कई मर्तबा नकली जोड़ भी घिस पिट जातें हैं ,ढीले ढाले हो जातें हैं ,खुद भी टूट सकतें हैं कृत्रिम जोइंट्स इनके आसपास भी अस्थि भंग हो सकता है .इन तमाम स्थितियों में सुधारात्मक ,परि-शोधन या "रिवीज़न आर्थ्रो -प्लास्टी "ज़रूरी हो जाती है ।
यूं इसकी ज़रुरत "प्राइमरी जोइंट रिप्लेसमेंट के १५ -२० साल बाद ही पडती है .अकसर व्यक्ति तब तक ७० के पार चला जाता है .सेहत भी ज़वाब देने लगती है बिगडती ही चली जाती है ।
इसीलिए "दोबारा जोइंट लगवाना "एक बेहद चुनौती भरा शल्य हो जाता है .रिकंस्त्रक्सन सर्जरी इम्तिहान लेती है सर्जनों की पूरी टीम का .फिर भी यह भरोसे मंद शल्य मुहैया करवाने का गौरव भारत में कई चिकित्सा संस्थानों को दिया जा सकता है ."कूलाम्बिया एसिया ,यशवंतपुर ,बेंगलुरु ,रेफरल अस्पताल इनमे से एक है ।
सन्दर्भ -सामिग्री :-प्रिवेंसन ,जुलाई अंक ,पृष्ठ ९ .
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
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