर -उत्पादन को भी प्रेरित किया .कितने ही लोग आदिनांक डोनर की तलाश में है .कोर्निया हैं कहाँ ?और फिर रोग -प्रति -रोधी तंत्र द्वारा उसे स्वीकृति भी दिलवानी पडती है .बहिष्करण प्रतिक्रया को मुल्तवी रखने के लिए इम्यून -सप्रेसर्स दवाओं का स्तेमाल करना पड़ता है .जिनके ह्यूमेन डोनर टिश्यु से तालमेल बिठाने के लिए अवांच्छित प्रभाव भी झेलने पडतें हैं .बायो -सिंथेटिक कोर्निया पर सब की निगाहें टिक गईं हैं .

वार्मिंग बन गई थी मांश भक्षी जीवों के विकास क्रम में लघुतर रह जाने की वजह

वार्मिंग श्रेंक कार्नी -वोर्स ५५ मिलियन ईयर्स एगो (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २७ ,२०१० ,पृष्ठ २३ ).
अब से कोई साढ़े पांच करोड़ बरस पहले भी पृथ्वी पर विश्व -व्यापी तापन का दौर आया था फलस्वरूप मांस भक्षी स्तनपाई जीवों की कई प्रजातियाँ जिनका अब पृथ्वी से सफाया हो चुका है विकाश क्रम में सिमट कर आकार में भी छोटी रह गईं थीं .फ्लोरिडा विश्व विद्यालय के एक अध्ययन से यह बात उजागर हुई है ।
अध्ययन विश्व -व्यापी तापन की इस अवधि (पीरियड ऑफ़ ग्लोबल वार्मिंग )में उन नै प्रजातियों के विकाश को रेखांकित करता है जिनका कद सिमट कर पूर्व की कद काठी के बरक्स आधा ही रह गया था ।
मसलन इसी दौर में अफ्रिका और एशिया में पाया जाने वाला कुत्ते जैसा एक जंगली जानवर जो लाशों का मांश खाता था (लक्कड़ -बघ्घा सरीखाऔर मनुष्यों की हंसी की नक़ल उतार लेता था ,वैसी ही आवाजें निकाल कर )"पलेओनिक्तिस विंगी" रीछ के अपनेपूर्व आकार से घटकर उत्तरी अमरीका के घास के मैदानों में पाए जाने वाले एक भेड़ियाजैसा रह गया .इसे कोयोते कहा गया था .बेशक ऐसा होने में २०० ,००० बरस लगे .लेकिन उस दौर में भी पृथ्वी का औसत तापमान तकरीबन १५ फारनहाईट बढ़ गया था ।
इसके बाद जब तापन समाप्त हुआ ,विश्व -व्यापी ठंडक (कूलिंग )का दौर आया ,पशुओंका डील डौलविकाश क्रम में एक बार फिर बढ़ गया .

एंटी -यूनिवर्स की टोह लेने के लिए

स्पेस बेस्ड डिटेक्टर कुड फाइंड एंटी -यूनिवर्स (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २७ ,२०१० ,पृष्ठ २३ )।
आने वाले साल २०११ में एक अति -विशाल कण -टोही(पार्टिकिल डिटेक्टर )अंतर -राष्ट्रीय अन्तरिक्ष स्टेशन से सम्बद्ध किया जाएगा .मकसद होगा बहु -चर्चित प्रति -सृष्टि (एंटी -यूनिवर्स की टोह लेना )का अन्वेषण जो विज्ञान कथाओं का भी लोक प्रिय विषय रहा है ।
आप जानतें हैं कण टोहक अन्तरिक्ष से आने वाले संभावित कणों ,संकेतों को अप्रतय्क्ष तौर पर दर्ज़ करतें हैं .वास्तव में इन कणों की उँगलियों के निशाँ दर्ज़ हो जातें हैं चाहें कितने भी अल्प जीवी हों यह कण ।पदार्थ की बुनियादी कणिकाओं की टोह यही कण टोही लेते देते हैं .
इस टोहक का वजन ८.५ टन है .इसे अल्फा मेग्नेटिक स्पेक्ट्रो -मीटर कहा जा रहा है .यह टोहक एक बीस साला रिसर्च प्रोग्रेम का महत्व -पूर्ण अंग है .सृष्टि के अबूझ रहस्य को यह कुछ तो बूझेगायह .जिनेवा एयर पोर्ट पर जब इसे अमरीकी एयर फ़ोर्स के एक कार्गो प्लेन में चढ़ाया गया तब खासा उत्तेजना का माहौल था ।
सृष्टि विज्ञानी मानते समझते आये हैं अब से कोई १३.७ अरब बरस पहले जब "बिग बैंग "से सृष्टि बनी ,ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ तब पदार्थ के संग उतना ही प्रति -पदार्थ भी पैदा हो गया था .लेकिन हमारा गोचर ब्रह्माण्ड बहुलांश में पदार्थ की ही लीला है .प्रति -पदार्थ की टोह लेना ज़ारी है ।
सृष्टि में हर चीज़ का जोड़ा है .कण है तो प्रति कण भी है .इलेक्ट्रोन है तो एंटी -इलेक्ट्रोन (पोज़ित्रोंन )भी है .प्रोटोन के संगतएंटी -प्रोटोन है .अब यदि एक इलेक्ट्रोन एक प्रोटोन की परिक्रमा करता है ,एक हाइड्रोजन परमाणु अस्तित्व में आता है .यदि एक पोज़ित्रोंन एक एंटी -प्रोटोन के गिर्द परिक्रमा करने लगे तो एक एंटी -हाइड्रोजन परमाणु अस्तित्व में आ जाए गा .कुदरत का करिश्मा पदार्थ ,प्रति -पदार्थ एक दूसरे से सुरक्षित दूरी बनाए रहतें हैं .यदि एक हाइड्रोजन परमाणु एक एंटी -हाइड्रोजन के संपर्क में आजाये तो दोनों एक विस्फोट के साथ परस्पर एक दूसरे को विनष्ट कर देंगें .इसे कहा जाएगा "म्युच्युँली एश्योर्ड देस्त्रेक्शन ".

सृष्टि के जन्म के संग ही पैदा हो गये थे अति-विशाल ब्लेक -होल्स

मेगा ब्लेक होल्स वर बोर्न सून आफ्टर बिग बैंग (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २७ ,२०१० ,पृष्ठ २३ )।
साइंस दानों के मुताबिक सृष्टि के जन्म के साथ ही आदि-सुपर - मेसिव ब्लेक होल्स भी पैदा हो गए थे .दोनों का आदि -स्रोत भी वही बहु -श्रुत बिग बैंग था (जो अपने ना मालूम से कलेवर में सृष्टि का गोचर ,अगोचर ,पदार्थ ,ऊर्जा ,बल ,समय ,आकाश .सभी कुछ तो छिपाए हुए था .कृष्ण के विराट स्वरूप की तरह .साइंसदान इसे एक सिंग्युलारिती मानते समझते आये हैं .यानी एक परिकल्पनात्मक बिन्दुवत आकाश (पॉइंट )जिसमे समाहित गुरुत्वीय बल पदार्थ को बेहद संपीडित (कंप्रेस्ड )कर देता है ,आकाश और काल दोनों को एक दम से विकृत कर देता है ,इतना की दोनों का अस्तित्व ही चुक जाए ।).
लेकिन यदि सृष्टि विज्ञान के माहिरों का उक्त विचार (सुपर -मेसिव ब्लेक होल्स सृष्टि के जन्म के संग साथ ही पैदा हो गए थे )परवान चढ़ता है तब नीहारिकाओं के जन्म (बनने) के सिद्धांतों को भी नए सिरे से देखना समझना होगा .पुनर -विचार करना होगा प्रचलित धारणाओं पर ,जो नीहारिकाओं के उद्भव और विकाश से ताल्लुक रखतीं हैं ,उन सभी पर .
साधारण ब्लेक होल्स उन्हें कहा समझा जाता है जिनकेगुरुतर गुरुत्व की पकड़ से प्रकाश भी बाहर नहीं आ सकता है ,और जब कुछ लौट ही नहीं रहा है तो दृश्य जगत में आयेगा क्या ?लेकिन संदर्भित सुपर -मेसिव ब्लेक होल्स के बरक्स ऑर्डिनरीब्लेक होल्स को ड्वार्फ्स(सूक्ष्म या बौना ही कहा समझा जाता है )ही कहा जाता है ।
खगोल विज्ञानी अब कह रहें हैं ,हरेक नीहारिका के कोर में (क्रोड़ या आंतर -प्रदेश ,सेंटर में )एक ब्लेक होल मौजूद है ।
ताज़ारिसर्च पेपर स्टेंडर्ड थिओरी के सामने एक चुनौती प्रस्तुत करता है .इस मानक निदर्श (स्टेंडर्ड मोडिल )के मुताबिक़ नीहारिकाएं धीरे धीरे अपना विस्तार करतीं हैं .गुरुत्व बल आसपास से पदार्थ को खींचकर अपेक्षाकृत गुरुतर संरचनाएं ,गेलेक्तिक क्लस्टर रचता चला जाताहै अनथक ।
ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के माहिर अपने इस पर्चे में कहतें हैं ,ये सभी गुरुतर संरचनाये ,सुपर -मेसिव ब्लेक होल्स सृष्टि के जन्म के संग शीघ्र ही अस्तित्व में आगये थे (सृष्टि के इतिहासिक विकाश क्रम में ).

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

मुद्दा उनकी पगार का (तीसरी किश्त )

टेक ए हाइक.अवर एम्- पीज़ शुड हेव गिविन देम्सेल्व्स ए रेज़ ऑफ़ २०००%,नॉट २०० %(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अगस्त २५ ,२०१० ,सम्पादकीय पृष्ठ-२० ,व्यंग्य आलेख जुग सुरैया )।
बेहतरीन व्यंग्य आलेख है जो आज के सन्दर्भ में बड़ा मौजू है .जुग सुरैया का मूल स्वर यही है ,हमारे सांसद बड़े किफायत -शायर हैं ,सिर्फ २०० %अपनी पगार बढ़ाई ,२०००% नहीं ,चाहते तो ऐसा कर भी सकते थे .आखिर एक चीफ एग्ज़िक्युतिव ऑफिसर , जिसके मातहत १०० ,००० तक मुलाजिमकाम करतें हैं एक करोड़ मासिक तक का पैकेज पा जाता है .जबकि हमारा एक एक सांसद २० लाख लोगों की संभाल रखता है .अलावा इसके नौकरी से बर्खास्त किये जानेपर उसे(सी ई ओ ) बख्शीश के रूप में बहुत कुछ मयस्सर है .यहाँहमारे सांसदों के लिए चुनाव हार जाने के बाद" ठन ठन पाल मदन गोपाल ".अगेले चुनाव में टिकिट मिलने का कोई निश्चय भी नहीं .मिल भी जाए तो तिनका तिनका जोड़ो धन ।
इस दरमियान हमारी एक प्रवर वित्तीय अधिकार (अवकाश प्राप्त ),विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी मंत्रालय एवं ज्योतिष के माहिर श्री मुरारी लाल मुदगिल साहिब और एक जाने माने अर्थ -शास्त्री श्री प्रकाश सेसांसदों द्वारा खुद अपनी ही पगार बढा लिए जाने के मुद्दे पर बात- चीत हुई ।
दोनों का मूल स्वर यकसां था .प्रोफ़ेसर प्रकाश ने तो यह सवाल भी उठा दिया ,सेवा निवृत्त लोगों को जब पेंशन मिलती है तो नेताओं को क्यों नहीं .चुनाव लड़ने के लिए उन्हें कितने पापड बेलने पड़ते हैं और फिर उनकी जिम्मेवारी कितनी ज्यादा है ।
श्री मुदगल उमा भारतीजी के पी ए भी रह चुके हैं उनका साफ़ कहनाहै खर्चे इन सांसदों के आमदनी से कहीं ज्यादा होतें हैं .उमा भारती के पास तो पपीता तक खाने के लिए पैसे नहीं होते थे हम लोग जुटा -ते थे .यह विदूषी तो पर्स ही नहीं रखती थी .बहुत बड़ी होती है नेताओं की कन्स्तित्युवेंसी ,उससे भी ज्यादा होतें है इसके ऊपर खर्ची आप क्या जाने ?लोग जो एतराज जता रहें हैं इनकी बढ़ी हुई पगार पर मुगाल्तें में हैं .अलबत्ता इन्हें अपनी तुलना नौकरशाहों से नहीं करनी चाहिए हैं यह जन सेवक हीहैं .वैसा ही व्यवहार करना चाहिए .आज इनकी स्थति निश्चय ही कल से बहुत बेहतर है .

सात ग्रहों वाले एक और सौर मंडल का पता चला

खगोल विज्ञान के माहिरों ने हम से तकरीबन १२७ प्रकाश वर्ष की दूरी पर एक वृहदाकार सौर मंडल का पता लगाया है .इस भीमकाय सितारे के सात ग्रह हैं जिनमे से पांच की शिनाख्त हो चुकी है .एक अंतर राष्ट्रीय टीम के अनुसार अभी दो ग्रहों की शिनाख्त होना बाकी है .टोह ली जा चुकी है इनकी भी औपचारिक तौर पर पुष्टि होना अभी बाकी है .पता चला है हमारे सौर मंडल के बाहर यह अब तक का सबसे विशाल(प्लेनेटरी सिस्टम है ) ग्रह मंडल है .अपने इस पेरेंट स्टार से इन ग्रहों की दूरी में भी एक रेग्युलर पैट्रन (नियमित तरीका)है .एक नियमित क्रम है .यह हमारे सौर परिवार कीसूरज से दूरियों सा ही है ।
अब तक खगोल विज्ञानियों ने १५ऐसे तारा मंडलों का पता लगायाहै जिनके कमसे कम तीन ग्रह तोनिश्चित तौर पर हैं ही .इनमे से अब तक का रिकार्ड ५५ कंक्री के नाम दर्ज़ है जिसके कुल ५ ग्रह हैं .इनमे दो गैसीय वृहद् आकार के ग्रह भी शामिल हैं .
सन्दर्भ सामिग्री :जाइंट सोलर सिस्टम १२७ लाईट ईयर्स अवे (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २६ ,२०१० ,पृष्ठ २१ )

नारी शरीर का अंक गणित ही उसे खूबसूरती का दर्जा दिलवाता है .

फाइंड हर अट्रेक्तिव?इट्स आल इन दी फिगर्स (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २६ ,२०१० ,पृष्ठ २१ )।
रसलीन ने यूं ही नहीं कहा था ,पारखी दृष्टि थी उनकी .
कनक छवि सी कामिनी ,कटि काहे को क्षीण
कटि को कंचन काटि विधी ,कुचन मध्य धर दीन्ह ।
नारी शरीर का अंक गणित पुरुष के सिर चढ़ कर बोलता है .अब तक उन महिलाओं को बेहद खूबसूरत ठहराया गया है जिनका वेस्ट टू हिप रेशियो ०.७ पाया गया है .यानी कटि और नितम्ब के घेरों का अनुपात ०.७ पाया गया है ।
कैसे निकाले कटि -नितम्ब अनुपात :
अपने पेट को बिलकुल रिलेक्स्ड रखते हुए खड़ेसीधे होने के बाद ,इंच टैप से कटि प्रदेश (कमर )का घेर जहां सबसे कम आता है वहां से मापिये ।
अब नितम्ब के गिर्द घेर का माप वहां से लीजिये जहां से यह सबसे ज्यादा है .पहली और दूसरी संख्या का अनुपात ही कटि नितम्ब अनुपात कहलाता है ।
मानव शाश्त्र (न्रि-शास्त्री ,अन्थ्रो -पोलोजिस्त )के माहिरों ने पता लगाया है (वर्तमान और इतिहास के झरोखों से झाँक कर )आदमी की आँख औरत के शरीर में आखिर देखती क्या है ?उसके असेट्स (ब्रेस्ट साइज़ )?उसका व्यक्तित्व ?आई ट्रेकिंग का इशारा वेस्ट टू हिप रेशियोकी ओर है ।
सुंदरियों में शरीक महिलाओं को देखें तो क्या अदाकारा जेस्सिका अल्बा ,क्या मरिल्य्न मोंरोए,विक्तोरिआज़ सीक्रेट एंगेल अलेस्संद्र अम्ब्रोसियो ,सुपर मोडिल काटे मोस सभी का कटि नितम्ब अनुपात ०.७ रहा है .बाकी सब चीज़ों पर यही रसलीन की दृष्टि हावी रही है ।
शायद यही अंकगणित मानव मष्तिष्क को यह खबर करता है यह जो औरत है बेहद प्रजनन -क्षम है .इसकी संतानें भी खूबसूरत,स्वस्थ सिद्ध होंगीं .साइज़ दज नॉट मैटर हेयर .
और जहां तक औरतों की निगाह और पसंदगी का सवाल है उन्हें भी कमनीय ,सुकोमल ,थोड़ा स्त्रियोचित नर ही अच्छा लगता है .उन्हें ऐसा मर्द ज्यादा केयरिंग (निगहबान ),ज्यादा देखभाल करने वाला महसूस होता है .बेकार हैं सिक्स पैक एब्स .(खान तिकड़ी से माफ़ी सहित ).

