सुप्त ज्वालामुखी जागृत होने पर बेतहाशा धूल उगलतें हैं -विक्षोभ मंडल (स्ट्रेतो स्फीअर) में .ऐसा होने पर सूरज की रौशनी काफ़ी अंशों में काफ़ी बड़े हिस्से में पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाती ,फलतया पृथ्वी थोडी सी ठंडी हो सकती है ।
१९९१ में फिलिपाईन्स में माउन्ट पिनातुबो में विस्फोट के फलस्वरूप विक्षोभ मंडल में २ करोड़ टन धूल सल्फर कणों के रूप में पहुँच गई थी फलस्वरूप धूल के वापस पृथ्वी तक लौटने तक पृथ्वी आधा सेल्सिअस (०.५ सेल्सिअस )ठंडी हो गई थी ।
तब क्या ऐसा मान लिया जाए ,वायुमंडल में सल्फर कण छोड़ने से पृथ्वी औ विश्वव्यापी तापन मुल्तवी रखा जा सकता है .?इंग्लेंड की रोयल सोसाय टी कुछ ऐसा ही सोच रही है ।
कंप्यूटर सिमुलेशन के ज़रिये ज्वालामुखी विस्फोट जैसी स्तिथियाँ प्रयोग्शालामे रच कर इस विचार को परखा जा रहा है .इसे और ऐसे हा अन्य उपायों को जो ग्लोबल वार्मिंग का मुकाबला कर सकतें हैं -भू -अभी -यान्विकी कहा जा रहा है ।
एक उपाय यह भी जियो -इंजिनीअरिंग के तहत रखा गया है ,क्लाउड वाईट -निंग यानी हवाई जहाजों के जरिये नमकीन पानी बड़ी मात्रा में विक्शोब मंडल में पहुंचाया जाए ,ताकि क्लाउड्स ब्राईट हो जाएँ और फ़िर अधिक से अधिक सौर किरणों को वापस अन्तरिक्ष में लौटा दे .सफ़ेद शफ्फाक बादल ज्यादा प्रकाश लौटायेंगे ,गहरे भूरे काले बादलों के बरक्स ।
लेकिन रोयल सोसाइटी इसके हक़ में नहीं हैं ,क्योंकि इससे अमेज़न औ अफ्रीकी क्षेत्र में कुल गिरने वाली बरसात कम हो जायेगी ।
विज्ञान कथा सा एक सुझाव यह भी है ,स्पेस सन -शेड बनान के लिए लाखों वर्ग मील क्षेत्र को शीशों से पात दिया जाए ,औ प्रकाश शीशों से टकरा कर वापस अन्तरिक्ष की और लौट जाए .लेकिन यह तब ही मुमकिन होगा जब कमसे कम १८ लाख वर्ग मील अन्तरिक्ष भाग को शीशों से सजा दिया जाए ,जो वर्तमान प्रोद्द्योगिकी के बूते के बाहर है ।
सूरज की रोशनियों को पृथ्वी पर पहुँचने से रोकने के लिए बड़े पैमाने पर एरोसोल कणों का छिडकाव भी व्यव्हारिय नहीं हैं ।
विकल्प एक ही बचता है ,जिसे आजमाया जा सकता है ,सालाना १५-५० लाख टन सल्फर कण वायुमंडल में छिडके जाएँ ,इससे विश्वव्यापी तापमानों में २सेल्सिअस तक की कमीबेशी लाइ जा सकती है ,यह सौदा उतना महंगा भी नहीं हैं ।
दरअसल यह बहस दिसम्बर में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रायोजित कोपेनहेगन में बुलाई गई जलवायु परिवर्तन विमर्श बैठक के सन्दर्भ में छिड़ गई हैं ,जहाँ विशेष कुछ होना जाना नहीं .सिवाय लफ्फाजी के इसीलिए जिओइन्जिनीअरिन्ग की बात चली है .
बुधवार, 2 सितंबर 2009
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