ऑस्ट्रलियाई साइंस दानों की माने तो वेह्ल द्रोपिंग्स सद्रंन ओशन को गरमाकर आलमी गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग )का मुकाबला करवा सकती है ।
साइंस दानों के मुताबिक़ वेह्ल एक्स्क्रीता (मल या फीशिस )आयरन -रिच (लौह तत्व बाहुल्य लिए रहता है ) होता है .यह (एक्स्करी )एक कुदरती ओशन फ़र्तिलाइज़र (सागरीय उर्वरक )है जो पूरे पारिश्थिति तंत्र को गहरे समुन्दर में ज्यादा से ज्यादा कार्बन सोखने ज़ज्ब करने के लिए तैयार करसकता है ।
इस एवज बालींन वेल्स और किरिल्स की बड़ी आबादी चाहिए .ताकि सद्रंन ओशन अधिकाधिक कार्बन दाई -ओक्स्साइड ज़ज्ब कर सके .यह पूरा इको सिस्टम इन वेल्स की तादाद बढ़ जाने पर कार्बन दाई -ओक्स्साइड का सोखता बन सकता है .हम जानतें हैं समुन्दर वैसे भी कार्बन -दाई -ओक्स्साइड के ज्ञात स्रोत हैं ।
प्लांट्स की यह पहली पसंद हैं फस्ट लव है .वास्तव में पादप वायु मंडल से कार्बन की निकासी करतें हैं .द्रोपिंग्स सोलिड्स और लिक्वीड्स का एक प्लूम साबित होगी .अन्टार्क्टिक डिविज़न (ऑस्ट्रलियाई )ने इस रिसर्च को आगे बढाया है ।
वास्तव में सद्रंन ओशन में आयरन एक सीमित माइक्रो -न्युत्रियेंत ही बना रहा है .ऐसे में सतहीजल में घुलन शील लौह तत्व फाइटो-प्लांक -तन और एल्गी कीबड़े पैमाने पर फार्मिंग की वजह बनेगा .सतही जल में पल्लवित एल्गी में जहां पादप फलते फूलतें हैं ग्रो करतें हैं आइय्रण भी मौजूद रहता है .लेकिन लौह बहुल कण गहरे जल में समाधि लेते रहतें हैं ,पैंठ जातें हैं ।
किरिल इस एल्गी को खाती है और वेल्स किरिल को .वेळ एक्स्क्रीता के बतौर एक बार फिर आयरन लौट आता है .नतीज़न सतही जल में आयरन का स्तर बढ़ जाता है .यहीं इसकी अधिक ज़रुरत भी है ।
सागरीय जल के बरक्स वेळ- पू (वेह्ल एक्स्क्रीता )में आयरन का ज़माव (सांद्रण ,कन्संत्रेसन )एक करोड़ गुना ज्यादा पाया गया है .किरिल -एल्गी -वेह्ल का परस्पर इन्तेरेक्सन बहुत ही उच्च स्तर पर होता है .यह एक स्वयं चालित कायम रह सकने लायक तंत्र बन जाता है ।
अब सवाल यह है -कितना वेह्ल -पू चाहिए ?ताकि सद्रं ओशन ज्यादा से ज्यादा कार्बन का एक ब्लोटिंग पेपर एक बेहतरीन से भी बेहतरीन सिंक बन जाए ?इस सवाल का ज़वाब मिलना बाकी है ।
सन्दर्भ -सामिग्री :-वेह्ल द्रोपिंग्स केंन हेल्प काम्बेट क्लाइमेट चेंज (टाइम्स सोफ़ इंडिया ,अप्रैल २६ ,२०१० )
वेह्ल द्रोपिंग्स केंन हेल्प काम्बेट 'क्लाइमेट चेंज '.
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