रविवार, 23 जनवरी 2011

'रोगस्तु दोष वैषम्यं '

रोगस्तु दोष वैषम्यं अर्थात रोग हो जाने पर पुनः शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए त्रिदोष का संतुलन अथवा समावस्था में लाना पड़ता है .आयुर्वेद का मूलाधार है -'त्रिदोष सिद्धांत 'और ये तीन दोष हैं -वात ,पित्त ,कफ .त्रिदोष अर्थात वात ,पित्त और कफ़ की दो अवस्थाएं होतीं हैं -(१)समावस्था (न कम ,न अधिक ,न प्रकुपित ,यानी संतुलित ,स्वाभाविक ,प्राकृत .)(२)विषमावस्था(हीन ,अति ,प्रकुपित ,यानी दूषित ,बिगड़ी हुई ,असंतुलित ,विकृत .
वास्तव में वात ,पित्त ,कफ (समावस्था )में दोष नहीं है बल्कि धातुएं हैं जो शरीर को धारण करती हैं और उसे स्वस्थ रखतीं हैं .जब यही धातुएं दूषित या विषम होकर रोग पैदा करतीं हैं तभी ये दोष कहलाती हैं .इस प्रकार रोगों का कारण वात ,पित्त ,कफ का असंतुलन या दोषों की विषमता या प्रकुपित होना है .रोगस्तु दोष वैषम्यं .

कोई टिप्पणी नहीं: