१८८५ में लौइस पास्तयूर ने रेबीज़ वेक्सीन की खोज की .तबसे (१८८५)लेकर १९७० तक इसे "ग्राउंड -अप -एनीमल ब्रेन्स "तथा "स्पाइनल कोलम" से ही तैयार किया जाता रहा .
तब यह दर्दनाक तरीके से खतरनाक भी थी क्योंकि १००० लोगों में से किसी एक को गंभीर किस्म के न्युरोलोजिकल डेमेज का सामना भी करना पड़ता था .इतनी असरकारी भी न थी यह वेक्सीन इसीलिए टीके भी २१ लगवाने पड़ते थे जो अपने आप में काफी पेनफुल (पीड़ा दायक )होते थे ।बच्चों को टीके भी पेट में लगते थे .
१९७० के बाद से इसे सेल कल्चर के द्वारा कमज़ोर किये जा चुके रेबीज़ के विषाणु से ही तैयार किया जाने लगा ।
अब लेदेके टीके भी तीन या चार लगवाने पडतें हैं(दो हफ्ते में कोर्स पूरा हो जाता है ) जिन्हें बाजू की ऊपरी हिस्से और जांघ के ऊपरी हिस्से में भी लगा दिया जाता है ।अलबत्ता इम्यून सिस्टम कमज़ोर होने पर पूरे पांच टीके २८ दिनों में लगाए जातें हैं .
टीके सुरक्षित है अगर समय से लग जाएँ तो सौ फ़ीसदीअसर रहता है .अलबत्ता टीकों की कोल्ड चैन बनी रहनी चाहिए .
मंगलवार, 29 मार्च 2011
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