समाज मनो - विज्ञानी निकोलस एमरी (सरे विश्व -विद्द्यालय ) कहतें हैं -यह हमारी भाषाई ताकत ही है जो हमें इतर प्राणियों से श्रेष्ठ बनाती है .औ इस भाषा की शुरुआत हुई है -गपशप से ,हमारी गपियाने की आदत से .गपिया होना उतना बुरा नहीं हैं ,अपने सोसल -इन्तेरेक्ष्ण का ८० फीसद हिस्सा हम सूचना संग्रहण में इसी गपबाजी की बदौलत खर्च करतें हैं ।
अपने ये विचार एमरी ने ब्रिटिश साइंस फेस्टिवल में रखें हैं .गपशप से ही भाषा का विकास हुआ है ,हो रहा है ।
बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जायेगी ,इसी गपबाजी ने हमें संगठित होने की ताकत औ एक गुम्फित अति पेचीला समाज बनाने में मदद की है .भाषिक सम्प्रेष्ण हमारी सबसे बड़ी ताकत है ,अन्य प्राणियों के पास यह गुर नहीं हैं ।
बेशक बबूंस (बंदरों की एक प्रजाति )औ चिम्प्स (चिम्पेंजी ,अफ्रिका में पाया जाने वाला वानर ,बिना पूंछ )
भी एक समुदाय में रहतें हैं ,लेकिन सिर्फ़ प्रत्यक्ष ज्ञान (डायरेक्ट आब्ज़र्वेष्ण )इस समुदाय की संख्या तकरीबन ५० तक ही सीमित रख पाता है .काश इनके पास भी एक भाषिक जरिया होता गपियाने का ।
सामाजिक ,विज्ञानिक तमाम तरह की सूचनाओं का आदान प्रदान हम भाषा के जरिये ही तो कर पातें हैं .भाषा हमारा ,अलंकरन है ,गहना है ,व्यक्तित्व गठन है .ताकत है -पशु -पक्षीयों के पास यह ताकत नहीं है ,होती तो इतने निरीह नाहोते ।
भाषा के ही जरिये हम उन लोगों को भी जानने lgte हैं ,जिनसे कभी मिले नहीं ,रु - बा -रु जिन्हें कभी देखा नहीं ।
इसी गपियाने की आदत के चलतें हम कमसे कम एक लाख लोगों के बारे में जानने लागतें हैं .एक उम्र के लिए क्या इतना नाकाफी है ?
सन्दर्भ सामिग्री :"गोसिपिंग हेल्प्द आवर एन्सेस्तार्स डिवेलप स्पीच "(टाइम्स आफ इंडिया ,सितम्बर ९ ,२००९ )
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )
बुधवार, 9 सितंबर 2009
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