गैर बराबरी की इस दुनिया में कोई ताज्जुब नहीं -ग्लोबल कार्बन बजट का ४८ फीसद उद्द्योगिकृत अमीर देस उड़ा रहें हैं .जबकि इनकी हिस्सेदारी सिर्फ़ २१ फीसद बनती है .जिसका मतलब है ,२०९ गीगा टन कार्बन एमिशन से उतर कर ये १३७ गीगा टन पर कायम रहें ।
लेकिन क्या ऐसा २०५० तक भी हो पाना मुमकिन है ?
संयुक्त राष्ट्र विश्व आर्थिक एवं सामाजिक सर्वे रिपोर्ट २००९ अभी अभी सामने आई है जिसमें साफ़ लफ्जों में कहा गया है ,विश्व को जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचाए रखने के लिए विकसित देशों को कार्बन बजट घटाना होगा ,गरीब देशों को लो कार्बन टेक्नोलाजी सही दामों पर देकर उनकी हिस्सेदारी भी बरकरार रखनी होगी .अनुदान भी ज़रूरियातों के मुताबिक देना होगा ।
फिल वक्त जारी ऊर्जा के बुनियादी ढाँचे को वर्तमान ५००अरब डालर से बढाकर एक हज़ार अरब डालर (१ ट्रिलियन डालर )तक लाना होगा ।
२०३० तक लो कार्बन टेक्नोलाजी पर २० ट्रिलियन डालर खर्च करना होगा ।
विश्व तापमानों में बढोतरी को २ सेल्सिअस के नीचे -नीचे रखने के लिए उद्द्योगिकृत देशों को कार्बन एमिशन १९९० के स्तर से १०० फीसदी से भी ज्यादा कम करना होगा ।
लेकिन २०३० तक वह इसको ४० फीसद तक कम करने को भी कहाँ राज़ी हैं ?२०५० तक भी इसमें सिर्फ़ ८० फीसद कटौती की हामी भरी है ।
ज़ाहिर है अमीर देश अपने आर्थिक बढोतरी ,सामाजिक रख रखावप्रतिमानों ,पैमानों औ जीवन शैली बदलने को राज़ी नहीं हैं ।
ऐसे घटाटोप में एक ही विकल्प बचता है -और वह है -भू -इंजिनीअरिंग (जियो -इंजिनीअरिंग ) जिसके कई आयाम हैं ।
(१ )वोल्केनिक इर्प्संस की कंप्यूटर सिमुलेशन के जरिए कोपी की जाए ,नक़ल उतारी जाए ।
(२)क्लाउड वाईट -निंग की जाए -यानी बड़े पैमाने पर विमानों के जरिए नमकीन पानी (तरल सोडीं यम् लवन का )स्त्रेतो -स्फीअर में छिडकाव किया जाए .,ताकि पृथ्वी पर गिरने वाले सौर विकिरण का बहुलांश वापस अन्तरिक्ष की और ही लौट जाए .(३ ) कार्बन सोखते के बतौर बड़े पैमाने पर प्लांट्स औ सी -प्लान्ख्तन रोपे जाए (प्लवक जीवों की फार्मिंग की जाए )
(४ )विक्षोभ मंडल (स्त्रतो -स्फीअर ) में एक बड़े क्षेत्र में तक़रीबन १८ लाख वर्गमील में रिफ्लेक्तिंग मिरर्स लगाए जाएँ ।
मरता क्या ना करता .अक्लमंदी तो इसमे है ,पृथ्वी पर होमोसेपियन (मानव मात्र एवं जैव मंडल के सभी प्राणी रूपों की सलामती के लिए पर्यावरण ,हमारे हवा ,पानी ,आकाश औ अग्नि को ,इस धरती को अपने ही पंचभूत स्वरूप की अनुकृति समझ अपनी ऊर्जा खपत ,कार्बन बजट ,कार्बन फुट प्रिंट को मिलजुल कर कम किया जाए ।
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन ......कौन ......
ये ना भूलें -इ दम दा मेनू की वे भरोसा आया ,आया ना आया ,ना आया .सामान सौ बरस का पल की ख़बर नहीं ।
कोपेनहेगन में सिवाय लफ्फाजी के कुछ नहीं होगा .
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
वीरू भाई आप का ब्लाग बहुत अच्छा है। पर यह वर्डवेरिफिकेशन अभी तक आपने हटाया नहीं इसे हटा दें।
एक टिप्पणी भेजें