कोई ज़रूरी नहीं है ऐसा हो ही ।
१९७० आदि दशकों का दौर नहीं है ये जब हेयर डाईज (केश रंजक )रसायनों से लदे रहते थे जिनमे से कई एनीमल कैंसर पैदा करने वाले पाए गए थे .इनमे से भी डार्क डाईज में ज्यादा असरकारी कैंसर पैदा करने वाले रसायन पाए गए थे .तब से लेकर अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है इनमे से कितने ही ज्ञात कार्सिनोजन टोक्सिक एलिमेंट्स हठा दिए गएँ हैं .ऐसा नहीं है कि इस दौर की प्रचलित डाईज में ये विषाक्त तत्व (टोक्सिक एलिमेंट्स )बिलकुल नहीं है .संपन्न अध्ययन में उन लोगों की ही पड़ताल की गई थी जो डार्कर डाईज के दीवाने थे .इनमे से एकको ब्लेडर कैंसर (मूत्राशय कैंसर )के लिए कुसूरवार पाया गया था .मेल हेयर ड्रेसर्स और बार्बर्स इनका शिकार बने थे .जिनका इन रसायनों से रोज़ ही पाला पड़ता था .साल -दर - साल वे इनके वाष्प इन्हेल करते रहे .सांस की धौकनी में उड़ेलते रहे ।
एक और अध्ययन में पता चला १९८० से पहले जो महिलायें अकसर इन केश रंजकों का स्तेमाल करतीं थीं उनके लिए नॉन -होज्किन -लिम्फोमा का ख़तरा बढ़ गया था ।
लेकिन जिन्होंने १९८० के बाद से लगातार अपने बालों को रंगा है उनके लिए ऐसा जोखिम पेश नहीं आया है ।
हेयर कलर और कैंसर में एक अंतर सम्बन्ध बतलाने वाला हाल फिलाल कोई उल्लेखनीय अध्ययनभी नहीं हुआ है .इसलिए माहिरों के अनुसार चिंता की कोई बात है नहीं ।
अलबत्ता इनसे आपका साबका ,एक्सपोज़र उतना ज्यादा नहीं होना चाहिए (और भी नुक्सानात है ,केमिकल वेपर्स के )।
डाई लगाते वक्त दस्ताने पहने (भले पोलीथीन के ही हों )।
गर्भवती महिलाओं को स्त्री रोग और प्रसूति की माहिर पहली तिमाही में इनके स्तेमाल से बचे रहने के लिए कह भी सकतीं हैं .(यह गर्भस्थ के लिए मेजर न्यूरो -लोजिकल दिव्लाप -मेंट का वक्त है ).अलबत्ता अगली दो तिमाही में ऐसा जोखिम नहीं भी रहता है ।
बेशक डाई को बहुत देर तक सिर में न लगा रहने दें ।
स्केल्प को (कपाल की चमड़ी को )डाई हठाने के बाद ठीक से धौडालें .
जब बाल ग्रे हो जाएँ तभी डाई का सोचें ।
दीर्घावधि प्रभावन (लॉन्ग टर्म एक्सपोज़र )से बचे रहने का यही विवेकपूर्ण उपाय है .क्या कीजिएगा जेट ब्लेक केश राशि का ?
टेम्पो -रेरी डाईज भी हैं जो उतनी टोक्सिक नहीं हैं ।
मेहँदी का तो कहना ही क्या ?कुदरत की सौगात है .पांवों से सिर तक कहीं भी लगाओ .
शुक्रवार, 25 मार्च 2011
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