खाऊपन के खमियाज़े भुगतने पडतें हैं

बिंज ईटिंग कैन आल्टर एबिलिटी टू स्टे स्लिम फॉर ईयर्स (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २६ ,२०१० ,पृष्ठ २१ )
बिना संयम रखे खाने पीने का छोटा सा भी दौर आपके शरीर में वसा के कुल फीसद भण्डार को दो सालों की अवधि से ज्यादा समय तक भी बढाए ,बनाए रख सकता है .आप लाख कोशिश करें एक बार कद काठी ,डील डौल में हुआ इजाफा देर तक आपका पिंड नहीं छोड़ेगा .एक नए अधययन का यही सन्देश है .अगली मर्तबा बिना संयम के खाने पीने में जुटने से पहले थोड़ा सोच समझ लें इस बात को ।
स्वीडन की लिंकोपिंग यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने अपने अध्ययन में बतलाया है अल्पावधि की,सिर्फ महीने भर की बिंज ईटिंग भी ठीक नहीं रहती है .एक बार बेडौल होजाने पर शरीर को दोबारा पूर्व- वतआकार ग्रहण करने में सालों जाया हो जातें हैं .छरहरा होने ,दोबारा से स्लिम होने के मंसूबे धरे के धरे रह जातें हैं . बॉडी साइज़ (कद काठी ,आकार ,डील डौल पर )इसका दूरगामी असर पड़ता है .शरीर का वसा भंडारण का मिजाज़ ही तबदील हो जाता है .भले ही शुरू में बढा हुआ वजन कम ही क्यों ना हो जाए .बे -डौल -पन बना रहता है ।
पेटूपन फैटमॉस में तबदीली लाता है -शरीर में वसा के प्रतिशत को बदल के रख देता है .दो साल से भी ज्यादा अवधि के लिए यह पर्सेंतेज़ बना रह सकता है .चर्बी एक बार चढ़ भर जाए ,उसे उतारना आसान काम नहीं रह जाता है .दी डैली टेली-ग्राफ ने इस अध्ययन की रिपोर्ट को विस्तार से प्रकाशित किया है ।
सार यही है ,अल्पावधि खाऊपन ,कसरत का अभाव मुकम्मिल तौर पर आपके शरीर के मिजाज़ को बदल के रख सकता है .आपका शरीर क्रिया विज्ञान पहले जैसा रह नहीं जाता है .अगली मर्तबा अपनी इस कमजोरी का ध्यान ज़रूर रखें .

विटामिन डी की महिमा अपरम्पार है

विटामिन डी टाइड टू कैंसर ,ऑटो -इम्यून -डि -जीज़िज़ (डि टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २५ ,२०१० ,पृष्ठ२१ )।
साइंसदानों ने पता लगाया है विटामिन डी कमसे कम हमारी २०० जीवन इकाइयों (जींस )को असरग्रस्त करता है .इनमे कैंसर तथा ऑटो -इम्यून -डि -जीज़िज़से सम्बंधित जींस भी शामिल हैं .मल्टी -पिल -स्केले -रोसिससे भी ताल्लुक रखने वाले जीवन खंड शरीक हैं ।
ज़ाहिर है विटामिन डी की कमीबेशी अनेक गुल खिला सकती है .मुसीबत पैदा कर सकती है ।
दुनिया भर में कोई एक अरब लोग इसकी कमी का शिकार हैं .ब्रितानी और कनाडाई साइंसदानों ने स्वास्थ्य के माहिरों से इसे नुश्खे के रूप में उन लोगों को दिए जाने की सिफारिश की है जिन्हें विटामिन डी की कमी बेशी से होने वाले रोगों का ख़तरा ज्यादा है .विटामिन डी संपूरक उन लोगों को निश्चय ही दिए जाने चाहिए जिनमे इसकी कमी बेशी मुखरित है .माहिरों के अनुसार विटामिन डी हमारे स्वास्थ्य को बड़ी हद तक प्रभावित करता है .ये सभी साइंस दान ब्रितानी ऑक्सफोर्ड विश्व -विद्यालय की फंक्शनल जीनोमिक्स इकाई से सम्बद्ध हैं .

विक्टोरिया युगीन लेखक कवि- गण भी टेक्स्टिंग करते थे .

"दी ग्रेट डिबेट"उस किताब का नाम है जो वर्तमान में प्रचलित शोर्ट मेसेजिंग सर्विस में प्रयुक्त संक्षिप्तरूपों ,अंकों ,अक्षरों और लोगोग्रेम्स के उद्गम को खींचकर विक्टोरिया युग के लेखकों ,कवियों की प्रतीकात्मक कविता तक ले जाती है .आइये जाने दी जीआर८ डीबी८ के मंतव्य को ।
किताब के अनुसार सेल फोन लेंग्युवेज का चलन नया नहीं है .संक्षिप रूप "आईओयु "यानी आई ओडब्लूई वाईओयू १६१८ में भी प्रचलित था .प्रतीकात्मक कविता में अक्षरों ,संख्या (मात्रा सूचक शब्दों ,नम्बर्स ),लोगोग्रेम्स आदि का प्रयोग आमथा ।
"एस्से टू मिस काथारिने जे "की टेक्स्टिंग थी :एन एस ए २ मिस के टी जे .इसलिए जिन लोगों को अंग्रेजी भाषा के मिजाज़ के बिगड़ने की चिंता है वह चैन की बंशी बजाएं .गत १३० सालों से यह एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल को सन्देश भेजने की भाषाजो आज एक बकार फिर दिख रही है प्रचलित रही है .यह अन्वेषण डिस्कवरी न्यूज़ ने प्रस्तुत किया है .निकट भविष्य में ब्रिटिश लाइब्रेरी में आयोजित एक प्रदर्शनी में इस तथ्य का विस्तार से खुलासा होने जा रहा है ।
नुमाइश में १८६७ में प्रकाशित एक कविता का प्रकाशित रूप प्रस्तुत किया जाएगा .लगता है १६० करेक्टर्स वाली टेक्स्टिंग सीमा(लेखन मेप्रयुक्त अक्षरों ,चिन्हों की सीमा ) तब भी थी .कविता की यह विधा या फॉर्म प्रतीकात्मक कविता कहलाती थी .महारानी विक्टोरिया युग में बाकायदा अक्षरों ,संख्याओं ,लोगोग्रेम्स का सांझा रूप इस प्रतीकात्मक (बिम्ब प्रधान) कविता में मौजूद था .इस प्रकार के प्रयोग आम थे :
"आई रोट २यु बी४ "एक और बानगी देखिये -
"ही सेज ही लव यु२ "

बुधवार, 25 अगस्त 2010

आसमानी बिजली से होंगे घर रोशन ?

लाईट -निंग टू पावर होम्स .साइंटिस्ट्स आर वर्किंग ऑन ए डिवाइस टू केप्चर इलेक्ट्री -सिटी फ्रॉम लाईट -निंग बिफोर इट इविन फोर्म्स एंड यूज़ इट टू पावर अवर होम्स (मुंबई मिरर अगस्त २५ ,२०१० ,पृष्ठ २८ )।
क्या आप ऐसी प्रविधियों की कल्पना कर सकतें हैं जो नम हवा से बिजली निकाल लें ठीक वैसे ही जैसे सौर बेतरियाँ(सोलर सेल्स )सौर विकिरण से जुटा लेतीं हैं .और इस बिजली से ही आपके घर भी रोशन हों .घर की छत पर लगे पैनल आसमानी बिजली को बनने से पहले ही रोक लें .यकीन मानिए इस दिशा में साइंसदान आगे बढ़ें हैं .काम हो रहा है ।
इस अध्ययन के अगुवा फेरनान्दो गलेमबेक्क कहतें हैं हमारी रिसर्च वायुमंडलीय बिजली को एक ऊर्जा स्रोत में बदल देने के लिए ही है .आखिर आसमानी बिजली कैसे बनने के बाद आसमान में विसर्जित होती है ,दो सौ साल पुरानी इस पहेली का हल मिलता दिख रहा है .यदि इसे हम बूझ सके तो एक दिन आसमानी बिजली के ज़मीन पर गिरने से होने वाली मौतों को भी मुल्तवी रख सकेंगें .जन धन की तबाही की वजह बनती है यह आसमानी बिजली ।बरसों से आसमानी बिजली साइंसदानों को ललचाती तरसाती रही है .कैसे इसे व्यवस्थित कर काम में लगाया जाए ?जाया ना जाने दिया जाए ?तबाही ना मचाने दी जाए इस आसमानी बिजली को आपदा बनकर।
साइंसदानों ने देखा है जब भाप तैयार कने वाले पात्रों (वाश्पित्रों ,बायलर्स )से गर्म भाप रिसती है ,हवा में तेज़ी से दौड़ती है आवाज़ करती (घर्षण बल के खिलाफ )तब स्थेतिक बिजली (स्टेटिक इलेक्त्रिसिती )पैदा
होती है .जो कर्मी इस भाप को छूतें हैं उन्हें बिजली का झटका भी महसूस होता है .(आप की कार भी इलेक्त्रिफ़ाइद हो जाती है कुछ सौ किलोमीटर्स दौड़ने के बाद हवा के घर्षण बल से ।).छू कर देखिये झटका लगेगा .
नाम चीन साइंसदान और अन्वेषक निकोला टेस्ला हवा से बिजली तैयार करने का खाब देखा करता था ।
जब धूल के अति सूक्ष्म कणों तथा इतर हवा में तैरते कणों के गिर्द जल वाष्प
बनती है ,थोड़ी सी बिजली भी पैदा हो जाती है .लेकिन अभी हाल फिलाल तक साइंस दानों को इस बात का इल्म नहीं था ,कैसे जल से बिजली मुक्त होती है ,वायुमंडल में ,कौन सी प्रक्रियाएं इसके पीछे काम करतीं हैं .यही मंतव्य है गलेमबेक्क का .आप काम्पिनस विश्व -विद्यालय ,ब्राज़ील से सम्बद्ध हैं ।
आखिर है क्याहै "हाइग्रो -इलेक -ट्री-सिटी "?यानी आद्रता -विद्युत् क्या है ?
साइंसदान ऐसा समझते थे ,हवा में तैरती पानी की बूँदें आवेश हीन तथा विद्युत् उदासीन होतीं हैं .इलेक्ट्रिकली न्यूट्रल होतीं हैं वाटर ड्रोप्लेट्स .तथा हवा में मौजूदआवेशित धूल कणों (विद्युत् आवेशोंसे युक्त धूल कणों ) तथा इतर तरल पदार्थों की आवेशित बुंदियों केसंपर्क में आने के बाद भी ये बूँदें उदासीन ही बनी रहतीं हैं .
लेकिन अब पता चला है वायुमंडलीय जल आवेश युक्त हो जाता है .आवेश को ग्रहण कर लेता है .लैब में यह आजमाइशें दोहराई गईं हैं .जल को धूल कणों से सम्पर्कित करके देखा गया है ठीक वैसी परिस्थिति लैब में बुनकर जैसी वायुमंडल में मौजूद रहतीं हैं .
इस एवज सिलिकाएवं एल्युमिनियम फोस्फैट के अति -सूक्ष्म कणों का स्तेमाल किया गया .पता चला हैनमी की मौजूदगी में सिलिका ज्यादा से ज्यादा ऋण तथा एल्युमिनियम फोस्फैट धन आवेशित हो गया .आप जानतें हैं यह दोनों ही कण वायुमंडल में भी तैरते पैदा होते रहतें हैं .
इससे साफ़ पता चलता है ,वायुमंडल मेंमौजूद जल भी विद्युत् आवेश एकत्र कर सकता है .तथा इसे अपने संपर्क में आने वाले अन्य पदार्थों (पदार्थों के अणुओं को ) अंतरित कर सकता है .यही हाइग्रो -इलेक्त्रिसिती है .आम भाषा में कहें तो आर्द्रता विद्युत् है ,ह्यूमि -डीटी इलेक्त्रिसिती है .(वायुमंडल में मौजूद जल की मात्रा को आर्द्रता कहा जाता है .दी अमाउंट ऑफ़ वाटर वेपर (मोइस्चर)प्रिजेंट इन दी एटमोस्फियर इस काल्ड ह्यूमि -डीटी .आम भाषा में हवा की नमी ही आर्द्रता है ।
सवाल इसी आर्द्रता बिजली के दोहन -शोषण का है :
हो सकता है कल सोलर सेल्स की तरह हाइग्रो -इलेक्त्रिसिती कलेक्टर्स भी बना लिए जाएँ .जैसे सौर सेल्स, सौर- विकिरण, समेट लेतीं हैं .फिर उसी से बिजली बना लेतीं हैं वैसे ही यहसंग्राहक , कलेक्टर्स, वायुमंडलीय बिजली को समेट लें और एक दिन हमारे घरों को रोशन कर दें .प्रकृति की विनाश लीला को सृजन में तब्दील करने का उपाय भी साइंस दानों के हाथ लग जाए .
मुंबई जैसे आर्द्र इलाके सर्वोत्तम साबित होंगे इन संग्राहकों के लिए ,जैसेसाल भर ज्यादा से ज्यादा सन -शाइन वाले इलाके सोलर पैनल्स के लिए बेहतर रहतें हैं .हाइग्रो -इलेक्ट्रिकल पैनल्स का फिलाल इंतज़ार कीजिये ।
हो सकता है एक दिन आसमानी बिजली को भी इसी उपाय से गिरने ,तबाही मचाने से पहले सृजन में तब्दील कर दिया जाए .गर्जन झंझा वाले इलाकों में इमारतों की छतों पर इन पैनलों को समायोजित कर दिया जाए .हवा से बिजली खींच लेंगे यह पैनल्स .और इमारतों को विनष्ट होने से बचा लिया जाएगा .अभि -नव धातुओं (मेटल्स )की तलाश का काम शुरू हो चुका है इसी नीयत से ,जो ज्यादा से ज्यादा बिजली हवा से ग्रहण कर सकें ।
यह शैर बड़ा मौजू है इस स्थिति के लिए -
"सितारों से आगे जहां और भी हैं ,तेरे सामने इम्तिहान और भी हैं ."

