"यह पुत्र वधुएँ "हम पूर्व की दो किश्तों में लिख चुकें हैं .क्षेपक की ज़रुरत इसलिए आन पड़ी हमें शिद्दत से एहसास हुआ आखिर हमारा दर्द हमारे परिवेश से ऊपर उठा हुआ है ,हम अपने दर्द को इतना न उबालें ,हमारा परिवेश ही संतप्प्त हो जाए .दर्द पचके ही ग़ज़ल बनती है .
इसलिए आज यह उद्धव पूछ रहा है -ए पुत्र वधुओं ,ए गोपियों ,तुम किस देश से आई हो ?कौन सी परम्परा लाई हो ?
कमसे कम यह वृन्दावन की ,ब्रिज की भारत की तो रीत नहीं है .
सोमवार, 23 मई 2011
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1 टिप्पणी:
सुन्दर क्षेपक...
इसने श्रृंखला को पूर्णता प्रदान कर दी है...
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