जर्मनी का आम आदमी आम अमरीकी से ज्यादा खुश है ज्यादा जीता है अमरीकियों से ,तब क्या यह मान समझलिया जाए उनकी चिकित्सा प्रणाली बेहतर है अमरीकी से ?
एक अलग ही किस्म का फैसला जर्मन चिकित्सा संघ ने गत मार्च ,२०११के शुरू में प्रकाशित एक अध्ययन के आधार पर लिया है जिसके तहत जर्मन डॉक्टरों से नुश्खों में एक्टिव साल्ट्स के स्थानपर ज्यादा से ज्यादा प्लेसिबो (छदम दवा ,मीठी गोली )तजवीज़ करने (प्रिस्क्राइब ) की पेशकाश की गई है .
फेक मेडिकेशन देने के लिए कहा गया है मरीजों को जिनमे कोई एक्टिव साल्ट्स (सक्रिय घटक न हों रसायनों के ),मरीजों को हर- गिज़ न बतलाया जाए इस बाबत ,दवा के नाम पर उन्हें सिर्फ मीठी गोली ,आटे या डस्ट से बनी दी जा रही है .सिर्फ उन्हें यही कहा बताया जाए "यूनीक दवा ही "दी जा रही है .
सुनकर अमरीकियों का तो दिमाग ही चकरा जाए अलबत्ता ऐसा सिर्फ और सिर्फ मनो -वैज्ञानिक और सब्जेक्टिव ,कंपोनेंट, मसलन "क्रोनिक पैन एस्मा ",इन्फ्ले -मेट्री दिजीज़िज़ और अवसाद (डिप्रेशन )के मामलों में ही किया जा रहा है .जिनकी हड्डी टूटी है उनके साथ ऐसा नहीं किया गया है ।
अध्ययनों के दौरान कई मर्तबा कंट्रोल ग्रुप को सिर्फ प्लेसिबो ही दिया जाता है .यह कुछ ख़ास दवाओं के ख़ास प्रभाव बूझने के लिए ही किया जाता है .यहाँ प्लेसिबो हीलिंग पावर्स ऑफ़ होप का अतिक्रमण कर जाती है ।
क्लिनिकल ट्रा -यल्स के दरमियान मरीजों को दवा तो दी जाती है लेकिन यह बता दिया जाता है दिया गया साल्ट एक्टिव भी हो सकता है इन -एक्टिव यानी न्यूट्रल भी और अध्ययन के अंत तक न रिसर्चर्स और न सब्जेक्ट्स असलियत जान सकेंगे यानी किसको क्या दिया गया था .दोनों दिखने में भी यकसां होंगें ।
जो ठीक हो जातें हैं अकसर यही समझते बूझते हैं उन्हें असली दवा दी गई थी जिसे फायदा नहीं होता वह अपने भाग्य को कोसता है ,हाय !"मेरे हाथ असली दवा न आई "।कोमन सेन्स भी यही कहता बताता है .भला सुगर से क्या खाके ठीक होगा कोई .
लेकिन जिन मामलों में जर्मनी मेंया अन्यत्र भी ऐसा किया जाता है ,नतीजे इसके विपरीत भी निकलतें हैं .प्लेसिबो प्रभाव से ही अवसाद के दो तिहाई मरीज़ अच्छे हुएँ हैं ."देट इज प्लेसिबो इफेक्ट ऑफ़ दी ड्रग "-यु गेट वेळ बिकॉज़ यु थिंक ,यु टुक दी मेडिसन इविन दो इट वाज़ प्लेसिबो ."
बेशक कुछ के लिए अवसाद रोधी दवाएं जीवन रक्षक साबित होतीं हैं लेकिन समूह में इनका असर एक तिहाई ही रह जाता है बरक्स(बनिस्पत ) मीठी गोली के .-इसे यूं भी समझा जा सकता है .मरीज़ अपने डॉ पर भरोसा रखता है आशावान हो जाता है ,आश्वश्त हो जाता है कर दिया जाता है इसीलिए अच्छा भी हो जाता है ।
हालाकि संभावना यह भी थी "एक्टिव मेडिकेशन "एक्टिव न थे प्लेसिबो ,प्लेसिबो भी न थे ।
एक अध्ययन में जिसमे तमाम मरीज़ इर्रितेबिल बौवल सिंड्रोम के थे दवा थी ही नहीं ,सिर्फ मरीजों को या तो प्लेसिबो ही दिया गया या फिर कुछ भी न दिया गया ।
यकीन मानिए जिन्हें सिर्फ प्लेसिबो दिया गया उनके लक्षणों में कमी आई .ज़ाहिर है प्लेसिबो प्रभाव उससे ज्यादा असरकारी है जितना हम समझ पातें हैं कोमन सेन्स जितना ग्रहण करता है उससे कहीं बढ़ कर है .(ज़ारी...).
मंगलवार, 5 अप्रैल 2011
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