गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

बातें जिन पर हम गौर नहीं करतें हैं .....

शादी -ब्याह तय करते वक्त हम लोग बहुत सी बातें छिपा जातें हैं .जो बतलाई जातीं हैं उन पर ठीक से गौर नहीं करते .जो बतलाया जाता है वह ज्यादा महत्वपूर्ण होता है ।
मसलन एक लड़की के पिता ने बतलाया ,हमने देखा भी शादी से पूर्व वहां सम्बन्ध जोड़ने से पहले ,वह घर में बने मंदिर में ही सोतें हैं ,जमीन पर गद्दा बिछाकर .हमने देखा एक रिचुअल की तरह गली के दो कुत्तों को नियमित रोटी दूध में चूर कर अपने हाथ से परोस्तें हैं .यह साहिब पेशे से हाकिम है ।
एक लड़की को मैं नज़दीक से जानता हूँ ,कई लड़कों को भी जो अब मर्द बन चुकें हैं ,ग्रिस्थ बन चले हैं ,हफ्ते में एक से ज्यादा व्रत रखतें हैं ,कई बार इनके मनोरोग विद ने एंटी -साईं कोटिक ड्रग्स के साथ ऐसा ना करने की सलाह दी (जी हाँ यह लोग दवा लेतें हैं मनोरोगों की )।
बच्चा ब्रेकफास्ट किये बिना भले ही स्कूल चला जाए ,पति दफ्तर, इनका पूजा पाठ ,इबादत चलती रहनी हैं ,अल्ला ताला के नाराज़ होने का ख़तरा जो है .बिला नागा यह लोग हनुमान मंदिर जायेंगे ,साईं के दरबार में गुरूवार को हाजिरी देंगें ,बंदरों को चने खिलायेंगें ।
भाई साहिब यह सब एब्नोर्मल है .नोर्मल बात नहीं है .कोई भी अति एक ही और बराबर इशारा करती है -एब्नोर्मल बिहेविअर मनोरोगों का बेकग्राउंड .

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

कुछ बातें मेरी आपकी सबकी ....

सुबह माई ने चाय सर्व करने के बाद कहा -अंकल एक बोतल पापा के लिए चाहिए नए साल की (हमारे घर में रमकी होतीं हैं ,पाई जातीं हैं ,काम के बदले रम )मैंने बोतल दे तो दी सोचने लगा "उसके पापा तो डाय-बेटिक हैं ,कुछ दिन पहले इंसुलिन पर थे .,पूछा हफ्तें में कितने दिन पीतें हैं ,अंग्रेजी या देसी "-रोज़ पव्वा ,देसी या अंग्रेजी ?",पता नहीं .,"-ज़वाब मिला ।
मैंने कहा डाय -बेटीज़ तो पूरे परिवार की बीमारीहै ,पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है .आँख भी जा सकती है (डायबेटिक रेतिनोपेथी से )किडनी भी .पाँव भी कट सकता है इस उम्र में ज़ख्म होने पर भरता कहाँ है ।
मैं और आप ,हम तमाम लोग दो तरह के लोगों को जानते हैं .एक वह जो नियम -निष्ठा से दवाई खातें हैं ।
पापा कहा करते थे -एन्तेरिक फीवर (टाय- फाइड)हो जाने पर दवा एक दिन फ़ालतू खानी चाहिए ,कहीं ज़रासीम (पेथोजंस )अपना कुनबा फिर से ना बसा लें ,बीमारी जड़ से जाए ।
एक और किस्म के लोग हैं हमारे गिर्द ,डॉक्टर के पास जाने का शौक है ,दवा पूरी कभी नहीं खाते .कहतें हैं दवा गर्म होतीं हैं .नजर कमज़ोर पड़ने पर चस्मा नहीं बनवाते ,बनवा लेतें हैं तो लगातें नहीं हैं .लड़की के मामले में कहा जाता है -"शादी नहीं होगी "छिपा जातें हैं ,कोंटेक्ट लेंस लगाए घूमतीं हैं ,लौंडिया ,किसी को पता ना लग जाए ,लड़की चस्मा लगाती है ,बीनाई (नजर कमज़ोर है ),शादी कैसे होगी ?
भाई साहिब -"लड़की तमाशा है ,दिखावे की तीहल है ?"

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

झुर्रीदार चेहरा असली कुसूरवार कौन ?

केस वेस्टर्न रिजर्व स्कूल आफ मेडिसन ,क्लीव्लेंद(ओहायो ) से सम्बद्ध एल्मा बारों और साथियों ने अपने एक हालिया अध्धय्यन से पता लगाया है :धूम्र -पान की आदत और मोटापा और बेहिसाब धूप में बिताएगए पल खानदानी गुणसूत्रों से ज्यादा हमें बुढापे की मांद में ले आतें हैं .हमारे चेहरे की बेहिसाब झुर्रिया इन्हीं आदतों और पर्यावरणी घटकों (धूप में ज्यादा देर तक बने रहना )की सौगातें हैं ।
हमारे खानदानी जींस (जीवन खंड /जीवन इकाइयां )इस रूझान में भागीदार हैं भी या नहीं इसका पता लगाने के लिए अध्धय्यन ६५ जुड़वां जोड़ों पर संपन्न किया गया था ।
ज़ाहिर है जुडवाओं(ट्वीन्स)का माहौल यकसां नहीं था उनकी आदतें और परिवेश जुदा थे .बेशक उनकी खानदानी विरासत सामान थी ,जीवन इकाइयां यकसां थीं ।
पता चला झुर्रियों का सम्बन्ध हमारी जीवन शैली से ज्यादा है ,माहौल और रहनी सहनी आदतों से ज्यादा है ।
बेशक जीवन शैली को सुधार कर ,धूम्र -पान से परहेज़ और मोटापे को टाले रखकर बुढ़ाने को कुछ तो लगाम लगाईं ही जा सकती है .

रविवार, 27 दिसंबर 2009

स्टेम सेल्स (कलम कोशिकाओं )का भंडारण कैसे किया जाता है ?

कन्सेप्शन (गर्भ धारण यानी ओवम और स्पर्मेताज़ोंयाँ के मिलन )के एक पखवारे तक कोशिका विभाजन से प्राप्त कोश्काओं को स्टेम सेल्स कहा जाता है .इन्हें अन दिफ्रेंशियेतिद सेल्स भी कह दिया जाता है यानी विभाजन (फिशन )की इस स्टेज तक तमाम कोशिकाएं यकसां हैं .बेशक यह गुप्त रूप से एक सोफ्ट वेयर एक प्रोग्रेम लियें हें हैं .आगे चलकर फिशन के अगले पड़ाव में यह अपना विशिष्ठ काम अंजाम देतीं हैं .हमारी काया के अलग अलग अंगों का निर्माण यह इसी सोफ्ट वेयर के तहत करतीं हैं .लेकिन अब इन्हें दिफ्रेंशियेतिद सेल्स कहा जाता है .गर्भ नाल के रक्त में इनका डेरा है .यदि इन्हें निम्नतर ज़रूरी तापमान पर संजो कर रख लिया जाए तब आगे चलकर वही व्यक्ति इनका वक्त ज़रुरत के हिसाब से स्तेमाल कर सकता है .इनसे मनमाफिक अंगों को प्रयोगशाला में तैयार किया जा सकता है ,अंग प्रत्या -रोपण में इनका स्तेमाल किया जा सकता है .इन अंगों को हमारे इम्यून -सिस्टम (रोग रोधी प्रति रक्षा तंत्र )से भी सहज स्वीकृति मिल जाती है ।
सवाल है इन्हें कैसे संभाल कर रखा जाए .कैसे किया जाए कलम कोशिकाओं का भंडारण जो ला इलाज़ बने हुए अल्ज़ैमार्स ,पार्किन्सन सिंड्रोम ,दाया -बितीज़ जैसे रोगों से निजात दिलवा सकतीं हैं ।
जिस विधि से इनका भंडारण किया जाता है वह "क्रयो -प्रीज़र्वेशन "प्रशीतिकरण कहलाती है यानी शून्य से १५० सेल्सियसनीचे का तापमान (-१५० सेल्सियस )पर इन्हें नाइट्रोजन -वाष्प से संसिक्त (भिगोकर )रखना पड़ता है प्र्शीतिकरण में .इनकी जीवन क्षमता बनाए रखने के लिए इस निम्नतर तापमान पर इन्हें एक अतिनिम्न ताप संरक्षक "करायो -प्रोटेक्टिव एजेंट "की ज़रुरत पड़ती है .दिक्कत यह है यह संरक्षी टोक्सिक (विषाक्त गुण लिए है )पाया गया है ,ऐसे में इन्हें स्तेमाल से पूर्व विष मुक्त करना ज़रूरी हो जाता है .वरना गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे स्तेमाल -करता को ।
नान -टोक्सिक प्रोटेक्टिव एजेंट्स की तलाश ज़ोरों पर है .उमीद पे दुनिया कायम है ,एक रोज़ यही स्टेम सेल्स स्वास्थ्य विज्यान को नै परवाज़ देंगी .

ग्रीन एनर्जी से हमारा मतलब क्या है ?

हरित ऊर्जा (ग्रीन एनर्जी )की अवधारणा को आत्म सात करने से पहले हमें यह समझना होगा "ऊर्जा स्रोतों के संरक्षण और निरंतरता "से हमारा क्या आशय है ?आज हम जिन ऊर्जा स्रोतों को बरत रहें हैं कहीं हम उनका बिलकुल सफाया ही ना कर दें ,आइन्दा आने वाली पीढ़ियों के लियें भी कुछ सोचें .यानी किसी भी ऊर्जा स्रोत का "होणा" उसकी "इज्नेस "बनी रहे भावी पीढ़ियों के लिए .अलबत्ता ग्रीन एनर्जी एक ब्रोड -स्पेक्ट्रम टर्म है ,व्यापक अर्थ है हरित ऊर्जा का .कायम रहने लायक ऊर्जा स्रोतों को ग्रीन ऊर्जा कहा जा सकता है .पुनर प्रयोज्य ऊर्जा स्रोतों का भी यही अर्थ लगाया समझा जाएगा ."क्लीन डिवेलपमेंट मेकेनिज्म "स्वच्छ ऊर्जा को भी हम ग्रीन एनर्जी कहेंगें .ज़ाहिर है उत्पादन की ऐसी प्रकिर्या हमें चाहिए जो हमारे पर्यावरण को कमसे कम क्षति पहुंचाए .यही कायम रह सकने लायक विकास है .जब हम ही नहीं रहेंगे तो हमारी हवा पानी मिटटी को निरंतर गंधाने वाले ऊर्जा स्रोतों की प्रासंगिकता का मतलब ही क्या रह जाएगा ?इसीलिए "ग्रीन एनर्जी /क्लीन एनर्जी "इस दौर की ज़रूरीयात है ,महज़ लफ्फाजी नहीं है .इस दौर में हम कोयला और जीवाश्म ईंधनों का बला की तेज़ी से सफाया कर रहें हैं ,कल यह स्रोत रहें ना रहें .पर्यावरण तो टूट ही रहा है जलवायु का ढांचा ,मौसम का मिजाज़ डांवां-दोल है .इसे बचाने के लिए "ग्रीन एनर्जी चाहिए ।
जैव ईंधनों (बायो -फ्यूल्स )सौर ऊर्जा पवन ऊर्जा तरंग ऊर्जा ,भू -तापीय एवं ज्वारीय ऊर्जा जिनका स्तेमाल अभी अपनी शैशव अवस्था में हैं ग्रीन एनर्जी के तहत ही आयेंगी ।
ऊर्जा दक्षता में इजाफा करने वाली अभिनव प्रोद्योगिकी को इसी श्रेणी में रखा जाएगा इनमे पहली पीढ़ी की जल और भूतापीय ऊर्जा दूसरी की सौर एवं पवन ऊर्जा तथा तीसरी की "जैव -मात्रा गैसीकरण "यानी बायोमास गैसीफिकेशन सौर -तापीय इसी वर्ग में जगह पाएंगी .

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

टी -रेज़ जल्दी ले सकतीं हैं एक्स रेज़ का स्थान .

कन्त्रा बेन्ड(चोरी - छिपे तस्करी द्वारा लाया गया सामान ),टेरर बोम्म्स ,दवाओं का पता लगाने के लिए अब एक्स रेज़ से ज्यादा ,अन्दर तक बींधने वाली (पेनित्रेतिंग )टी रेज़ का स्तेमाल किया जा सकेगा .टेरा-हर्ट्स फ़्रीक्युएन्सि (ए मिलियन मिलियन हर्ट्स ) का विकिरण जल्दी ही कई जगह" एक्स रे आई "की जगह हथिया लेगा ।
विद्युत् चुम्बकीय विकिरण के एक छोर पर बहुत अधिक लम्बी उतनी ही कमतर आवृत्ति की रेडियो -विकिरण हैं तो दूसरे सिरे पर एक दम से छोटी गामा -किरणें हैं जिनकी आवृत्ति सबसे ज्यादा है .कास्मिक किरणों का यही बहुलांश हैं .इनके नीचे टेरा रेज़ और नीचे एक्स रेज़ ,परा -बेंगनी (अल्ट्रा -वायलट लाईट ),बेंगनी ,नीली हरी पीली नारंगी लाल रोशनियाँ हैं .फिर परा -लाल (अवरक्त ),माइक्रो वेव्स ,रेडियोवेव्स आदि हैं बढती हुई लम्बाई की तरंगों के रूप में कम होती आवृत्ति के रूप में ॥
इन दिनों ए एंड एम् यूनिवर्सिटी में असोशियेत प्रोफ़ेसर के पद पर आसीन अलेक्सी बेल्यानिं जो तेक्साज़ में फिजिक्स और खगोल विज्यान पढ़ा रहें हैं ,टेरा रेज़ का विकाश कर रहें हैं ताकि अब तक कमतर स्तेमाल में ली गईं इन किरणों का चलन खुफिया तंत्र में अधिकाधिक किया जा सके ।
इनका पूरा ध्यान पूरी तवज्जो इन दिनों टी एच जेड (टेरा -हर्ट्स )आवृत्ति की तरंगों अदृश्य विकिरण पर है जो एक्स रेज़ की जगह लेंगी .इन्हें ही आम भाषा में टी -रेज़ कहा जा रहा है .जिनकी भेदन क्षमता अपार है .(जितनी ज्यादा भेदन क्षमता किसी विकिरण की होती है उसी अनुपात में उसकी आयनी करणक्षमता (आयोनाइज़िन्ग पावर )कमतर होती चली जाती है .जांच किये गए सामान को वह उतना ही कमतर नुक्सान पहुंचा पाती है .

एल एस डी और एक्सटेसी की तरह घातक है शराब .