स्वास्थयकर एवं स्वादिष्ट खाद्य तैयार करने से पहले

वाच बिफोर यू ईट .दे मे बी हेल्दी एंड डिलीशियस ,बट दीज़ टॉप टेन फूड्स कैरी ए हाई -रिस्क ऑफ़ कंटा -मिनेशन (मुंबई मिरर ,अगस्त २५ ,२०१० ,पृष्ठ ३० ).
अंडे :सालमोनेलाजीवाणु अकसर अण्डों को संदूषित कर रोग संक्रमणों की वजह बन सकता है .इसलिए ज़रूरी है यह सुनिश्चित करना ,अंडे ताज़ी हैं .रख -रखाव ठीक रहा है इनका .(भारत के सन्दर्भ में जहां बिजली नहीं बिजली के खम्बे ज्यादा हैं यह जानना समझना ज़रूरी है फ्रिज में भी अण्डों की सेल्फ लाइफ वहां भी हफ्ते से ज्यादा नहीं होती जहां बिजली की आपूर्ति २४/७ घंटा है .फिर भारत के सन्दर्भ में तो ऐसा भी कहना समझना रिस्की है ,आप देखिये आपके इलाके में कितनी दफा बिजली गुल होती है ।
अण्डों को ताज़े पानी से भरे बर्तन में छोड़ कर देखिये -तैरतें हैं या डूब जातें हैं .डूबने वाला अंडा ताज़ा होगा .ए ग्रेड का अंडा रासायनिक रूप से उपचारित होता है .मुर्गी का एक्स -क्रीटा (कुक्कुट बिष्टा )से संदूषित नहीं होता है ।
जहां से अंडे खरीदतें हैं देखिये कहीं धूप या नमी में तो नहीं पड़े रहते वहां ?
अण्डों को या तो उबालिए या पकाइए .कच्चा अंडा खाना निरापद नहीं है ।
ताज़ी हरी पत्तेदार तरकारियाँ (लीफी ग्रीन्स ):
पालक हो या ताज़ा ताज़ा हरा धनिया पत्ता ,चौलाई के पपल पत्ते हों ,फूल या बंद गोभी ई -कोली ,नोरो -वायरस या फिर सालमोनेला से संदूषित हो सकतें हैं .आप नहीं जानते इन्हें कहाँ उगाया गया था .भारत में रेल -की पटरियों के गिर्द आधा भारत रहता है जहां की हवा पानी हरी तरकारी सभी कुछ तो गंधाती है .यहीं कहीं से आई हुई भी हो सकतीं हैं ये तरकारियाँ ।
नाशी जीव-नाशियों (पेस्टी -साइड्स )और कीट और फफूंद नाशियों से भी संसिक्त हो सकतीं हैं ये कथित ग्रीन्स .इन्हें साफ़ पानी से भरे बर्तन में छोड़कर रखिये स्तेमाल से पहले .फिर सुखाइये .अब स्तेमाल कीजिये ।
फिश :ताज़ी फिश ही भली .फ्रिज में भी इसे २-३ दिन से ज्यादा मत रखिये .इससे कुदरती विषाक्त पदार्थ (नेच्युरल टोक्सिंस )यथा स्कोम्ब्रो -टोक्सिन रिस सकता है .जीवाणु भी पनप सकतें हैं बेतरह ।
नोरो -वायरस और सालमोनेला से होने वाला रोग संक्रमण लग सकता है इसी हाल में स्तेमाल करने से .इसलिए पकाने से पहले अच्छी तरह से पानी से साफ़ कीजिये मच्छी को .खासतौर से इसकी केविटीज़ को .रंनिंग टैप के नीचे धोना साफ़ करना ज़रूरी है .इसके बाद नमक और हल्दी से संसिक्त करना भी उतना ही ज़रूरी है .(हल्दी तो ज्ञात एंटी -बायटिक है ,स्वास्थ्य -वर्धक है .नमक एक अच्छा कुदरती खाद्य -संरक्षि है ।
ओईस -टार्स(शंख मीन ):ठीक से पकाना बहुत ज़रूरी है शंख मीन को वगरना नोरो -वायरस तथा सालमोनेलासे होने वाले रोग संक्रमण का पूरा ख़तरा बना रहता है .वैसे भी यह उदर -आंत्र-रोग संक्रमण (गैस्ट्रो -एंटे -राय -टिस)का मौसम है और संदूषित ओइय्स- टर खाने का मतलब स्टमक एंड इंटेएस्ताइन इन्फ्लेमेशन के अलावा और भी बहुत कुछ है ।
एक और जीवाणु है विब्रिओ .कोलरा परिवार का ही सदस्य है यह जीवाणु .ओइस्तर इसे पनाह दिए रहता है .यह सालमोनेलाजीवाणु और नोरो -वायरस से ज्यादा घातक है .इसलिए भी भली भाँती पकाकर खाना बेहद ज़रूरी है इस कथित स्वास्थयकर सी फ़ूड को ।
सदा बहार सब्जियों का राजा आलू :
सालमोनेला ,ई -कोलई,शिगेल्ला और लिस्तेरिया इसे संदूषित कर सकतें हैं .पहले इसे टूथ ब्रश से रगड़ रगड़ कर इसकी सतह से मिटटी साफ़ कीजिये ,पानी साफ़ होना चाहिए .अब छिलियेगा इसे .अब चाहे उबालिए ,चाहें माइक्रो वेव कीजिये ।
चीज़ :सोफ्ट चीज़िज़ से बचिए .फेटा और बरी भरोसे मंद नहीं हैं .कहीं से भी खरीदा उठाया चीज़ रोगकारकों jसे लदा हो सकता है ।
लिस्तेरिओसिस का ख़तरा ऐसे में मुह बाए खड़ा रहता है .मिस -केरिज की भी वजह बनसकता है यह लक्षण विहीन रोग -संक्रमण .इटइज ए स्ला-इ ,सिम्पटम फ्री इन्फेक्शन देत कैन रिज़ल्ट इन मिस -कैरिज .नॉन -पेश्च्यु -राइज्द चीज़ प्रोडक्ट्स से बचिए ।
आइस क्रीम :कच्चे अंडे ,अ -पास्तुरिकृत (अन -पेश्च्यु -राइज्द )दूध से गंदे संदे अस्वास्थाय्कर माहौल में तैयार की गई आइस क्रीम सालमोनेला और स्टेफी -को -कास रोग संक्रमण की वजह बन सकती है .गंदे स्कूप्स ,भंडारण पात्र तथा फ्रीज़र्स भी इस रोग संक्रमण की वजह बन सकतें हैं .अच्छी साख वाली ब्रांड की ही आइस क्रीम खरीदिये ।
टमाटर :देखिये टमाटर एक दम से सख्त हो .कटाफटा ना हो .इसके गूदे से सालमोनेला आसानी से प्रवेश कर सकता है .इसके अलावा स्तेमाल से पूर्व साफ़ पानी से धोने के बाद ही इसे अच्छी तरह पकाकर खाइए ।
अंकुरित अनाज और डालें :कच्ची अवस्था में इन्हें खाना सुरक्षित नहीं है .जिस वार्म और आद्र(नमी युक्त )माहौल में यह तैयार होतें हैं वह जीवाणु सालमोनेला तथा ई -कोली को भी माफिक आता है .बेहतर है इसे माइक्रो -वेव किया जाए या स्टीम .स्तन पान कराने वाली महिलाए ,बच्चे ,बूढ़े इसके रा स्तेमाल से बचें .जो लोग किसी बीमारी से उबर रहें हैं या फिर जिनका रोग -रोधी तंत्र पहले से ही कमज़ोर है अंकुरित के रा स्तेमाल से बचें ।
बेरीज :जामुन हो या फालसा ,रसभरी हो या शेह्तूत ,कैना बेरीज हों या रैस्प या फिर ब्लेक बेरीज इनकी महीन शल्क (छिलका )से साई- क्लो-स्पोरा आसानी से अन्दर दाखिल होकर हमारी इंटेस-टा -इन्स को असर ग्रस्त कर देता है .नतीजा होता है अति -सार (उलटी -दस्त ,डायरिया ),शरीर में पानी की कमी ,पेट की एंठन .अलवा इसके पेस्ट -ई -साइड्स आसानी से इसकी शल्क से अन्दर दाखिल हो जातें हैं .इसीलियें इन्हें भी ठीक साफ़ पानी से धोकर ही खाना चाहिए .

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

हीपेताइतिस -ई वेक्सीन की दिशा में चीन के बढ़ते कदम

विज्ञान साप्ताहिक लांसेट में छपी एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ चीनी माहिरों ने हीपे -ताइतिस -ई के खिलाफ एक असरकारी प्रोटो -टाइप वेक्सीन का सौ फीसद काम याब परीक्षण कर लिया है .तीसरी दुनिया के लोगों के लिए यह एक एहम खबर है जहां अकसर यह संक्रमण प्रसार पाता है .
तकरीबन १०,००० स्वयं -सेवियों पर इस फ़ॉर्मूले कीतीन डोज़िज़के रूप में आज़माइश की गईं हैं .जो ना सिर्फ असरकारी साबित हुईं हैं ,वेक्सीन के कोईख़ास अवांच्छित प्रभाव भी सामने नहीं आयें हैं .जो आयें भी हैं उन्हें मामूली ही कहा जाएगा .
अकसर जल आपूर्ति के मलसे संदूषित हो जाने पर यह रोग संक्रमण फैलता है .जो लीवर को रोग संक्रमित करता है .जौंडिस(आम भाषा में पीलिया ,ज्वर और मिचली यानी वोमिटिंग इसके आम लक्षण हैं) .अब से कोई तीन दशक पहले इसे एक सुव्यक्त लेकिन स्पष्टतय भिन्न रोग का दर्जा मिल गया था ।
अध्ययन में दिए गये आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में एक तिहाई लोग इस रोग से संक्रमित हो चुकें हैं .बेशक इस रोग की वजह से मरने वालों की दर कम ही रहती है लेकिन पुरानी चली आई लीवर की बीमारी तथा गर्भ- वती महिलाओं के लिए ,उनके भ्रूण के संग संग ज्यादा बड़ा जोखिम बना रहता है ।
जिंग्सु ट्रायल इस वेक्सीन में अपनाई गई प्रक्रियाकी असर्कारिता और सुरक्षा को परखने का तीसरा और आखिरी चरण है .
जैसा इसके नाम से विदित होता है यह ट्रा -यल्ड फोर्म्युला एच ई वी २३९ एक रिकोम्बिनेंट वेक्सीन है .इट इन्क्लुड्स ए प्रोटीन फ्रॉम दी वायरस डिज़ा -इंड टू स्तिम्युलेट दी बॉडीज इम्यून दिफेंसिज़ ।
रिकोम्बिनेट का मतलब जीवन इकाइयों को जोड़कर आनुवंशिक पदार्थ प्राप्त करना है ।
४८,०००स्वस्थ बालिगों को जिनकी उम्र १६-६५ साल तक थी यह फोर्म्युला दिया गया .जबकि इनके सम -कक्ष एक अन्य वर्ग के तमाम लोगों को वेक्सीन के स्थान पर छद्म वेक्सीन ही दी गई .यानी प्लेसिबो ट्राई किया गया .६ माह के भीतर तीन खुराख वेक्सीन ग्रुप को दी गईं .इसके बाद एक साल तक इनका मानी -टरन किया गया .प्लेसिबो ग्रुप में १५ हिपेताइतिस-ई से संक्रमित हो गए .लेकिन वेक्सीन ग्रुप के लोगों में से सभीहीपे -ताइतिस -ई इन्फेक्शन से बचे रहे ।
बढ़िया बात यह है जिन लोगों को सिर्फ दो ही खुराकें मिली उनमे भी यह असरकारी साबित हुई .रोग संक्रमण से इसने पूरा बचाव किया ।
एक माह के अंतर से दो डोज़ देकर रोग संक्रमण से सुरक्षा मुहैया करवाई जा सकती है उन यात्रियों को जिनका ऐसे इलाके में जाना ज़रूरी है जहां यह रोग जातीय या स्थानिक रोग की शक्ल ले चुका है .इंस्टिट्यूट ऑफ़ डायग्नोस्टिक एंड वेक्सीन डिवलपमेंट इन इन्फेक -शस डि -जीज़िज़ के रिसर्चरों ने इस अध्ययन को अंजाम तक पहुंचाया है .,नीं -शो -क्सिया इसके अगुवा रहें हैं .

क्या है "मेल -हाइपो -गोना -डीज्म"यानी मेल -मीनो -पॉज़ ?

नॉट जस्ट वोमेन ,मेन टू एक्स -पीरियेंस मीनो -पॉज़ (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २४ ,२०१० ,पृष्ठ १५ )।
औरतों में रजोनिवृत्ति (मीनो -पॉज़ ) का सम्बन्ध अकसर उम्र के साथ हारमोनों में होने वाले बदलाव से जोड़ा जाता रहा है .एक हालिया अध्ययन से पता चला है ऐसा मर्दों में भी होता है .अलबत्ता चिकित्सा शाश्त्र की भाषा में इस स्थिति को "हाइपो -गोना -डीज्म "कहा जाता है ।
गोनेड क्या है ?
वास्तव में अंड- कोष या फिर अंडाशय को ही आप चाहें तो गोनाड कह समझ सकतें हैं .शरीर का वह अंग जो प्रजनन कोशायें (रिप्रो -डक -टिव सेल्स या गेमीट्स तैयार करता है जैसे अंड कोष या फिर अंडाशय )गोनाड कहाता है ।
पुरुष हारमोन टेस्ता-स्टेरोंन एक ऐसा हारमोन है जोपुरुषोचित वृद्धि और पुरुषत्व के विकास में एहम भूमिका अदा करता है .पुरुषोचित गुण इसी की देन हैं .
हाइपो -गोना -डीज्म वह स्थिति है जब पुरुष अंड -कोषया औरत का अंडाशय पर्याप्त टेस्ता -स्टेरोंन तैयार नहीं कर पातें हैं .इसके लक्षणों में थकान ,यौन सम्बन्ध के प्रति रूचिमें ,यौनेच्छा में ह्रास ,बालों का झड़ना ,ध्यान भंग होना ,वजन का बढना तथा चित्त का अस्थिर रहना (मूढ़ स्विंग्स )आम हैं ।
माहिरों के अनुसार कमसे कम पचास लाख लोग इससे ग्रस्त होंगें .यह एक ऐसी स्थिति है जिसका आम तौर पर नोटिस ही नहीं लिया जाता .जबकि हारमोन का स्तर गिरने पर पुरुष एहम मानसिक एवं भौतिक बदलाव महसूस करने लगता है .यह एक आम विकार है लेकिन ९५ फीसद मामलों में इस गडबडी की अनदेखी ही होती है .निदानही (डायग-नोसिस ) नहीं हो पाता इनका .ज़ाहिर है इलाज़ से भी वंचित रह जातें हैं ये तमाम लोग .ऐसे में जीवन की गुणवत्ता तो असरग्रस्त होती ही है .आदमी नींद भर सोने के बाद भी थका मांदा बना रहता है .झपकी लेने को सदैव ही तैयार दिखलाई देगा ।
औरतों में ह्यूमेन एग (डिम्ब स्राव ,ओव्यूलेशन )रजो निवृत्ति होने पर समाप्त हो जाता है .हारमोन का स्तर(खासकर इस्ट्रोजन ) अपेक्षाकृत जल्दी गिर जाता है .जबकि मर्द में यह ह्रास धीरे धीरे आता है .चालीसा लगते ना लगते(लेट थर्तीज़ के आसपास )-
हर बरस १%टेस्ता -स्टेरोंन का स्तर गिरने लगता है .सत्तर की उम्र में यह ५० फीसद तक भीघट सकता है .आधारीय स्तर (बेस लाइन लेविल के बरक्स )की तुलना में .लेकिन ज़रूरी नहीं है ख़तरा सिर्फ बुढापे की देहलीज़ पर आ चुके लोगों को ही हो .

वह औरत जिसे हर चीज़ से ही एलर्जी है (ज़ारी )

बहर सूरत एलर्जी का एक ही इलाज़ है .एलर्जन्स को पहचाना जाए .बचा जाए .अंडे से एलर्जी है तो कैक खाना ज़रूरी नहीं है और अगर मूंगफली से है तो मूंगफली की सौस भी क्यों खाइएगा .और एक बात और उस दवा को ज़रूर पहचानिए जिससे आपको अलर्जी है .मसलन इन पंक्तियों के लेखक को सल्फा ड्रग्स से एलर्जी है .मेरे बेटे को अंडे से एलर्जी है,मेरी एक बिटिया को बचपन में मूंगफली से एलर्जी थी .हम दोनों सावधान रहतें हैं .डॉ जब एंटी -बाय -टिक्स तजवीज़ करतें हैं तो हम उन्हें बत्लादेतें हैं ,सल्फा ड्रग्स नहीं डॉ .लेकिन यह ब्रितानी महिला क्या करे ?किस किस को छोड़े ?किस किस को बताये ?क्या पिए ?क्या खाए ?दो चार चीज़ों को छोड़कर ?

वह औरत जिसे हर चीज़ से अलर्जी है

दिस वोमेन इज अलर्जिक टू मनी,रैन (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २४ ,२०१० )।
लेदेकर गिनती की दो चार चीजें हैं जिनसे वह अछूती है वरना उसका जीना मुहाल है .हर चीज़ से तो उसे एलर्जी है (प्रत्यूर्जता है).यहाँ तक के रुपया पैसे से भी .हर चीज़ के प्रति उसकी असाधारण संवेद्यता (सेन्स -टीवीटी )है .डॉलर वोलर कुछ भी ,वह छू नहीं सकती .सिर पर बरसात गिरी और उसका डिब्बा गोल ।
य्वोंने सिमों को तकरीबन हर खाने पीने की चीज़ से भी एलर्जी है .एलर्जिक है वह ,प्रत्युऊर्ज है वह आम खाद्य और पेय के प्रति .कुछ छूआ नहीं की उसकी ग्रंथियां फूलने लगतीं हैं .ददोरे पड़ जातें हैं शरीर पर .
बोतल बंद बुदबुदे दार पानी (स्पार्कलिंगस्प्रिंग वाटर )जो खनिजों से युक्त होता है भी उसे माफिक नहीं आता ।
अलबत्ता वह फिल्टर्ड वाटर (फ़िल्टर का पानी )पी सकती है ।
लेँ -टिल्स(दालें,स्माल ब्राउन ,ओरेंज ,ऑर ग्रीन सीड्स देट कैन बी ड्राइड एंड यूज्ड इन कूकिंग ,लेंतिल सूप ,स्ट्यु),ब्राउन राईस ,गाज़र और सेब (एपिल्स ) खा सकती है .शुक्र है परवर -दिगार का वगरना यहब्रितानी महिला खाती क्या ?
चिकित्सा इतिहास में यह अज़ब गज़बबात है, औरत एक, एलर्जीज़अनेक .यूं एलर्जी का कोई निश्चय नहीं होता है .कब किसको किस चीज़ से ,खाने पीने दवा दारु से एलर्जिक रिएक्शन हो जाए कोई नहीं जानता .एक ही बचाव है उस एलर्जन

कोकेन की लत से छुटकारे के लिए

कुड्जु मे ट्रीट कोकेन एडिक्शन (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २४ ,२०१० ,पृष्ठ १५ )।
एक खराब मौसम को भी झेल लेने वाला हार्डी प्लांट होता है, वल्लरी (वेळ ) की शक्ल लिए होता है जिसपर पपिल(बैंजनी )खूबसूरत फूल लगतें हैं .पुष्टिकर स्टार्च से युक्त होतें हैं यह पुष्प औषधीय गुणों से भरपूर .यही कुड्जु वाइन (कुड्जु की वेळ है ,वल्लरी है )।
इसी औषधीय पादप का सार (सत या एक्सट्रेक्ट )जिसका स्तेमाल शराब छुड़ाई में किया जाता रहा है अब लती कारक नारकोटिक ड्रग (कोकेन )की लत सेग्र्स्त लोगों को इसकी गिरिफ्त से निकालने के लिए भी साइंसदानों द्वारा आजमाया जा रहा है .आप जानतें हैं कोका पादप से तैयार होता है कोकेन जिसका स्तेमाल कभी कभार एक एनस -थेतिक के रूप में भी डॉ. करतें हैं ।
गिलेअड साइंसिज़ इंक के रिसर्चरों ने इसकी आजमाइशें की हैं .
चूहों पर किये गये प्रयोगों से पता चला इस पादप का सार देने पर चूहे आपसे आप (जो पहले कोकेन लेते रहे थे)कोकेन से छिटकने लगतें हैं . नेचर मेडिसन में गिलेअड की टीम ने अध्ययन के नतीजे प्रकाशित किये हैं .दरअसल यह दवा (वेल्लरीका सार,कुड्जु एक्सट्रेक्ट ) एक यौगिक टेट्रा -हाई -ड्रो-पपवेरोलिने (टी एच पी )के स्तर को शरीर में बढ़ा देता है .कोकेन की तलब दिमागी जैव -रसायन (न्यूरो -ट्रांस- मीटर)डोपा- मीन के स्तर को बढा देती है .टी एच पी इसमें आड़े आता है .ऐसा होने नहीं देता है .बस कोकेन की लत धीरे धीरे छूट जाती है .

