अकसर बुजुर्ग कहते सुने जाते हैं ,ये बाल धूप में नहीं सफ़ेद हुए हैं .अनुभव के साथ आती है सफेदी और परिपक्वता .भले ही आज के बुजुर्ग युवा भीड़ की बनिस्पत ना तो नेट और ना ही कंप्यूटर सावी हैं लेकिन रिअल लाइफ सिचुएशन ,भोगे हुए यथार्थ और जिंदगी के थपेड़ों की उनकी समझ सोलिड होती है ।समस्याओं के निदान में भी वह माहिर रहतें हैं .
आधुनिक रिसर्च भी अब इस विचार पर अपनी मोहर लगा रही है ,अपने बुजुर्गों का कहा मानो ,संघर्षों से पार पाने में उनका कोई सानी नहीं है .जीवन की अनिश्चय्ताओं की स्वीकृति कोई अपने बुजुर्गों से सीखे .और यह भी जाने समझे उनकी ही मार्फ़त ,परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है .यथार्थ है ।
सवाल यह नहीं है ,आप कितने तथ्यों से वाकिफ है ,कितने ज्ञान वांन हैं .सवाल यह भी नहीं है ,आप कितने गजेट्स का संचालन करने में माहिर हैं ,असल सवाल यह है ,आप असहमति को कैसे और कितना स्वीकार करतें हैं .सामाजिक बुद्धिमत्ता आप में कितनी है ।
मिशिगन यूनिवर्सिटी के माहिरों ने रिचर्ड निस्बेत्त के नेत्रित्व में पता लगाया है ,बुजुर्ग इस बात को तस्दीक कर लेतें हैं ,अलग अलग लोगों में मूल्य बोद्ध जुदा होतें हैं और वह इसी विचार के तहत दुसरे व्यक्ति के नजरिये (वियु पॉइंट )पर भी गौर कर लेतें हैं ।
समाज के हर स्तर पर समाज के हर तबके पर उम्र अपना बौद्धिक प्रभाव छोडती है .आई .क्यु .पर भी उम्र का असर पड़ता है .आदमी उम्र के साथ सीखता रहता है .उम्र खुद सीख देती है ।
बेशक आधुनिक अमरीका में बुजुर्ग भले ही तकनीकी ज्ञान में उन्नीस होंलेकिन सामजिक समस्याओं के विश्लेषण और समझ में उनका कोई सानी नहीं है ।
सामाजिक समस्याओं की उनकी समझ और पड़ताल हमेंआज भी बहुत कुछ सिखा समझा सकती है ।
आर्थिक रूतबा ,शिक्षा और आई क्यु .यद्यपि बुद्धिमत्ता से ताल्लुक रखतें हैं ,लेकिन एक ही स्तर तक शिक्षा प्राप्त अकादमिक और नॉन -अकादमिक में कोई फर्क नहीं देखा गया है .उम्र का अपना योगदान है .बुद्धिमत्ता उम्र के साथ बढती है अकादमिक और नॉन -अकादमिक दोनों में ही ।यही इस अध्धय्यन का सार तत्व है .
सन्दर्भ सामिग्री :ग्रेनी इज राईट :पीपुल दू गेट वैज़र विद एज (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अप्रैल ७ ,२०१० )
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
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