एडिक्शन (लत )के माहिर तथा ओटागो विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर के बतौर कार्य -रत डौग सेल्लमन के मुताबिक़ जहां तक सम्बद्ध खतरों का सवाल है एल्कोहल हेरोइन और जी एच बी की तरह ही खतरनाक है ।
जहां तक भांग (केनाबीज़ ,मारिजुयाना )का सवाल है एल्कोहल जितना ख़तरा इनसे नहीं हैं ।
आधे मामलों में मारपीट (भौतिक और शारीरिक हमला ),यौन हिंसा के पीछे शराब का ही हाथ होता है .एक साल में १००० से ज्यादा लोगों की जान ले लेती है शराब .इनमे आधे से ज्यादा युवा होतें हैं .(भारत के सन्दर्भ में शराब पीकर गाडी चलाने वाले एक साल में कितनी दुर्घटनाएं करतें हैं ,रोड रेज का खुला तमाशा करतें हैं ,इसका जायजा लेना खासा दिलचस्प होगा .यहाँ शराब पीकर गाडी चलाना आम बात है ,फेशनेबिल समझा जाता है ।).
एल एस डी :एन इल्लीगल ड्रग देत मेक्स यु सी थिंग्स एज मोर ब्यूटीफुल स्ट्रेंज फ्राईत्निंग ,आर मेक्स यु सी थिंग्स देत दू नात एग्जिस्ट (हेल्युसिनेशानस )।
ईट इज ए हेल्युसिनोजेनिक ड्रग मेड फ्रॉम लाइसर्जिक एसिड देत वाज़ यूस्ड एक्स्पेरिमेंतली एज ए मेडिसन एंड इज टेकिन एज एन इल्लीगल ड्रग .

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

सूचना की सुनामी क्या दिमाग पर भारी पड़ रही है ?

एक सेकिंड में २.३ और एक दिन में तकरीबन एक लाख अभिनव शब्दों से पाला पड़ता है हमारे दिमाग का .यूँ चौबीस घंटों के दिन में आदमी ले देकर १२ घंटा ही सक्रीय रहता है .इस दरमियान सूचना की बमबारी हर तरफ़ से होती
है फ़िर चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्त्रोनी ,नेट सर्फिंग हो या कंप्यूटर गेम्स .हमारा दिमाग भले ही एक लाख शब्दों का संसाधन संग्रहण ना कर पाये आँख कान शब्द बाण से बच नही सकते ।
एक अनुमान के अनुसार ३४ गीगा बाइट्स के समतुल्य सूचना हमारे दिमाग को झेलनी पड़ती है .एक हफ्ती में इतनी इत्तला से एक लेपटोप का पेट भर जाएगा ।
केलिफोनिया यूनिवर्सिटी ,सां डिएगो के साइंस दानों के अनुसार जहाँ १९८० में शब्दों की यह भरमार ४५०० ट्रिलियन थी वहीं २००८ में यह बढ़कर १०,८४५ ट्रिलियन हो गई ।
(ऐ थाउजंद बिलियन इज ऐ ट्रिलियन )।
सूचना संजाल (टेलिविज़न कंप्यूटर ,प्रिंट मीडिया आदि )से रिसती कुल सूचना का यह दायरा २००८ में ३.६ जेतता -बाइट्स (वन जेड इ टी टी ऐ -बाइट्स =वन बिलियन गीगा बाइट्स )।
साइंस दानो के मुताबिक़ इस सबका असर हमारे सोचने समझने के ढंग को असरग्रस्त कर सकता है .हो सकता है दिमाग की संरचना अन्दर खाने बदल रही हो ?
एक और विचार रोजर बोहन ने रखा है ,"जहाँ तक सोचने समझने का सवाल है ,ध्यान को टिकाये रखने का सवाल है ,हम शायद इस शब्द बमबारी के चलते गहराई से नहीं सोच पा रहें हैं ,विहंगा अवलोकन कर रहें हैं ,सिंघा -अवलोकन नहीं कर पा रहें हैं .थोड़ी देर ही टिकता है कहीं हमारा दिमाग "।
एक मनोरोग विद ईद्वार्ड हल्लोवेल्ल इससे पहले दिमाग को इतनी सूचना संसाधन कभी नहीं करनी पड़ी थी .हमारे सामने एक पूरी पीढ़ी पल्लवित हो रही है ,जिसे कंप्यूटर शकर कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा .सेल फोन और कंप्यूटर इनकी चर्या से चस्पां हैं ।
यह लोग सोचने समझने की ताकत खो रहें हैं ?ऊपरी सतही सूचना तक सिमट के रह गएँ हैं ये तमाम लोग ?
आदमी आदमी से कट गया है .एक और दुनिया उसने बना ली है ,वर्च्युअल -कायनात ?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शरीर किर्या -विज्यान (फिजियोलाजी )के प्रोफ़ेसर जॉन स्तें कहतें हैं "सूचना की यह बमबारी यदि यूँ ही ज़ारी रहती है तब दिमाग इवोल्व भी कर सकता है .मेमोर्री असर ग्रस्त हो सकती है .ऐसा तब भी सोचा गया था जब छपाई खाना (प्रिंटिंग प्रेस )अस्तित्व में आई थी .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था .अब भी नहीं होगा .दिमाग की क्षमता अकूत है .हम कमतर समझ रहें हैं .इसलिए मैं ज़रा भी विचलित नहीं हूँ ।"
कन्तिन्युअस पार्शियल अटेंशन इस दौर की सौगात है क्योंकि लोग बाग़ एक साथ कई काम करतें हैं ,एक तरफ़ नेट सर्फिंग दूसरी तरफ़ बातचीत .आदमी गाड़ी भी चला रहा है तीन फोन काल भी ले रहा है ।
तो क्या दिमाग की ओवर लोडिंग हो रही है ?
"नहीं ऐसा हो ही नहीं सकता इसमे से बहुत सी सूचना ऐसी भी है जिसका संसाधन दिमाग ने पहले भी किया था ."

कैसे काम करतें हैं नाईट विज़न गोगिल्स ?

प्रकाश की तीव्रता को दस हज़ार गुना बढ़ा सकने में सक्षम "नाईट विज़न गोगिल्स "परिवेशीय प्रकाश ,आस पास की रौशनी )दूर दराज़ के सितारों ,पड़ोसी चाँद से आती मद्धिम रोशनियों को एकत्र कर एक ट्यूब में ज़मा कर लेतें हैं .यह कोई साधारण ट्यूब ना होकर विशेष तौर पर इसी काम के लिए तैयार की गई है ।
यह विशेष ट्यूबज़मा प्रकाश के ऊर्जा स्तर (एनेर्जी लेवल ) को बढ़ा कर प्रकाश को एक "फास्फोरस स्क्रीन "पर प्रक्षेपित कर किसी भी पिंड से ग्रहण किए गए प्रकाश का आवर्धित प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करवाने में विधाई भूमिका निभाती है वान्दर्बिल्ट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के साइंस दानों ने एक अभिनव प्रोद्योगिकी का स्तेमाल करके यह नूतन नाईट विज़न गोगिल्स तैयार किए हैं ।
पूर्व में प्रतिरक्षा सेवाओं के अलावा खोजी मिशंस में इनका स्तेमाल किया जाता रहा है .अब एयर एम्बुलेंस सेवाओं में इनका चलन शुरू होने को है .यात्री विमान सेवाओं के पायलट और इतर स्टाफ को यह गोगिल्स मुहैया करवाए जायेंगें ।
वान्दर्बिल्ट लाइफ फला -इट्स के कुल चार बेसिस में से तीन में इनका चलन शुरू किया जा चुका है .चौथा बे -स २०१० तक प्रशिक्षण पूरा कर लेगा ।
बकौल विल्सन मेथ्युज़ (आर एन ,इ एम् टी ,चीफ फला -इट्स नर्स ,लाइफ -फला ईट बे स ,तेंनेस्सी )जहाँ तक इन गोगिल्स की क्षमता का सवाल है ,इन्हें पहन कर दस मील दूरखड़े किसी व्यक्ति के हाथों में सुलगती सिगरेट की रौशनी देखी जा सकती है ,पेड़ पौधों के पत्तों की बनावट का जायजा लिया जा सकता है ।
अब सीन लेंडिंग के दौरान पायलट ,नर्सें इतर एम्बुलेंस सेवा कर्मी टेडी मेढ़ी पहाड़ियों ,पावर लाइंस ऊंचे नीचे दरख्तों को साफ़ साफ़ देख सकेंगें .आपात कालीन लेंडिंग के दरमियान खतरें कम हो सकेंगें .इस प्रकार सिविलियन एवियेशन ऑपरेशंस की सुरक्षा को भी अब पुख्ता किया जा सकेगा .

रविवार, 13 दिसंबर 2009

पोर और ऊंगली के जोड़ों को चटकाने पर चाट चट-चट की आवाज़ क्यों आती है ?

एक गाढा (विस्कस) और पार दर्शी तरल हमारे जोड़ों के लियें एक कुदरती स्नेहक (लुब्रिकेंट )के बतौर कामकरता है .इसे स्निवोयल फ्लूइड कहा जाता है .इसी तरल में जब नाइट्रोजन के बुलबुले फूटतें हैं तब चट चट की ध्वनी पैदा होती है ।
ऐसा तब होता है जब हम देर तक काम करने के बाद ,लिखते रहने के बाद या फ़िर आदतन अपने पोर और ऊंगलियों के जोड़ों को खींचतें हैं .वास्तव में ऐसा करते ही इस तरल द्वारा पैदा दाब (फ्लूइड प्रेशर )कम हो जाता है फलस्वरूप इसमे मौजूद गैसें पूरी तरह घुल जातीं हैं (दिज़ोल्व हो जातीं हैं )।
गैसों के घुलने के कारण और इसके साथ साथ ही एक प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसे केविटेष्ण कहतें हैं ,इसी की वजह से बुलबले बनते हैं .(फीटल की लिंग जांच के वक्त भी केविटेष्ण की वजह से बुलबुलों का बन्ना और फ़िर फटना भ्रूण को नुक्सान पहुंचा सकता है )।
जोड़ों को खींचने से ऊंगली चटकाने मोड़ने की किर्या में तरल दाब (सिनोवियल प्रेशर )के कम हो जाने पर बुलबले फट कर चट चट की ध्वनी करतें हैं ।
आपने देखा होगा एक बार ऊंगली चटकाने के बाद दोबारा कुछ अंतराल के बाद ही ऐसा हो सकता है क्योंकि गैस को दोबारा घुलने में २५ -३० मिनिट का वक्त लग जाता है .

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

स्तन पान कम करता है मधुमेह और हृद रोगों का ख़तरा .

जो माताएं अपने नवजातों को ज्यादा अवधि तक स्तन पान (ब्रेस्ट फीडिंग )करवातीं हैं उनके लिए आगे चलकर प्रोढा-वस्था मेंजीवन शैली मधुमेह(सेकेंडरी दायाबीतीज़ ) और हृद रोगों का ख़तरा कमतर हो जाता है .एक अध्धय्यन के मुताबिक़ जो महिलायें नवजातों को कमसे कम एक माह तक नियमित स्तन पान करवातीं हैं उनमे प्री -दायाबीतीज़ का जोखिम घटकर आधा रह जाता है .आगे चलकर यही पूर्व -मधुमेह रोग की स्तिथि पूरे लक्षणों के संग दायाबीतेज़ और हृद रोगों की वजह बनती है ।
२०सालों तक ज़ारी रहने वाले इस अध्धय्यन के अनुसार जो महिलायें इस दरमियान पैदा होने वाले अपने नौनिहालों को स्तन पान करवाती रहीं हैं उनमे बोतल से दूध पिलाने वाली महिलाओं के बरक्स खून में घुली चर्बी और शक्कर का स्तर स्वास्थाय्कर स्तरों पर दर्ज किया गया है ।
अध्धय्यन में उन ७०४ महिलाओं पर निगरानी रखी गई जो अपने पहले बच्चे का इंतज़ार कर रहीं थीं .बच्चे के जन्म के दो दशक बाद तक इनमे मेटाबोलिक सिंड्रोम डिवलपमेंट (प्री- दायाबीतीज़ कंडीशन) का जायजा लिया जाता रहा ।
इनमे से उन महिलायेंमें जो गर्भावस्था में "जेस्तेश्नल दायाबीतीज़ "की लपेट में आ गई थीं उनमे सेकेंडरी दायाबीतीज़ प्रोढा -वस्था में होने का ख़तरा ४४ -८६ फीसद के बीच घट गया .यह सब कमाल था "स्तन पान "का .केलिफोर्निया के कैसर पेर्मनेंते केयर ओर्गेनाइज़ेशन की गुन्दरसों के अनुसार अलबत्ता यह बतलाना मुस्किल है (अनुमेय ही है ),किस प्रकार स्तन पान इन खतरों को कम करता है ।
लेकिन आप ने यह भी जोड़ा ,इस लाभ की वजह वेट गेंन में अन्तर फिजिकल एक्टिविटी का अन्तर नहीं रहा है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-ब्रेस्ट फीडिंग कट्स दायाबीतीज़ ,हार्ट दिज्जीज़ रिस्क इन मोम्स (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसंबर ७ ,२००९ ,पृष्ठ १३ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कैसे पता लगाया जाता है सितारों का ताप मान ?

आपने निरअभ्र आकाश के नीचे लेटे हुए शुक्ल पक्ष की रातों में अपने बचपन में ज़रूर आकाश को निहारा होगा .हो सकता है सितारे गिनने की कोशिश भी की हो .आपने सितारों को रंग बदलते भी देखा होगा ,कोई सितारा लाल कोई नीला तो हरा भी दिखा होगा .यहाँ रंग सितारे के तापमान का द्योतक होता है ,तापमान की ख़बर देता है .रंग का मतलब सितारे से निकलने वाले प्रकाश की तरंग की लम्बाई भी है ।
लाल रंग का प्रकाश तरंग दीर्घता (वेव लेंग्थ )में सबसे ज्यादा और नीले रंग का न्यूनतम लम्बाई की वेव लिए होता है .इसका मतलब लाल दिखलाई देने वाला सितारा अपेक्षतया कम गर्म तथा नीला सबसे ज्यादा गर्म होता है .गर्मी की मात्रा (तीव्रता )तापमान है .इसका निर्धारण आकलन करने के लिए यूँ हमारे पास "वीन्स-डिस्प्लेसमेंट ला "है .जो हमें बतलाता है :दी प्रोडक्ट ऑफ़ वेव लेंग्थ फॉर मैक्सिमम एमिशन फॉर ऐ स्टार एंड दी फोर्थ पावर ऑफ़ इट्स टेम्रेचार रेमेंस कोंस्तेंत ।इसे यूँ भी कह सकतें हैं :तेम -रिचर ऑफ़ ऐ स्टार इज इन्वार्ज्ली प्रोपोर्शनल तू दी फोर्थ पावर ऑफ़ इट्स एब्सोल्यूट टेम्रेचार .
ताप मान के आकलन के लिए इन दिनों प्रकाश विद्युत् प्रकाश मापी (photoelectric फोटोमीटर )का स्तेमाल किया जाता है ,जिसमे प्रकाश को अलग अलग कई फिल्टरों से गुजारा जाता है ,तथा इनके पार गई प्रकाश की मात्रा का मापन किया जाता है .अब प्रकाश की इस तीव्रता (मात्रा )के आधार पर ही तापमान का आकलन स्तान्दर्द स्केल्स पर किया जाता (यह एक प्रकार का केलिब्रेशन ही होता है ,देत इज कम्पेरिज़न ऑफ़ ऐ अन -नॉन क्वान्तिती विद ऐ नॉन स्तान्दर्द ).

खान पान भी खानदानी और क्षेत्रीय जीवन इकाइयों से ताल्लुक रखता है ?

कहा जाता है हिन्दुस्तान में तीन कोस पर बोली बदल जाती है .हो सकता है बोली के भी खान दानी जींस एक दिन पता चलें बहरहाल इधर साइंस दानों और शोध कर्ताओं ने बतलाया है आप जिस क्षेत्र विशेष में पैदा होतें हैं वहीं का खान पान पसंद आता है आप को और यह महज इत्तेफाक नहीं हैं इस प्रवृत्ति का फैसला आपके जींस में छिपा होता है .आप एक विशेष खान पान के प्रति लगाव लिए ही इस दुनिया में आयें हैं ,इसकी वजह आप की आंचलिकता (क्षेत्रीयता )में छिपीं हैं .क्षेत्रीय खान पान के प्रति मौजूद इस जन्म जात रूझान को "टेस्ट दाय्लेक्त "कहा जा रहा है .इस टेस्ट डाय-लेक्त का सम्बन्ध व्यक्ति या फ़िर समुदाय के जन्मस्थान /अंचल से है जो उसकी आनुवंशिक बनावट में छिपा रहता /अभिव्यक्त होता है .हज़ारों हज़ार लोगों की जांच करने पर उक्त तथ्य की पुष्टि हुई है .यही वजह हर व्यक्ति को अपने अंचल का खाना ज्यादा पसंद आता है .बाकी टेस्ट वह बाद को कल्तिवेत करता है .

कैसे रोक लेता है ओजोन कवच परा -बैंगनी किरणों को ?

वायु मंडल में तकरीबन तीस किलोमीटर ऊपर एक ओजोन की परत बनी रहती है .ओजोन की यह छतरी सौर विकिरण के खतरनाक परा -बैंगनी अंश को ऊपर ही रोक कर हमारे जैव मंडल की हिफाज़त करती है ।
सवाल यह है कैसे बनता है यह ओजोन मंडल ?
सौर विकिरण का परा बैंगनी अंश जब वायुमंडल में मौजूद ओक्सिजन अणुओं से टकराता है तब यह ओक्सिजन अनु वायु से एक और नवजात हाइड्रोजन परमाणु लेकर ओक्सिजन के तीन अणुओं का एक गठबंधन तैयार कर लेता है .ऐसा परा -बैंगनी विकिरण की मौजूदगी में ही हो पाता है जो ओक्सिजन के दो एटमी गठबंधन से तैयार अनु (ओ -२ )को तोड़कर नवजात ओक्सिजन (ओ )पैदा कर देता है .यही नवजात ओक्सिजन अनु (ओ)ओ-२ से गठबंधन कर ओ ३यानि ओजोन तैयार कर लेता है .यहाँ परा -बैंगनी विकिरण एक उत्प्रेरक का काम करता है .इस प्रकार तैयार ओजोन मंडल परा बैंगनी विकिरण को ओजोन मंडल में ही रोक लेता है .

क्या है ट्रिपल वेट हाइड्रोजन यानी ट्रा-इतीयं ?

कुदरत में बहुत ही कम मात्रा (अल्पांश )में पाया जाने वाला एक रेडियो -आइसा -टॉप है ट्रा -इतीयं जिसकी उत्पात्ति तब होती है जब सुदूर अन्तरिक्ष से आने वाली शक्ति शाली कोस्मिक रेज़ (ब्रह्माण्ड ईय किरणे)हमारे वायुमंडल में दाखिल होकर नात्रोजन अणुओं से टकरातीं हैं ।
प्रकृति में यह हाइड्रोजन का १२.३ वर्ष अर्द्ध जीवन अवधि वाला रेडयो -धर्मी समस्थानिक(रेडियो -आसो -टॉप विद ऐ हाल्फ लाइफ ऑफ़ १२.३ ईयर्स )रंग और गंध हीन जल के रूप में ही ट्रेस -अमाउंट (अल्पांश )में दिखलाई देता है यूँ नाभिकीय अश्त्रों के विस्फोट में भी इसका अल्पांश पैदा हो जाता है ।एटमी बिजली घरों में यह एक उप -उत्पाद के रूप में हासिल होता है ।
इसका अल्पांश (बहुत कम अंश )हमारे वायुमंडल में रोजाना पसरा रहता है यहाँ तक की यह हमारी खाद्य -श्रृंखला में भी बहुत कम मात्रा में ही सही शरीक ज़रूर है ।
अक्सर इसकी एक न्यूनतम निर्धारित मात्रा निरापद समझी बतलाई गई है ,क्योंकि इससे निसृत बीटा किरणें (फास्ट मोविंग इलेक्त्रोंस ) की हमारी चमड़ी को बींधने की क्षमता बहुत ही नामालूम सी है ।
आम तौर पर त्रैत्रियम युक्त जल पीने से यह हमारे शरीर तंत्र में दाखिल हो जाता है ।
हाल फिलाल इस रेडियो -धर्मी -आइसोटोप की चर्चा तब हुई जब हमारे भारी पानी चालित एक एटमी बिजली घर के परिसर में (बिजली घर से दूर )रखेएक कूलर के जल में इसके कुछ वायाल्स चुराकर कुछ शरारती तत्वों ने ,मिलाकर जल को संदूषित कर दिया ,तथा इस जल को पीने से कई मुलाजिम बीमार हो गए ।
यह बहुत खतरनाक भी हो सकता था क्योंकि यह सीधे सीधे कोशिकाओं को ही नष्ट कर देता अधिक डोज़ होने पर ।
ऐसे में कैंसर का ख़तरा भी सहज ही पैदा होजाता है ।
यह कुदरत की हम पर इनायत है इसकी कम मात्रा शरीर में दाखिल होने पर पेशाब और बारास्ता पसीना अपशिष्ट के रूप में बाहर आ जाती है ।
एटमी बिजली और एटमी अश्त्रों के अलावा इसका स्तेमाल कई स्वय्यम प्रदीप्त (सेल्फ ल्युमिनिसेंत )दिवैसिस (युक्तियों )में किया जाता है ।
एयर क्राफ्ट डायल हो या किसी इमारत के प्रवेश और निकासी द्वार चिन्ह (एंट्री एंड एक्सिट साइन ऑफ़ ऐ बिल्डिंग ),कई गेज़िज़ और हाथ घड़ी के डायल इसी से प्रदीप्त होतें हैं ।
लाइफ साइंस रिसर्च में भी यह रेडियो -सक्रीय सम -स्थानिक प्रयुक्त होता है .कैगा बिजली घर मिस -हेप को लेकर यह पिछले दिनों ख़बरों में था ,इसी के साथ हमारे एटमी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा का भी सवाल उठा था .

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

माउथ वाश से मुख कैंसर का ख़तरा कितना और कब ?

दांतों के संक्रमण और सूज़न(शौजिश ) से निजात पाने के लिए अक्सर आपका डेंटिस्ट माउथ वाश का स्तेमाल आनुषांगिक चिकित्सा के तौर परतजवीज़ कर देता है .हवाई -जहाज़ की नियमित उडानों में भी यह वाश रूम /रेस्ट रूम्स /तोइलिट्स में दिखलाई दे जाता है .कुछ लोग यूँ ही दुर्गंध नाशी ,मुख प्रक्षालक के बतौर इसका स्तेमाल करने लगतें हैं .गरज यह ,इसका चलन बहु विध हो रहा है ,जबकि इनमे से कई मुख -शोधक एल्कोहल से लदे होतें हैं ,२६ फीसद तक एल्कोहल इनमे देखा गया है ।
कितना निरापद है इनका चलन ?शोध की खिड़की से देखतें हैं .ऑस्ट्रेलियाई साइंस दानों की मानें तो इनमे से बहुलांश में एल्कोहल मौजूद रहता है जो मुख कैंसर (कैंसर ऑफ़ ओरल केविटी )के खतरे को नौ गुना तक बढ़ा सकता है .क्युइंस -लेंड और और मेल -बोर्न विश्व -विद्यालय के अनुसार बेशक डेंटल प्लाक हठाने और जिन्जिवैतिस में राहत देते हैं यह माउथ वाश ,इनका स्तेमाल बिल्कुल कम अवधि और ब्रशिंग एंड डेंटल फ्लासिंग के अलावा गौण रूप में ही किया जाना चाहिए ,दीर्घावधि तक नहीं .बेशक ओरल हाई जीन मुख स्वास्थ्य एक बड़ी चीज़ है ,लेकिन किस कीमत पर हासिल कीजिएगा ?यह भी आपको ही देखना है ।
धूम्र पान सेवी यदि माउथ वाश का नियमित स्तेमाल करतें हैं ,दुर्गन्ध को छिपाने में तब ओरल कैंसर का ख़तरा ९ गुना तथा सुरा पान करने वालों के लिए (पियक्कड़ों )के लिए यदि वह भी इसके गुलाम हैं ,पाँच गुना बढ़ जाता है ।
जो लोग शाराब का सेवन नहीं करते उनके लिए यह ख़तरा पाँच गुने से कमतर ही रहता है ।
जो माउथ वाश २० फीसद से ज्यादा एल्कोहल से लदे होतें हैं उनसे मसूड़ों की बीमारी जिन्जिवा -इतिस के अलावा फ्लेट रेड स्पोट्स (पेतेचिए)मुख अस्तर से कोशिकाओं के छिटक कर अलग हो जाने (दितेच मेंट ऑफ़ दी सेल्स ला -इन -इंग दी माउथ )का जोखिम खासा बढ़ जाता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-माउथ वाश कैन राइज़ ओरल कैंसर रिस्क ना -इन फोल्ड (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसंबर ५ ,२००९ ,पृष्ठ १७ ।)
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

लम्बी उम्र के लिए शाकाहार .

एक नए अध्धय्यन के अनुसार -शाकाहारी खुराख दीर्घ जीवी होने की कुंजी है .पता चला है एक ख़ास प्रोटीन हैं जो मचछी-मॉस और कुछ नट्स में पाई जाती है .इसकी मात्रा का सेवन सीमित करके बुढ़ानेकी प्रकिर्या का घटाया जा सक्ता है .और फ़िर लम्बी उम्र की कामना भी की जा सकती है ।
अपने अध्धय्यन में ब्रितानी शोध कर्ताओं ने फ्लाईज़ पर कुछ आजमाइशेंकी है जिसके तहत इनकी खुराख में कुछ अमीनो -अम्लों की की मात्रा कम ज्यादा की गई .पता चला अमीनो -अम्ल मेथियोनाइन इनकी जीवन अवधि (लाइफ स्पेन )को प्रभावित करता है ।
हालाकि अन्य सभी प्रोटीनों के संसाधन (तैयार करने में ) "मेथियो -नाइन "एक ज़रूरी प्रोटीन है .मॉस -मच्छी ,ब्राज़ील नट्स ,वीत जर्म्स(दी सेंटर ऑफ़ ऐ ग्रेन ऑफ़ वीत विच इज गुड फॉर हेल्थ एंड इज एडिड तू अदर फूड्स ) और सेसमे सीड्स (एक प्रकार का बीजों वाला पौधा जिसका स्तेमाल सलाद्स में भी किया जाता है ,तेल भी जिसका निकाला जाता है ,तिल का पौधा ,तिल ,तिल का तेल जो खाने में प्रयुक्त होता है )।
बेशक होमियो -सेपियंस (आधुनिक इंसान )में फ्रूट फ्लाई के बरक्स चार गुना ज्यादा जींस (जीवन के सूत्र धार )हैं लेकिन इनमे से कितने ही यकसां हैं जिनका जैविक काम करने का ढंग यकसां है ।
बेशक यह प्रयोग फ्लाईज़ पर किए गए हैं लेकिन माइस पर की गई आजमाइशों के भी ऐसे ही नतीजे मिलें हैं ।
सवाल प्रोटीन संतुलन कायम रखने से जुदा है ,खासकर उन लोगों के लिए जो एटकिन्स खुराख (हाई -प्रोटीन्स डाईट लेतें हैं ),बोदी बिल्डर्स द्वारा लिया जाने वाला प्रोटीन संपूरक ।
बेशक पूर्व में संपन्न अध्धय्यनों में बतलाया गया था ,खुराख में ३० फीसद केलोरीज़ कम करके हृद रोग और कैंसर ले जोखिम को घटाकर आधा और उम्र को एक तिहाई बढाया जा सकता है ।
अब कहा जा रहा है -सवाल यह नहीं हैं आप कितनी केलोरीज़ ले रहें हैं ,सवाल उन खाद्य पदार्थों से छिटकने का है जिनमे इस प्रोटीन का डेरा है .

कहाँ गया कलावती का "ग्रीन चूल्हा "?

कोई बीस बरस पहले गैर -परम्परा गत ऊर्जा मंत्रालय ने "धूम्र -रहित चूल्हा "की अवधारणा प्रस्तुत की थी .कहा गया था यह गाँव की कलावातियों को घरेलू प्रधुशन से निजात दिलाकर उनके सारे दुख -दर्द दूर कर देगा .जलावन लकड़ी ,कोयला और काओ -डंग(उपला ) ही गाँवों में रसोई का प्रधान ईंधन बना रहा है जिसने बांटी हैं दमा और लोवर एंड अपर रिस्पाय्रेत्री ट्रेक्ट इन्फेक्शन की सौगातें ।
विश्व -स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ भारत में हर बरस पाँच लाख कलावातियाँ भारतीय चूल्हे की भेंट चढ़ जाती हैं लेकिन इस मुद्दे को गत दो दशकों से ठंडे बसते में डाला हुआ है ।
उम्मीद की जा सकती है नव गठित "नव एवं पुनर -प्रयोज्य ऊर्जा मंत्रालय "इसकी सुध लेगा .कारबन -उत्सर्जन के २०२० तक के लक्ष्यों को पूरा करने के केन्द्र में "धूम्र -रहित "चूल्हे को रखा जाना चाहिए ,तभी कहा समझा जा सकेगा "कांग्रेस का हाथ वास्तव में आम आदमी के साथ है "फिल वक्त तो यह हाथ उसकी जेब में दिखलाई देता है ।
गाँव की रसोई नौनिहालों और महिलाओं के स्वास्थ्य को ही कमोबेश लीलती है ,बेवक्त बीनाई (आंख की रौशनी )ले उड़ता है गाँव का चूल्हा ।
वजह भारतीय चूल्हे से पैदा प्रदूषण का स्तर न्यूनतम सह्या स्तर से ३० गुना ज्यादा होना है .(स्रोत :विश्व -स्वास्थ्य संगठन ).कार्बन -दाई -आक्सा- ईद और मीथेन को कमतर करने का भरोसे मंद ज़रिया बन सकता है "ग्रीन चूल्हा "इसे ना सिर्फ़ स्थानीय स्तर पर तैयार किया जा सकता है ,इसे कायम रखने चालू रखने के लिए ज़रूरी इंतजामात भी स्थानीय स्तर पर किए जा सकतें हैं ।
सूट(अध् जला कार्बन ) और कार्बन -डा -इ -आक -साइड इस दौर में विश्व -व्यापी तापन की एहम वजह बने हुए हैं सर्द -मौसम में शाम के झुर-मुठ में कलावातियाँ घास -फूस हरी टहनियां का स्तेमाल रोटी पकाने के लिए करती देखी जा सकती हैं ।
धान की लम्बी टहनियां भी दाने निकालने के बाद जल्दी से दूसरी फसल लेने के लिए बड़े पैमाने पर जला दी जातीं हैं कई दिनों तक सुलगती है यह आग .राईस हस्क से बाकायदा बिजली बनाई जा सकती है .बिहार के एक कम्युनिकेशन इंजीनीयर ने यह करके दिखाया है .ऐसी एक यूनिट मात्र १० लाख में खड़ी हो जाती है ।
ज़रूरत इस प्रोद्योगिकी को प्रोत्साहित करने की है .हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चोखा ।
फारूख अब्दुल्ला साहिब से अनुरोध है जो नव एवं पुनर -प्रयोज्य ऊर्जा मंत्रालय की कमान संभाले हुए हैं एक बार फ़िर पूरे दम ख़म से बायो -मॉस कोकिंग स्तोव्स को नवजीवन प्रदान कर ग्रामीण महिलाओं के हाथ मजबूत करें .इनके मकानात में हवा की आवा जाही के अनुरूप संशोधन करवाएं .टेक्नोलोजी त्रेंस्फार एंड फंडिंग के लिए विश्व -स्वास्थ्य संगठन की क्लीन डिवेलपमेंट मिकेनिज्म से सहयोग लिया जा सकता है .जहाँ चाह वहाँ राह ।
ग्रीन -चूल्हे के अलावा सौर लाल तें न (सोलर लेंत्रें ),स्थानीय कचरे को ऊर्जा में बदलने की प्रोद्योगिकी को भारतीय गाँवों में विक्सित किया जा सकता है .

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

औरत हो या मर्द जींस (जीवन खंड /जीवन इकाइयों )में छिपा है शोपिंग स्टाइल का राज़

अक्सर शादी शुदा मर्द खासकर शोपिंग के लिए अपनी औरत के संग स्टोरेस में घुसने से कतराता है .वह ख़ुद जब भी किसी शोपिंग माल या स्टोर में प्रवेश करता है झट -पट वह आइटम खरीद कर बाहर आ जाता है जैसा गया ही ना हो .और औरत ?चयन में खासा वक्त लगाती है .इसकी वजह जीवन की मूल भूत इकाइयों (जींस )के अलावा प्रागेतिहासिक काल में छिपीं हैं .जब औरत को ही हंटर गेदर आर के रूप में भोजन जुटाना पड़ता था ।
तब औरत का काम छांट छांट कर कांड मूल (एडिबिल प्लांटस और फंगी आदि जुटाना होता था .ज़ाहिर है चयन में ढूंढ निकालने में वक्त लगता था .मर्द हिंसक पशुओं का शिकार करता था .यूँ जाता था और यूँ आता था .हालाकि ६४ फीसद केलोरीज़ उसे ही जुटानी पड़तीं थीं ।
मिशगन यूनिवर्सिटी के डेनियल कृगेर शोपिंग स्टाइल में अन्तर की यह बड़ी वजह बतलातें हैं ।
अब आप कल्पना कीजिये बास्किट भर के सामान आपको लाना है वह भी अलग अलग जगह से (बेशक उसी स्टोर्स से ),कितना वक्त लगेगा आपको /आपकी श्री -मतीजी को ?घूम गया ना आपका भेजा ?
जबकि मर्द के लियें यह लाजिम था "गोश्त जुटा कर वह झट -पट उलटे पाँव लौटे ।
आज भी मर्द के दिमाग में एक ख़ास आइटम ही होता है जब वह "ओल्ड नेवी "या' कोह्ल्स "या फ़िर बेस्ट बाई या फ़िर आईकिया में प्रवेश करता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-शोपिंग स्टाइल्स ता -ईद तू जींस (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसंबर ४ ,२००९ ,पृष्ठ १७ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

कैसे काम करता है हमारा दिमाग -बतलायेगा एच .एम् का दिमाग .

हेनरी मोलैसों नाम है उस भले आदमी का जिसने बरसों पहले अपना मष्तिष्क साइंस दानों को दान में देने का निश्चय कर लिया था .हार्टफोर्ड में बीता एच एम् का बचपन .किशोरावस्था से ही एच एम् को सीज़र्स (हाथ पैरों की एंठन के साथ दौरा ) का सामना करना पडा .युवावस्था तक आते आते वह बेहद आजिज़ आ चुका था इन दौरों से ,आख़िर मात्र २६ साल की उम्र में उसने सीज़र्स से छुटकारा पाने के लिए दिमागी शल्य करवाने का फैसला कर लिया ।
उस दौर के दिमागी चिकित्सा के माहिर ब्रेन सर्जन विलियम स्कोविल्ले ने उसके दिमाग से दो स्लग साइज़ के (पतले नुकीले ऊतक )दिमाग के दोनों हिस्सों (वाम और दक्षिण अर्ध -गोलों )से अलग कर लिए .(ही सक्शंड आउट तू स्लग साइज्ड स्लाइवार्स ऑफ़ टिश्यु ,वन फ्रॉम ईच साइड ऑफ़ दी ब्रेन )।
नियति का खेल एच एम् की याददाश्त जाती रही .वह कुछ भी नया याद रखने में असमर्थ था .बेशक उसे सीज़र्स से निजात मिल गई लेकिन बतरस का शौक़ीन ,बातूनी एच एम् १५ मिनिट में तीन मर्तबा वही बात एक ही अंदाज़ में दोहरा देता था ,यहाँ तक की आवाज़ का उतार चढ़ाव भी जस का तस होता था ।
बहुत पहले उसने अपनी वसीयत में अपनी ब्रेन डोनेट करने की इच्छा व्यक्त कर दी थी .गत बुद्धवार (२दिसम्बर २००९ को )एच एम् की बरसी थी ।
एक नायाब तोहफा इस दुनिया से कूच करते करते भी वह विज्यानियों को थमा गया .८२ वर्ष की उम्र में २ दिसंबर २००८ को वह इस नश्वर शरीरको छोड़ गया ।
इसी के साथ उसके ब्रेन के ज़रिये दिमागी शोध को आगे बढ़ाने ,दिमाग की गुथ्थियाँ समझने का काम शुरू हो चुका है .उसके जीते जी भी शोध की कई खिड़कियाँ खुलीं थीं ।
न्यूरोसाइंस दान उसके दिमागके २५०० टिश्यु साम्पिल्स तैयार कर चुके हैं .बतर्ज़ गूगल अर्थ विज्यानी दिमाग का पूरा नक्शा तैयार कर लेना चाहतें हैं ।
आख़िर कब कैसे और कहाँ दिमाग के कौन से हिस्से में यादें घर बनातीं हैं यह बिलियन डॉलर का सवाल है .होली ग्रेल ऑफ़ न्यूरो -साइंस है .आख़िर भूली बिसरी बातें कैसे स्मृति पटल पर लौट आतीं हैं .विज्यानी तो यहाँ तक कहतें हैं ,शिशु -अवस्था के उस दौर की यादें भी स्मृतिं में कौंध सकतीं हैं ,जब आप भाषा भी नहीं जानते समझते थे .उस दौर की तमाम गंधें आप पहचानतें हैं लेकिन उसे कोई नाम नहीं दे सकतें हैं .और जब आप भाषा सीख जातें हैं ,गंधों की भाषा की आपको ज़रूरत नहीं रह जाती है ,वरना मानव शिशु भी जन्म के समय १०,००० तक गंधें पहचानतें हैं .माँ को गंध आंजने की ताकत ही तो ढूंढ लेती है शिशु की .

गुणकारी लहसुन -स्वाद भी इलाज़ भी

एंटीबायोटिक ही नहीं एन्तिफंगल (फफूंद रोधी )और एंटीवायरल (वायरस/विषाणु रोधी )गुणों से भी भर -पूर है लहसून .आपको याद होगा "गार्लिक पर्ल्स "बाज़ार में उतारे थे दवा निगम रेनबेक्सी ने ।
गुणकारी लहसुन कफ़, कोल्ड और फ्ल्यू से बचाए रखने में मदद गार है .सूप सलादद्रेसिंग्स , चटनी आदि में भी स्तेमाल किया जाता है लहसुन .यूँ स्वाद वर्धक के बतौर इसका अचार भी परोसा जाता है .गाडुले लुहार (घुमंतू ट्राइब्स ) बेहतरीन चटनी तैयार करतें हैं लाल मिर्ची नमक और लहसुन को घोट पीसकर .नमकीन में स्वाद वर्धक के रूप में भी इसका चलन है ।
हो भी क्यों ना ?रोगों से जूझने वाले हमारे कुदरती प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूती प्रदान करता है लहसुन का नियमित सेवन .स्तन ,मूत्राशय (ब्लेडर )त्वचा और आमाशय कैंसर से बचावी चिकित्सा के बतौर आजमाया गया है लहसुन ।
एस्पिरिन की टिकिया सा काम करता है गार्लिक क्लोव (लहसुन की एक कलि) का नियमित सेवन ,खून के थक्कों को घुलाने गलाने की अद्भुत क्छमता से लैस है लहसुन ।
इस प्रकार दिल के दौरों और सेरिब्रो -वेस्क्युलर एक्सीडेंट (स्ट्रोक )से बचाए रखने में भी कारगर हो सकता है लहसुन का सेवन ।
खून में घुली शक्कर का विनियमन करने की काबिलियत रखता है लहसुन .एलोपेशिया एरिआता (गंज के पेचीज़ ),पेची हेयर लोस के मामले में लहसुन की ५-६ कलियाँ कूट पीसकर क्रस्श करके प्रभावित गंज पर लगाने पर लाभ पहुंचता है .कई मामलों में ऐसा देखा गया है ।
दांतों के बेहद के रेडियेटिंग पेन में भी गार्लिक क्रश करके प्रभावित दांत पर मलने से आराम आता है ।
जिन लोगों को गैस ज्यादा बनती है उन्हें सुबह सवेरे लहसुन की कलियाँ ताज़ा पानी या फ़िर दूध के संग लेते देखा जा सकता है .कहा जा सकता है एक "प्राकृतिक चिकित्सक "सा है गुणों की खान लहसुन ।
सन्दर्भ सामिग्री :-किचिन क्युओर" गार्लिक" -डॉ .प्रीती छाबरा .,आयुर्वेदिक कंसल्टेंट (वेलनेस /माइंड बोदी स्पिरिट एंड यु /वाट इज हाट/ टाइम्स ऑफ़ इंडिया सप्लीमेंट /दिसंबर ४ ,२००९ .,पृष्ठ १४ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

मदद करने की जन्मजात प्रवृत्ति के साथ आया है इंसान ?

आख़िर यह इंसानी चोला क्यों मिला है हमें ?जीवन का आखिर मकसद क्या है ?क्या इंसान सिर्फ़ गलतियों का पुतला है ?पापमय और युद्ध उन्मांदी है ?स्वार्थी और हिंसक जहाँ सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता ही विकाश का आधार बनी हुई है ?मूल प्रवृत्ति में हिंसक है इंसान जैसा विलियम गोल्दिंग्स अपने उपन्यास :लोर्ड ऑफ़ दा फ्लाईज़ में दर्शातें हैं जहाँ निर्जन प्रदेश में भटकने को विवश बच्चे देखते ही देखते हिंसक और उग्र हो उठतें हैं ,सवाल सर्वाइवल का जो है ?क्या हाड तोड़ प्रतियोगिता के इस आलमी दौर में सहयोग सहकार ,आलमी मुद्दों पर मिल बैठ कर मंत्रणा करना अब बेमानी है ?
या फ़िर मदद को सहज भाव से आगे आना इंसान की जन्मजात फितरत है ,जो शिशूं -ओं में भी प्रगट होती है ।
अपनी किताब "वाई वी को -ओपरेट में मिचेल तोमसेलो जो पेशे से एक डिवलपमेंट साइकोलोजिस्ट है साबित करतें हैं -मौके के अनुरूप शिशु भी अपने नन्ने हाथ सहज बुद्धि से प्रेरित हो अनजान की मदद को भी बढ़ादेतें हैं .मिचेल ना सिर्फ़ शिशुयों को सीधे सीधे ओब्ज़र्व करतें हैं उनकी तुलना चिम्पेंजी के नवजातों और शिशूं यों से भी करतें हैं सिर्फ़ डेड़ साला (१८ माह )की उम्र में शिशु जब देखतें है किसी के दोनों हाथ में सामान है और वह दरवाज़ा खोलना चाहता है या उसके हाथ से कपड़ा सूखाने की क्लिप (चिमटी ,क्लाड्स -स्पिन )गिर गई है तो बच्चे आप से आप समबुद्धि से उत्प्रेरण लेकर मदद को आगे आ जातें हैं ।
कैरट एंड स्टिक एप्रोच किसी भी प्रकार के प्रलोभन से उपकार और मदद को हाज़िर होने की यह प्रवृत्ति ना घटती है और ना बढती है ।
मिचेल "मेक्स प्लांक इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉर एवोल्युश्नरी अन्थ्रो -पोलोजी "के सह -निदेशक हैं .,जो जर्मनी के लिपजिग में स्तिथ है .विकासात्मक मानव विज्यान के माहिर मिचेल कहतें हैं -मदद को आगे आना अन्तर्जात ,एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है शिशूयों की. समाज में उठने बैठने के कायदे क़ानून तो माँ बाप बाद में ही सिखातें हैं यह प्रवृत्ति तो हार्ड -वायर्ड है ।
बेशक प्रागेतिहासिक दौर में आदमी भोजन जुटाने के लिए शिकार पर निकलता था .उनमे भी तो डिविज़न ऑफ़ लेबर था -श्रम विभाजन था ,एक अध्धय्यन के अनुसार इन घुमंतू समाजों में ६८ फीसद केलोरीज़ जुटाने का जिम्मा मर्द का होता था .इनकी संतानें २० साल से नीचे जितना खर्च करते थे उतना जुटाना उनकी मजबूरी नहीं थी .दोनों सेक्सों में ही नहीं बच्चों को भी माँ बाप कापरस्पर सहयोग और संरक्षण मिलता था ।
संरक्षण की यह लम्बी अवधि उन्हें भोजन जुटाने के लिए तैयार करती थी । न्यू -मेक्सिको यूनिवर्सिटी के मानव विज्यानी हिलार्द कप्लान मानवीय विकास के अनेक चरणों में सहयोगकी इस अविरल धारा को कल कल बहते देखतें हैं ।
किसी ने ग़लत नहीं लिखा है -दुनिया में आया है तो फूल खिलाये जा /आंसू किसी के लेके खुशियाँ लुटाये जा
"परहित सरस धरम नहीं भाई "/चाइल्ड इज दी फादर ऑफ़ ऐ में न विलिं यम वर्ड्स वर्थ ने यूँ ही नहीं कहा होगा .

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

ग्लोबल वार्मिंग की न्यूनतम निर्धारित सीमा का अतिक्रमण करने की कगार पर पहुँच सकतें हैं हम लोग .

हमने अक्सर अपने आलेखों में दोहराया है -बड़ा ही नाज़ुक है पृथ्वी का हीटबजट जिसमे ४ सेल्सिअस की घटबढ़ एक छोर पर आइस एज , दूसरे पर जलप्रलय ला सकती है ।
क्रोसिंग दी थ्रेश -होल्ड :जस्ट ४ सेल्सिअस होतर एंड ऐ लिविंग हेल काल्ड अर्थ .शीर्षक है उस ख़बर का जिसमे हमारेद्वारा बारह बतलाई गई उक्त बात की पुष्टि हुई है ।
पृथ्वी का तापमान ४ सेल्सिअस बढ़ जाने पर यह ग्रह नरक बन जाएगा .कोई एलियंस (परग्रह वासी ) भी इधर का रूख नहीं करेगा .हालाकि कोपेनहेगन में आयोजित७ -१८ दिसंबर जलवायु परिवर्तन बैठक को लेकर कई माहिर भी हतोत्साहित है ,वहाँ सिवाय लफ्फाजी के ,थूक बिलोने के कुछ होना हवाना नहीं हैं ।
माहिरों के अनुसार पूर्व ओद्योगिक युग की तुलना में तापमानों में ४ सेल्सिअस की वृद्धि होना कोई असंभव घटना नहीं होगी ,ऐसा होने का पूरा पूरा अंदेशा है ।
यदि सच मुच ऐसा हो गया तब क्या कुछ हो सकता है .जानना चाहतें हैं ,दिल थाम के कमर कसके बैठ जाइए .समुन्दरों में जल का स्तर ३.२५ फीट तक बढ़ गया है ,कई तटीय द्वीप डूब गएँ हैं ,जल समाधि ले चुके हैं (कोई मनु नहीं बचा है यह लिखने लिखाने को -हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर /बैठ शिला की शीतल छाँव /एक पुरूष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह /नीचे जल था ऊपर हिम था /एक तरल था एक सघन /एक तत्व की ही प्रधान ता कहो इसे जड़ या चेतन -कामायनी ,जयशंकर प्रसाद )
थाईलेंड ,बांग्ला देश ,वियेतनाम ,इतर डेल्टा -नेशंस के कई करोड़ लोग पर्यावरण रिफ्यूजी बन गए हैं ,बेघर हो गएँ हैं .सुरक्षित अपेक्षया समुद्र तल से ऊंचे स्थानों के लिए कूच हो रहा है .छीना झपटी है अफरा तफरी है ।
ध्रुवीय रीछ (पोलर बेयर) इतिहास शेष रह गए हैं .आलमी औसत तापमानों के बरक्स उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र के तापमानों में तीन गुना तक वृद्धि हो चुकी है ।
(ऑस्ट्रेलिया इज रूतिन्ली स्वेप्त बाई वाईट हाट फायर्स ऑफ़ दी का -इंद देत क्लेम्ड १७० लाइव्स लास्ट फेब्रारी )।
हिमालयीय हिमनद सूख गए हैं .एशिया का वह शाश्वत जीवन निर्झर कहीं नहीं हैं ।
दक्षिणी एशियाई मानसून आवारा ,हो गया है ,कभी सूखा कभी अतिरिक्त मूसला धार अति -वर्षं न ।
जीवन की सुरक्षा और गुणवता दोनों खटाई में पड़ गईं हैं .मौसम चक्र टूट गएँ हैं ।
अरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में बतौर प्रोफ़ेसर कार्य रत पामेला म्सल्वी ऐसी ही तस्वीर प्रस्तुत करतें हैं .खालाजी का घर नहीं हैं ४ सेल्सिअस की वृद्धि आलमी तापमानों में ।
२०६० तक ऐसा हो सकता है यह कहना है ब्रितानी मौसम विभाग का जो जलवायु परिवर्तन से सम्बद्ध काम करने वाली एक एहम संस्था है ।
अभूतपूर्व परिदृश्य हमारे बच्चों को आज की युवा भीड़ को देखने को मिलेंगें .२०८० में तीन अरब लोग एक घूँट पानी के लिए छीना झपटी कर रहे होंगें .फसली उत्पाद गिर जायेंगें .कितने लोगों को भूखा सोना पडेगा इसका कोई निश्चय नहीं ।
सन्दर्भ -सामिग्री ;-टाइम्स आफ इंडिया ,पृष्ठ ३ /दिसंबर ३ ,२००९ .

तीन मिनिट में चलेगा गर्भाशय -ग्रीवा कैंसर का पता .

ब्रितानी साइंस दानों ने सर्वाइकल -कैंसर के निदान की एक ऐसी विधि विक्सित कर ली है जो गर्भाशय -गर्दन कैंसर की शिनाख्त हफ़्तों की जगह तीन मिनिट में ही प्रस्तुत कर देगी ।

"ऐ पी एक्स "नाम की यह डिवाइस देखने में एक टीवी रिमोट जैसी है जिसके सिरे पर एक अन्वेषी लगा है जो पेन की तरह लगता है ।

अब पेप स्मीयरलेकर जांच करने का कष्ट कारी चक्कर ख़त्म .इस डिवाइस में एक बहुत कम शक्ति का (कमतर एम्पीयारेज )करेंट सर्विक्स में भेजा जाएगा ,कोशिकाओं के स्तर पर ,इसका मूवमेंट, गति -आन्दोलन दर्ज किया जाएगा ।

यह पद्धति इस बात पर आधारित है ,कैंसर ग्रस्त कोशिकाओं का स्किन रेसिस्टेंस कमतर हो जाता है ,इसलिए विद्युत् इनमे द्रुत गति से प्रवाहित हो जाती है बरक्स स्वस्थ कोशिकाओं के .यही अन्तर कैंसर की शिनाख्त का आधार बन जाता है .शेफील्ड यूनिवर्सिटी के विज्यानियों ने रोग निदान की यह नायाब तरकीब विकसित की है ।


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दुनिया से कूच करते वक्त पर्यावरण को नुकसान क्यों ...

पारसी लोग शव को खुले में रख देतें हैं .एक तरफ़ इसे पक्षी जीमते है तो दूसरी तरफ़ पर्यावरण को कोई क्षति नहीं पहुँचती .जीवन भर हम अपना कार्बन फुटप्रिंट छोड़तें चलतें हैं ,चलते चलते इस नुकसानी से बच सकतें हैं .ह्यूमेन एल्केलाइन हाई -द्रोलिसिस को साकार कर रहें हैं "मेथ्युज़ इंटरनेश्नल कोर्पोरेशन. पिट्सबर्ग ,पेन्सिल्वेनिया आधारित यह निगम ताबूत ,भस्म -बक्शे ,इतर शव सम्बन्धी सामान तैयार करता है ।
सेंटपिट्सबर्ग ,फ्लोरिडा में यह निगम जनवरी २०१० से काम करने लगेगा ।
एल्केलाइन हाई -द्रोलिसिस में शव को स्टेन लेस स्टील से बने एक कक्ष में को डुबो दिया जाता है बाकी काम ऊष्मा (हीट),दाब ,सोप और ब्लीच बनाने में प्रयुक्त पोतेसियम-हाई -द्रोक -साइड पूरी कर देता है .तमाम ऊतक इस घोल में विलीन हो जातें हैं (घुल जातें हैं ).दो घंटा बाद अवशेष के रूप में बच जाता है ,अस्थियाँ और एक सिरपी-ब्राउन घोल ,जिसे फ्लश करके बहा दिया जाता है .अस्थियाँ सगे सम्बन्धियों को लौटा दी जातीं हैं ।
इस प्रकार परम्परागत शव दाह के बरक्स इस विधि में (एल्केलाइन हाई -द्रोलिसिस में )कार्बन उत्सर्जन में ९० फीसद कमी की जा सकती है ।
आज आदमी कमोबेश "साईं बोर्ग "बन चुका है जिसमे मशीनी अंग लगे रहतें हैं ,नकली घुटने नकली हिप ,सिल्वर टूथ फीलिंग्स तो अब आम हो ही चलें हैं .सिलिकान इम्प्लान्ट्स का भी चलन है ।
एक स्तेंदर्द क्रेमेशन से वायुमंडल में ४०० किलोग्रेम कार्बन दाई -ऑक्साइड शामिल हो जाता है ,इस ग्रीन हाउस गैस के अलावा दाई -आक्सींस तथा मरकरी वेपर भी शव दाह ग्रह से उत्सर्जित होतें हैं ,कारण बनती है सिल्वर टूथ फिलिंग ।
एल्केलाइन हाई द्रोलिसिस शव को ठिकाने लगाने वाली एक रासायनिक प्रकिर्या है जिसे विज्यानी "बायो -क्रेमेशन "(जैव शव दाह )कह रहें हैं ।
जाते जाते अपना कार्बन फुट प्रिंट कम करने की प्रत्याशा में अब अधिकाधिक लोग इसके लिए तैयार हैं .इस विधि में ऋ -साईं -किल्ड कार्बोर्ड से बनी शव पेटियां (ताबूत )काम में ली जायेंगी .एक तिहाई अमरीकी और अपनी आबादी के आधे से ज्यादा कनाडा वासी इसके लिए तैयार हैं .यह लोग एम्बाल्मिंग (शव संलेपन )के भी ख़िलाफ़ हैं ,जिसमे पर्यावरण -नाशी रसायनों का स्तेमाल शव को सुगन्धित कर संरक्षित करने के लियें किया जाता है .आख़िर में यह तमाम रसायन भी हमारी मिटटी में रिस आतें हैं .मिटटी से (काया से )मोह कैसा ?

मच्छर भगाओ रसायनों से गर्भस्थ शिशु को हाइपो -स्पेदिअस ?

हाइपो -स्पाडिया /ह्य्पोस्पदिअस :इट इस ऐ कोंजिनैतल बर्थ डिफेक्ट ,एन एब्नोर्मल कोंजिनैतल ओपनिंग ऑफ़ दी मेल युरिथ्रा अपों- न दी अन्दर सर्फेस ऑफ़ दी पेनिस /आल्सो इन केस ऑफ़ ऐ फेमेल चाइल्ड ऐ युरेथ्रल ओपनिंग इनटू दी वेजैना ।
न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर ऑफ़ टोक्सिकोलोजी एंड ओक्युपेश्नल हेल्थ के बतौर कार्य रत च्रिस विंदर ने अपने एक अध्धय्यन में बतलाया है ,ऐसे बच्चों की संख्या अप्रत्याशित तौर पर बढ़ रही है जिनकी संतानें जन्मजात विकृतियों से ग्रस्त हैं .हाइपो -स्पदिअस भी उनमे से एक है जिसमे बच्चे के शिश्न की निकासी (ओपनिंग )का स्थान अपनी सुनिश्चित सामान्य जगह पर ना होकर अगर सिरे से हठकरशिश्न (पेनिस )की सतह से नीचे की और चला आता है ।
मच्छर भगाओ नुस्खे भी इस जन्मजात विकृति को हवा दे रहें हैं ,अध्धय्यन से ऐसी आशंका ज़रूर पैदा हो गई है ,बेशक अभी ऐसे और भी अध्धय्यन और भी होने चाहिए ,इस आशंका की पुष्टि के लिए ।
अपने अध्धय्यन में ज़नाब च्रिस विंदर साहिब ने हाइपोस्पेदिआस् से ग्रस्त ४७१बच्चों की माताओं से तथा ४९० अनन्य शिशूं ओं की माताओं से जिनका चयन रेंडमली किया गया गर्भावस्था के दौरान इनकी जीवन शैली तथा स्तेमाल में लिए गए रसायनों के बारे में विस्तृत पूछताछ की गई ।
गर्भावस्थाकी पहली तिमाही में मच्छर भगाने वाले रसायनों का स्तेमाल हाइपो स्पदिअस के जोखिम को ८१ फीसद बढ़ाने वाला पाया गया ।
मच्छर भगाने वाले रसायनों का आम इन्ग्रेदियेंत एन ,एन -दाई इथाइल -मेटा -टोलू -अमा -ईद होता है ,हालाकि इन तमाम माताओं ने प्रयुक्त इन्सेक्ट -रिपेलेंट का ब्योरा उपलब्ध नहीं करवाया था .मच्छर भगाओ रसायनों में आम तौर पर पाये जाने वाले इस रसायन को दीत (दी इ इ टी )भी कहा जाता है ।
सलाह यही है संतान चाहने वाली महिलायें इन रसायनों से बचें या फ़िर इनका कमतर स्तेमाल करें .हैपोस्पडिया नर शिशुओं के पाये जाने वाली आम जन्मजात विकृति बन रहा है ,पर्यावरण में मौजूद हैं इस रोग के कारक ,बचा जाए इनसे .

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

सार्वजनिक स्थान पर हम भारतीय यूँ ही नहीं थूकतें हैं ...

भारतीय द्वारा थूकना गंदगी को बढ़ाना नहीं हैं ,थूकना सफाई का दर्शन हैं ,वह अन्दर की सुवास को बनाये रखने के लिए बाहर की और थूकता है .थूक एक प्रतिकिर्या है बाहर फैली गंदगी के प्रति .भारत में चारों तरफ़ धूल मिटटी और गंदगी का डेरा है .बाहर के मुल्कों में (विकसितदेशों में) पर्यावरण और आपके आस पास का माहौल एक दम से साफ़ सुथरा रहता है इसलियें भारतीय वहाँ थूक नहीं पाते .यह कहना है मनोविज्यानी प्रोफ़ेसर डॉ .इद्रजीत सिंह मुहार का ।
हमारे साहित्य कार मित्र डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश का कहना है -थूकना एक मामूली किर्या मात्र नहीं है ,दर्शन है .अलबत्ता थूकना मानवाधिकार है या नहीं इसकी पड़ताल होनी चाहिए .थूकने पर किसी व्यक्ति विशेष का कापी राईट नहीं हैं .आप जहाँ चाहें थूकें ।
अलबत्ता कई जगह पर डिब्बे रखे होतें हैं ,लिखा होता है ,यहाँ थूकें .अबआप को थूक आ रहा है तभी आप थूकेंगे ,जहाँ थूक आता है ,वहाँ डिब्बा नहीं होता ।
मुग़ल कालीन दरबारी संस्क्रती थूकने पर कसीदे पद्वाती रही है .चाटुकार कहते रहें हैं ,वाह साहिब क्या निशाना है .थूक्कड़ प्रशंशा के पात्र रहें हैं .दो दीवारों के बीच के कौने में जहाँ कुत्ते मूतते थे थूकड़ कलात्मक ढंग से थूक कर गंदगी और बदबू को कम करते थे .दरबारी उनका यशोगान लिखते थे .वाह साहिब क्या थूकतें हैं .पान थूकदों ने आधुनिक कला को जन्म दिया है ।
हमारी संसद में सिवाय थुक्का फजीहत के अब क्या होता है .लिब्रहान कमीशन सत्रह सालों तक थूक बिलोता रहा है .थूक बिलोना सेवा निवृत्त समाज द्वारा समादृत लोगों के रोज़गार का ज़रिया रहा -बारास्ता जांच कमीशन ।
अगर में ग़लत कह रहा हूँ ,आप मेरे मुह पर थूकना ।
थूक कर चाटना ,अपनी बात से मुकर जाना आम औ ख़ास ने बड़ी ही मह नत से सीखा है .चाटुकारिता थूक की ही देन है . चिरकुटों की भीड़ यही करती आ रही है ।
अलबत्ता कुछ कायर किस्म के लोग पीठ पीछे थूकतें हैं .तो कुछ नासमझ आसमान की और मुह उठाकर ही थूक देतें हैं ,समाज में समादृत ऊंची पहुँच वालों के ख़िलाफ़ प्रलाप करने लगतें हैं ।
कुछ लोग बात बे बात कह देतें हैं ,मैं तो तेरे घर थूकने भी ना आवूं .एहम पीड़ित हैं यह तमाम लोग .भाई साहिब थूकने के लिए आप इतनी दूर जायेंगे भी क्यों ?
मुह पे थूकना -किसी के भी और किसी के लिए भी अच्छी बात नहीं है .फ़िर भी लोग अपनी बात का वजन बढ़ाने के लिए अक्सर कह देतें हैं ,मेरी बात ग़लत निकले तो तू मेरे मुह पे थूक देना ।
कुछ लोग सरे आम व्यवश्थापर थूकतें हैं ,अपने गुर्गों से थूक वातें हैं
हैं ,इन्हें "ठाकरे "कहा जाता है ।
कुछ ज़हीन किस्म के लोग किसी के खाने को देखकर ही थूक देतें हैं .सामिष भोजी इनसे बर्दाश्त नहीं होतें .टेबिल मैनर्स का इन्हें इल्म नहीं होता ।
थुक्का फजीहत और थूकना भी क्या मौलिक अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता ?
अंत में हम शोध छात्रों को एक विषय अनुसंधान के लिए देतें हुए अपना वक्तव्य समाप्त करतें हैं -इतना थूकने पर भी भारतीयों का हाजमा सेलाइवा (लार की कमी होने )से कम क्यों नहीं होता ?

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

लघु कथा -"नफासत "

मेरी नफासत क्या और कैसी है यह मुझे आज पता चला .हुआ यूँ मैं दिल्ली हाट और आई एन ऐ मार्किट को जोड़ने वाले पैदल पार पथ से गुजर रहा था .गुजरा कल भी था .रास्ता कल की तरह आज बासा गंधाता नहीं घूर रहा था .गुजारा करने लायक था .बुहार दिया गया था .मैं अपनी छड़ी की टेक लिए अपनी ढाल उतर रहा था सबवे की सीढियां . आखिरी पैड़ी(सीढ़ी )से उतरते ही मैंने अनायास थूक दिया .हालाकि मन में कहीं थोड़ा बहुत संकोच भी था ."अरे मैंने तो थूक दिया "सोचते हुए मैं आगे बढ़ा ही था ."वही शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति मुझे फटकार रहा था -यह थूकने की जगह है ?"बिल्कुल नहीं .भाई साहिब गलती हो गई ,यहाँ नहीं थूकना चाहिए था ,मैं गलती तस्दीक कर ही रहा था ,उसने कहा कैसे ले देकर हम सफाई करतें हैं .मैंने कहा उस्ताद जी आपने पहचाना नहीं .मैं निकलते बड़ते आप को आदाब करता हूँ .आपकी वेइंगमशीन पर वजन भी करता हूँ ."ताबे दार हैं "-ज़वाब मिला .बड़ा ही खुद्दार है यह आदमी जो अपने मुड़े हुए हाथ से बामुश्किल पैसे गिन कर खीसे के हवाले करता है ।
मुझे बहुत ज़ोर से एहसास हुआ -मेरी नफासत क्या है ?कैसी है ?कितने ज़हीन हैं हम लोग ?विकलांग यह नहीं मानसिक रूप से मैं हूँ .

कंगारू दिलवा सकतें हैं "स्किन कैंसर "से निजात .

मेलबोर्न यूनिवर्सिटी के शोध करता लिंडा फेकेटोवा और उत विल्ले ने ऑस्ट्रियन साइंस -दानों (इन्न्सब्रुच्क यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध ) के संग मिलकर कंगारूनों में मौजूद एक ऐसे एंजाइम पर नज़र टिकाई हुई है जो दी एन ऐ रिपेयर में कारगर है .समझा जाता है यह एंजाइम उस दी एन ऐ की मरम्मत कर सकता है जो चमड़ी के कैंसर में डेमेज होने लगता है .इस एंजाइम से वह जादुई क्रीम बनाई जा सकती है जो बस दिनभर सनबाथ लेने के बाद चमड़ी के असर ग्रस्त भाग पर लगाई जा सकती है ।
इस ड्रीम क्रीम पर सबकी निगाहें हैं .

अच्छी नहीं है ज्यादा कसरत प्रोढा-वस्था में ... .

एक अध्धय्यन में उन लोगों को आगाह किया गया है जो प्रोढा -वस्था में पहुंचकर भी ज़रूरत से ज्यादा व्यायाम करतें हैं .जाने -अनजाने ऐसे लोग अपने घुटनों को नुक्सान पहुंचा सकतें हैं ,देर सवेरओस्टियो -आर्थ -राईतिसका शिकार हो सकतें हैं ।
घुटनों को नाकारा बनादेने वाला एक ऐसा अप -विकासी रोग है -ओस्टियो -आर्थ -राईतिस जिसमे धीरे धीरे ही सही जोड़ों की अस्थियाँ का क्षय होने लगता है .(ओस्टियो -आर्थ -राईतिस इज ऐ फॉर्म ऑफ़ आर्थ -राईतिस करेक्तराइज़्द बाई ग्रेज्युअल लोस ऑफ़ कार्टिलेज ऑफ़ जोइंट्स युज्युअली अफेक्तिंग पीपुल आफ्टर मिडिल एज़िज़ ।)
केलिफोर्निया विश्व -विद्यालय ,सांन - फ्रांसिस्को के क्रिस्टोफ स्तेह्लिंग के अनुसार एक अध्धय्यन से पता चला है जो लोग प्रोढा -वस्था में आने के बाद भी ज़रूरत से ज्यादा एक्सरसाइज़ करतें हैं उनमे नी -एब्नोर्मेलिती का ख़तरा बढ़ जाता है .इसी के साथ ओस्टियो -आर्थ -राईतिस का जोखिम भी मुह्बाये खडा हो जाता है ।
जोड़ों की इस तकलीफ में जोड़ों में दर्द सूजन (शोजिश )के अलावा अकडन भी पैदा हो जाती है ।
सेंटर फॉर डीज़ीज़ कंट्रोल के अनुसार दो करोड़ सत्तर लाख अमरीकी जोड़ों के दर्द की शिकायत लिए हुए हैं .

कैंसर के ख़िलाफ़ जेहाद में खुम्बी कारगर ?

मूत्राशय और पौरुष ग्रंथि (प्रास्तेत )कैंसर के ख़िलाफ़ जंग में चीनी और जापानियों के भोजन में जगह बना चुकी मशरूम्स की एक किस्म "मिटाके मुश्रूम "कारगर हो सकती है .न्यू योर्क मेडिकल कोलिज के मूत्र रोग विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ युरोलोजी )के विज्यानियों ने पता लगाया है ,मशरूम्स की यह किस्म कैंसर गाँठ (ट्यूमर )को ७५ फीसद तक घटा देती है (श्रिंक कर देती है )।
नए इलाज़ भी खोजे जा सकेंगें .एक बात तय है कैंसर के रोगियों के शेष जीवन की गुणवता निश्चय ही इस नै शोध से सुधरेगी ।
युरोलोजी :इट इज ऐ ब्रांच ऑफ़ मेडिसन देत डील्स विद दी स्टडी एंड ट्रीटमेंट ऑफ़ दिसोर्दार्स ऑफ़ यूरिनरी ट्रेक्ट इन वूमेन एंड दी युरोजेनितल सिस्टम इन मेन
ऐ डॉक्टर हूँ त्रीट्स कंडीशंस रिलेतिंग तू दी यूरिनरी सिस्टम एंड मेंस सेक्स्युअल ओर्गेंस इस काल्ड ऐ यूरोलोजिस्ट।

विश्व -एड्स दिवस के मौके पर एक ज़रूरी बात ...

एच आई वी ट्रीटमेंट शुडस्टार्ट सूनर(टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसम्बर १ ,२००९ )शीर्षक से प्रकाशित इस ख़बर में बतलाया गया है ,विश्व्स्वास्थय संगठन ने एच आई वी एड्स के इलाज़ में पहले की गई सिफारिशों में रद्दोबदल किया है .अब तक जिस स्टेज में दवाएं दी जाती रहीं हैं वास्तव में चिकित्सकों को उससे १-२ साल पहले ही एंटी रेट्रोवायरल ट्रीटमेंट शुरू करने की अनुशंषा की गई है ।
आप को बत्लादें एच आई वी एड्स में करते करते वाईट ब्लड सेल्स की तादाद नष्ट होकर कम होने लगती है .एच आई वी एड्स की दोनों स्त्रेंस (एच आई वी -१ ,एच आई वी -२ ) ब्लड सेल्स सी दी -४ को निशाना बनातीं हैं .इनकी एक क्रांतिक तादाद हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की मुस्तैदी के लिए ,चाक चौबंद रहने होने के लिए ज़रूरी समझी गई है .अभी तक इलाज़ तब शुरू किया जाता था जब इनकी संख्या घटकर २०० के आस पास आ जाती थी ।
ताज़ा सिफारिशों के अनुसार सी दी -४ सेल्स की तादाद ३५० तक आते ही इलाज़ शुरू किया जाना चाहिए .

अवसाद और अस्थि -क्षय (ओस्त्यिओपोरोसिस )में रिश्ता है ..

हेब्र्यु यूनिवर्सिटी जेरुसलेम में संपन्न एक अध्धययन में रज यिर्मिया के नेत्रित्व में पता लगाया गया है ,युवतियों में डिप्रेशन भी अपेक्षया प्रोदाओं के रोग अस्थि क्षय (ओस्टियोपोरोसिस )की वजह बनता है .अस्थि क्षय एक अपविकासी रोग है जिसमे अस्थियाँ भंगुर होकर टूटने लगतीं हैं ,अस्थि घनत्व गिरने लगता है यानी लगातार शरीर से बोन मॉस का क्षय होने लगता है ।
हड्डियों का चरमरा कर टूटना गभीर विकलांगता के अलावा कभी कभार मौत की भी वजह बन जाता है ।
शोध दल ने आठ देशों में ज़ारी २३ प्रोजेक्ट्स से प्राप्त आंकड़ों का जायजा लिया ,पता चला युवतियों में मर्दों के बरक्स डिप्रेसन का ओस्टियोपोरोसिस से गहरा नाता है .यानी रजोनिवृत्ति से पहले ही के दौर में अवसाद इन मुग्धाओं को ओस्टियोपोरोसिस की ज़द में ले आता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-डिप्रेसन लिंक्ड तू ओस्टियोपोरोसिस इन यंग वूमेन (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसम्बर १ ,२००९ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

सोमवार, 30 नवंबर 2009

क्या आप जानतें हैं ...?

डैरी-उत्पाद और मांस -मच्छी की खपत २०५० तक आज से दोगुनी हो जायेगी .जलवायु पर इसका बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पडेगा .संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार जुगाली करने वाले पशु जितनी ग्रीनहाउस गैस मीथेन उगलतें हैं (जुगाली करने और डकार मारने के दरमियान )विश्व -व्यापी तापन (ग्लोबल -वार्मिंग ) में उसका असर दूसरी ग्रीन हाउस गैस कार्बन -दाई -आक्साइड से २३ गुना ज्यादा ठहरता है .इसीलियें एक और विज्यानी अब प्रयोगशाला में पार्क ,बीफ ,चिकिन और लेम्ब तैयार करलेना चाहतें हैं और दूसरी और ऑस्ट्रेलियाई विज्यानी भेड़ों की एक ऐसी ब्रीद (किस्म )तैयार कर रहें हैं ,जो बहुत कम डकार लेगी .डकार के दरमियान भेड़ग्रीन हाउस गैस मीथेन छोड़तें हैं ,अलबत्ता बहुत कम मात्रा में गुदा के ज़रिये भी (पादने )ऐसा होता है ।
प्रयोग शाला में तैयार गोश्त से तरह तरह की चटनियाँ ,सासेज़िज़ भी तैयार की जा सकेंगी अन्यसंसाधित उत्पाद भी .इससे लाखों पशुओं को जहाँ जीवन दान मिलेगा पर्यावरण -पारिस्तिथिकी की सेहत भी थोड़ी सुधरेगी .