शरीर की चर्बी और मधुमेह को काबू में रखने के लिए लीजिये

अस -पैरागस ,गार्लिक हेल्प फाईट फ्लेब (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २४ ,२०१० ,पृष्ठ १५ )।
ए डाईट रिच इन फर्में -टेबिल कार्बो -हाई -ड्रेट्स लाइक गार्लिक ,अस -पै -रागस एंड एंटी -चोक्स, सप -रेसिज हंगर एंड इम्प्रूव्स दी बॉडीज एबिलिटी टू कंट्रोल ब्लड सुगर लेविल्स ।
एक अध्ययन के मुताबिक़ शतावरी (अस -पै -रागस ,नागदौन या शतावर ),लहसुन तथा आरटी -चोक्स (आटी-चोक ,हाथी -चक या वज्रांगी ) युक्त खुराक का नियमित सेवन एक तरफ मोटापे से दूसरी तरफ जीवन शैली रोग मधुमेह से भी राहत दिलवा सकता है .एक तरफ ये वानस्पतिक खाद्य भूख का शमन करतें हैं तो दूसरी तरफ ब्लड सुगर को भी बेकाबू होने से रोकने में सहायक सिद्ध होतें हैं ।
वास्तव में ये खाद्य गट-हारमोनो को स्रावित करवातें हैं .भूख को यही उदर के चारों और के अंग में बनने वाले हारमोन ही कम करतें हैं .इंसुलिन की संवेद्यता को बढ़ाकर ग्लूकोज़ के बेहतर विनियमन में मददगार की भूमिका में आतें हैं यह हारमोन .आप जानतें हैं हमारा अग्नाशय (पैनक्रियाज़ ) ही ग्लूकोज़ को ठिकाने लगाने के लिए ज़रूरी इंसुलिन का स्राव कराता है ।
इम्पीरियल कोलिज लन्दन के खुराक -विज्ञानी निकाला गेस के नेत्रित्व में यह अध्ययन संपन्न हुआ है .भूख और ब्लड ग्लूकोज़ का विनियमन बूझ कर निश्चय ही सेकेंडरी डायबिटीज़ को मुल्तवी रखा जा सकता है ।
इन अन्वेषणों की पुष्टि होने पर मोटापे और मधु- मेह के इलाज़ को एक नै दिशा मिल सकती है .इन खाद्यों की पड़ताल अभी ज़ारी है .कमसे कम जोखिम को कम तो किया ही जा सकता है .ब्रोक्काली ,काले ,पालक जैसी हरे पत्तेदार सब्जियों का सेवन भी डायबिटीज़ के खतरे के वजन को १४ फीसद तक कम करने में कारगार पाया गया है .

खाने से पहले पीजिये पानी

ड्रिंकिंग मोर वाटर बिफोर मिल्स कैन हेल्प वेट लोस (मुंबई मिरर ,अगस्त २४ ,२०१० ,पृष्ठ २४ )।
एक क्लिनिकल ट्रायल के नतीजों में साइंसदानों ने बतलाया है खाना खाने से पहले दो ग्लास पानी पीना वजन घटाने में सहायक सिद्ध होता है .भूख का विनियमन करता है पानी .ना किसी नुश्खे की ज़रुरत ना कोई पार्श्व ,अवांछित प्रभाव ।
अध्ययन में ५५-७५ साला ४८ लोगों को शरीक किया गया .इन्हें दो वर्गों में रखा गया .एक वर्ग के तमाम लोगों को १२ सप्ताह तक लो केलोरी डाईट के अलावा खाने से पहले रोजना दो कप पानी पीने के लिए कहा गया . दूसरे समूह ने ऐसा नहीं किया .पहले वर्ग के लोगों का १२ हफ्ते बाद १५.५ पौंड्स जबकि दूसरे का सिर्फ ११ पौंड्स वजन कम हुआ .
पानी सही मायनों में जीरो केलोरी ड्रिंक है तथा पेट के भरा होने का एहसास करवाता है .नतीज़न लोगअपेक्षाकृत कम केलोरी लेतें हैं .पूर्व के अध्ययनों से यह भी पता चला था ,जो प्रौढ़ तथा बुजुर्ग खाने से पहले दो कप पानी पी रहे थे उन्होंने औसतन ७५-९० केलोरीज़ खाने में कम लीं .इन्हें पेट भरने का एहसास जल्दी हुआ .१२ हफ़्तों में ही पता चला जो डाईट -अर्स तीन बार के भोजन से पहले हर दफा दो कप पानी पी रहे थे उनका वजन उनसे जो ऐसा नहीं कर रहे थे ५ पौंड्स ज्यादा कम हुआ ।
जन जीवन में पानी के गुणकारी किस्सों का खूब बखान किया गया है .जल को जीवन कहा गया है .रहीम दास तो बहुत आगे निकल गएँ हैं पानी के गुण -गान में .खूब कहा है :
रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सून
पानी गए ना ऊबरे ,मोती माणूस चून .

माइक्रो -वेव्स में पकाने से पुष्टिकृत होता है आलू ?

ज़ेपिंग पुटे -टोज़ बूस्ट्स देयर न्युत्रिश्नल वेल्यु (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २४ ,२०१० ,पृष्ठ १५ ).साइंसदानों ने पता लगाया है माइक्रो वेव कूकिंग आलू में एंटी -ओक्सी -डेंटस की मात्रा में इजाफा कर देती है .आखिर हाई -फ्रीक्वेंसी साउंड वेव्स आलू में पौष्टिक तत्वों की मात्रा को बढा देती हैं .आलू में एंटी -ओक्सी -डेंटस बढाने के लिए या तो उन्हें अल्ट्रा साउंड से या फिर ५-३० मिनिट तक बिजली से उपचारित करने पर हेल्थ फुल एंटी -ओक्सी -डेंटस के अलावा फीनोल्स तथा कोलोरो -जेनिक एसिड भी बढ़ जातें हैं .एंटी -ओक्सी -डेंटस विटामिनो का ऐसा समूह है जिसमे फाइटो- केमिकल्स भी शामिल हैं तथा जो फ्री -रेडिकल्स से शरीर को होने वाली नुकसानी से भी बचातें हैं . युवा बना रहने का नुश्खा बतलाया जाता है आजकल एंटी -ओक्सी -डेंटस को .जापानी साइंसदानों के मुताबिक़ आलू को माइक्रो -वेव करने से यह तत्व ५० फीसद तक बढ़ जातें हैं .ओबिहिरो यूनिवर्सिटी ,होक्कैदो ,जापान के कज़ुनोरी हिरोनाका के नेत्रित्व में यह रिसर्चसंपन्न हुआ है .

मुद्दा उनकी दिहाड़ी बढाने का है (ज़ारी )

गत पोस्ट से आगे ....
दूसरी किश्त :जानिये देश के जाने माने मनो -विज्ञानी ,देश -विदेश में कामकर चुके मनो -विज्ञानी डॉ .आई एस मुहार के विचार ।
अभी बहुत दिन नहीं हुए लोक सभा सांसदों ने मनमाने ढंग से अपनी तनखा बढा ली थी .एक बार फिर वही हरकत की गई है .इससे हर महकमे के लोगों में एक गलत प्रतियोगिता एक दूसरे सेआगे निकलने ज्यादा हासिल करने कीहोड़ पैदा होगी .जबकि नेताओं का काम एक आदर्श प्रस्तुत करना होता है .नेता कहा ही उसे जाता है जो आगे ले जाता है .पूछा जा सकता है -इन बरसों में क्या हम हिन्दुस्तान को एक सिस्टम भी दे सके .सिस्टम जो काम करे .क्या लोगों को पीने का साफ़ पानी भी मुहैया करा सके ।दो जून का खाना सबको नसीब होता है ?दवा दारु मिलती है ?सेहत और शिक्षा दोनों से महरूम -आम जन के यह रहनुमा क्यों खुद को खुदा समझतें हैं ?
एक टर्म पूरा किया कोरम को मुह चिढाता हुआ और जिंदगी भर की पेंशन .हर चीज़ को पालतू और भ्रष्ट कर दिया है इन्हीं लोगों ने .कोफ़्त होती है यहाँ के लोगों की बदहाली और नेताओं की अइ -याशी को देखकर .

सोमवार, 23 अगस्त 2010

चश्मे जिनसे आपअँधेरे में भी देख सकेंगें

सून ,स्पेक्ट्स विद नाईट विज़न (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २३ ,२०१० ,पृष्ठ १७ )।
साइंसदानों ने एक ऐसी फिल्म तैयार कर ली है जो इन्फ्रा -रेड लाईट (अवरक्त विकिरण ,लाल से परे आदमी के दृश्य क्षेत्र की सीमा से बाहर )को दृश्य प्रकास (विजिबिल लाईट )में तबदील कर देगी .यानी इसको चश्मों में फिट करने के बाद आदमी रात के अँधेरे में भी देख सकेगा ।
साइंसदानों के मुताबिक़ इस फिल्म की मदद से कार फोन्स ,आई ग्लासिज़ के अलावा कार विंड शील्ड्स जो बहुत हलकी भी होंगींतथा सेल फोन्स कोभी नाईट विज़न की क्षमता से लैस किया जा सकेगा .वह भी सस्तें में ही .इसमें वही प्रोद्योगिकी अपनाई गई है जिसका स्तेमाल वर्तमान फ़्लैट स्क्रीन टेली-विज़न में किया जाता है ।
मजेदार बात यह है ये तमाम युक्तियाँ जो अभी निकट भविष्य के गर्भ में हैं बेहद हलकी भी होंगीं बा -मुश्किल एक चश्मे के भार के बराबर . फ्लोरिडा विश्व -विद्यालय के साइंसदानों के मुताबिक़ इसके प्रायोगिक स्तेमाल को सुधारने में तकरीबन डेढ़ बरस लग जाएगा .फिर इसका स्तेमाल सेल फोन कैमरा से लेकर ,लाईट वेट नाईट विज़नआई ग्लासिज़,कारों की विंड शील्ड्स आदि में धड़ल्ले से किया जा सकेगा .

मुद्दा उनकी पगार का

मुद्दा उनकी पगार का है जिन्हें हर जगह पर वी आई पी होने का अतिरिक्त गौरव प्राप्त है .जो देश के नीति निर्माता कहलातें हैं .और अपने आपको बुद्धि जीवी भी मानने समझने का वहम भी पालें हैं .भाषण में यह लोक सेवक कहलातें हैं ,कागजों में करोड़ पति .देश के तमाम नौकर शाहों की यह निगरानी रखतें हैं .केवल इसी बिना पर ये यह भी चाहतें हैं ,इनकी तनखा ब्यूरो -क्रेट्स से ज्यादा हो .ताकि यह वरिष्ठ होने श्रेष्ठ दिखने का लुत्फ़ उठा सकें .तर्क है जो इनके नीचे इनकी निगरानी में काम करता है वह इनसे ज्यादा दिहाड़ी क्यों पाए ?
इस बारे में मैंने कई बुद्धि- जीवियों,से बात की है .प्रस्तुत है इसी की पहली किश्त .शिक्षाविद ,शब्द मनीषी ,समाज चिन्तक ,व्याकरण विद डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश के विचार ।
आपका यह साफ़ मानना है इन्हें अस्सी हज़ार एक रुपया क्या आठ पैसे भी मूल वेतन के ,पगार के रूप में नहीं मिलने चाहिए. तमाम तरह की जब सुविधाएं इनके कदमों पर हैं .खुले हवादार आवास ,पानी बिजली ,हवाईजहाज की यात्रा ,टेली- फोन ,तमाम तरह के विकास फंड ,साज़ सजावट का सारा साजो सामान ,फिर तनखा किसबात की और क्यों ?और अगर इन्हें कुछ देना ही है तो इस देश के पोलिस कोंस्टेबिल या फिर स्कूल टीचर के बराबर पगार दो ,आखिर यह जन सेवक हैं .जब तक यह नहीं होगा भ्रष्टाचार की अमर बेल को ये यूं ही सींचते रहेंगें .प्रजातंत्र को अपने किचिन गार्डन का फल समझकर खाते रहें गें .प्रजातंत्र के फल खाते रहेंगें .बेशक तनखा देनी है तो प्रधान मंत्री और राष्ट्र -पति को दो .

सावधानी ज़रूरी है कंडोम के स्तेमाल और रख -रखाव में भी

गत पोस्ट से आगे ....
रेग्युलर कंडोम्स जब बनाए गये थे तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा एक दिन इनका स्तेमाल एनल इंटर -कोर्स में भी किया जाएगा .समझना होगा -"एनल इंटर -कोर्स हेज़ ए डिफरेंट प्रेसर डायनेमिक्स .नोर्मल लेटेक्स और पोली -युरिथेंन से बने कंडोम गुदा मैथुन के दौरान आराम से फट सकतें हैं .ऐसे में यौन संचारी रोगों के अलावा एच आई वी एड्स का ख़तरा मुह बाए खड़ा रहता है .हाई -रिस्क बिहेवियर में आयेगा एनल इंटरकोर्स और कंडोम का संग साथ .हिफाज़त की यहाँ कोई गारात्न्ती नहीं ।"
चुम्बन आलिंगन (फॉर प्ले )के बाद और प्रवेश से ठीक पहले टोपी पहनने सेपहले आगे की निपिल को दबा कर एयर पोकित को निकाल दीजिये .पहनने के बाद भी ऐसा करें .चिकनाई के लिए किसीभी प्रकार के तेलआधारित लुब्रिकेंट ,वैसलीन ,बटर ,बेबी आइल ,कूकिंग आइल आदि के स्तेमाल से बचें .आम तौर पर कंडोम चिकनाई युक्त ही होतें हैं .वाटर या फिर सिलिकोन आधारित लुब्रिकेंट ही काम में लिए जातें हैं .तेल आधरित चिकनाई लेटेक्स को कमज़ोर बना देती है .डेमेज भी कर सकती है .फिसल कर अन्दर भी जा सकता है यह योनी में ।चिकनाई तो अन्दर ही काफी होती है .आपको प्यार करना आना चाहिए .योर पार्टनर शुद बी वेट बिफोर दी एपिसोड .
निवृत्त होने के फ़ौरन बाद कंडोम को लिंग मूल से पकड़कर सावधानी पूर्वक निकाल लीजिये .इंतजारी खेल बिगाड़ सकती है .काम तो आपका हो ही चुका .अब लोभ लालच कैसा ?साथी का भी तो ध्यान रखिये .

