मार्केट और यूटोपिया का मिश्र है 'मार्केटोपिया '.इक शब्द समुच्चय है जो मार्केट और यूटोपिया का जमा जोड़ है ।
पहले यूटोपिया को लेतें हैं :यूटोपिया इक किताब का शीर्षक है जिसमे थोमस मूर इक ऐसे काल्पनिक स्थान ,कल्पना लोक की चर्चा करतें हैं ,इक ऐसी अवस्था का बखान करतें हैं जहां हरेक चीज़ इक दम से परफेक्ट है .परिपूर्ण ,दोषरहित है .यहाँ हर कोई समस्वर इक लयताल हार्मनी में जीता है ।
मार्केट का अर्थ तो आप जानते ही हैं .खासकर उस दौर में जब सब कुछ बाज़ार की ताकतों के ही हाथों में है ,व्यक्ति की अस्मिता भी ।
मार्केटोपिया शब्द अरिजोना राज्य के प्रोफ़ेसर टेरेंस बाल के बौद्धिक कौशल की उपज है .यह इक ऐसी दुनिया की शिनाख्त ,इक ऐसे लोक का रेखांकन करता है उस पर बौद्धिक फब्तियां ,व्यंग्य -पूर्ण टिप्पणियाँ करता है जिसमे सामाजिक दायित्व पूरी तरह समाप्त हो जातें हैं ,जिसमे तमाम जन सेवाओं का निजीकरण हो चुका होता है .सब कुछ बाजारू ताकतों से नियंत्रित होता है ।
इस कल्पना लोक में जीवन की गुणवता बहुत ही निचले दर्जे की है ,डिस्तोपिया की स्थिति हैं यहाँ जो यूटोपिया का इक दम से विलोम है यानी सब कुछ इतना निचले दर्जे का है यहाँ जितना की हो सकता है बद से बदतरीन है ।
मार्केटोपिया का सबसे बड़ा दुर्गुण फेयरनेस का उल्लंघन है .औचित्य और निष्पक्षता इस लोक में नहीं है ।
वे तमाम मार्केतोपियंस जिन्हें आर्थिक तंगी के चलते स्वास्थ्य सेवायें शिक्षा आदि मयस्सर नहीं हैं ,उनकी पहुँच के बाहर पोलिस प्रोटेक्शन भी बना रहता है ,जीवन की इतर ज़रूरीयात भी .सोसल गुड्स में भी उनकी समान भागेदारी नहीं रहती है .बात साफ़ है मार्केटोपिया में बाज़ार की पौ बारह है व्यक्ति की उपेक्षा ।
रविवार, 20 फ़रवरी 2011
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