भेड़ों की नै किस्म विश्व -व्यापी तापन कम करने के लिए ..

ऑस्ट्रेलियाई विज्यानी भेड़ों की एक ऐसी किस्म तैयार कर रहें हैं जिससे पर्यावरण को होने वाली नुकसानी थोड़ी कम की जा सकेगी .एक अनुमान के अनुसार कुल कृषि कर्म से ऑस्ट्रेलिया में १२ फीसद ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित होतीं हैं इसमे से ७० फीसद हिस्सेदारी जुगाली करने वाले पशुओं की ठहरती है .डकारने (डकार लेने )के दरमियान जुगाली करने वाले (र्युमिनेंत एनिमल्स )मीथेन गैस छोड़तें हैं अलबत्ता गुदा के द्वारा ना के बराबर कमतर गैस ही यह पशु छोड़तें हैं ।
न्यू -साउथ वेल्स डिपार्टमेंट ऑफ़ इंडस्ट्री एंड इन्वेस्टमेंट के जॉन गूपी के मुताबिक़ भेड़ों के मामले में ग्रीन हाउस गैसों का योगदान उनकी जुगाली करने और डकार मारने की आदत की वजह से ही बहुलांश में है .इसी लिए प्रजनन के ज़रिये अब नै किस्म (ब्रीद )तैयार की जा रही है .

प्रयोगशाला में तैयार हुआ पार्क

जिंदा शूकरसे चंद कोशिकाएं लेकर पेत्रिदिश में तैयार कर लिया गया है "सोगी पार्क "(गीला वेस्तिद मसल तिस्यु सा शुकर maअंस ).पशुओं के प्रति दया भाव रखने वाली उन्हें क्रूर्व्यव्हार से बचाने वाली संस्था "पेटा"ने इस प्रकार तैयार मीत का स्वागत किया है ।
आइन्दा पाँच सालों में इस गोश्ततरह तरह की चटनियाँ (सौसेज़िज़ )तथा संसाधित अन्यउत्पाद भी तैयार किए जा सकेंगे ।
विज्यानियों ने इस गोश्त को तैयार करने के लिए एक जीवित शूकर की पेशियों से कुछ कोशिकाएं लेकर इन्हें अन्य पशु उत्पाद शोरबे में पनपने के लिए रख छोड़ा .देखते ही देखते कोशिका द्विगुणित होकर पेशी ऊतकों में तब्दील हो गईं ।
नीदर्लेन्ड की इस शोध टीम के मुताबिक़ अब केवल एक पशु के गोश्त से टनों गोश्त तैयार किया जा सकेगा .इस प्रकार लाखों पशुओं एक नया और अनोखा जीवन दान मिलेगा यह कहना है एंधोवें यूनिवर्सिटी के मार्क पोस्ट का .आप के नेत्रित्व में ही नीदर्लेन्ड सरकार से अनुदान प्राप्त राशि से यह शोध कार्य आगे बढाया जा रहा है ।
अलबत्ता अभी तैयार गोश्त की गुणवत्ता का जहाँ तक सवाल है यह गोश्त सोगी है (वेट एंड अन्प्लेसेंज़ ला -इक वेस्तिद मसल तिस्यु )।
अलबत्ता इस अनुसंधान का पर्यावरण की दृष्टि से भी बड़ा महत्व है .पशु ग्रीन हाउस गैसों का एक पर्मुख स्रोत हैं .२०५० तक जहाँ गोश्त की खपत दोगुनी हो जायेगी वहीं ग्रीन हाउस गैस एमिशन में पशुओं का योगदान पहले ही १८ फीसद है कुल उत्सर्जन का .क्रत्रिम (प्रयोगशाला में तैयार किया गया गोश्त )गोश्त अतिरिक्त ग्रीन हाउस गैसों से निजात दिलवा सकेगा ।
इससे पहले भी न्युयोर्क में गोल्ड फिश मसल से "फिश फिलेट्स "(बोन लेस वाईट मीत फ्रॉम फिश )तैयार किए गए हैं इस प्रकार एक रास्ता खुल गया है प्रयोग शाला में चिकिन बीफ और लेम्ब तैयार करने का .

पिल्स में हाज़िर है -वोदका

नायाब आइडिया है दो गोली वोदका की ताज़े पानी के साथ लो और सुरूर में आ जाओ .३-४ लो और टल्ली हो जाओ .(लेकिन हुज़ूर टल्ली होना ठीक नहीं है ना सेहत और ना समाज के लिए )।
सोलिड फ़ूड के रूप में वोदका प्रस्तुत करने की प्रोद्योगिकी हाज़िर की है रसियन प्रोफ़ेसर एवगेनी मोस्कलेव ने .आप सेंटपीटर्सबर्ग विश्व -विद्यालय में कार्यरत हैं .बकौल आपके अब एल्कोहल को सीधे सीधे पाउडर में तब्दील कर उसकी गोलियां बनाई जा सकतीं हैं ।
विस्की हो या कोग्नाक (एक प्रकार की फ़्रांस में तैयार की जाने वाली ब्रांडी )वाइन हो या बीयर या फ़िर रसियन ड्रिंक
वोदका सभी को पहले पाउडर और फ़िर गोलियों में परोसा जा सकेगा पार -टियों में ।
अब बाज़ार से "ड्राई "वोदका कागज़ में रेप करके या फ़िर जेब में रख कर भी आप ला सकेंगें .बड़ी बोतल लेकर चलने संभालने का झंझट ख़त्म ।
(दी टेक्नोलोजी हेज़ बीन टेस्तिद ओं स्पिरिट ऑफ़ ९६ पर सेंट प्यूरिटी )
इस प्रोद्योगिकी की आज़माइश ९६ फीसद शुद्ध स्पिरिट पर की जा चुकी है .

रविवार, 29 नवंबर 2009

कार्य स्थल पर काम के दौरान गुस्से को पी जाने का मतलब .....

कार्य स्थल पर होने वाली ज्यादतियों को चुपचाप सह जाना व्यक्ति की सेहत की नव्ज़से जुडा है .एकस्वीडन में किए गए अध्धय्यन के मुताबिक़ जो लोग कार्यस्थल पर होने वाली ज्यादतियों पर मन मसोस कर रह जातें हैं अन्दर अन्दर घुट ते रहतें हैं उनके लिए दिल का दौरा पड़ने और किसी एक दौरे में मर जाने का ख़तरा पाँच गुना बढ़ जाता है .,बरक्स उनके जो हिसाब किताब बराबर कर लेतें हैं बॉस और अन्यों के साथ ।
स्टोकहोम यूनिवर्सिटी केस्ट्रेस रिसर्च इंस्टिट्यूट के शोध छात्रों ने २७५५ मुलाज़िमों का जिन्हें१९९२ -२००३ तक
तक दिल का दौरा नहीं पडा था ब्योरा जुटायाथा ।
अध्धय्यन के आख़िर तक ४७ भागीदार या तो मर चुके थे या फ़िर इन्हेंदिल का दौरा पडा था .यह सभी वहीथे जिन्हें कार्य स्थल की घुटन खाए जा रही थी .बुझदिली में यह किसी तरह काम चला रहे थे । इन सभी की उम्र आर्थिक सामाजिक पहलू ,जोखिम पूर्ण व्यवहार ,काम का तनाव और और जैविक खतरों पर गौर करने के बाद साफ़ साफ़ एक अन्तर सम्बन्ध बुझदिली से किए गए समझोते (कवर्ट कोपिंग )और दिल के बड़े दौरे (मायो -कार्डिएक इन्फार्क्सन )और कार्डिएक डेथ (दिल के दौरे से हुई मौत )के बीच देखा गया ।
यह भी देखा गया जो लोग अक्सर अपनी भावनाओं को दबाये सब कुछ सहते रहते थे उनके लिए दिल के दौरे का ख़तरा २- ३ गुना ज्यादा बढ़ गया था बरक्स उनके जो अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर गुस्सा निकाल देते थे ।
अलबत्ता शोध छात्र यह बतलाने में असमर्थ हैं ,कार्य स्थल पर ताल मेल और बेहतर और कामयाब ताल मेल बिठाने की हेल्दी कोपिंग स्ट्रेटेजी किसे कहा समझा जाए .ज्यादतियों का सीधे सीधे और तभी विरोध किया जाए ,बाद में स्तिथि के गुजर जाने के बाद हिसाब किताब किया जाए या फ़िर ताल मेल बिठाए रखा जाए लेदेकर .या फ़िर चीखा चिल्लाया जाए पलट कर ?
अध्धय्यन के नतीजे "एपिदेमियोलोजी और कम्युनिटी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुए हैं ।
सन्दर्भ सामिग्री :-टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर २५ ,२००९ पृष्ठ २३ (स्पीक अप :स्तिफ्लिंग एंगर अत वर्क कैन किल ।
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

स्पर्म काउंट घटाती है नेट सर्फिंग की आदत

एक अध्धय्यन के मुताबिक़ जो लोग इंटरनेट सर्फिंग ज्यादा करतें हैं उनके शुक्राणु तादाद में कमतर हो सकतें हैं सामान्न्य संख्या से .(स्वस्थ आदमी में प्रति घनमीटर इनकी एक क्रांतिक संख्या रहती है ।).
एनद्रोपेथी(रिलेटिड तू मेल आर मस्क्यूलिन - दिसीज़िज़ ) विभाग गुंग्क्सी ज्हुंग ,चीन के शोध छात्रों ने अपने एक अध्धय्यन में २१७ स्वयंसेवियों से स्पर्मेताज़ोआन (शुक्राणुओं )के नमूने जुटाए (पर इजेक्युलेषण ) जिसमे इस क्षेत्र के १९ विश्व -विद्यालयों और सम्बद्ध महा -विद्यालयों के छात्र शामिल थे .अलावा इसके १६४० छात्रों के बाहरी जननांग (तेस्तीज़ एंड पेनिस )का निरिक्षण किया गया ।
पचास फीसद छात्रों में स्पर्म काउंट (एक बार के डिस्चार्ज /इजेक्युलेषण से प्राप्त वीर्य में शुक्राणुओं की प्रति घन सेंटीमीटर तादाद )लो यानी सामान्य से कमतर पाया गया .जबकि ५६.७ फीसद छात्रों (सभी पुरूष छात्र थे पूरे अध्धय्यन में )के मामले में जो विश्व -विद्यालय में अध्धय्यन रत थे स्पर्मकाउंट एब्नोर्मल पाया गया ।
एक और अध्धय्यन में (जो उक्त अध्धय्यन से सम्बद्ध नहीं था )गत सप्ताह बतलाया गया है ,जो पुरूष घरेलू काम काज करतें हैं उनमे बच्चे पैदा करने के मौके कमतर हो जातें हैं ।
स्टेफोर्ड यूनिवर्सिटी ,केलिफोर्निया के शोध छात्रों ने मेल स्वयं सेवियों को विद्युत् -चुम्बिकीय क्षेत्र पैदा करने वाले उपकरण से काम करवाया ,पता चला वेक्युमिंग करने से (एक्सपोज़र तू वेक्युमिंग ) पुअर क्वालिटी स्पर्म काउंट का जोखिम दोगुना ज्यादा हो गया .यानी शुक्राणुओं की तादाद के संग गुणवत्ता भी गिरने का ख़तरा दोगुना ज्यादा हो गया . ।
शोध के अगुवा दे -कुन ली उन दम्पतियों को एलेक्त्रोमेग्नेतिक वेव्स के कमसे कम संपर्क में (इलेक्त्रोमेग्नेतिक वेव्स पैदा करने वाले उपकरणों से दूर रहने की सलाह देतें हैं जो संतान चाहतें हैं ,बच्चे पैदा करने को उत्सुक हैं ।
सन्दर्भ सामिग्री :-"इंटरनेट सर्फिंग अफेक्ट्स स्पर्म काउंट "(टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर २८ ,२००९ .,पृष्ठ १९ )
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

क्या हैं वोर्म्होल्स ?

यूँ एक उम्र बहुत थोड़ी है अन्तरिक्ष यात्रा के लिए लेकिन अन्तरिक्ष में कुछ काल्पनिक लघुतर रास्तें हैं (शोर्ट -कट्स )हैं .अन्तरिक्ष के दूरदराज़ के दो हिस्सों को मिलाने वाला यही मार्ग वोर्म होल कहलाता है ।
आइन्स्टाइन के मुताबिक़ घुमाव दार स्पेस -टाइम इन दो स्थानों को मिलाता है .,परस्पर कनेक्ट करता है ।
अलबत्ता वोर्म होल शब्द का इस्तेमाल अमरीकी भौतिकी विद जान ऐ वीलर ने सबसे पहले१९५७ में किया .प्रेरणा था वह कीड़ा जो एपल के एक सिरे से प्रवेश लेकर वाया सेंटर दूसरे तक आराम से पहुँच जाता है इसी प्रकार वोर्म होल के ज़रिये अन्तरिक्ष के एक से दूसरे हिस्से तक आसानी से पहुंचा जा सकता है ।
चौंकने चौकाने वाली बात यह भी है ,अन्तरिक्ष की यह सुरंगें (वोर्म होल्स )"टाइम त्रेविल "की कल्पना को पंख लगातीं हैं .यद्यपि किसी ने भी अन्तरिक्ष की यह अवधारणात्मक सुरंगें आदिनांक देखी नहीं हैं अलबत्ता अलबर्ट आइन्स्टाइन ने अपने गुरुतुव सम्बन्धी सापेक्षवाद में वोर्म होल्स की प्रागुक्ति की थी ।
उक्त सिद्धांत के मुताबिक़ अन्तरिक्ष में भारी भरकम पिंडों यथा ग्रहों सितारों की मौजूदगी आकाश -काल (स्पेस-टाइम जिसे एक ही भौतिक राशि समझा गया है )को एक कर्वेचर प्रदान कर देती है ,घुमाव दे देती है ।
जब ऐसे ही दो या दो से अधिक पिंड अन्तरिक्ष को विकृत (वोर्प )कर देतें हैं ,तोड़ मोड़ देतें हैं ,तब दो दूर दराज़ के अन्तरिक्ष भागों के बीच एक टनेल बन जाती है ।
(दी ईजी एस्ट वे तू थिंक अबाउट दिस इज इन तू दाय्मेंसंस .थिंक ऑफ़ स्पेस एंड टाइम एज ऐ पीस ऑफ़ पेपर बेंत ओवर ओं इत्सेल्फ़ .इफ ऐ वेट इज पुट ओं टॉप ऑफ़ डा पेपर ईट विल साग टुवर्ड्स डा सेंटर .इफ देयर इज एनादर वेट ओं डा अपोजिट साइड ईट विल आल्सो साग टुवर्ड्स डा सेंटर .इफ डा तू बल्ज़िज़ एवेंच्युँली मीत ऐ वोर्म होल कूद फॉर्म एंड ज्वाइन तू रीजन्स ऑफ़ स्पेस ।)
कल्पना कीजिये आप एक अन्तरिक्ष यात्रा पर निकले हैं ,लक्ष्य है अपनी गेलेक्सी का सूदूर सिरा (छोर ),आप अपने अन्तरिक्ष यान सहित एक वोर्म होल में प्रवेश करके प्रकाश की गति से तेज़ चलकर वहाँ पहुँच सकतें हैं .ऐसी है माया वोर्म होल्स की .

