बाईपोलर इलनेस का कोई इलाज़ नहीं है फिरभी इसका दीर्घावधि असरकारी इलाज़ संभव है .फायदा तभी होता है ज्यदा से ज्यादा जब इलाज़ लगातार चले बीच में छोड़ा न जाए ।
एक अध्ययन (एसटीईपी-बीडी )में आधे से थोड़ा सा ज्यादा उन लोगों के लक्षणों में सुधार आया जिनका एक साल तक लगातार इलाज़ चला था .दो या इससे कम लक्षण ८ हफ्ते तक दबे रहे ।
अलबत्ता समुचित इलाज़ के बावजूद मिजाज़ में बदलाव हो सकता है .मूड चेंजभी दिखलाई दे सकता है .उक्त अध्ययन में भी तकरीबन आधे लोगों में कुछ लक्षण दीर्घावधि बने रहे . इनमे रिलेप्स भी दिखलाई दिया ,लक्षणों की पुनरावृत्ति भी ,कुछेक डिप्रेसिव स्थिति में दोबारा चले गए ।
जिन लोगों में बाईपोलर इलनेस के अलावा और भी मानसिक विकार मौजूद थे उनमे रिलेप्स की संभावना ज्यादा रही .अलबत्ता इसके पीछे कौन सी मेकेनिज्म काम करती है यह अभी साइंसदान समझ नहीं सकें हैं .रिलेप्स आखिर होतें क्यों हैं लक्षण और मानसिक रोगों की उपस्थिति में ?
अलबता कुछ लोगों में साइकोथिरेपी और ड्रग थिरेपी को साथ साथ आजमाने पर रिलेप्स के मौके ज़रूर कम हुए .कुछ के मामले में बचाव् भी हुआ कुछ और के मामले में रिलेप्स देर से हुआ ।
इलाज़ ज्यादा असरकारी साबित उन हालातों में होता है जब मरीज़ खुलकर डॉ से अपनी चिंताएं और उत्सुक -ताएँ कह बता पाता है . मूड चेंज़िज़ और लक्षणों का दैनिक रिकोर्ड रखने का भी फायदा मिलता है इससे डॉ को यह इल्म रहता है इलाज़ कैसा ,कितना असर कर रहा है .कई मर्तबा डॉ .इलाज़ में तब्दीली का भी इसी प्रत्याशा में सोचता है ,लक्षणों में ज्यादा असर कारी तरीके से सुधार आये .इलाज़ बदलने की गुंजाइश और ज़रुरत भी रहती है .डोज़ के क्वांटम और स्वभाव के बारे में डॉ को मरीज़ को भी बताना चाहिए ।
भारत जैसे देश में सरकारी अस्पतालों में मनो रोग विदों से बीमारी के बारे में पूछ लिया जाये तीमारदार द्वारा तो काटने को दौड़तें हैं .तौहीन समझतें हैं अपने हुनर और काबलियत की "इस गंवार को क्या और क्यों बतलाये ,सोचकर "।
(ज़ारी ....).
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