अखबार की खबर है ,तो ठीक ही होगी .पहले ही पृष्ठ पर छपी है -मंत्री अफसरों के बंगलों में घुसा बाढ़ का पानी .अखबार के पहले पृष्ठ पर जितना महत्व इस खबर को मिला है ,उतना तो किसी राष्ट्रीय -अंतर -राष्ट्रीय खबर को भी नहीं मिला .आखिर खबर की एहमियत तो खबरची ही तय करेगा न !फिर उसे राष्ट्र से क्या लेना ?वक्त पर तो मंत्री अफसर ही काम आयेंगे न!मंत्री अफसर के बंगले में पानी घुसे और प्रमुख खबर न बने तो कैसे चलेगा .बात भी ठीक है .झोंपड -पट्टियों में घुसता तो क्या खबर बनती !झोंपड पट्टियां तो बनती ही इसलिए हैं कि बाढ़ का पानी घुसे .इस में खबर का क्या मतलब ?
बाढ़ के पानी की हिमाकत तो देखिये !पूछ के आता तो बात थी .सीधा मुह उठाए बंगलों में घुस आया .यह विरोधी पक्ष की चाल है .उसे उकसाया गया है .वरना तो बाढ़ का पानी सोचता ज़रूर !उसे मीडिया की ताकत का शायद अंदाज़ नहीं है .ऐसी खबर बनायेंगे कि खबर लेने वाला भी कोई न मिलेगा .और अगर साफ़ -साफ़ चैनलों पर दिखा दिया तो शर्म न आएगी .बाढ़ बनके आया है तो क्या हुआ ,है तो पानी ही न !अरे भई ,जिन बंगलों में बड़ों -बड़ों का पानी उतार दिया जाता है ,वहां उसकी ऐसी मजाल !नल में आता तो कोई बात भी थी .नल में आने कि तो हिम्मत नहीं .पता है न कि बोतल में बंद कर देंगे .लफंगा कहीं का ।
इन बंगलों में तो धूप को भी आने की इजाज़त लेनी पडती है .फिर यह ठहरा निरा बाढ़ का पानी .न जात न पात ,न बोतल न फ्रिज .वोट तक तो उसका बना नहीं .फिर कैसे हिम्मत की बंगले में घुसने की ?वोट होता तो कोई बात भी थी .फिर चाहे सीधा बंगला देश से आता ,चाहे पाकिस्तान से .'भोईट '(वोट )तो पक्का हो जाता .तब तो खातिरदारी भी करते .बिरियानी भी खिलाते .लोकसभा में उसके पक्ष में बहस भी करते .बेचारा देश निकाले का दर्द झेलते हुए यहाँ पहुंचा है .हम उसके लिए इतना भी नहीं कर सकते तो कैसे कहते हैं कि 'अतिथि देवो भव !यही तो भारतीय गर्व है .चाहे फिर आकर हमला ही क्यों न कर दे !सौ -पचास के प्राण ही तो लेगा .आत्मा तो अमर है .फिर चिंता किस बात की !हम अपनी अतिथि -परंपरा तो नहीं छोड़ सकते न !पर 'भोइत 'तो हो .यही तो सच्चा सेक्युलरिज्म है .फिर बाढ़ के पानी की औकात ही क्या है ?न घर का न घाट का ;न भोत का न भात का! (प्लीज़ रीड ता एज टी ).अरे चारण -गिरी तो हम कर ही लेंगे .पहले भी करते आयें हैं .पर 'भोत '(वोट )भी तो हो .फिर हम जानें .उसे पाने के लिए फिर चाहे किसी पर बुलडोज़र ही क्यों न चढ़ाना पड़े ?सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही क्यों न पलटना पड़े ?इतना तो हम कर ही सकते हैं .यदि इतना भी नहीं कर सकते तो फिर बहुमत किस काम का ?उस से तो फिर खैनी ही अच्छी है .खा -चबा तो सकते हैं !
शनिवार, 9 अक्तूबर 2010
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