कैसे होतें हैं यह ढंग के स्कूल ?यह जुमला हमारे कानों में तभी से गूँज रहा है जब सल्लू के +२ एग्जाम में ७२ %अंक आने पर शर्माजी का मुह लटक गया था .खीजते हुए उन्होंने अपने इकलोते से कहाथा .अब किसी ढंग के कालिज में तो तुम्हें दाखिला मिलने से रहा .पढ़ना एन सी आर के गिर्द किसी सेटेलाईट भैया टाउन में ।
आखिर हम क्यों अपने लालों को नौनिहालों को 'इम्तिहानी लाल 'बनाना चाहतें हैं .क्या यह ज़रूरी है हर परीक्षा में उनके ९५ -९६ फीसद अंक हों ?
हमारा ऐसा मानना समझना है ,कथित आला स्कूल ,मदरसे और कोलिज एक स्वप्न लोक रचते हैं .यहाँ वह सब कुछ होता है जो गैर -ज़रूरी है .अच्छे नागरिक नहीं यहाँ सिर्फ 'रो -बोट्स 'गढ़ जातें हैं .पहले शिक्षा के संग संग ऐसा बहुत कुछ था जो हमें सु -संस्कृत बनाता था ,संस्कारित करता था .साहित्यिक -अन्ताक्षरी थी .बाकायदा कविअलोट होते थे (भक्ति ,मध्य और आधुनिक काल से ).अब मौलिक सोच पर पहरा है .हर कोई भाग रहा है अंकों की दौड़ में .शिक्षा तंत्र का बस चले तो कहे' हम बालकों को १०० में से १०२ %अंक मुहैया करवातें हैं .'सौभाग्य देश का अभी मुल्क ने ,विज्ञान ने उतनी तरक्की नहीं की है ,वरना शर्मा जी कहते -'उल्लू कहीं का मोहन कैसे १०२ फीसद अंक ले आया ,तुम पूरे साल करते क्या रहे ?अब खोदो घास .ये देखो कुदरत का खेल ,पढ़े फ़ारसी बेचे तेल .
रविवार, 6 जून 2010
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