डरे हुए अपनी दुनिया से ,खुद से भी उकताए लोग ,
क्या कर सकते परिवर्तन ये ,खाए -पीये अघाए लोग ।
नष्ट भ्रष्ट कर जैव विविधता ,बुद्धि से चकराए लोग ,
करके धरती एक हज़म ,अब मंगल पर मंडराए लोग ।
माल बिकाऊ से लगतें हैं ,बाज़ारों में छाये लोग ।
कौन गिरा है कौन चढ़ा है ,इसी होड़ में आये लोग ।
सपने बुनकर बेचके सोते ,ऐसे हैं भरमाये लोग ।
कुर्सी खातिर खूब लड़ाते ,ऐसे शातिर छाये लोग ।
राजनीति का चौला पहने ,कितने नंगे आये लोग ।
पूंछ हिलाते वोट की खातिर ,इस पर भी इतराए लोग ।
अपनी ही जाति पर भौंके ,ऐसे हैं कुत्ताये लोग ।
भाड़ में जाएँ देश के वासी ,ऐसे हिंसक आये लोग ।
अबकी बार पलट डालेंगें ,इतने हैं गुस्साए लोग ।
जीने और मरने की हद तक ,ऐसे हैं भन्नाए लोग ।
आतंकी हाथों से तूने ,इतने हैं मरवाए लोग ।
देश बंटा था किसकी खातिर ,अब तक समझ न पाए लोग ।
सहभावी :डॉ .नन्द लाल मेहता वाहीश .डी .लिट .
रविवार, 29 मई 2011
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7 टिप्पणियां:
कितनो को समझे हैं हम ,तरह तरह के बनाए लोग
बेकार सारे अस्पताल हैं ,कहां समझ पाए हम रोग
काम वासना, खाना ,पीना , बच न जाए कोई भोग
भ्रष्ट,बिकाउ, काम में डूबे लफंगे लगते लुच्चाए लोग,
डरे उकताए लोग ,
बुद्धि से चकराए लोग ,
धरती पर मंडराए लोग ।
बाज़ारों में छाये लोग ।
कौन गिरा है कौन चढ़ा है
कुर्सी खातिर छाये लोग
अपनी ही कुत्ताये लोग ।
अबकी बार पलट डालेंगें
ऐसे हैं भन्नाए लोग ।
भाई वेदजी !बहुत बहुत शुक्रिया आपका .लेखन को अकसर ऐसे ही टिप्पणियाँ जीवित रखतीं हैं .प्रेम भाव बनाए रहिये
सेच रहा था शुक्रिया न करने की शिकायत करूंगा,,,,,,,,गया मौका हाथ से
जय राम जी की,
गजल, डाक्टरी, लेखनी, सब कुछ साथ-साथ,
जय हो
काबिले गौर ग़ज़ल है. क्या कहें हम.
भाड़ में जाएँ देश के वासी ,ऐसे हिंसक आये लोग ।
और बुद्धि से चकराए लोग.
बहुत शुक्रिया आपका.
कौन गिरा है कौन चढ़ा है ,इसी होड़ में आये लोग ।
सपने बुनकर बेचके सोते ,ऐसे हैं भरमाये लोग ।
Bahut Badhiya....
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