उस दिन अचानक ही अनिल का फोन आया था .योगेन्द्र सेवा निवृत्त हो चुका था लेकिन माया अभी भी उसकी साँसों में थी ,एक इच्छा बाकी थी बस उसे एक बार देख लेने की ,अशरीरी होने से पहले लेकिन उसका तो कोई अता पता ठौर ही नहीं था .अनिल को ये काम सौंपा गया था जो वहीँ सागर में ही टीचर्स ट्रेनिंग कोलिज में पढ़ा रहे थे .योगेन्द्र और अनिल क्लास मेट्स थे .
अनिल ने कहा था -भाई ज़रा संभाल के बात करलेना ,तुम्हारी माया मिल गई है ,आजकल विलास- पुर में है .एक बड़ेराजनीतिक घराने की बहु बन गई है .टेलीफोन नंबर नोट करो माया का .उनके आवास का ,उनके पतिदेव का ।
माया से प्राप्य को योगेन्द्र क्या किसी में भी भूलने की सामर्थ्य हो भी कैसे सकती है ,नारी की कोमलता ,ममता ,स्नेह की स्वप्निल आंच ,भविष्य को संवारती प्लेसिबो दवा मिली थी उसे माया से .वह आदिनांक उसे ढूंढता ही रहा था ठीक वैसे ही जैसे मेंहदी हसन साहब अपनी उस आपा को अपनी गजलों में ढूंढते रहते है जो बचपन में उनके बोसे लेती थी ।
उसने हिम्मत करके टेलेफोन पे संपर्क साधा था फोन उनके पति देव ने उठाया था ,अपना परिचय देते हुए योगेन्द्र ने बतलाया था मैं उनका अनुगामी रहा हूँ ,हम साथ साथ पढ़ते थे ।
थोड़ी देर बाद माया भी गुसल से निकलकर फोन पर आगई थीं -हमने कहा हम योगेन्द्र बोल रहें हैं योगेन्द्र शर्मा आप हमें योगी ,जोगी ,रोगी पता नहीं क्या क्या कहतीं थीं ,तो पहले क्यों नहीं बताया इत्ता बड़ा नाम क्यों लिया योगेन्द्र ,योगेन्द्र शर्मा ।
फिर खुल कर बातें हुईं थीं .उसने बतलाया था हम दस बारह साल महेंद्र के साथ लिविंग इन रिलेशनशिप में रहे .घर वालों का दवाब बढा तो शादी की इसलिए हमारे बच्चे वच्चे क्या एक लडकाहै जो तुम्हारे तीनो बच्चों से भी बहुत छोटा है .माया ने उसेबतलाया वह सपरिवार किसी शादी में दिल्ली आ रही है-आप हमसे मिलना ,हम आपको काल करेंगें . मिला था वह ।
अब सोचता है योगेन्द्र कितना अच्छा होता मैं उससे मिला ही न होता .एक खाब तो न टूटता .चालीस सालों के इस अंतराल में न वह चौड़ा माथा शेष रहा था ,न वह आँखें जिनमे उसे कभी अपना अक्ष और अक्स दोनों नजर आते थे .एक पतली छरहरी औरत एक बहुत बड़े कुनबे के चुनिन्दा लोगों से हमारा परिचय करा रही थी -ये हमारजिठानी हैं ,ये देवरानी .कुछ उस दौर की बातें हुई ,यूथ फेस्टिवल की ,सहगान की जिसमे माया और योगेन्द्र लीड वोईस में थे -किसने जाना सब दिन सावन ,डर घर बैठो मत ओ मनभावन ,जो न बरखा में भीग नहाए ,उसे नहीं जीने का हक़ है ,जिसे माटी की महक न भाये ,उसे नहीं जीने का हक़ है ,
जीवन हंसी भी ,जीवन रुदन भी ,
जीवन ख़ुशी भी जीवन भी घुटन भी ,
जो न जीवन की गत पे गाये ,
उसे नहीं जीने का हक़ है .
जिसे झंझा की झनक न भाये उसे नहीं जीने का हक़ है ।
और योगेन्द्र लौट आया था .वह चालीस साल पहले वाली माया को ढूंढ रहा था .यह औरत कौन है ,कैसी माया है यह ,किसकी माया है वह कुछ नहीं जानता .जानना चाहता भी नहीं .वह अपने उसी स्वप्निल संसार में लौट रहा था .कब स्कूटर में बैठा रुखसत होकर कब घर आ गया ,पश्चिमी किदवाई नगर उसे कुछ खबर नहीं .तंद्रा टूटी जब स्कूटर वाले ने कहाभाई साहब साथ रूपये हो गए .
सोमवार, 16 मई 2011
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