दादी माँ ठीक ही कहा करतीं थीं -भोजन तन्मय होकर खूब चबा चबा कर धीरे धीरे ही खाना चाहिए ।
अब इस विचार पर अपनी मोहर लगा दी है -अथेन्स यूनिवर्सिटी के अलेक्सान्दर कोक्किनोस ने जिन्होंने अपने एक अध्धय्यन में बतलाया है ,खाना खूब चबा चबा कर धीरे धीरे दत्तचित्त होकर खाने से हमारे खून में दो हारमोनों -पेप्टाइड वाई वाई (पी वाई वाई )और ग्लुकागोंन ला -इक पेप्टाइड -१ (जी एल पी -१ )का स्तर खाने के बाद के तीन घंटों तक अतिरिक्त रूप से बढ़ा रहता है .पाचन क्षेत्र से स्रावित होने वाले यह दोनों हारमोन ही हमारे दिमाग तक परितुष्टि (भोजन से पेट भर जाने संतुष्टि का )का संदेश पहुंचाते हैं ,नतीज़न हम पेट भर जाने के एहसास के संग उठ जातें हैं ,भोजन की नपीतुली खुराख के अनुरूप मात्रा खाकर .इसके विपरीत जब हम जल्दबाजी में ,चलते फिरते ,ड्राइव करते भोजन भ्कोस्तें हैं ,तब हमें यह ही पता नहीं चलता ,कितना खाना है ,हम बीजंईटिंग करने लगतें हैं अतिरिक्त मात्रा फालतू केलोरीज़ गड़प जातें हैं ,नतीजा होता है -मोटापा -ओबेसिटी -जो सब बीमारियों को निमंत्रण देने लगता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-तू ईट लैस ,यूओर बॉडी में वांट यु तू ईट स्लोली (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर १० ,२००९,पृष्ठ १५ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )
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