शेष शरीर से अलग नहीं है हमारा दिमाग .शेष शरीर की तरह इससे भी काम लेते रहना होगा .बौद्धिक कसरत करवानी होगी दिमाग को रोज़ -बा -रोज़ .कुछ नया हुनर सीखना होगा कोई होबी विकसित करनी होगी .वरना दिमाग की कोशायें सुस्त पड़ जायेंगी .सक्रियता घट जायेगी न्युरोंस की .(दिमाग की एकल कोशिका को ही न्यूरोन कहा जाता है .).इनको होने वाली पुष्टिकर तत्वों तथा ऑक्सीजन की आपूर्ति कमतर हो जायेगी .कमतर विद्युत् संकेत फायर करने लगेंगे न्युरोंस और रफ्ता रफ्ता दिमाग ही क्षय होने लगेगा .ब्रेन विल एत्रफ़ी।
इसलिए बहुत ज़रूरी है मिलबैठकर किसी के साथ पहेली बुझोवल करना ,प्रस्नोत्तरी के हल ढूंढना ,हल ढूंढना मुश्किल सवालातों का ।
अकेला चना भाड़ नहीं झोंक सकता ,दिमागी एत्रफी को रोकने के लिए मिलजुल कर टास्क सोल्व कीजिये ।
मनो -विज्ञानी जाने जी गोल्डमन कहतीं हैं :मनुष्य का उद्भव और विकास इक सामाजिक प्राणि /पशु की मानिंद हुआ है ,मिलजुलकर मुश्किल निपटाने की आदत दिमागी कोशिकाओं को प्रेरण ,उद्दीपन और ताकत देती है .दिमागी कौशल को बढ़ाती है .याददाश्त के क्षय ,अल्जाइमर्स जैसी डी -जेंरेतिव दीजीज़िज़ से बचाए रखती है ।
शरीर के लिए जैसे एरोबिक्स (ऑक्सीजन खर्चू कसरत )ज़रूरी हैं वैसे ही ग्रे मैटर के सलामती के लिए सोदूकू,पहेली बुझोवल ।
इस सिद्धांत के पीछे भी कुछ न कुछ विज्ञान है ज़रूर :'मिलजुल के मुश्किल से मुश्किल काम निपटाना पहेली सुलझाना दिमाग की सेहत के लिए ज़रूरी है '-यह कहना है केम्ब्रिज के वेलबींग इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर साहिब का .
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