ग़ज़ल ।
दुनिया आनीजानी देख ,है ये बात पुरानी देख ,
फसल उजडती जाती है ,बादल ढूंढ पानी देख ।
किस किसको हड़काता है ,एक दिन थोड़ा रुकर देख ,
अपने ढंग से चलती है ,दुनिया बहुत सयानी देख ।
छुटते छुटते छूटती है ,बचपन की नादानी देख ,
खेल बिगड़ता रहता है ,नदी ,आग और पानी देख ।
पहले जैसी आंच कहाँ ,रिश्ते तू बर्फानी देख ।
दुपहर की गर्मी भूल ,उतरी शाम सुहानी देख .
यह मेरी पहली ग़ज़ल थी (दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ से प्रकाशित )इसकी शल्य चिकित्सा डॉ .श्याम सखा श्याम ने कि थी .विचार और बिखरे अक्षर मेरे थे ,लय ताल आपने दी थी .कोई न कोई ग़ज़ल रफू -गर हमें मिलते रहे और हम कभी कभार ग़ज़ल जैसा लिखते रहे .पिछ्ला ही समेटकर ब्लोगर मित्रों के सामने परोसा है -.खाद्य या अ -खाद्य मैं क्या जानू ,
किसे काफिया कहो ,किसे रदीफ़, मैं क्या जानू ,
मैं क्या समझू ,हर पल मानू ,कल क्या होगा ,
मैं क्या जानू .
रविवार, 29 मई 2011
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11 टिप्पणियां:
वाह आपके व्यक्तित्व का यह पहलू जानकर भी अच्छा लगा :)
रिश्तों की गर्मी अब कम होती जा रही है अब वह गर्मजोशी कहाँ खो गयी , आपका यह रूप हमें तो बहुत पसंद आया , मुबारक हो
भाई काजल कुमारजी,सुनील कुमारजी !शुक्रिया हौसला अफजाई के लिए .
सुंदर ग़ज़ल ... बेहतरीन!
विचार
Reading gazals gives a very beautiful feeling !!
आप तो छा गए
कैसे कैसे जज्बात सीने में छुपाये फिरते हैं
बेदर्दों से अब दास्ताने दर्द सुनाये फिरते हैं
ये तो नया अंदाज़ है आपका.
सुन्दर भाव .....
बिंदास अंदाज़ ...क्या कहना !
पहले जैसी आंच कहाँ ,
रिश्ते तू बर्फानी देख ...
बहुत उम्दा ... लाजवाब हो गई है ग़ज़ल ... और ये शेर तो कमाल है ...
आप में बहुत दम है वीरू भाई.
बहुत पते की बातें आसानी से कह जाते हैं.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
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