ज़िन्दगी के दर्शन को समझे बिना आप जी नहीं सकते .सुख दुःख तो उसके हिस्से हैं ,आते जाते रहतें हैं ।
कूड़े को समेटके रखना ,उसे पूजना ,अच्छा नहीं लगता ।
कुछ ईंटें जुटाओ और नया घर बनाओ .एक नै रचना बनाओ -कला से बहुत से दुःख दूर हो जातें हैं .कला दुःख को छानकर सत्य का ,दर्शन का उदघाटन करती है ।
न्याय को प्राप्त करने का जब जब सुअवसर हाथ आया है ,मैं रुका नहीं हूँ -
मैं चला आगे बढा हूँ ,कब रुका संग्राम में ,
समर रथ पर पाँव धरता ,शत्रुओं के प्राण हरता ,
विजय -श्री मैं वरण करता ,
तीर तरकश से निकलता ,अससे पहले धूर्त कोई बन शि -खंडी छल गया है ,
रह गया हूँ मैं अकेला ,वक्त आगे बढ़ गया है .
जब समय हमें नहीं पूछता अपनी मनमानी करता है ,तो कुछ समय के ज़ज्बातों में खुद को समेटे रखना अक्ल मंदी नहीं है -
वो जो मिल गया उसे याद रख ,
जो नहीं मिला उसे भूल जा ।
तेरे बाद कुछ भी नहीं गम है ,
तू भी मुस्करा उसे भूल जा ।
न वो आँख ही तेरी आँख थी ,
न वो ख़्वाब ही तेरा ख़्वाब था ,
दिले मुन्तज़र तो ये किसलिए ,
तेरा जागना ,उसे भूल जा ।
वो तेरे नसीब की बारिशें ,
किसी और छत पे बरस गईं ,
दिले बे -खबर मेरी बात सुन ,
उसे भूल जा उसे भूल जा ।
जो न मिल सके वो ही बे -वफ़ा ,
ये बड़ी अजीब सी बात है ,
जो चला गया मुझे छोडके ,
वो ही आज तक मेरे साथ है ।
तो किस्सा कुछ मुख़्तसर सा यूं है -
हम साल दो के बाद यहाँ डेट -रोइट, के उपनगर केंटन (मिशगन )में अपनी छोटी बिटिया के पास आयें हैं .हमारे दो प्यारे से धेवतें हैं ,हम उनके नाना हैं .पिछली मर्तबा उनके साथ अकसर शाम को हम निकल जाते थे ,वो बच्चों वाली तिपहिया पे हम खरामा खरामा .रास्ते में पगडण्डी केदोनों और दो ख़ास पेड़ थे -उनपे रहतीं थीं दो चिड़िया .हमने एक का नाम रखा श्यामा दूसरी का बुलबुल .पर वो तो जेठ का महीना था .वृक्ष फूल पत्तों से लदे थे ,हम लौटे थे पतझर में ,हमारे बड़े धेवते अर्नव ने बड़ी मासूमियत से पूछा था -नानू व्हेअर इज दी बुलबुल बर्ड ।
हमने कहा बेटा माइग्रेट कर गई .चारो तरफ स्वेत बर्फ का साम्राज्य पसरे इससे पहले ये पक्षी एक सुरक्षित बसेरे की तलाश में निकल जातें हैं ,सात समुन्दर पार .आंधी तूफ़ान ,सूनामी सबको हमसे पहले भांप लेतें हैं ये लोग ।
एक हम है एक घरोंदें में अटके सहमे रह जातें हैं ।
सारी घरेलू हिंसा ,ज्यादती ,आवारगी को बर्दाश्त करतीं हैं हमारी लडकियाँ ।
कूड़े को पूजतीं हैं .
कौन सी अकाल मंदी है इसमें ।
हाल ये है -
न जाने रात भर वो किस तरह छप्पर बनातें हैं ,
सवेरे ही सवेरे आंधियां फिर लौट आतीं हैं ।
तू भी बन श्यामा बर्ड .बनजा खुद अपनी खाद ,जुटा हौसला पक्षी सा फिर बना एक घोंसला .उठ तिनका तिनका जोड़ .यही कहना है हमारा अपनी बड़ी बिटिया से -जो अटक गई है एक माया जाल में जिसे मर्द कहतें हैं ,तलाक मांग रहा है वो और ये उसे छोड़ने को राजी नहीं है ।
क्या करना उस परिंदे का जिस पे ये शैर बड़ा मौजू बैठ रहा है -
परिंदे अब भी पर तौले हुए हैं ,
हवा में सनसनी घोले हुए हैं ।
हमारा कद सिमट के घिस गया है ,
हमारे पैरहन झोले हुए हैं .
बुधवार, 11 मई 2011
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3 टिप्पणियां:
नीड़ का निर्माण फिर फिर ....आप राम राम भाई शीर्षक से दो अलग ब्लॉग क्यों रखे हैं -दोनों को एक में ही समाहित करिए न !
पब्लिक को परेशानी हो रही है !
भाई साहिब !दोनों ही मैंने नहीं बनाएं हैं ,मैं तो सिर्फ लिख रहा हूँ अपनी बिटिया या फिर दामाद से ये काम करवाऊंगा -अरविन्द मिश्र जी .सुझाव और अपने पन के लिए ,शुक्रिया !नेहा और आदर से .मुझे मर्ज क्या कुछ भी करना नहीं आता -"टेक्नोलोजी -भीती" से ग्रस्त हूँ .
बेहतरीन....!
परिंदे अब भी पर तौले हुए हैं ,
हवा में सनसनी घोले हुए हैं ।
हमारा कद सिमट के घिस गया है ,
हमारे पैरहन झोले हुए हैं .
..इस जीवन को जितना समझा, कम समझा।
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