कंडोम के स्तेमाल और रख रखाव में भी सावधानी चाहिए

व्हाई योर कंदों मे नोट वर्क .इट इज योर बेस्ट आर्मर अगेंस्ट अनवान -टिड प्रेग्नेंसीज़ एंड एस टी डीज़,बट ए लोट डिपेंड्स ऑन हाउ यु यूज़ इट .हेयर आर दी मोस्ट कोमन फ़ो पाज़ देट रीड -युसिज़ इट्स इफेक्टिव नेस (मुंबई मिरर ,अगस्त २३ ,२०१० ,पृष्ठ ३२ )।
सौ फ़ीसदी सुरक्षित यौन सम्बन्ध की गारंटी नहीं हैं कंडोम्स .इनके स्तेमाल और रख -रखाव में पर्याप्त सावधानी की ज़रुरत बनी रहती है ।
कहाँ कैसे रखें कंडोम्स को ?मौठुं के दौरान कितना असरकारी सिद्ध होता है कन्डोम यह इस बात पर निर्भर करता है आप ने स्तेमाल से पुर्व इसे कैसे और कहाँ रखा हुआ था .क्या अपने पर्स में ?कार के ग्लोव कम्पार्टमेंट में ?हीट(ताप या गर्मी के प्रति बेहद संवेदी होतें है लेटेक्स से बने कंडोम इनकी इफिकेसी ,असरकारिता ,प्रभ -विष्णुता लापरवाही से किसी भी उमस और गर्म जगह पर रखने से बेकार हो सकती है .दवाओं की तरह इसे भीकिसी ठंडी खुश्क जगह पर रखिये .
स्तेमाल करना भी एक कला है :
नाख़ून से खराब हो सकता है कंडोम .पेकित खोलते वक्त भी दांतों और नुकीली चीज़ों के स्तेमाल से बचना ज़रूरी है .बस ज़रा सी जगह चाहिए तेज़ तर्रार स्पर्मैता -ज़ोआ को ,स्पर्म या शुक्राणु को .फॉर प्ले के बाद ,प्रवेश लेने से ठीक पहले ही इसे सलीके से धारण कीजिये पूर्ण -लिंगो -थ्थान (फुल्ली इरेक्ट पेनिस) की स्थिति में .याद रखिये यह सिर्फ लिंग की ही टोपी है स्क्रोतम(अंड- कोष ) या ग्रोइन(ऊरू मूल ,शरीर का वह भाग जहां टांगें मिलतीं हैं .) की नहीं .आसपास कोई भी कट ,रोग संक्रमण (इन्फेक्सन ) फ्लुइड एक्सचेंज की वजह बन सकता है .नतीजा यौन सम्बन्धी रोग भी बन सकतें हैं यदि साथी अजनबी है ,अनजान है .ह्यूमेन पेपिलोमा वायरस संक्रमण ,एच आई वी एड्स का भी जोखिम पैदा हो सकता है .इसीलिए तो सौ फीसद सुरक्षित नहीं है कंडोम .
ज्यादा होशियारी मत दिखाइये ,कुछ लोग नाहक ही दो सु -रक्षा कवच धारण कर कुरु -क्षेत्र के मैदान में कूद पडतें हैं .ध्यान रहे -टू (टी डब्लू ओ )इज ट्रबुल .एक ही बेहतर रहता है .दो में फिसलने का बड़ा ख़तरा निहित है .फट भी सकता है .
बहुत ज़रूरी है :ओने साथी के प्रति वफा -दारी.मोनो- गैमस रिलेशन शिप की सलामती .अजनबियों .एक से ज्यादा यौन साथियों के साथ ओरल सेक्स (मुख मैथुन ,कई तो होतें ही मुख मैथुनी हैं ),गुदा मैथुन ,योनी मैथुन सभी जोखिम का खेल हैं .सवारी अपने सामान की यहाँ खुद जिम्मेवार है .आचरण से ताल्लुक रखता है फिरंगी संस्क्रती का रोग एच आई वी एड्स ,अन्य यौन सम्पर्क से प्रसार पाने वाले रोग (सेक्स्युँली कम्युनिकेबिल दिजीज़िज़ )।
ध्यान रहे रेग्युलर कंडोम्स गुदा मैथुन के लिए तैयार नहीं किये गए थे .एनल इंटर -कोर्स इन्वोल्व्स डिफरेंट काइंड ऑफ़

रविवार, 22 अगस्त 2010

क्या है मूसलाधार वृष्टि यानी क्लाउड बर्स्ट ?

यक़ीनन क्लाउड बर्स्ट मूसलाधार बरसात को ही कहतें हैं जो अकसर गर्जन और औलावृष्टि के साथ होती है और चंद मिनिटों में एक सीमित इलाके ,भौगोलिक क्षेत्र में जल प्लावन सा मंज़र पैदा कर देतें हैं तबाही का ।
बादल को आम तौर पर एक ठोस सघन पिंड ही माना जाता रहा है ,बेशक जो लबालब पानी से भी भरा रहता है .इसीलिए इसका यूं हाई -एलटी -त्युद (समुद्र तल सेअपेक्षाकृत ज्यादा ऊंचाई वाले भौगोलिक इलाके )इलाकों पर बे -हिसाब बरस पड़ना बादल का फटना कहलाया जाने लगा और बस एक भाषिक परम्परा चल निकली ,क्लाउड बर्स्ट को बादल की फटन कहने समझने की ।
आप जानतें हैं पहाड़ों पर अकसर वायु दाब कमतर ही रहता है लो प्रेशर क्षेत्र बना रहता है .यही निम्न दाब का क्षेत्र बादलों का आवाहन शिखर की ओर पूरे जोशो खरोश ,अतिरिक्त रूप से शक्ति शाली बल के संग करता है .शिखर से टकराने पर बादल यकायक बरस पड़ता है ,बेहिसाब .चंद मिनटों में ही एक छोटे से इलाके में १०० मिलीमीटर तक और कभी कभार और भी ज्यादा बरसात गिरजाती है .
भारत में हिमाचल प्रदेश इस तबाही की अकसर वजह बनता रहा है .सबसे ज्यादा क्लाउड बर्स्ट इसी राज्य में दर्ज़ हुएँ हैं .बरसात के बाद पूरा घाटी क्षेत्र शिलाखंडों से पट जाता है .जिन्हें बरसाती आवेग कहीं का कहीं ले आता है .बेहद का मूमेंटम(संवेग )रहता है इस मूसला धार बरसात में ,गर्जन -तर्जन औला वृष्टि में .

मर्दों की कमीज़ के बटन बाएँ तथा औरतों की शर्ट्स के देन और क्यों होतें हैं जबकि अमूमन दोनों ही राईट हेन्डिद

व्हाई डू मेंस शर्ट्स हेव बटन्स ओं दी लेफ्ट साइड व्हाइल वोमेन्स शर्ट्स हेव देम ऑन दी राईट ?(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया अगस्त २२ ,२०१० ,पृष्ठ २८ ,ओपन स्पेस )।
इसके पीछे की तार्किकता को समझने के लिए तकरीबन सौ साल पीछे की ओर लौटना होगा .वजह आदमी खुद सज धज करता है .खुद ड्रेस अप होता है .और आज से नहीं सदियों से यही परम्परा रही आई है .जबकि इतिहास के झरोखे से देखें तोमहिलाओं को सजाने धजाने (उनकी सज धज का जिम्मा ) उनकी महिला सहायिका के हाथों में रहा है .रानियों की सज धज बांदियां ही करतीं थीं .अब औरत हो या मर्द ज्यादातर राईट हैन्डिद ही होतें हैं ,खब्बू कम होतें हैं .महिला सहायक भी ज्यादा तर राईट हैन्डिद ही होतीं हैं .इसलिए जब वह किसी और को कपडे पहनातीं हैं तब उन्हें इसी में सुभीता होगा सामने वाले के कपडे के बटन उनके (मैड्स के )दाहिने ओर ही पड़ें .जबकि यहसामने वाली महिलाके वस्त्र का बायाँ हिस्सा होगा .

प्लेन मिरर में शरीर का दायाँ भाग बाएँ और क्यों दिखलाई देता है ?

व्हाट कौज़िज़ दी लेफ्ट एंड राईट रिवर्सल इन ए प्लेन मिरर ?
दरअसल समतल दर्पण (प्लेन मिरर )के सामने हम जितनी दूरी पर खड़े होतें हैं हमारा प्रतिबिम्ब ठीक उतना ही दूरी पर दर्पण के पीछे दिखलाई देता है .यह प्रतिबिम्ब हमारे आकार जितना ही होता है तथा सदैव ही सीधा और वर्च्युअल (काल्पनिक )ही बनता है ।
अब एक प्रयोग कीजिये .ड्रेसिंग टेबिल के सामने खड़े हो जाइए दर्पण से थोड़ा दूर हठ्के लेकिन ठीक दर्पण के सामने ताकि आपको अपनी छवि दिखलाई देती रहे .अब दर्पण की और धीरे धीरे बढिए .देखिये आपका प्रतिबिम्ब दर्पण से धीरे धीरे बाहर की ओर आ रहा है .यानी व्हाइल यु आर गो -इंग इनटू दी मिरर योर इमेज इज कमिंग आउट ऑफ़ दी मिरर .दिस कौज़िज़ दी लेफ्ट एंड राईट रिवर्सल .बाएं ओर दायें अंगों की परस्पर अदला बदली की यही वजह है .

एजू -पंक क्या है ?

एजू पंक क्या है ?
यह एक ऐसा शिक्षा अभियान है जो परम्परागत स्कूल शिक्षा को बरतरफ़ कर स्वाध्यायी बनाता है व्यक्ति को समाज को .यहाँ कक्षाएं हैं लेकिन वर्च्युअल हैं .ऑन लाइन प्रोद्योगिकी की मदद से मन चाहा शैक्षिक पाठ डाउन लोड किया जा सकता है .कल की शिक्षा का ज़रिया यह पद्धति ही अब बनेगी , ज्ञानार्जन की .यहाँ शिक्षा निस -शुल्क होगी .यह खुद करने सीखने का दौर है यानी अपना हाथ जगन्नाथ .रिसेसन के दौर में यह रामबाण है .भारत को शिक्षित दीक्षित बनाने का यह बेहतरीन ज़रिया बन सकती है बा -शर्ते हमारेकरोड़ पति - नेताओं का दारिद्रय दूर हो .यह शिक्षा डिग्री की मोहताज़ नहीं होगी .ज्ञान आधारित होगी .

कोरल रीफ ज़ारी .

कृत्रिम प्रवाल भित्ति एक तरफ जल -गति -विज्ञान में सुधार लातें हैं दूसरी तरफ तट -बंध के अपरदन को भी मुल्तवी रखतें हैं .मछली घर ,समुद्री या जल -जीव -घरों की शोभा ,आभा को रोशन करतीं हैंक्रत्रिम प्रवाल भित्तियाँ .पर्यटकों का अतिरिक्त आकर्षण भी बनतीं हैं प्रवाल भित्तियाँ .

क्या है क्रत्रिम मूंगा (आर्टिफिशियल कोरल )?

पहले यह जानें कोरल या मूंगा क्या है ?एक कठोर लाल , गुलाबी या फिर सफ़ेद रंग का पदार्थ होता है जो समुन्दर के नीचे तलहटी में बहुत ही छोटे समुंदरी जीवों की अस्थियों से पैदा होता है .एक समुद्री जीव भी कोरल पैदा करता है .प्रवाल या मूंगा आभूषणों की शोभा बढाता है ।
कोरल रीफ क्या है ?
इट इज ए लाइन ऑफ़ रोक़ इन दी सी फोर्म्द बाई कोरल .जिसे प्रवाल भित्ति भी खा जाता है .कोरल्स या मूंगे रंध्र -दार समुद्री जीव हैं जो समुन्दर की पैदीमें जीवन यापन करतें हैं .अलबत्ता यह एक ठोस आधार की तलाश में रहतें हैं .फिर बढतें हैं अमर बेल से ,इन्हीं से पैदा होती है कोरल रीफ (प्रवाल भित्ति )।
कुदरती तौर पर यह रंगीनी लिए होतें हैं .बहुत ही जीवंत ,वाइब्रेंट होतें हैं कोरल्स ।
कृत्रिम कोरल रीफ क्या है ?
यह मानव निर्मित एक ऐसी संरचना है जिसका निर्माण जल की सतह के नीचे समुद्री जीवों को बढ़ावा देने के लिए ही किया जाता है .इनके विकसने पनपने के लिए खड़ी की जाती है यह संरचना .जल गति -विज्ञान (हाई -ड्रो -डायनेमिक्स ) को सुधारने में मदाद गार की भूमिका में रहती हैं कृत्रिम कोरल रीफ्स .तट बांध के अपरदन (सी इरोज़न

मुद्दा एंटी -माइक्रो -बिअल रेजिस्टेंस है सुपर बग का उदगम स्थल नहीं

हू (डब्लू एच ओ ) वर्च्युअली एन्दोर्सिज़ सुपर बग स्टडी ,दज नोट कमेन्ट ऑन नेम (डीएन- ए सन्डे ,मुंबई ,अगस्त २२ ,२०१० ,पृष्ठ ५ )।
विश्व -स्वास्थ्य संगठन ने "डी लांसेट इन्फेक -शस डीज़ीज़ "में प्रकाशित ड्रग रेज़िस्तेंट बेक्टीरिया का ज़िक्र ज़रूर किया है लेकिन भारत का इसके उदगम स्थल को लेकर कहीं नाम तक नहीं लिया है .याद रहे भारत सरकार ने इस दवा -रोधी सुपर बग को न्यू -देहली मेताल्लो -बीटा लेक्तामेज़ -१ नाम देने पर एतराज़ जाताया था .चिकित्सा जगत ने भी अच्छी फटकार लगाई थी इस प्रायोजित शोध और इसके नतीजों पर ।
११ अगस्त २०१० को प्रकाशित इस अध्ययन में एक जीवन इकाई (जीन )का ज़िक्र किया गया था .पता चला था यही जीन कुछ जीवाणुओं को तकरीबन सभी एन्तिबाय्तिक्स दवाओं का प्रतिरोध करने की ताकत देकर नाकारा बना देता है ।
बेशक यह आलेख एंटी -माइक्रो -बिअल रेजिस्टेंस की तरफ सब का ध्यान खींचता है .अनेक दवाओं से बेअसर रहकर रोग संक्रमण पैदा करने वाले मल्टी -ड्रग रेज़िस्तेंट बेक -टीरिया के प्रति खबरदार पैदा करता है ।विश्व -स्वास्थ्य संगठन ने केवल इसी बात को तस्दीक किया है यह कहीं नहीं कहा है कथित मल्टी -ड्रग -रेज़िस्तेंट बेक -टीरिया भारत के अस्पतालों में पैदा हुआ है ।
अलबत्ता इस परिदृश्य पर नजर टिकाने की सभी को ज़रुरत है विविध दवाओं का प्रति रोध कर उन्हें बेअसर करने वाले जीवाणु चिकित्सा जगत के लिए नए नहीं रहें हैं .इनका ज़िक्र होता रहा है ,आइन्दा भी होता रहेगा .आगे अध्ययन इसके फैलाव के तरीके को लेकर होने ही चाहिए भारत के चिकित्सा विद भी इसका समर्थन करतें हैं .साथ ही एंटी -बाय -टिक्स के स्तेमाल को लेकर इनकीनिर्बाध खुली बिक्री (बिना नुस्खा खरीद फरोख्त )का विनियमन भी होना चाहिए .बात बे बात इनका अनियमित स्तेमाल ,बीच में इलाज़ छोड़ देना समस्या के मूल में रहा है .तपेदिक के मामले में यह होता रहा है .हॉस्पिटल बोर्न इन्फेक्संस पर भी नजर रखने के अलावा स्पष्ट एक नीति बनाकर उस पर अमल भी करवाना होगा .इनमे से कोई भी मुद्दा नाक भौं सिकोड़ने की गुंजाइश नहीं छोड़ता है .सभी को इसका फायदा होगा ।
अलबत्ता सच यह भी है सुपर बग अमरीकी और योरप वासियों के लिए उतना बड़ा हौव्वा नहीं है जितना चिकित्सा तंत्र के झमेले ,आम अमरीकी की औकात से बाहर इलाज़ पर आने वाला खर्च .माहिरों से मुलाक़ात में दिक्कत .जब तक यह दिक्कत है ,भारत का चिकित्सा पर्यटन उद्योग यूं ही विकसित होता रहेगा ।
मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है ,वही होता है जो मंजूरे खुदा (खर्चे )होता है .

डाइट सोफ्ट ड्रिंक्स और प्रीमीज़

"डाइट सोफ्ट ड्रिंक्स काज प्रिमेच्युओर बर्थ्स"(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २१ ,२०१० ,पृष्ठ १७ )।
साइंसदानों ने गर्भवती महिलाओं को कृत्रिम रूप से मीठे पेय (कथित डाइट सोफ्ट ड्रिंक्स) से परहेजी बरतने की सलाह दी है .पता चला है गर्भवती महिला द्वारा डाइट सोफ्ट ड्रिंक्स के नियमित सेवन से प्रीमीज़ (प्री -मेच्युओर बेबीज़ )समय पूर्व जन्मे बच्चों के पैदा होने का ख़तरा बढ़ जाता है ठीक उसी अनुपात में जिसमे आपने इन कथित डाइट ड्रिंक्स का सेवन किया है ।
डेनमार्क में संपन्न एक अध्ययन में तकरीबन ६० ,००० गर्भवती महिलाओं की पड़ताल करने पर पता चला है जो महिलायें गर्भा -वस्था की सामान्य अवधि ४० सप्ताह के दरमियान बुद -बु -दे -दार (बबली या फिजी )ड्रिंक्स या फिर स्टिल डाइट सोफ्ट ड्रिंक्स का नियमित सेवन करतीं हैं उनके लिए समय पूर्व प्रसव का ख़तरा बढ़ जाता है .जो रोजाना एक ऐसी कथित सोफ्ट ड्रिंक्स लेतीं हैं उनके लिए यह ख़तरा बढ़कर ३८% तथा रोज़ -बा -रोज़ ४ ड्रिंक्स ले लेतीं हैं उनके लिएऐसे खतरे का वजन बढ़कर ७८ % हो जाता है .३६ सप्ताह या और भी पहले पैदा हुए ऐसे बच्चों को ही प्रीमीज़ कहा जाता है .अमरीकन जर्नल ऑफ़ क्लिनिकल न्यूट्रीशन में यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई है ।
ऐसा समझा जाता है कृत्रिम मीठे (आर्टिफिशियल स्वीट -नर्स )शरीर में जाकर ऐसे रसायनों में विघटित हो जातें हैं जो गर्भ को असर ग्रस्त करतें हैं .तो ज़नाब डाइट पेप्सी या फिर डाइट कोक से सावधान रहिये -जी करता है प्यास लगे ,ठंडा यानी कोकोकोला के झांसे में मत आइये अगर वह डाइट होने का भी दावा करता है .

शनिवार, 21 अगस्त 2010

छिट्को भैया धुआं खोरों की सांगत से

सेकिंड हैण्ड स्मोक टू कैन आल्टर जींस (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २१ ,२०१० ,पृष्ठ १७ )।
एक अभिनव अध्ययन ने आगाह किया है ,सेकिंड हैण्ड स्मोक भी एक व्यक्ति के जींस को तब्दील कर सकता है ।
(प्राइमरी स्मोक वह होता है जो कश छोड़ने के रूप में धूम्रपानी के मुख से बाहर निकलता है ,सेकेंडरी स्मोक उसे कहतें हैं जिसका सेवन उसके गिर्द मौजूद लोगों को झेलना पड़ता है ,साइड स्ट्रीम स्मोक दो कश के बीच सिगरेट से निकलने वाला धुआं है ।).
अमरीकन जर्नल ऑफ़ रिस्पाय -रेटरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसन में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक़ धूम्रपानी की सोहबत में रहने वाले लोगों को भविष्य में सेकेण्ड हैण्ड सिगरेट स्मोक का(एक्सपोज़र टू लो लेविल ऑफ़ स्मोकका ) खमियाजा फेफड़ों की बीमारी के रूप में भुगतना पड़ सकता है . जीवन इकाइयों(जींस ) के काम करने के ढंग पर इस धुयें के जैविक असर का आकलन अध्ययनपहली मर्तबा किया गया है ।
रिसर्चरो के मुताबिक़ धुयें का निम्नतर स्तर भी श्वसनी क्षेत्र तथा एयरवेज़ का अस्तर बनी कोशाओं के जीवन खण्डों(जींस ) को असरग्रस्त करता है ।
"इविन एट दी लोवेस्ट डिटेक्टी -बिल लेविल्स ऑफ़ एक्सपोज़र ,वी फ़ाउंड डायरेक्ट इफेक्ट्स ऑन दी फंक्शनिंग ऑफ़ जींस विदिन दी सेल्स लाइनिंग दी एयर वेज़ ,"सैद रोनाल्ड क्र्यस्तल ,सीनीयर ऑथर ऑफ़ दी स्टडी .,एंड चीफ ऑफ़ दी डिविज़न ऑफ़ पल्मोनरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसन एट न्यू -योर्क -प्रेस्ब्य-तेरियन /वीएल कोर्नेल एंड चेयर- मेन ऑफ़ दी डिपार्टमेंट ऑफ़ जेनेटिक मेडिसन एट वेइल कोर्नेल मेडिकल कोलिज इन न्युयोर्क सिटी .
हेवी स्मोकर्स के मामले में जो "जींस" आमतौर पर सक्रीय होकर" ऑन -ऑफ़" होतें रहतें हैं वही उनके मामले में भी ऐसा ही करतें हैं जिन्हें धुयें के कमतर स्तर को झेलना पड़ता है मजबूरन .यानी स्मोकर्स के आसपास के लोगों के साथ भी ऐसा ही अनर्थ होता है .यानी करे मुल्ला पिटे जुम्मा ।
क्रिस्टल और उनकी टीम ने कुल तीन अलग अलग वर्गों के १२१ लोगों का परीक्षण किया .(१)नॉन -स्मोकर्स (२)एक्टिव स्मोकर्स .(३)लो एक्सपोज़र स्मोकर्स ।इन सभी में -
निकोटिन तथा कोतिनिने (कोटि -निन) के स्तर का पेशाब में पता लगाया गया .ये दोनों ही मार्कर्स ऑफ़ स्मोकिंग विद -इन दी बॉडी कहे जातें हैं .
अब इनमे से हरेक केपूरे जीनोम की स्केनिंग की गई .ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कौन कौन से जींस एक्टिवेट या दी -एक्टिवेट (सक्रीय या निष्क्रिय हुएँ हैं एयर वेज़ के )हुएँ हैं इनके एयरवेज़ की सेल्स लाइनिंग के .निकोटिन और कोतीनिन के हरेक स्तर का जेनेटिक एब्नोर्मेलितिज़ (आनुवंशिक गडबडी )से साफ़ सम्बन्ध दिखलाई दिया ।
इसका मतलब यह हुआ -नो लेविल ऑफ़ स्मोकिंग ,ऑर एक्सपोज़र टू सेकेण्ड हैण्ड स्मोक इज सेफ .स्मोकिंग हर हाल में बुरी .सबके लिए बुरी .,जो भी स्मोकर की सोहबत में हैं ,सावधान हो जाएँ ।चेताना हमारा काम है बाकी आपजाने ?
आल्सो दी जेनेटिक चेंज़िज़ आर लाइक ए "कैनरी इन ए कोल माइन".,वार्निंग ऑफ़ पुटेंशियल लाइफ थ्रेट -निंग डिजीज .

हरी पत्तेदार सब्जियां जीवन शैली डायबिटीज़ के खतरे के वजन को को कम करतीं हैं . .

ग्रीन ,लीफी वेगीज़ कट डायबिटीज़ रिस्क :(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २१ ,२०१० ,पृष्ठ २१ )।
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बी एम् आई )में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़ खुराख में पालक और दूसरी हरी पत्तेदार सब्जियों का ज्यादा सेवन जीवन शैली रोग (सेकेंडरी डायबिटीज़ )के जोखिम को घटाता है .
लिसेस्टर विश्व -विद्यालय ,सेन्ट्रल इंग्लैंड के साइंसदानों की एक टीम ने पत्रिके कार्टर के नेत्रितिव में ६ अध्ययनों का रिव्यू किया है जिनमे २,२०,००० लोग शरीक रहें हैं .अध्ययन के पुनरीक्षण में खासतौर पर फल और तरकारियों तथा टाईप -२ (एडल्ट ओंसेट या सेकेंडरी डायबिटीज़) के संभावित अंतर सम्बन्ध की पड़ताल की गई है ।
पता चला खुराख में ग्रीन्स की (हरी तरकारियों का सामान्य से ज्यादा सेवन )वन एंड ए हाल्फ एक्स्ट्रा -सर्विंग्स लेने वालों के लिए जीवन शैली डायबिटीज़ के जोखिम का वजन १४ %कम हो जाता है .लेकिन हरी तरकारियों के संग साथ फलों के सेवन कानामालूम सा या फिर कोईख़ास असर दिखलाई नहीं दिया ऐसे खतरे के वजन को घटाने में ।चिकनाई सनी खुराख ,कार्ब्स रिच खुराख (मोर सुग्री डाइट) ,जीवन शैली में कसरत का अभाव (सिदेंतरी लाइफ स्टाइल )ने डायबिटीज़ का फैलाव अमीर ,विकाशशील एवं अब गरीब देशों तक यकसां कर दिखाया है .

चाँद सिकुड़ रहा है लेकिन सृष्टि का फैलना यूं ही ज़ारी रहेगा ...

दी मून मे बी श्रीन्किंग ,न्यू इमेज़िज़ इंडिकेट (डेली न्यूज़ एंड एनेलेसिस ,डी एन ए ,मुंबई ,अगस्त २१ ,२०१० ,पृष्ठ १८ )।
ग्रहविज्ञानियों के मुताबिक़ चाँद का व्यास कम हो रहा है लेकिन सृष्टि यूं ही फैलती रहेगी .दरअसल चाँद का गर्भ प्रदेश (कोर )धीरे धीरे ठंडी पड़ रहा है नतीज़तन व्यास कम हो रहा है . क्रस्ट को इसे समायोजित करने के लिए, नए आकार को आत्मसात करने के लिए, सिकुड़ना पड़ रहा है .यहसिकुडन एक गुब्बारे के सिकुड़ ने जैसी ही है ।
इस सिकुडन का पता तब चला जब एक अन्तरिक्ष अन्वेषी ने चाँद की सतह पर "लोबेट स्क्रेप्स "चाँद के लूनर हाई -लैंड्स में इमेज़िज़ के रूप में दर्ज़ किये .एक दम से असामान्य फाल्ट लाइंस की मानिंद है यह चाँद की दरारें ।
१९७० के चरण में ऐसी ही दरारें अपोलो -मिशन के तहत भी दर्ज़ की गईं थीं .अब १४ नए लोबेट स्क्रेप्स काऔर पता चला है .यह भी लूनर हाई -लैंड्स में ही दर्ज़ हुईं हैं ।(लूनर का मतलब चाँद से सम्बंधित होता है .)
लोबेट स्क्रेप्स क्या हैं ?
स्क्रेप्स हेविंग ऑर रिज़ेम्ब -लिंग ए लोब ऑर लोब्स इज काल्ड लोबेट स्क्रेप्स .लोब आप जानतें हैं पिंडक या पिण्डिका को कहा जाता है जैसे कान के नीचे का भाग ईयर लोब .आल्सो ए ब्रोड राउंन -डिड सेग्मेंटल डिविज़न ,फ्लेट पार्ट ऑफ़ एन ओरगेनस्पेशियली दी लंग्स एंड दी ब्रेन इस काल्ड ए लोब ।
लूनर ऋ- खोनिसन्सऑर्बिटर स्पेस क्राफ्ट ने चाँद की सतह का अन्वेषण किया है .पता चला है यह फाल्ट लाइंस चाँद की सतह पर यत्र तत्र सर्वत्र मौजूद हैं .दरअसल सिकुड़ने किप्रक्रिया मेंपहले से हीचाँद की भंगुर पर्पटी (क्रस्ट) में तो दरारें आनी हीं थीं .
डॉ वात्तेर्स के मुताबिक़ भूगर्भीय दृष्टि से ये दरारें ताज़ा ताज़ा ही हैं .लगता है सिकुड़ना चाँद का एक भूगर्भीय टाइम स्केल मेंएक हालिया घटनाही है .
वजह चाँद के अंतर- प्रदेश का सिकुड़ना ही हो सकता है .
हालाकि चाँद का यह सिकुड़ना (जिसका व्यास पृथ्वी के व्यास का एक चौथाई ही है )पृथ्वी वासियों के लिए कोई खतरे का संकेत नहीं है ,चाँद भी बरकरार रहेगा .लेदेकर आदिनांक इसका व्यास १०० मीटर ही कम हुआ है .विज्ञान पत्रिका "साइंस "में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है ।
इस दरमियान एक भारतीय मूल के सृष्टि विज्ञानी जो याले विश्व -विद्यालय से सम्बद्ध हैं ने पता लगाया है -सृष्टि का वर्तमान फैलाव -विस्तार आइन्दा भी ज़ारी रहेगा .आप हैं प्रियंवदा नट -राजन .आपने एक भारी भरकम नीहारिका समूह (मेसिव गेलेक्टिक क्लस्टर ) का स्तेमाल एक कोस्मिक मेग्निफ़ाइन्ग लेंस (एक ब्रह्मांडीय आवर्धक लेंस ) के रूप में डार्क एनर्जी की प्रकृति को बूझने के लिए किया हैं ।
सृष्टि की ज्यामिति की पड़ताल के लिए खगोल विद बहु- विध तरीके अपनातें हैं .मकसद होता है डार्क एनर्जी की तह तक जाना ,बूझना इस रहस्य -मय बल को जिसके बारे में १९९८ में पता चला था .समझा जाता है यही अंध- ऊर्जा सृष्टि के विस्तार की रफ्तार को पंख लगा रही है ।
खगोलज्ञों की टीम ने ३४ ऐसी निहारिकाओं की इमेज़िज़ को खंगाला है जो हमसे धुर ,एक्सट्रीम डिस्टेंस , दूरी बनाए हुएँ हैं और अब ये दूरियां सुदूरतम हो रहीं हैं .लेकिन इसकी अपनी प्रकृति के बारे में विशेष कुछ तारा -माहिरों के हाथ नहीं लगा है ।
आबेल (अबल )१६८९ नीहारिका भारी भरकम ज्ञात निहारिकाओं में से एक है .इससे भी परे की निहारिकाओं को खंगाला गया है .फलस्वरूप फेंट और सूदूर निहारिकाओं का पता चला .साथ ही यह भी पता चला इनके प्रकाश को विचलित कर रहा है एक मेसिव गेलेक्टिक क्लस्टर का गुरुत्व बल .ठीक वैसे ही जैसे एक लेंस (आवर्धक में प्रयुक्त ) आपतित प्रकाश का मार्ग बदल देता है ,बेंड कर देता है प्रकाश को .यहाँ नीहारिका का गुरुत्व एक लेंस की तरह काम करने लगता है .
खगोल विज्ञान के माहिरों के शब्दों में :"दी कंटेंट ,ज्योमेट्री एंड फेट ऑफ़ दी यूनिवर्स आर लिंक्ड ,सो इफ यु कैन कोंस्ट्रेंन टू ऑफ़ डोज़ थिंग्स ,यु लर्न समथिंग अबाउट दी थर्ड .

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

हम सबकी आदि -माँ (इव )दो लाख साल पहले अवतरित हुई थी

मदर ऑफ़ आल ह्युमेंस ,लिव्ड २,००,००० ईयर्स एगो (मुंबई मिरर ,अगस्त २४ ,२०१० ,पृष्ठ २४ )।
बाइबिल के अनुसार परमात्मा ने ही ईव की सृष्टी की थी और उसे ईडन गार्डन में आदम के संग छोड़ दिया था .एक अध्ययन के अनुसार ईव का समय अब से दो लाख साल पहले का ठहरता है .(पूर्व के अध्ययनों में बतलाया गया था यह एक दक्षिणी -अफ़्रीकी महिला थी ।).
राईस विश्व -विद्यालय में संपन्न इस अध्ययन में साथ साथ एक साथ दस जेनेटिक मोडल्स का तुलनात्मक अध्ययन किया गया ,सभी आनुवंशिक निदर्शों की जांच पड़ताल की गई .सबका मकसद ईव का काल निर्धारण करना था .अध्ययन के सह -रचनाकार मारेक किम्मेल के अनुसार यह अन्वेषण आबादी से ताल्लुक रखने वाली बे -तरतीब प्रक्रियाओं यथा ग्रोथ तथा एक्स -टिंक -शन (बढ़वार तथा विलोपन ) को ख़ास तौर पर रेखांकित करता है ।
इसके लिए माइतो -कोंड्रिया के जीनोम का स्तेमाल किया गया ।अब क्योंकि हर आदमी अपनी माँ से एक जीनोम विरासत में प्राप्त करता है इसलिए सभी माइतो -कोंड्रियल लाइनेजिज़ मैटरनल हो जातीं हैं .परिवार में मातरि -पक्ष से सम्बन्धित हो जातीं हैं .इस प्रकार वंश कुल मातरि - पक्ष से ही ताल्लुक रखता है .
माइतो -कोंड्रिया वह सूक्ष्म ओर्गानेल्लेस हैं जो सभी कोशाओं की एनर्जी फेक्ट्री हैं .ओर्गानेल्लेस खुद क्या हैं ?ओर्गानेल्ले इज ए स्पेसिफाइड पार्ट ऑफ़ ए सेल फॉर एग्जाम्पिल दी न्यूक्लियस और दी माइतो -कोंड्रिया देट हेज़ इट्स ओन पट्टी -क्युलर फंक्शन ।
जीनोम क्या है ?
जीनोम इज दी फुल कोम्प्लिमेंट ऑफ़ जेनेटिक इन्फार्मेशन देट एन इन्दिविज्युअल ओर्गेनिज्म इन्हेरिट्स फ्रॉम इट्स पेरेंट्स स्पेशियली दी सेट ऑफ़ क्रोमोसोम्स एंड दी जींस दे केरी .
आम भाषा में कहें तो ,एक कोशिका या सजीव में स्थित पूर्ण जीन समुच्चय को जीनोम कहा जाता है .आल दी जींस इन वन सेल ऑफ़ ए लिविंग थिंग लाईक ए ह्यूमेन जीनोम इस रेफार्ड टू एज जीनोम ।
ईव के काल निर्धारण के लिए साइंसदानों ने कुछ समीकरणों का स्तेमाल किया इनमे संख्यात्मक नियतांक डाले गये (न्यूमेरिक कोंस्तेंट्स वर प्लग्ड इनटू दीज़ इक्युएसन्स ).हर मोडल एक अलग अवधारणा पर आधारित था जिनके गणितीय निहितार्थ भी जुदा थे ।
पता चलाउन सभी निदर्शों से जिन्होनें रेंडम पोप्युलेसन साइज़ का भी हिसाब किताब रखा ,कालनिर्धारण का अनुमान यकसां निकला ।
इस रिसर्च का पूरा ब्योरा थिओरेतिक्ल पोप्युलेसन बायलोजी जर्नल मेंओन लाइन उपलब्ध है .

