शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

व्यंग्य -विडंबन :लोकतंत्र की शर्मशारी.

मुझे यह समझ नहीं आता कि बिहार विधानसभा ने ऐसा क्या कर दिया है कि लोकतंत्र शर्मशार हो रहा है .मैं तो कहता हूँ कमसे कम लोकतंत्र से ही पूछ लो कि वह शर्मशार हुआ है या नहीं .चैनल वालों का क्या ,वे तो कुछ भी कह सकतें हैं ,भई अपनी विधानसभा है अपने ही सदस्य हैं ,अपनी ही कुर्सियां हैं ,अपने गमले हैं ;जैसे चाहो स्तेमाल करो .फिर सर भी तो अपने हैं .इसमें लोकतंत्र क्यों अपनी टांग अड़ा रहा है .?शर्मशार क्यों हो रहा है ?यह तो अन्दर की बात है .कुर्सियां कितनी पुरानी और बोदी पड़ चुकी थीं .उन पर बैठने वाले कोई मरगिल्ले तो थे नहीं .बैठते ही टूट जातीं तो शेम -शेम न हो जाती .फिर इन गमलों में था ही क्या ?न ढंग की पौध ,न मिट्टी ,खाद -पानी तो दूर ढंग से गुडाई भईनहींहुई थी .गमलों पर गेरू की पुताई तक नहीं ,निरी मिट्टी झर रही थी .अगर ऐसे गमले को एक महिला सदस्य ने फेंक कर तोड़ डाला तो इस पर इतनी हाय -तौबा क्यों ? जिस चैनल को देखो ,वह बार बार इसी तस्वीर को दिखा रहा है .दरअसल चैनल वाले पुरुष- मानसिकता के हैं .महिला विरोधी हैं .तभी तो गमले फैंकने की घटना को बार- बार दिखाकर एक महिला को बदनाम करते हुए कह रहें हैं कि इस से भारत का लोकतंत्र शर्मशार हुआ है .जो लोकतंत्र देशद्रोही अफज़ल गुरु के विश्वाश -घात पर शर्मशार नहीं हुआ ,उसे ये चैनल वाले एक महिला के सात्त्विक आक्रोश पर शर्मशार किये जा रहे हैं .जो लोकतंत्र विदेशी मूल के एंडरसन और क्वात्रोची के धत कर्मों का मूकदर्शक बना रहा ,उसे एक अदद गमला फेंके जाने कि घटना से शर्मशार करना कहाँ तक उचित है ?शर्मशार करने वाले शायद जानते नहीं कि यह इंडिया का लोकतंत्र है और इंडिया इज ग्रेट .लोकतंत्र तो तब भी शर्मशार नहीं हुआ जब 'नैन बचाए कही मुस्काये'की मोहक मुद्रा में चैनल पर अकसर नमूदार होने वाले एक माननीय ने विलंबित स्वर में फरमाया -अरे भई ,अफज़ल कि दया- याचिका का छब्बीस -वां नम्बर है ,पहले पच्चीस तो निपट जाने दीजिये .अब उस माननीय को यह अभागा देश कैसे समझाए कि सामान्य हत्यारे और लोकतंत्र समेत पूरे राष्ट्र को ध्वस्त करने के षड्यंत्र के सूत्रधार की दया याचिका को एक ही क्रम -कोटि में कैसे रखा जा सकता है ?पर वह हैं कि लोकतंत्र को अपने कायदे -क़ानून की घुट्टी पिला रहे हैं .ऐसा लगता है कि यह माननीय अफज़ल गुरु के अखाड़े के पट्ठे हैं .गुरु -ऋण उतार रहे हैं .खैर देश को इतना तो बता ही सकतें ,अफज़ल गुरु किसके गुरु हैं .कमसे कम लोकतंत्र के तो हैं नहीं .फिर लोकतंत्र क्यों शर्मशार होगा. लोकतंत्र तो -तब भी शर्मशार नहीं हुआ जब चंद वोट झटक लेने की बदहवासी में एक और माननीय ज़िंदा आदमी पर बुलडोज़र चलवाने की धमकी दे रहे थे .ऐसी विकट कल्पना तो बुलडोज़र के मूल निर्माता ने भी नहीं की होगी .यह भी हो सकता है ,माननीय ने ऐसा सोचा हो ,लोकतंत्र को क्या पता ,बुलडोज़र क्या है ?अब लोकतंत्र चाहे तो ऐसे माननीयों की करतूतों पर शर्मशार हो सकताहै .

2 टिप्‍पणियां:

बंटी "द मास्टर स्ट्रोक" ने कहा…

भारत प्रश्न मंच कि पहेली का जवाब
http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_8440.html

virendra sharma ने कहा…

shukriyaa banti- bhai 'chor '
veerubhai