क्या ईश्वरीय आस्था के लिए हमारे दिमाग में विकास क्रम में एक न्यूरल -सर्किट बन गया और हमारा मन भी एक मशीन की तरह यांत्रिक हो गया ?इसी धार्मिक आस्था औ विश्वाश के चलते लोग अपनी जान बचाने के लिए परस्पर पास आते गए ?
क्या हम जन्मना आस्थावादी है .क्या इस भक्ति औ विशवास ने मनुष्य को जिजीविषा दी ,परिस्तिथियों से झूझने का होसला दिया ?औ धीरे -धीरे दिमाग में आशा के लिए एक सर्किट बन गया ?
बच्चों का दिमाग कैसे विकसित होता है तथा धार्मिक अनुभवों के दौरान वह कैसे काम करता है ,इसका बाकायदा विज्ञानियों द्वारा जायजा लेने के बाद ही यह विचार फूटा है ।
शोध -कर्मियों ने पता लगा या है ,उद्भव औ विकास क्रम में धार्मिक रूझान वाले लोग मिलजुल कर काम निपटाने लगें ,इससे उनमे एक रुझान पैदा हुआ ,साथ -साथ हो रहने ,आगे बढ़ने का ।
संगठित धर्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों ने इस विचार की सदैव ही खिलाफत की है ।
याद कीजिये "दी गाद दिलुस्जं अन "के लेखक रिचड दाकिंज़ को ,जो सदैव इसी विचार पर कायम रहे -अपढ़ होना औ बचपन की धार्मिक दीक्षा ही धार्मिक आस्था औ विशवास को भावी जीवन में जगह देती है ।
ब्रिस्टल विश्व -विद्द्यालय में विकासात्मक मनो -विज्ञान के प्रोफेसर ब्रूस हुड कहतें हैं -तस्वीर काफ़ी पेचीला है .बच्चों में तर्क करने का सहज -बोध (इन्त्युष्ण )होता है ,जो उन्हें एक पार -लौकिक आस्था औ विस्वास की औ ले जाता है .ऐसा तब होता है ,जब वह सोचने लगतें हैं -यह कायनात ,ये सृष्टि कैसे काम करती है ।
जैसे -जैसे बच्चे बड़े होते जातें हैं ,इन खयालातों के ऊपर तार्किकता का मुलम्मा चढ़ता जाता है .लेकिन पारलौकिक विशवास धर्म के रूप में मौजूद रहतें हैं ।
हुड ये निष्कर्ष इसी सप्ताह ब्रिटिश साइंस असोसिएष्ण की बैठक में रख रहें है -सार है ,संगठित धर्म पार लौकिक विश्वासों की एक कड़ी मात्र है। (हुड सीज ओर्गा -नाइ -जद रिलिजन एज जस्ट पार्ट आफ ऐ स्पेक्ट्रम आफ सुपर -नेचुरल बिलीफ्स )।
हुड अपनी स्थापनाओं में यहीं नहीं रुकें हैं ,आप नेएक औ अध्धय्यन के हवाले से बतलाया -किस प्रकार अनीश्वर वादी लोग भी खूनी लोगों का अंग प्रत्या -रोप के लियें लेने से एक अंध -विस्वास के तहत मुकर जातें हैं ,खूनी का व्यक्तित्व उसके अंग -प्रत्यंग में समाहित रहता है ।
हुड कहतें हैं -क्या यह वृत्तांत यह मान लेने के लिए नाकाफी है ,अंध -विस्वास के लियें भी दिमाग की हार्ड -वायरिंग हो चुकी है ,कालानुक्रम में ।
हुड के काम को कई औ विज्ञानियों ने भी समर्थन दिया है ,इन्होनें बतलाया है ,धार्मिक भावनाओं के दरमियान दिमाग के एक हिस्से में विद्दयुत -सक्रियता (इलेक्ट्रिकल एक्टिविटी )ही आध्यात्मिक -प्रोग्रेमिंग करती है ।
पेंसिलवानिया विश्व -विद्द्यालय में रेदिओलाजी के प्रोफेसर अन्द्र्यु नेव्बर्ग ने ब्रेन -इमेजिंग टेक्नीक का सहारा लेते हुए बतलाया है ,हमारे दिमाग में बाकायदा बिलीफ नेटवर्क्स हैं ,जो अध्यात्म औ धार्मिक आस्था औ विस्वास के लियें उत्तरदाई हैं ।
यह विचार औ अन्वेषण पूर्व स्थापित उस विचार का खंडन करता है ,ध्यान (मेदितेष्ण )के दौरान दिमाग में मौजूद "गाद स्पॉट "सक्रीय हो जाता है ।
वास्तव में टेम्पोरल लोब दिमाग के कई औ हिस्सों के साथ इन्तैरेक्त करता है ,किर्या -प्रति -किर्या करता है ,इसीसे धार्मिक औ अध्यात्मिक अनुभवों का बोध होता है ।
यही वजह है आगे चल कर वह लोग भी पारलौकिक विश्वासों को मानने लागतें हैं ,जो बचपन में इनसे छिटकते रहें हैं ,आदमी के अन्दर एक जन्म जात रूझान पार लौकिक धारणाओं के प्रति पाया गया है .तब क्या यह माना जाए -धार्मिक अनुभवों का भी एक मशीनी आधार है .ऐसा लौरेंशियन विश्व -विद्द्यालय के माइकल पर्सिंजर भी मानतें हैं जिन्होनें शक्ति -शाली चुम्बकीय क्षेत्रों का स्तेमाल आध्यात्मिक अनुभव प्रेरण के लिए भी किया है ।
सन्दर्भ सामिग्री :बिलीफ इन गाद हार्ड -वायर्ड इन आवर ब्रेन ?(टाइम्स आफ इंडिया ,सितम्बर ८,२००९ ,पृष्ठ १७ ,केपिटल एडिशन )
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )
मंगलवार, 8 सितंबर 2009
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