न्युरोंस ,लव ,एटी -टयु -ड(दी स्पीकिंग ट्री,दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,सितम्बर २० ,२०१० ,पृष्ठ १६ )।
जब हम किसी व्यक्ति या दैनिक जीवन की किसी स्थिति के प्रति ऋणात्मक प्रति -क्रिया करतें हैं ,तब हम अपने अनजाने ही अपने शरीर तंत्र में एक ऋणात्मक प्रवृत्ति ,मूलभूत रूप से एक ऋणात्मक रुझान पैदा करने लगतें हैं .हमारे सभी ज़ज्बात (संवेग ,आवेग)विद्युत् -रासायनिक तौर पर आवेशित होतें हैं ,और अन्तरंग रूप से ,स्वभाव गत ,मूल भूत रूप हमारे स्रावी तंत्र (ग्रंथियों का काफिला जो हारमोन स्रावित करता है बनाता है ),स्नायुविक तंत्र (नर्वस सिस्टम )और रोग -रोधी तंत्र से जुड़े रहतें हैं . ऐसे में इन तंत्रों के ऋणात्मक तौर पर आवेशित हो जाने पर श्रृंखला बद्धऋणात्मक प्रतिक्रियाएं ही होने लगती हैं .और इसीलिए जीवन स्थितियों के प्रति सावधानी पूर्वक प्रति -क्रिया करनी चाहिए ।
एक प्रसंग बड़ा ही मौजू है ,नाम चीन पत्रकार नोर्मन कुसिंस बेहद बीमार हो गए .ठीक होने की उम्मीद उनके चिकित्सक छोड़ बैठे ,दो टूक बिना बिचारे कह दिया "प्रोग्नोसिस इज पूअर ।"सहज बोध से नोर्मन ने जान लिया "ऋणात्मक संवेगों से रिनात्मक भौतिक परिस्थितियाँ ही रची गढ़ी जातीं हैं .नोर्मन ने आस का पल्लू नहीं छोड़ा .व्यंग्य -विनोद पूर्ण ढेर सारी फिल्म "सी डीज़" किराए पर लेकर नियमित देखना शुरू कर दिया .देखते ही देखते नोर्मन बिना नींद की गोलियां लिए आराम से सोने उठने लगे .दर्द -नाशी दवाओं पर भी निर्भरता कम होती गई .स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते ही नोर्मन ने अपने तजुर्बे (अनुभव )ब्रितानी मेडिकल जर्नल में लिखे ।
एक और प्रसंग इसी बात को आगे बढ़ाएगा .आर्ट मथिअस को तमाम तरह के खाद्य पदार्थों से एलर्जी होती थी .यहाँ तक की खाद्य रेशों से भी .महंगे सूती वस्त्र ही वह पहन पाते थे .डॉ इनके मामले में भी नाउम्मीद हो चुके थे लेकिन संयोग वश आर्ट को क्षमा शीलता के बारे में एक प्रवचन सुनने का मौक़ा मिला .आर्टने फैसला ले लिया जो लोग उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचाते आयें हैं वह उन सभी को मुआफ कर देगा .फोरगिव एंड फोरगेट वाली नीति पर आर्ट चल- निकले .चंद दिनों में ही ना सिर्फ अनेक खाद्यों का वह स्वाद लेकर सेवन करने लगे चमड़ी से सम्बन्धी एलर्जीज़ भी काफूर हो गईं .आर्ट की विचार धारा ने उसके शरीर के मिजाज़ को भी बदल डाला ।
सवाल हमारे नज़रिए का है "हर्ट और हेल्थ के प्रति .
२००२ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बतलाया :इस बरस जितने भी लोग आम रोगात्मक लक्षणों की शिकायत लेकर अपने फेमिली डॉ के पास पहुंचे उनमे सेहरेक तीन के पीछे एक क्रोध और अवसाद से ग्रस्त निकला .
कमो- बेश हम में से कितने ही इसी गुस्से और डिप्रेशन का शिकार बने रहतें हैं .अपना रुझान ,रवैया बदल कर हम कितनी ही भौतिक आपदाओं बीमारियों की गिरिफ्त में आने से बचे रह सकतें हैं ।
जो कुछ आपके साथ होता है वह सिर्फ दस फीसद ही वास्तव में होता है शेष ९० फीसद मुसीबतें आपका रवैया पैदा कर लेता है .
चीज़ यह है निराशा से पार कैसे पाया जाए .एक रचनात्मक रूख कैसे रचा जाए .याद कीजिये इसी प्रसंग में अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के अध्यापक के नाम एक पत्र लिख कर उनसे पेशकश की थी बेशक मेरे बेटे को जीतनाभी सिखलाइये लेकिन यह भी, कैसे हार का सामना किया जाए .उसमे से भी कुछ ना कुछ पोजिटिव ही निकाला जाए ।
किसी भी बीमारी के बारे में हम आज भी पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं ,लेकिन एक हालिया अध्ययन कहता है ८२ फीसद हमारी भौतिक आपदाओं , रोगों की वजह हमारे संवेग आवेग ही बनतें हैं .
नाकाम -याबी और निराशा भी जीवन स्थितियों से ज़रूरी तौर पर रिसती है कोशिश यह रहनी चाहिए इस सबके प्रति कोई कडवाहट ,खीझ ,क्रोधावेग या प्रति -रोध शेष ना रहे .चुक जाए ।
स्नायुविक विज्ञान के माहिर (न्यूरो -लोजिस्ट )मानते कहतें हैं ईश्वर ने हमारे दिमाग की सबसे छोटी इकाई (क्वांटम ऑफ़ ब्रेन ),दिमाग की एकल कोशा यानी न्यूरोन को प्रेम -संवाद के लिए गढ़ा है .प्रेम मय होने पर हमारे शरीर का अंग -प्रत्यंग एक आदर्श रूप में काम करने लगता है .फिर प्रेम चाहे ईशवरीय हो या किसी देही (देह धारी के ).दूसरों को हमारा प्रेम दिखना चाहिए .प्रकट कर सके वह भी ,हम प्रेम कर रहें हैं .यह बेहद ज़रूरी है .
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1 टिप्पणी:
सुन्दर और जानकारी भरा आलेख -सोचने पर विवश करता बल्कि उत्साहित करता !
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