अपस्मार या मिर्गी के दौरे के तकरीबन ८०,००० मरीज हैं हमारे देश में जिनके साथ सरकारी /गैर -सरकारी /पारिवारिक /सामाजिक हर स्तर पर भेदभाव होता है .एक सामाजिक अभिशाप इस बीमारी के साथ चस्पां हो गया है .यद्यपि किसी को एपिलेप्टिक कहना सामाजिक तौर पर वांछित नहीं हैं ,गाली देने के समान है ।
अब इस इलाज योग्य बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को कहा जाता है -"पर्सन विद एपिलेप्सी "ना की एपिलेप्टिक ।
बिना किसी नस्ल भेद के किसी भी उम्र के व्यक्ति को यह असर ग्रस्त बना सकती है .भौगोलिक हदबंदी का इस बीमारी ने सदैव ही अतिक्रमण किया है ।
गत ४००० सालों से आदमी (औरत मर्द )इस बीमारी से वाकिफ है ,आधुनिक चिकित्सा के पास इसका इलाज़ और रोग निदान दोनों है ,लेकिन असल बात सामाजिक रवैये की है .जबकि ७५ -८० फीसद मामलों में रोग इलाज़ करवाने पर ,इलाज़ पर टिके रहने पर काबू में रहता है ।
वोमेन लिविंग विद एपिलेप्सी कैन प्लान देयर प्रेग्नेंसीज़ हालाकि फिमेल हारमोंस इस्ट्रोजन और प्रोजेस्तिरों- न कुछ दिमागी कोशिकाओं को प्रभावित करतें हैं जहाँ से न्युरोंस डिस्चार्ज होतें हैं ,सीज़र्स यहीं से शुरू होतें हैं .लेकिन अपनी चिकित्सक की देखभाल में शुरू से ही सावधानी बरतने ,प्रीनेटल केयर लेते रहने पर ९० फीसद मामलों में स्वस्थ और एक दम से सामंन्य बच्चे पैदा होतें हैं ।
अब नै नै दवाएं उन युवतियों को भी मयस्सर है जो युवा वस्था की देहलीज़ पर पाँव रखते ही एपिलेप्सी के साथ रह रहीं हैं .इन दवाओं के पार्श्व प्रभाव (दुश प्रभाव या साइड इफेक्ट्स )अंडाशय ,वेट गें- न और बाल झड़ने का जहाँ तक सवाल है ,कमतर हैं .(वैसे भी दवा का फायदा कितना ज्यादा है यह देखा जाता है,अवांछित प्रभाव नहीं जो कुछ ना कुछ तो होता ही है )।
क्या है ट्रीटमेंट गेप ?
इस समय तमाम तरह के लोग हैं गावों शहरों ,महा नगरों ,विश्व -नगरियों में जो एपिलेप्सी के साथ बिना इलाज़ के रह रहें हैं .कारण ,सोसल स्टिग्मा ही तो है .यही है ट्रीटमेंट गेप .,जो भारत में ५० -७८ फीसद तक दिखलाई देता है .बेंगलुरु में यह गेप ५० फीसद दर्ज किया गया जबकि ग्रामीण भारत में (कंट्री साइड में )यह बढ़कर ७८ फीसद तक पहुँच जाता है ।
पूर्ण साक्षर केरल भी इस पिछड़ेपन से मुक्त नहीं है ,यहाँ ३८ फीसद दर्ज किया गया है ट्रीटमेंट गेप ।
एक हिचक है लोगों में सामाजिक अस्वीकृति की वजह से जो रोग निदान को तरजीह ही नहीं देते .यहीं पर सूचना और शिक्षा का एहम रोल है .हर नागरिक का फ़र्ज़ है वह लोगों को बतलाये रोग निदान और इलाज़ के बेहतर साधन ,दवाएं इलाज़ के लिए आज भारत में उपलब्ध हैं ।
विकल्प के बतौर शल्य चिकित्सा भी उपलब्ध है ।
रोग निदान के बाद नए मामलों में एक तिहाई मरीजों में आदर्श चिकित्सा के बावजूद "फिट्स "/सीज़र्स /न्यूरोन डिस्चार्ज ज़ारी रहतें हैं .ऐसे में दौरों की प्रभावी रोक थाम के लिए दवा की बड़ी खुराकें देना बेहद खर्ची का वायस (वजह )बन जाता है ., मरीज़ का बौद्धिक ,मनोविज्यानिक ,सामाजिक और शैक्षिक जीवन इसकी चपेट में आता है ।
शल्य चिकित्सा इन्हीं लोगों के लियें हैं जिसके तहत "दी एपिलेप्तो -जेनिक फोकस इज लोके -लाइज्द एंड रिसेक्तिद "यानी दिमाग का वह चुनिन्दा हिस्सा जहाँ से "न्यूरोन डिस्चार्ज होता है "जो सीज़र्स /दौरे के लिए उत्तरदायी है काट कर फेंक दिया जाता है ।
इस सब का फैसला हाई -क्वालिटी एम् आर आई ,वीडियो ई ई जी तेलिमीत्री टेस्ट्स आदि के बाद लिया जाता है ,चंद अस्पतालों में ही यह सुविधा उपलब्ध है .आरंभिक स्तिथि में उन मरीजों के मामले में इसे आजमाया जाता है जिनके दौरे बस एक दो साल से ही रोग निदान और आदर्श चिकित्सा के बावजूद बे काबू हुए हैं .दुनिया भर में इस तकनीक का पूरा दोहन होना बाकी है .
मंगलवार, 17 नवंबर 2009
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