सेहत के लिए अच्छा है किसी से जुड़ना ,सम्बन्ध बनाना

रिलेशन -शिप्स आर गुड फॉर योर हेल्थ (मुंबई मिरर ,अगस्त २०,२०१० ,पृष्ठ ३३ ).
शिकागो विश्व -विद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है दवाब कारी स्थितियों का मुकाबला वह लोग बेहतर तरीके से कर पातें हैं जो किसी से जुड़े रहतें हैं ,सम्बन्ध की आंच को बनाए रहतें हैं .इनमे स्ट्रेस हारमोन की इंटेंसिटी(क्वान्टिटी,स्तर ,मात्रा )कम रहती है बरक्स इनके सम -कक्ष अकेले जीवन यापन करने वालों के .ज़ाहिर है शादी शुदा होने या फिर लिविंग इन रिलेशन -शिप के कुछ तो फायदें हैं ही ।
आपके तनाव ग्रस्त होने का सूचक एक स्ट्रेस हारमोन "कोर्टिसोल "होता है .इसकी इंटेंसिटी बता देती है आप कितने तनाव में हैं .दवाब कारी स्थितियों में ही इसका स्राव होता है ।
अध्ययन के अगुवा प्रोफ़ेसर दारियो मेस्त्रिपिएरि ने पता लगाया है मनो -वैज्ञानिक दवाब कारी स्थितियों के प्रति कोर्टिसोल रेस्पोंस को शादी शुदा जिंदगी कमतर कर देती है .
उन्हीं के शब्दों में -"मेरिज हेज़ ए डेम्प-इनिंग इफेक्ट ऑन कोर्तिसोल रेस्पोंसिस टू साईं -कोलोजिकल स्ट्रेस "।
यही वजह है शादी शुदा लोग अपेक्षाकृत लम्बी उम्र जीतें हैं ,हृद रोगों से इन का सामना भी कमतर होता है .(कई अभागे तो बीवी को ही ह्रदय -रोग मानतें हैं ).
आपने अध्ययन के लिए ५०० छात्रों को चुना जिनमे से आधे शादीशुदा थे .इकोनोमिक कंप्यूटर गेम्स की एक पूरी श्रृंखला इनके पाठ्य क्रम का हिस्सा थी .भविष्य में उनके प्लेसमेंट से ताल्लुक रखता है इन खेलों का नतीजा सभी को यह साफ़ बता दिया गया था ।
अध्ययन के आरम्भ और आखिर में इनके सेलाइवा नमूने जांच के लिए जुटाए गये .ताकि हारमोन स्तरएवं संभावित बदलाव दर्ज़ किया जा सके .
बेशक सभी भागीदारों में हारमोन का स्तर बढा हुआ दर्ज़ किया गया ,खासकर महिलाओं में .लेकिन एक व्यक्ति गत जानकारी जो शुरू में ही सभी से जुटाई गई थी उससे सभी सब्जेक्ट्स मेंपरस्पर एक अंतरऔर साफ़ तौर पर पता चला .विज्ञान पत्रिका "स्ट्रेस "में इस अध्ययन के नतीजे प्रकाशित हुएँ हैं .
मेरिज अफेक्ट्स दी वे यु डील ए हाई -प्रेशर सिच्युएशन ,यु वैदर दी स्ट्रेस .

बेली फैट थोड़ा सा भी बढ़ने का मतलब ?

जस्ट ए लिटिल बेली फैट कैन हार्म ब्लड वेसिल्स (मुंबई मिरर ,अगस्त २०,२०१० ,पृष्ठ ३० ,साइंस -टेक्नोलोजी )।
मेयो क्लिनिक रिसर्चरों के अनुसार स्वस्थ लोगों द्वारा बस थोड़ा सा भी बेली फैट (९ पौंड्स )ज़मा करलेना बढा लेना उनके लिए एंडो -थेलिअल सेल डिस -फंक्शन के जोखिम को बढा देता है .
एंडो -थेलिअल कोशायें ब्लड वेसिल्स (रुधिर -वाहिकाओं )का अस्तर तैयार करती हैं ,तथा इनके सिकुड़ने फैलने पर काबू रखतीं हैं ।
एंडो -थेलिअल सेल्स लाइन दी ब्लड वेसिल्स एंड कंट्रोल दीएबिलिटी ऑफ़ दी वेसिस्ल्स टू एक्सपैंड एंड कोंत्रेक्ट.एंडो -थेलिअल डिस -फंक्शन का सम्बन्ध मुद्दत से परि -ह्रदयधमनी रोगों के खतरे के वजन के बढ़ने से जोड़ा जाता रहा है .मेयो क्लिनिक के हृदरोग माहिर विरेंद सोमेर्स इसकी तस्दीक करतें हैं ।
यूं कोलिज के मौज मस्ती के दिनों में ,छुट्टी भुगताते हुए एक लम्बी विभिन्न देशों कीसमुद्री यात्रा के दौरान कुछ पोंड्स वजन का बढना कोई अनहोनी नहीं ,निरापद ही समझा जाता है .लेकिन दिक्कत तब होती है जब इजाफा एब्डोमिनल फैट (विसीरल फैट में हो )में हो बेली फैट बढे .इसके हृद रोग सम्बन्धी निहितार्थ हो सकतें हैं .दिल की सेहत को असर ग्रस्त कर सकता है यह थोड़ा सा भी बेली फैट ।
अधययन में सोमेर्स ने ४३ स्वस्थ स्वयं सेवियों को नियुक्त किया .इनकी औसत उम्र २९ वर्ष थी .इनकी बाजू की आर्टरी में रक्त की आवाजाही देख कर एंडो थेलिअल डिस -फंक्शन का जायजा लिया गया .इन्हें या तो ८ सप्ताह तक वजन बढाने की सलाह दी गई या वजन को एक समान बनाए रखने की .साथ ही इस दरमियान रक्त -प्रवाह का जायजा भी लिया जाता रहा .जिन लोगों का वजन बढा अब उन्हें वजन घटाने के लिए कहा गया .एक बार फिर रक्त प्रवाह का जायजा लिया गया ।
जिन लोगों ने विसरल फैट बढाया उन लोगों का रक्त चाप हालाकि सामान्य ही रहा लेकिन बाजू की आर्टरी में रक्त की आवा- जाही कमतर हो गई .लेकिन वजन(बेली फैट ) घटा लेने पर इसकीबराबर आपूर्ति भी हो गई .
जो लोग अपना वजन एक दिए हुए स्तर पर बनाए रहे उनमे रक्त प्रवाह का विनियमन असर ग्रस्त नहीं हुआ जिनका वजन तो बढा लेकिन यकसां केवल बेली फैट नहीं ,समान रूपसे पूरी काया में बढ़ा उनमे रक्त प्रवाह कमतर असरग्रस्त हुआ .
लेकिन जिन का वजन सालों साल बढा रहता है ,वजन घटाने पर रक्त प्रवाह की पुनर -प्राप्ति उतनी ही हो पाती है इसका कोई निश्चय संकेत अध्ययन नहीं देता ।
अलबत्ता ज्यादा खतरनाक है एब्डोमिनल ओबेसिटी ,ओबेसिटी के बरक्स .यह तो एक दम से शीशे की तरह साफ़ ही है ।
अध्ययन अमरीकन कोलिज ऑफ़ कार्डियोलोजी में प्रकाशित हुआ है ।
एंडो -थेलियम ?
ए लेयर ऑफ़ सेल्स देट लाइंस दी इनसाइड ऑफ़ सर्टेन बॉडी केविटीज़ फॉर एग्जाम्पिल ब्लड वेसिल्स इस काल्ड एंडो -थेलियम .

भौमेतर जीवन है तो आज तक सुराग क्यों नहीं मिला उसका ?

सिद्धान्तिक भौतिकी -विद स्टीवंस हाकिंस तथा गणितीय भौतिकी -विद रोगर पेंरोज़ के अलावा और भी नाम चीन साइंसदान हैं जो भौमेतर जीवन में यकीं पाले बैठें हैं .सवाल है यदि वास्तव में बौद्धिक प्राणियों का अन्यत्र भी अस्तित्व है और वह एक ऐसी सभ्यता का प्रति-निधित्व करतें हैं जो प्रोद्योगिकी और संचार में हमसे बहुत आगे है ,तो फिर आज तक वह भी हमारा सुराग क्यों नहीं लगा पाए ?
इन्हीं सवालातों का मंथन करेगा यह आलेख ।
हमारा यह विश्व (गोचर जीवन जगत ,हमारी यह सृष्टि ,ओब्ज़र्वेबिल यूनिवर्स )अब से तकरीबन १३.७० बरस पहले तब पैदा हुआ जब अन्तरिक्ष ,काल ,पदार्थ आदि का कोई अस्तित्व नहीं था .इसे ही सृष्टि -विज्ञानी"कहतें हैं ।
टाइम जीरो -दी पॉइंट ऑफ़ सिंग्यु -लारी -टी "।
सृष्टि विदों के मुताबिक़ इसी परम अन्तरिक्ष -काल (दिक् -काल )के निर्वात में (शून्य में )एक घटना घटी .जिसकी व्याख्या हाकिंग्स -पेंरोज़ सिंग्यु -लरी -टी थयेरम्स करतीं हैं जो स्वयं आइन्स -टाइन महोदय के गुरुत्व संबंधी सापेक्षवाद का टेका लिए खड़ीं हैं ।
संदर्भित घटना पदार्थ -प्रति -पदार्थ (मैटर -एंटी -मैटर ),समानद्रव्य -मान लेकिन विपरीत गुण धर्मी आवेश लिए द्रव्य की दो कणिकाओं के परस्पर आलिंगन -आत्मघात से ताल्लुक रखती है .इन दोनों कणों ने परस्पर अल्पकालीन मिलन मनाकर आत्म ह्त्या कर ली थी ।ये कण थे इलेक्त्रोंन -पोज़ित्रोंन .
इसी वेक्यूम -फ़्लक्च्युएशन का नतीजा था "बिग बैंग "जिसे सुपर -डेंस थियरी या महा -विस्फोट सिद्धांत भी कहा जाता है ।
इस शून्य काल से पहले (बिफोर टाइम जीरो )परस्पर विनाश की यह घटना प्रति -सेकिंड हज़ारों अरबों दफा घट रही थी ,अविराम .यह सब सृष्टि पूर्व के कुछनहीं- पन में घटित हो रहा था .इस प्रकार परम निर्वात की स्थिति जीरो मॉस ,जीरो -टाइम ,जीरो -स्पेस को बनाए रही .परस्पर विनाश की यह घटना टेन टू दी पावर माइनस हंड्रेड सेकिंड्स से भी कम समय में घटरही थी .
प्रेक्षक के लिए इस घटना का कोई अर्थ नहीं था क्यों की प्रेक्षण से पूर्व ही यह चुक जाती थी ।
इस कुछ- नहीं- पन में से अप्रत्याशित तौर पर टेन टू दी पावर एट्टीनसे लेकर टेन टू दी पावर थर्टी अवसरों में से सिर्फ एक दफा एक इलेक्त्रोंन -पोज़ित्रोंन जोड़ा बच निकला .इसी से सृष्टि का जन्म हुआ .हमारे यूनिवर्स के संग एक "मिरर "निगेटिव यूनिवर्स का जन्म हुआ .यही बिग बैंग की वजह बना ।
स्रष्टि का इसी के साथ फैलाव -विस्तार का सिलसिला शुरू हुआ .गुरुतर सौर मंडलों के बीच सितारों का जन्म हुआ .पृथ्वी जैसे अनेक ग्रह उनकी परिक्रमा करने लगे .ऐसे अरबों अरब सौर मंडलों ने निहारिकाओं के सघन झुंडों को अस्तित्व मुहैया करवाया .इन्हीं के बीच यहीं कहीं गोपनीय ब्लेक होल्स (अन्तरिक्ष की काल कोठरियां थीं ।).
इनके विशाल गुरुत्व से इनके नजदीक से गुजरने वाला फोटोन(प्रकाश का सबसे छोटा कण,क्वांटम ऑफ़ लाईट )पथ विचलित हो जाता है .इनकी सतह से कुछ भी बाहर नहीं जा सकता ,प्रकाश भी नहीं इसीलिए तो इन्हें अंध कूप कहाजाता है ।
हमारी मिल्की वे गेलेक्सी में तकरीबन ३५०अरब सितारे हैं,सौर मंडल हैं .(एक नीहारिका में औसतन २०० अरब सितारे होतें हैं .).इनमे से कितनेही सितारों के गिर्द पृथ्वी जैसे ग्रह चक्कर काट रहें हैं .नासा के केप्लर अन्तरिक्ष टेलिस्कोप ने इसकी पुष्टि की है .इनकी सतह पर जल है .मंझोले दर्जे के तापमान हैं ,जीवन दाई ऑक्सीजन है ।
हमारे सौर मंडल के बाहर निकट का सौर मंडल है अल्फा -सेंटौरी.यदि हम अब तक के द्रुत गामी अन्तरिक्ष यान "हेलिओस २ "में सवार हो वहां तक पहुचना चाहें जो १,५७ ,००० मील प्रति घंटा से आगे बढ़ता है तब भी हमें १२,००० बरस लग जायेंगें .और यह तो हमारा निकट का पड़ोसी है(४.३ प्रकाश बरस की दूरी पर ) दूसरे सौर मंडल तो बहुत अधिक दूरी पर हैं .वहां तक कब पहुंचिएगा ?
देवयानी नीहारिका (एंड्रोमीडागेलेक्सी )की बात करतें हैं यह हमारी दूध गंगा (मिल्की वे गेलेक्सी )से कहीं भारी -भरकम है जो १००० अरब सितारे लिए है .२.७० मिलियन लाईट ईयर्स की दूरी बनाए हुए है यह हम से .इसके किसी सौर मंडल से निकला प्रकाश अब से कोई २.७० मिलियन ईयर्स पहले चला होगा .तब पृथ्वी पर "प्लिओ -प्लेइस्तोकेने(प्लीस्तोसिंन ) "युग रहा होगा .लेदेकर इस बरस वह प्रकाश हम तक पहुँचने वाला होगा ।
बस इसी में उस बिलियन डॉलर सवाल का हल छिपा है आखिर क्यों नहीं कथित अति -विकसित सभ्यताएं पृथ्वी जैसे क्षुद्र ग्रह वासियों से संपर्क कर पा रहीं हैं ?
आप को बतला दें पृथ्वी पर संचार की कहानी लेदेकर १२२ बरस पुरानी है .इससे पहले रेडियो -कम्युनिकेशन कहाँ था ?
वह सिग्नल जो हमने भेजे थे जिनका सफर हमसे शुरू हुआ था अभी तो हमारे अपने सौर मंडल झुण्ड से बाहर बा मुश्किल पहुंचे होंगें .सारा खेल समय और दूरी का है .दूरियां जो खगोल वैज्ञानिक हैं .एस्ट्रो -नोमिकल हैं .ज़ाहिर है -अभी तो और भी रातें सफ़र में बाकी हैं ,चरागे शव मेरे महबूब संभाल कर रख ।
सैंकड़ों साल भी लग जाएँ तो क्या ?हम तो इस बात के कायल हैं -कितनी दूरी मंजिल की हो चलते चलते कट जाती है ,कितनी रात अँधेरी हो ,पर धीरे धीरे घट जाती है ।
एक ना एक दिन मिलन होके रहेगा .कैसे होंगे वह लोग बे- शक इसका कोई निश्चय नहीं .लेकिन हम अकेले नहीं हैं .सितारों से आगे जहां और भी हैं ,तेरे सामने इम्तिहान और भी हैं ।
ग़ालिब ने यूं ही नहीं कहा होगा -मंजिल एक और बुलंदियों पर बना लेते ,काश की ,अर्स से परे होता ,मकान अपना ।
सन्दर्भ -सामिग्री :-दी इंटेलिजेंट यूनिवर्स (कोंटेक्ट विद एक्स्ट्रा -टेरिस -ट्रियल लाइफ विल मार्क वन ऑफ़ रिकोर्डिद हिस्त्रीज़ मोस्ट इम्पोर्टेंट इवेंट्स )/दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त २० ,२०१० ,पृष्ठ २२ /लीड स्टोरी ,एडिटोरियल पेज ).

