शनिवार, 14 मई 2011

ज्यादा बेड़ा गर्क करती है शराब ....

एल्कोहल मोर हार्मफुल देन क्रेक ,हेरोइन (दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर २ ,२०१० )।

उपभोक्ता और उसके ऊपर आश्रित ,शेष समाज को होने वाली नुकसानी का,परिवारों के विघटन ,सडक दुर्घटना आदि का कुल जायजा लेने के बाद समाज विज्ञान के माहिर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कहीं ज्यादा खतरनाक और मारक है शराब बरक्स क्रेक और हेरोइन के (चरस और गांजा ,सुल्फा ,एक्सटेसी ,एल एस डी आदि )के .जो सभी प्रतिबंधित दवाये हैं जबकि शराब की खुली बिक्री वैधानिक समझी जाती है .ब्रितानी साइंसदानों ने भी उक्त तथ्य को अपने अन्वेषणों में सही पाया है ।
दवाओं की नुकसानी को एक पैमाने पर नापने के लिए साइंसदानों ने एक नया पैमाना ईजाद किया है .इसमें न सिर्फ उपभोक्ता बल्कि शेष समाज को होने वाले नुक्सान और भावनात्मक टूटन और पारिवारिक विघटन ,सामाजिक हिंसा ,अपराध ,बलात्कार ,आदि को शरीक करने के बाद पता चला है शराब कोकेन और तम्बाकू से तीन गुना ज्यादा मारक सिद्ध हो रही है ।
इस पैमाने के गठन में ब्रितानी "इन्दिपेन्देन्त साइंटिफिक कमेटी ऑन ड्रग्स' (आई एस सी डी ),योरोपीय मानी -तरन दवा केंद्र के एक माहिर सलाहकार (एन एक्सपर्ट एडवाइज़र टू दी योरोपियन मोनिटरिंग सेंटर फॉर ड्रग्स एंड ड्रग एडिक्शन )यानी ई एम् सी डी डी ए ,दूसरे कितने ही साइंसदानों ने विमर्श किया है ।
पता चला हेरोइन ,क्रेक कोकेन मारक असर में दूसरे और तीसरे नंबर पर आतीं हैं .जबकि एक्सटेसी को आठवां स्थान दिया गया है एल्कोहल के बरक्स ।
जन स्वास्थ्य रणनीति के तहत एल्कोहल से समाज को होने वाली नुकसानी को अधिकाधिक प्रकाश में लाना सामीचीन ही नहीं ज़रूरी भी है .आई एस सी डी के मुखिया लांसेट में ऐसे ही उदगार व्यक्त कर चुके हैं .उनका पूरा काम इस विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित है ।
वर्तमान में ड्रग क्लासिफिकेशन नुकसानी का तार्किक जायजा लेने में चूक रहा है .तम्बाकू और शराब दोनों सरे आम बिकतीं हैं .राजस्व का ज़रिया बनी हुईं हैं जन -स्वास्थ्य और उसको होने वाली नुकसानी जाए चूल्हे में ।
एल एस डी ,केनाबिस अफीम गांजा पाए जाने पर जेल की हवा खाओ.शराब पीके गाओ -नाचो -नाचो -गाओ "दममारो दम ..."।

20 टिप्पणियाँ:

ZEAL ने कहा…

एक बेहद उपयोगी पोस्ट !

ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ ने कहा…

वीरूभाई, बहुत अच्‍छी बात कही आपने। समाज को इसपर विचार करने की आवश्‍यकता है।

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डा0 अरविंद मिश्र: एक व्‍यक्ति, एक आंदोलन।
एक फोन और सारी समस्‍याओं से मुक्ति।

सुशील बाकलीवाल ने कहा…

शराब कितनी खराब...
फिर भी हम पीते हैं । क्यों ?

निर्मला कपिला ने कहा…

इसी लिये हम नही पीते। बहुत उपयोगी आलेख। धन्यवाद।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

आदरणीय वीरेन्द्र जी
प्रणाम !
सादर सस्नेहाभिवादन !

