गत पोस्ट से आगे .....
जर्नल "प्रोसीडिंग्स ऑफ़ दी नेशनल एकादेमी ऑफ़ साइंसिज़ "में प्रकाशित इस अध्ययन में हताशा और प्रेम में अस्वीकृति से लगने वाले भावात्मक सदमे से पैदा :"फाइब्रो -मायाल्जिया "में उठने वाली दर्द की लहर को उजागर किया गया है ।
तब क्या शारीरिक पीड़ा से मुक्ति भावात्मक पीड़ा को भी दूरकरवा सकती है ?क्या एक का प्रबंधनदूसरी किस्म की पीड़ा का भी समाधान प्रस्तुत कर सकता है ?आखिर भावात्मक संवेगों का शरीर से क्या ताल्लुक है ?
इसकी पड़ताल के लिए ऐसी २१ औरतों और १९ मर्दों के फंक्शनल एम् आर आई उतारे गए ,जिनका क्रोनिक पैन या मनो -रोग सम्बन्धी कोई पूर्व वृत्तांत नहीं था ।
अलबत्ता गत छ :महीनों में ये सभी प्रेम में ठुकराए जाने की पीड़ा, मानसिक यंत्रणा झेल रहे थे ।
इन्हें दो टास्क्स दिए गए पहली में एम् आर आई उतारते वक्त इनके बाजुओं में हीट सोर्स नथ्थी कर दिए गए ,इस स्रोत से जलन का वैसा ही एहसास हो रहा था जैसे किसी ने बिना हेंडिल का गरम चाय का प्याला पकड़ा दिया हो .दूसरा एम् आर आई उतारते वक्त इन्हें अपने अतीत बन चुके प्रेम की तस्वीर दिखलाई गई ,इन्हें यह भी कहा गया वह अपने प्रिय पात्र रहे साथी के साथ बिताये कुछ वाकयों को ,लम्हों को,अपने तसव्वुर में लायें ।
दोनों ही मर्तबा दिमाग के वही हिस्से रोशन हुए :सेकेंडरी -सोमाटो -सेंसरी कोर्टेक्स तथा डोर्सल पोस्टीरियर इंसुला ।
ज़ाहिर है संवेग (इमोशंस )हमारी शारीरिक पीड़ा को भी असर ग्रस्त करतें हैं ,क्योंकि शरीरिक कष्ट झेलते वक्त भी तो यही हिस्से रोशन हो रहे थे ,लाईट अप हो रहे थे ,सक्रिय हुए थे ।
अतीत के सदमे लोगों को दर्द के प्रति और भी संवेदनशील बना देतें हैं .फाइब्रो -मायाल्जिया की वजह भी बनतें हैं .इसमें क्रोनिक पैन और थकान दोनों होतीं हैं ।
इसीलिए अतीत से पल्लू झाड कर अलग हो जाना अतीत के सदमों से मुक्ति वर्तमान को भी राहत देती है और उनमे उलझे रहना आज के दुःख को और भी गाढा अ-सहनीय .
आखिर में एक शैर :
मैं उसके घर नहीं जाता ,वह मेरे घर नहीं आता ,
मगर इन एहतियातों से ताल्लुक मर नहीं जाता ।
मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोइए मत .इस पन्ने को अपनी एकाउंट शीत से फाड़ के फैंक दीजिये .जीवन आगे की और है .तालाब का रुका हुआ गंदा पानी नहीं है .इति,राम राम भाई .
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