"भाव कणिकाएं "-मेहता वागीश ।
(१)छोड़ करके जा रहा अपना पता ,जब कभी मैं याद आऊँ ,बे -झिझक आवाज़ देना ।
(२)सुभग विश्वाश की अमराइयों की छाँव तले,प्रीत की पगडंडियों के नाम अर्पित ज़िन्दगी ।
(३)साथ रहने की मजबूरी और समर्पण की भाषा में ,है बहुत अंतर ,
तुम समझो या न समझो ,तुम मानो या न मानो -
कहां सात भंवर ,कहाँ जन्म -जन्मान्तर साथ रहने की मजबूरी और समर्पण
की भाषा में है ,बहुत अंतर .
(४)रुक -रुक कर तुम्हारा पत्र मिलता है ,रुक -रुक कर उत्तर मैं भेजता हूँ ,
पर तुम्हारी याद अनवरत आती है ,और हृदय को रस से भर जाती है ,
कहीं कोई व्यवधान नहीं ,कोई प्रश्न नहीं ,समाधान नहीं ।
प्रस्तुति एवं सहभावी :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई ).
शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011
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