भगवान की दया से , बुजुर्गों के आशीर्वाद से हम तो हर कुटैव व्यसन से दूर हैं !
अच्छा आलेख …
अब कुछ नया हो जाए … … … :)

* श्रीरामनवमी की शुभकामनाएं ! *

- राजेन्द्र स्वर्णकार

रश्मि प्रभा... ने कहा…

sahi aalekh

ZEAL ने कहा…

Its been ages you have not written any new post. Why so ?

amrendra "amar" ने कहा…

बहुत अच्‍छी बात कही आपने

kase kahun?by kavita. ने कहा…

rajasv..paisa suvidha badi cheez hai...baki janta ka kya hai...bahut upayogi jankari...

सुशील बाकलीवाल ने कहा…

बहुत दिनों से आपकी नई पोस्ट देखने में नहीं आ रही है । कृपया कम से कम दो पोस्ट का तो महिने में सिलसिला बनाये रखने का प्रयास अवश्य करें । धन्यवाद सहित...

सार्वजनिक जीवन में अनुकरणीय कार्यप्रणाली

होनहार

अविनाश मिश्र ने कहा…

उपयोगी जानकारी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..

कभी आये हमारे ब्लॉग भी

नया हू सो आप सब की जरुरत है

avinash001.blogspot.com

इंतजार रहेगा आपका

Kailash C Sharma ने कहा…

बहुत सार्थक और उपयोगी पोस्ट..आभार

मदन शर्मा ने कहा…

इतनी अच्छी जानकारी के लिए आभार आपका !
मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया..
कृपया मेरे ब्लॉग पर आयें http://madanaryancom.blogspot.com/

Apanatva ने कहा…

sshakt aur sarthak lekhan .
aabhar

Amrita Tanmay ने कहा…

उसी चूल्हे में कितनी जिन्दगी जल भी जाती है..सार्थक पोस्ट

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

भाई शर्मा जी!
मूल रूप से आदमी जानवर (Man is anaimal) है। जानवर में शिक्षा के द्वारा संस्कार उत्पन्न किए जाते हैं। उसके बाद वह सामाजिक प्राणी (Man is social anaimal.) कहलाने योग्य बनता है। नगरों में गली-गली में विद्यालय, गाँव-गाँव में प्राथमिक पाठशालाएं चल रही हैं। पूजागृह / देवालयों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर धार्मिक उपदेश देने वाले लोग आदमी को चरित्रवान बनाने की कवायद चौबीस घंटे व्यस्त रहते है। यह सब कार्य दशकों से हो रहा है। अरबों-खरबों रूपए का बजट सबके चरित्र को सवांरने में व्यय हो रहा है। फिर भी "कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी" वाली कहावत चरितार्थ होती है। वांछित परिणाम हासिल नहीं हो रहे हैं। मज़बूरी में साहित्यकारों को "ज्यादा बेड़ा गर्क करती है शराब" जैसी रचनाएं आपको लिखनी पड़ती है। आखिर आदमी को आदमी बनाने वाले हमारे प्रयासों कहाँ कमी है? इसे तटस्थ भाव से जाँचने-परखने की जरूरत है। अन्यथा हम दर्द-दर्द चिल्लाते ही रहेंगे। दर्द के मूल कारणों तक नहीं पहुँच सकते।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

Rakesh Kumar ने कहा…

जी हाँ, शराब से बहुत नुकसान होते हुए भी विपरीत तर्क देकर आदी लोग शराब छोड़ नहीं पाते.जागरूकता की बहुत आवश्यकता है.
आप मेरे ब्लॉग पर आये इसके लिए बहुत आभार आपका.

शालिनी कौशिक ने कहा…

bahut upyogi jankari.veerubhai ji aap lekhan itni kushalta se karte hain fir post deri se kyon dalte hain.aaj blog jagat ko aap jaise gyani bloggar ke vicharon kee behad aavshyakta hai.mere blog par aane ke liye shukriya.

सतीश सक्सेना ने कहा…

एक बहुत आवश्यक लेख के लिए आपका आभार !

संध्या शर्मा ने कहा…

बहुत सार्थक और उपयोगी पोस्ट..आपका आभार.......

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