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

व्हिस्की उप -उत्पाद से जैव -ईंधन

साइंटिस्ट क्रियेट बायो -फ्यूल फ्रॉम व्हिस्की बाई -प्रोडक्ट (मुंबई मिरर ,अगस्त १९ ,२०१० ,पृष्ठ २४ ).हाई ऑन हाई -वे :ए ग्रीन कार देट रन्स ऑन व्हिस्की (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त १९ ,२०१० ,पृष्ठ १९ )।
व्हिस्की प्रेमी अगर चाहें तो यह खबर पढ़कर एक ड्रिंक स्काच का तैयार कर सकतें हैं अपने तैं.स्कोट लैंड के साइंस दानों ने व्हिस्की के आसवन के बाद बचे उप -उत्पादों सेएक ऐसा बायो -फ्यूल तैयार कर लिया है जिसे मौजूदा कारों में बिना कोई फेरबदल किये पेट्रोल डीज़ल के साथ भी मिलाया जा सकेगा ।
एडिनबरा नेपियर यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने इसके व्यावसायिक उत्पादन के लिए पेटेंट के लिए भी आवेदन कर दिया है .यह एक दो साला रिसर्च प्रोजेक्ट का हासिल हैं ।
व्हिस्की के आसवन के बाद "पोट आले "कोपर स्टिल्स (बिना बुदबुदे का तरल )तथा द्राफ्फ़ बचतें हैं ।
द्राफ्फ़ क्या है ?
आम भाषा में इसे स्पेंट ग्रेन कह सकतें हैं .इट इज दी रेज़ी -ड्यू लेफ्ट इन ब्रूइंग आफ्टर दी ग्रेन हेज़ बीन फर्में -टिड,यूज्ड एज फ़ूड फॉर केटिल।
इन दोनों से ही अंतिम उत्पाद के बतौर जैव ईंधन ब्युटा -नोल प्राप्त किया जाता है .ज़ाहिर है यह ऐसे जैविक पदार्थ से हासिल किया गया जिसे पहले ही उप -उत्पाद के रूप में हासिल किया जा चुका है .इसलिए इसे ग्रीन फ्यूल कहना अति -श्योक्ति नहीं समझा जाना चाहिए .यूं इसे स्वतंत्र रूप में भी ईंधन के तौर पर काम में लिया जासकता है .लेकिन एक तंत्र तो चाहिए ही इसके वितरण के लिए .आसान काम है इसका ५-१० फीसद भाग पेट्रोल और डीज़ल के साथ मिलाकर मिश्रण के तौर पर काम में लिया जाए ।
स्कोट लैंड जिसके नाम पर स्कोच को जाना जाता है (स्कोट -लैंड की बनी व्हिस्की ही तो स्कोच है )के व्हिस्की उद्योग के लिए इसके बड़े मानी हैं .रेवेन्यु का यह एक नया स्रोत हाथ आया है .यह वन तथा वन्य-जीवन को उजाड़ कर हासिल नहीं किया गया है .पर्यावरण मित्र है यह जैव -ईंधन सही मायनों में .जिसे मौजूदा कार मोडलों में ही काम में लिया जा सकता है .

मनो -विकारों के प्रबंधन में सलाह मशविरे के साथ "साइके -ड़ेलिक ड्रग्स "

साइके -ड़ेलिक ड्रग्स फॉर डिप्रेसन ?ज्यूरी इज आउट (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त १९ ,२०१० ,पृष्ठ १९ )।
साइके -ड़ेलिक दवाएं हेल्युसिनो -जेनिक होतीं हैं दृश्य एवं श्रव्य दोनों तरह के हेल्युसिनेसंस पैदा कर सकतीं हैं .स्तेमाल करता को वह आवाजें सुनाई दे सकतीं हैं जो उसके आसपास के परिवेश में हैं ही नहीं ,अजीबो -गरीब दृस्य दिखलाई दे सकतें हैं .अलावा इसके कुछ मनो -रोगों के लक्ष्ण भी ये दवाएं पैदा कर सकतीं हैं .इसीलिए इनका स्तेमाल और शोध मनो -रोगों के प्रबंधन में काफी पहले से निलम्बित रहा आया है .इन दवाओं के असर में आकर साइके -ड़ेलिक संगीत और साइके -ड़ेलिक आर्ट भी सृजित हुई है ,एब्नोर्मल साइकिक स्टेट्स ही इसका प्रेरक तत्व रही है ।
अब एक बार फिर कुछ साइंसदान इनकी आज़माइश की सिफारिश साइको -थिरेपी ,बिहेवियरल -थिरेपी के संग करने की, कह रहें हैं .इनमे स्विट्ज़रलैंड के साइंसदान प्रमुख हैं .इस बात की पड़ताल होनी चाहिए ,अवसाद ,कम्पल्सिव डिस -ऑर्डरस,तथा लाइलाज पुरानी चली आई चिर -कालिक दर्द के प्रबंधन में यह कितनी असरकारी सिद्ध होतीं हैं .शोध पार ढक्कन नहीं लगना चाहिए ।
हालिया ब्रेन स्केन स्टडीज़ से ऐसा संकेत मिल रहा है ,लाइ -सर्जिक -डाई -इथाइला -माइद(एल एस डी ),कीटामाइनतथा साइलो -साइबिन (साइके -देलिक्स )तथा मेजिक मशरूम्स जैसी रिक्रियेश्नल दवाओं में एक साइको -एक्टिव कंपोनेंट होता है जो चित्त पर ऐसा असर करता है , दिमाग के प्रकार्य को इस तरह प्रभावित करता है ,जिससे कुछ मानसिक विकारों यथा अवसाद , ओब्सेसिव कम्पलसिवडिस -ऑर्डरस ,बाई -पोलर -इलनेस के लक्षणों की उग्रता घट सकती है .मरीज़ का जीवन और जगत ,स्थितियों के बारे में नज़रिया बदल सकता है .मनो जगत भी ।
एक प्रकार के उत्प्रेरक का काम कर सकतीं हैं ये दवाएं .यही केटएलिस्ट दर्द के एहसास और समस्याओं के प्रति मरीज़ का रूख मोड़ सकता है सकारात्मक तौर पर .एक बिहेवियरल -थिरेपिस्ट ,एक साइको /क्लिनिकल /साइकोलोजिस्ट साइके -डेलिक्स का बेहतर स्तेमाल करवा सकता है .सवाल क्वांटम ऑफ़ साइके -ड़ेलिक ड्रग का है .अलबत्ता इसकी खुराख कम से कम ही रहनी चाहिए (मिनिमम डोज़ )।
इनका असर व्यक्ति विशेष के लिए अलग अलग हो सकता है .कुछ लोगों को असीम आनंद की अनुभूति हो सकती है तो कुछ की बे -चैनी बे -काबू हो पेनिक में भी तब्दील हो सकती है .एहम सवाल है इनके सटीक विनियमन का .मानसिक परेशानियों मानसिक स्वास्थ्य को पभावित कर सकतीं हैं ये दवाएं .ब्रेन सर्किट्स और न्यूरो -ट्रांस -मीटर सिस्टम्स को भी प्रभावित कर सकतीं हैं ये दवाएं .जैव -रसायन -शास्त्र (बायो -केमिस्ट्री )ही तो तब्दील हो जाती है मानसिक रोगों में ।
यु एस साइंटिस्ट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के मुताबिक़ कीटामाइनकी छोटी सी खुराख सुईं के ज़रिये देते ही असर दिखाती है .बाई -पोलर -इलनेस के मरीज़ का मन देखते ही देखते बदल जाता है .अवसाद से निकाल कर 'लो' से 'हाई' में ले आती है ये दवा .

न्यू -वाईट ब्लड सेल्स दिलवा सकतीं हैं इम्यूनो -सप्रेसेंट्स दवाओं से छुट्टी ?

न्यू -ब्लड सेल्स डिस्कवर्ड (मुंबईमिरर ,अगस्त १९ ,२०१० ,पृष्ठ२८ )।
पुर्तगाली साइंसदानों ने ऐसी अभिनव व्हाईट ब्लड सेल्स का पता लगाया है जो प्रत्यारोपित अंग को इम्यूनो -सप्रेसेंत दवाओं के बिना भी इम्यून सिस्टम से स्वीकृति दिलवा सकतीं हैं .हम जानतें हैं अंग प्रत्यारोपण के बाद मरीज़ को ता -उम्र इम्यूनो -सप्रेसेंत दवाओं पर निर्भर रहना पड़ता है और तब भी लेदेकर कामयाबी की दर १०० फीसद नहीं रहती अंग बहिष्करण का इम्यून -सिस्टम द्वारा ख़तरा बना रहता है .वास्तव में यह दो -धारी तलवार पर चलने के समान है -एक तरफ खतरनाक इम्यून रेस्पोंस को रोकना ज़रूरी होता है ताकि प्रत्यारोपित अंग काम करता रहे दूसरी तरफ रोग -प्रति -रोधी तंत्र की धार को भी शेष रोगों से जूझने लायक बनाए रहना भी उतना ही आवश्यक होता है .शमित क्षेत्र की हदबंदी भी ज़रूरी रहती है .
पुर्त गाली साइंसदान मारिया मोंटिरो तथा लुईस गरचा के अन्वेषणों से कम से कम लीवर ट्रांसप्लांट के मामले में एक उम्मीद ज़रूर बंधी है ।
विज्ञान पत्रिका "इम्युनोलोजी "में इनका अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .यकृत प्रत्यारोप को स्वीकृति दिलवाने के प्रति आश्वस्त करतीं हैं इनके द्वारा अन्वेषित और नामित व्हाईट ब्लड सेल्स "एन के टी रेग "(रेग संक्षिप्त रूप है रेग्युलेरी का यहाँ पर )।
पता चला है एक बार एक्टिवेट कर दिए जाने के बाद ये कोशायें सीधे यकृत में पहुंचकर उसके गिर्द किसी भी प्रकार की इम्यून रेस्पोंस को शमित (सप्रेस कर )बे -असर कर देतीं हैं .लेकिन शेष अंगों के लिए रोग -प्रति -रोधी तंत्र फिर भी पहले की तरह ही मुस्तैदी से काम करता रहता है .ये कोशायें एक" इम्यूनो -टोल्रेंट -ओर्गेंन "रचतीं हैं .इसके बाद किसी भी तरह का टिश्यु ग्राफ्ट लगाया जा सकता है .किसी भी जीन को एक्सप्रेस किया जा सकता है ,जिसकी वहां ज़रुरत हो (प्रत्यारोप के गिर्द )।
ये साइंसदान ऐसे चूहों का अध्ययन कर रहेथे जिन्हें कई ऑटो -इम्यून डिसीज़ से सुरक्षा मुहैया करवाई जा रही थी तभी इनकी इन ख़ास वाईट सेल्स पर नजर पड़ी ।
बेशक यकृत प्रत्यारोप के मामलों में प्रत्यारोप को अब पहले की बनिस्पत ज्यादा कामयाबी मिली है रोग -प्रति -रोधी तंत्र से स्वीकृति के मामलों में लेकिन यकृत के कामयाबी के साथ१५ सालों तक काम करते रहने की कामयाबी दर अभी भी ५८ फीसद पर आकर ठहर गई है .यहाँ भी १० -१५ फीसद मामलों में रोग प्रति -रोधी तंत्र प्रत्यारोप को बहिष्कृत (रिजेक्ट )कर देता है ,विजातीय ही मानता समझता है .अपना नहीं पाता .
अलावा इसके रोग -प्रति -रोधी तंत्र का शमन करने वाली इम्यूनो -सप्रेसेंत दवाएं खासी महंगी होने के साथ साथ जीवन -प्रत्याशा (लाइफ एक्सपें -टेंसी )को भी कम करती हैं क्योंकि मरीज़ के लिए कैंसर का जोखिम बढ़ जाता है ,घातक संक्रमण का जोखिम भी बहुत बढ़ जाता है ।
यदिमाइसकी तरह "एनकेटी रेग "कोशायें मनुष्यों पर भी असर दिखातीं हैं तब इन परेशानियों से निजात संभव है आस यही बंधाई गई है ।ना सिर्फ ऐसा ही होगा एन के टी रेग कोशाओं के संग अन्य रोग -रोधी तंत्र का शमन करने वाली दवाओं की भी कमसे कम ज़रुरत पड़ेगी .प्रत्यारोप को १०० फीसद स्वीकृति भी मिले ,शेष रोगों के प्रति -इम्यून सिस्टम की असरकारी भी बनी रहे यही अंतिम लक्ष्य है .सबसे महत्त्व पूर्ण काम है इम्यूनो -सप्रेसेंत एरिया को सीमित रखना, कन्टेन किये रहना .मनुष्यों पर पड़ताल होना बाकी है .

पिल जो औरत को स्मार्ट बना रही है ;;;;

"पिल मेक्स वोमेन स्मार्टर '(दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त १९ ,२०१० ,पृष्ठ १९ )।
ऑस्ट्रेलियन रिसर्चर्स हेव फाउंड देट कोंट्रा -सेप्टिव पिल्स इनक्रीज दी साइज़ ऑफ़ सर्टेन पार्ट्स ऑफ़ वोमेन्स ब्रैन्स,इम्प्रूविंग मेमोरी एंड सोसल स्किल्स ,एंड इन्हान्सिंग दी माइंड्स "कनवर्सेसन हब "।
आम के आम और गुठलियों के भी दाम वाली उक्ति को चरितार्थ कर सकती हैं गर्भ -निरोधी टिकिया .एक अध्ययन से पता चला है इनका (नियमित) सेवन औरतों को ज्यादा हुनर मंद बना देता है ,ग्रे मैटर में इजाफा करता है .नतीज़तन , याददाश्त भी पुख्ता होती जाती है ।
सल्ज्बुर्ग विश्व -विद्यालय ऑस्ट्रेलिया के रिसर्चरों ने पता लगाया है ,इन गोलियों का स्तेमाल औरतों के दिमाग के कुछ ख़ास हिस्सों का आकार बढा देता है .इसीलिए महिलाओं की कईसामाजिक कामों में दक्षता ,याददाश्त और वाक्पटुता बढ़ जाती है ।
तकरीबन ३५ लाख ब्रितानी महिलायें जो १६ -४९ साला कुल महिलाओं का एक चौथाई है ,गर्भ निरोधी टिकिया का स्तेमाल करतीं हैं .इनमे ब्रेन साइज़ में ३%इजाफा देखा गया है .इसी अनुपात में मस्तिष्क की कार्य -निष्पादन क्षमता बढ़ी है ।
अध्ययन के लिए औरतों के ब्रेन की हाई -रीजोलयुसन इमेज़िज़ का स्तेमाल किया गया (सूक्ष्म से सूक्ष्म हिस्से का पूरा ब्योरा उपलब्ध करवाया गया .).जो महिलायें पिल का सेवन नहीं कर रहीं थी उनके ब्रेन स्कैन एक से ज्यादा बार लिए गये ताकि हर माह होने वाली हारमोन की घट बढ़ काभी हिसाब रखा जा सके .पिल लेने वाली महिलाओं के दिमाग के कितने ही हिस्से आकार में बड़े पाए गये बरक्स उनके जो इनका सेवन नहीं करतीं थीं ।
सभी ब्रांड की गोलियों के नतीजे यकसां थे .कौन कब से इनका सेवन कर रहा है .इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा .फायदा सबको बराबर मिला ।
यह सारा कमाल स्त्री सेक्स हारमोन इस्ट्रोजन और प्रोजेसटीरोंन का लगता है .फिमेल ब्रेन को बेहिसाब इन्हीं दो हारमोन ने प्रभावित किया लगता है .यही ह्यूमेन एग के रिलीज़ होने (स्रावित या क्षरण को )निलंबित रखतें हैं .हालाकि ऐसा वास्तव में हो क्यों रहा है इसका अभी इल्म नहीं है रिसर्चरों को ,लेकिन ऐसा हो ज़रूर रहा है .

सुनने की क्षमता को कम कर रहा है -आई -पोड

हियरिंग लोस ऑन दी राइज़ ,टीन्स आस्क्ड टू टर्न डाउन आई पोड्स (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,मुंबई ,अगस्त १९ ,२०१० ,पृष्ठ १९ )।
एक अध्ययन के मुताबिक़ अमरीकी किशोर किशोरियों में गत १५ पन्द्रह सालों में तकरीबन श्रवण सम्बन्धी समस्याएँ एक तिहाई बढ़ गईं हैं .आज पांच में से एक किशोर- गणको कम सुनाई देता है ।
अमरीकी चिकित्सा संघ के एक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में १९९० के आरंभिक चरण से लेकर २००० के मध्य तक के राष्ट्रीय सर्वेक्षणों की तुलना की गई है .इनमे से हरेक सर्वे में १२ -१९ साला किशोरावस्था के हजारों छात्र शामिल रहें हैं .इसलिए इन्हें प्रतिनिधिक सर्वे कहा समझा जा सकता है ।
इनमे से पहले सर्वे में माहिरों के अनुसार १५ फीसद इस आयु वर्ग के लोग कम सुनने की समस्या सेकमोबेश ग्रस्त थे .१५ साल बाद यह संख्या एक तिहाई बढ़कर २० फीसद हो गई है .इसका मतलब यह हुआ पांच में से एक किशोर -किशोरी श्रवण सम्बन्धी किसी ना किसी समस्या से ग्रस्त रहा ।
ब्रिघम एंड वोमेन्स हॉस्पिटल ,बोस्टन के रिसर्चर कहतें हैं इसका मतलब यह हुआ हर कक्षा (क्लास रूम्स )में से कुछ ना कुछ बच्चे हियरिंग लोस से ग्रस्त हैं ।
किशोर किशोरियों को इसका अंदाजा ही नहीं है कितने शोर से बावस्ता रहतें हैं ये लोग .कोई इल्म ही नहीं है इसका .बे -खबर अनजान बने रहतें हैं इस गैर ज़रूरी शोर से जबकि सुनने की शक्ति का थोड़ा भी कम होना भाषा के विकास और सीखने की प्रक्रिया को कुंद कर देता है ।
अध्ययन में यह भी पता चला ज्यादातर मामलों में एक कान शोर से असर ग्रस्त हुआ है लेकिन असर दिनानुदिन बद से बदतर हो रहा है ।
दुर्भाग्य यह है पसंदीदा संगीत को (म्युज़िक ऑन देयर एम् पी थ्री प्लेयर्स )को ये लोग शोर ही नहीं मानते .