अज्ञानता और सुविधाओं के अभाव के भंवर में फंसा मनोरोगों का दायरा भारत के सन्दर्भ में अपनी परिभाषा ढूंढ रहा है .अपने अस्तित्व को कोस रहा है .यहाँ तो काया चिकित्सकों (जनरल फिजिशियंस )का ही अभाव है फिर मनोरोगों को लेकर सुविधाओं की बात करना तो वैसे ही बेमानी लगता है .इतना बड़ा देश ,इतनी विशाल आबादी और ले देकर ५००० मनोरोगों के माहिर ।
डिमेंशिया ,अल्ज़ाइमर्स जैसे न्यूरो -जेंरेतिव रोगों को तो यहाँ बुढापे का अभि- शाप मानकर बरतरफ कर दिया जाताहै .कोई तवज्जो नहीं मिलती इन रोगों को .बुढापे का ज़रूरी हिस्सा मान कर नजर अंदाज़ कर दिया जाता है .सठियाना समझ लिया जाता है .जबकि याददाश्त का खोते चले जाना ,खासकर शोर्ट टर्म मेमोरी ह्रास एक डि-जेंरेतिव डिस -ऑर्डर है .और पार्किन्संससिंड्रोम , उसकी बात ही ना की जाए तो बेहतर .इल्म ही नहीं है लोगों को ।
मजेदार बात यह है कितने लोग इन न्यूरो- लोजिकल डि -जीज़िज़ के दायरे में आ चुके हैं इसे लेकर कोई प्रामाणिक आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं .विधिवत अध्ययन विश्लेषण के अभाव में आंकड़े आयें भी तो कहाँ से ।
एक सामाजिक जागरूकता के अभाव में इन मुद्दों को उठाने वाले लोग भी यहाँ नहीं हैं ,जबकि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसे लेकर एक सामाजिक आन्दोलन चलाये जाने की ज़रुरत है ।
साईं -काट -रिक डिस -ऑर्डर्स को लेकर भी सामाजिक चेतना का अभाव है .लोग टोने टोटकों ,पीर फकीरों ,देवबंदी कलमा पढने वाले मौलानाओं ,बालाजी जैसे स्थानों में ज्यादा यकीन रखतें हैं .उन्हें यह इल्म ही नहीं है "साईं -कोटिक -एल्मेंट्स (बाई -पोलर इलनेस ,शीजो -फ्रेनिया जैसे रोगों )का एक जैव रासायनिक आधार है .बायो -केमिकल बेसिस मौजूद है .चंद न्यूरो -ट्रांस -मीटर्स का असंतुलन ,दिमागी केमिस्ट्री में बदलाव ही इन रोगों का आधार है जिसे चंद रसायनों (केमिकल्स )की मदाद सेही दोबारा हासिलभी किया जा सकता है .लोग सामने तो आयें जैसे भी और जितने भी भारत में मनो -रोगों के केंद्र हैं वहां तक पहुंचे तो सही .रोग छिपाए रहने से रोग बढ़ता है .एक स्तर पर पहुँच कर बे -काबू हो जाता है ।
जबकि इस मनो -रोग चक्र -व्यूह में अब डिप्रेशन भी एक अलग सु -परिभाषित रोग का दर्जा पा चुका है .ज्यादा से ज्यादा लोग आबादी के फैलाव विस्तार के साथ मनो -रोगों के दायरे में लगातार आ रहें हैं .यह सिलसिला जब तक ज़ारी रहेगा जब तक बढती आबादी पर रोक नहीं लगाई जा सकती .एक सु -परिभाषित नीति तैयार नहीं कर ली जाती .
पी जी आई चंडीगढ़ को लें .इसे एक रेफरल केंद्र के रूप में खडा किया गया था .लेकिन बढती आबादी के कारण आम इलाज़ के लिए यहाँ लोग धड़ल्ले से आ धमक रहें हैं ।
मनो रोग विभाग के पास ले देकर प्रति दिन ३०० -४०० मनो -रोगियों को बहिरंग चिकित्सा विभाग में देखने का इंतजाम है जबकि ३००० -४००० लोग चले आ रहें हैं .किसी राजनीतिज्ञ में इतना दम ख़म नहीं है ,आबादी को लेकर ,प्रति परिवार बच्चों की संख्या को लेकर एक साफ़ नीति बनाई जाए .वोट का अंक गणित ,सिरों की गिनती सबको डराए हुए है ।
यहाँ तो बाल गृह में ही नाबालिग लडकियाँ गर्भ धारण कर लेतीं हैं .ऐसे केंद्र मनो -रोगियों के लिए भी कोमन कोज के लिए लड़ने वाले सरकार से लड़कर खड़े भी करवा दें ,उनका भी हाल बाल सुधार गृहों सा हीहाल नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं ले सकता .
(ज़ारी ...)
बुधवार, 8 सितंबर 2010
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