शनिवार, 28 नवंबर 2009

मानसिक रोगों के लिए जिम्मेवार जीवन खंड मिला ....

स्कोट लेंड के शोध कर्ताओं ने एक ऐसे जीन (जीवन इकाई )की शिनाख्त कर ली है जिससे मानसिक रोगों पर नै रौशनी पड़ सकती है .दिमागी रोगों के बारे में हमारी समझ में इजाफा हो सकता है ।
एडिनबरा यूनिवर्सिटी के माहिरों की देखरेख में अन्तर -राष्ट्रीय साइंस दानों की एक टीम ने एक जीन "ऐ बी सी ऐ १३का पता लगाया है .इससे मानसिक रोगियों के कारगर इलाज़ के लियें दवा इजाद करने में मदद मिल सकती है ।
अक्सर मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों में इस जीवन इकाई को फाल्ट -इ (दोषपूर्ण )पाया गया है .जबकि सेहत मंद लोगों में इसका ठीकठाक संस्करण देखने को मिला है .

अति महत्वपूर्ण है खाने का वक्त भी ...

क्या खातें हैं आप इसके अलावा यह भी देखना सेहत के लिहाज़ से लाज़िम है ,कब खातें हैं आप ?
एक संयुक्त भारत -अमरीकी अध्धय्यन में चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला , यकृत (लीवर )में मौजूद हज़ारों जीवन खंड (जींस )की सक्रियता में घट बढ़ का सीधा सम्बन्ध खाने के वक्त सेतो है ही है , इस बात से और भी ज्यादा है ,आप खाते क्या हैं ।
केलोरीज़ को ठिकाने लगाने वाला मेटाबोलिक रेट्स का विनियमन करने वाला यकृत और वहाँ मौजूद हज़ारों जींस की वेक्सिंग और वेनिंग इस बात से प्रभावित होती है ,असर ग्रस्त होती है आप खातेंक्या हैं ।
बकौल सच्चिदानंद पांडा (आप साल्क इंस्टिट्यूट फॉर बाय लोजिकल स्टडीज़ में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के बतौर कार्य रत हैं )यदि स्वतंत्र रूप से केवल इस बात पर जीवन खण्डों की फौज की सक्रियता निर्भर करती है ,रोजाना अपनी दैनिकी में आप कब खातें हैं ,कब व्रत रखतें हैं ,कब भूखों रहतें हैं ,तब इसका बहुत ही महत्वपूर्ण असर पडेगा हमारी रेत ऑफ़ बर्निंग केलोरीज़ पर .,मेताबोलिस्ज्म पर ,कुल मिलाकर हमारी सेहत पर ।
(इफ फीडिंग टाइम दितार्मिंस डा एक्टिविटी ऑफ़ ऐ लार्ज नंबर ऑफ़ जींस कम्प्लीटली इन्दिपेन्देन्त ऑफ़ दा सर्कादियन क्लोक ,व्हेन यु ईट एंड फास्ट ईच दे विल हेव ऐ ह्यूज इम्पेक्ट ओं यूओर मेटाबोलिज्म सेज सच्चिदानंद पांडा )
क्या इस अध्धय्यन से अब यह बात समझी जा सकती है ,आख़िर क्यों शिफ्ट वर्कर्स को मधुमेह ,हाई -पर कोलेस्त्रिमियाँ और मोटापे का ख़तरा बना रहता है .

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

खासने का इलाज़ लंग्स में ही छिपा है ......

ब्रितानी विज्यानियों की एक टीम ने पता लगाया है ,फेफड़ों की नसों (स्नायु ,नर्व्स)के सिरों पर कुछ अभिग्राही प्रोटीन होतीं हैं जो इर्रितेंट्सके प्रति अनुक्रिया करतीं हैं ,नतीज़ा होता है कफ (खांसना ).यह जलन पैदा करने वाले उत्तेजक पदार्थ कुछ भी हो सकतें हैं .कुछ
लोग लगातार खांसते रहतें है कारण इन्हीं अभिग्राही प्रोटीनों की उत्तेजना बनती है जो नर्व्स एन्दिंग्स पर मौजूद होतें हैं .दीज़ रिसेप्टर्स प्रोम्प्ट कफ रिफ्लेक्स ।
ब्रितानी नेशनल हार्ट एंड लंग इंस्टिट्यूट के चिकित्सा कर्मियों के अनुसार इन अभिग्राहियों (रिसेप्टर्स )को बंद करके (अवरुद्ध ,ब्लोक )करके खांसी (खासने की प्रक्रिया )को मुल्तवी रखा जा सकता है .इम्पिरिअल कोलिज लन्दन और हल यूनिवर्सिटी के चिकित्सा कर्मियों ने भी यही पता लगाया है ।
लाइलाज कफ कुछ लोगों के लिए लगातार कष्ट का सबब बना रहता है .कुछ लोगों की तो जीवन धारा को ही बदल देता है कफ ,हताश निराश हो जातें है यह लोग .जीवन की गुणवत्ता असर ग्रस्त हो जाती है ।
कुछ लोगों के अनुसार आस पास की हवा में ही ऐसा कुछ होता है (फ़िर चाहे वह मौसमी अलार्ज्न्स ,एलर्जी कारक पदार्थ जैसे पोलेंस (पोलें न) हो हवा में तैरते या कुछ और एलर्जी पैदा करने वाले पदार्थ )खासने की प्रक्रिया को यही एड लगातें हैं .जो हो चोर पकड़ा गया है .चिकित्सा कर्मियों को यह इल्म हो गया है खांसने के दौरान फेफड़ों में होता क्या है ?
अब पुष्ट यही होना करना है ,क्या इन रिसेप्टर प्रोटीनों को ब्लोक किया जा सकता है प्रभावी तरीके से .इन अभी- ग्राहियों को मिलने वाला उत्तेजन ,दह न ,इर्रिटेशन ही खांसी पैदा करता है ।
गिनी पिग्स और कुछ स्वयं -सेवियों पर की गई आजमाइशों से पता चला है ,नसों के सिरों पर टी आर पी ऐ १ प्रोटीन होती है जो सिगरेट के धुयें (सेकेंडरी स्मोक ),वायु में तैरते प्रदूषक से उत्तेजन प्राप्त कर सक्रीय (स्विच आन )हो जाती है .इसी से कफ रिफ्लेक्स पैदा होता है ,नतीज़ा होता है -खांसी (गले की फांसी ,लेकिन हूजूर मामला गले का नहीं है ,फेफड़ों से ताल्लुक रखता है ।).
गिनी पिग्स में दवाओं से जब इन अभिग्राहियों को अवरुद्ध कर दिया गया तब कफ रिफ्लेक्स भी जाता रहा ,सिगरेट स्मोक और प्रदूषक उत्तेजन ही प्रदान नहीं कर सके ।
इस शोध को पुष्ट करने के लिए माईस ,पिग्स और ह्युमेंस से नसें लेकर भी आज़माइश
की गई ,ताकि स्वयं सेवियों से प्राप्त नतीजे दोहराए जा सकें ।
सन्दर्भ सामिग्री :-क्युओर फॉर कफ इज इन डा लंग्स ,नोट थ्रोट (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर २४ ,२००९ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

अभिग्राही प्रोटीन होतीं हैं

बुधवार, 25 नवंबर 2009

कुदरत का नायब एंटी बायटिक यानी विटामिन डी

कुदरत का बख्शा नायाब तोहफा है -विटामिन" डी ".हालिया शोधों से इल्म हुआ है -यह हमारी सेहत के लिए एक बेहतरीन और राम बाण पुष्टिकर (न्युत्रिएन्त )है . एक प्राकृत प्रति जैविकीय पदार्थ है ,एंटी बायटिक है ।
यह हमारे रोग प्रति रोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम )के हाथ मजबूत कर हमें हृद रोगों से बचाए रहता है ।
ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोध छात्र हमारे सम्पूर्ण स्वास्थ्य (ओवर आल हेल्थ )के लिए विटामिन डी को एक क्रिटिकल (एकदम से ज़रूरी )पुष्टिकर तत्व मानते है .

बटन को हाथ लगातें ही गर्म दूध देगा बेबी फीडर

आधी रात के बाद उनींदी आँख लिए बेबी फीड तैयार करना दुधमुहे के लिए माँ बाप के लिए एक ज़रूरीलेकिन कष्टकर ड्यूटी सा होता है ।
जिम शेइख भी इसी परीक्षा से गुजरे थे अपने बेटे के लालन पालन के दरमियान .नीम रात दूध गर्म करना लाडले का और सोचते रहना "फीडर अपने आप गर्म नहीं हो सकता बटन को हाथ लगाते ही ."कहतें हैं -आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है ,और इसी से सामने आया जिम शेख का "टच बटन फीडर "यानी दूध से भरे फीडरके बटन को हाथ लगाइए और एक मिनिट में कुदरती दूध (स्तन से रिसने वाले दूध )की तरह गर्म उतने ही तापमान वाला दूध तैयार ।
(बेबी बोटिलहीट्स अप विद डा टाच ऑफ़ ऐ बटन (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर २५ ,पृष्ठ २३ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

नकली एच दी एल का मतलब ?

चिकित्सा कर्मियों ने असली हाई -डेंसिटी -लिपो प्रोटीन कणों के गुन धर्म वाले ही अब नकली कण प्रयोग शाला में तैयार किए हैं जो रक्त प्रवाह में शामिल होकर असली कणों की तरह ही धमनियों को खुला रखने में मदद गार होंगें .कचरा यानी प्लाक धमनियों की अंदरूनी दीवारों पर ज़मा होकर इन्हें अवरुद्ध कर देता है इसी प्लाक के रप्चर होने पर "सेरिब्रो वेस्क्युलर एक्सीडेंट "आम भाषा में कहें तो स्ट्रोक और हार्ट अतेक्स का ख़तरा पैदा होता है ।
कोलेस्ट्रोल के लेब निर्मित कण एक दिन आर्टरी डीज़ीज़ के रोग निदान और कारगर इलाज़ में समान रूप से कारगर सिद्ध होंगें ।
इन कणों को मेडिकल इमेजिंग में कारगर बना ने के लियें इनके केन्द्रक (कोर )को गोल्ड और इतर मेटल्स से तैयार किया गया है .इन की मदद से प्लाक के बन ने की बेहतर तरीके से मानिटरिंग की जा सकेगी .नार्थ वेस्त्रँ यूनिवर्सिटी के शिकागो स्तिथ केम्पस में "एच दी एल नेनो पार्टिकल्स "तैयार कर लिए गए हैं .इन कणों की खूबी यह है ,जहाँ असली एच दी एल कणों की कोर वसा युक्त होती है ,वहीं इनकी कोर गोल्ड से तैयार की गई है .स्वर्ण की बनी यह कोर एक स्केफोल्ड की भांति ही काम करगी जिसके गिर्द असली कोलेस्ट्रोल की तरह ही चर्बी के अनु चस्पां हो जायेंगें ।
इस प्रकार से तैयार "सिंतेथिक एच दी एल "किसी भी तरह से असली कोलेस्ट्रोल से कम नहीं हैं यह कोलेस्ट्रोल से ज़बर्जस्त तरीके से नत्थी हो उसे सर्क्युलेशन से बाहर कर देता है .आजमाइशों से इस तथ्य की पुष्टि हुई है ।
एच दी एल ला -इक नेनो पार्टिकल्स "इमेजिंग और डायग्नोसिस "दोनों का ही काम करेंगें .आथीरो -इस्केलो -रितिक प्लाक से यही कण एक दिन निजात दिलवाएंगे .

क्रत्रिम तौर पर तैयार किया गया -गुड कोलेस्ट्रोल

हामारे खून में चर्बी घुली रहती है जिसे आम तौर पर कोलेस्ट्रोल कह दिया जाता है .वास्तव में इनमे से कुछ कण कोलेस्ट्रोल के खून की नालियों से चिपक जातें हैं ,नालियां खुरदरी यानी कठोर हो जाती हैं ,यही बेड कोलेस्ट्रोल है जबकि कुछ अन्यकणइस चर्बी को अंदरूनी दीवारों पर ज़मा होने से ना सिर्फ़ रोकतें हैं यकृत तक ले जातें हैंऔर यह सर्क्युलेशन से बाहर हो जातें हैं और इस प्रकार धमनियों को साफ़ सुथरा खुली रखने में मदद गार होतें हैं .इन्हें ही गुड कोलेस्ट्रोल कहा जाता है ।
व्यायाम करने से लगातार और नियमित सैर करने से यही बेड कोलेस्ट्रोल गुड कोलेस्ट्रोल में तब्दील हो जाता है ।
अब विज्यानी गुड कोलेस्ट्रोल से मिलते जुल्तें कण प्रयोगशाला में रचने में कामयाब हो गए है जो प्लाक (चिकनाई रुपी कचरे ,ट्राई ग्लीस -राइड )को बन्ने से पहले ही खुरच कर बाहर कर देतें हैं सर्क्युलेशन से असली के गुड कोलेस्ट्रोल कणों की तरह ।
इन रचे गए कणों की सतह को फेट्स और प्रोटीनों से ढांप दिया गया है ताकि यह चिपचिपे कोलेस्ट्रोल कणों से नत्थी हो जाएँ .और असली कोलेस्ट्रोल कणों की तरह रक्त प्रवाह में शामिल हो जाएँ
एक दिन इन्हीं कणों का स्तेमाल कार्डियो वेस्क्युलर डीज़ीज़ के इलाज़ में किया जा सकेगा .यही कहना है नेनो मेडिसन विभाग के चीएफ़ ( मुखिया) और "सेंटर फॉर एन्वाय्रण मेंटल इम्प्लीकेशंस ऑफ़ नेनो teknaalaaji के निदेशक आंद्रे नेल का ।
इन क्रत्रिम कणों को वैसे ही गुन देने की कोशिश की गई है जैसे vaastav में हदल कणों में होतें हैं(हाई density lipoprotin )को ही गुड कोलेस्ट्रोल कहा जाता है .बेड kahlaataa है -Low Density Lipo-protin .

चन्द्रमा की कलाओं का रिश्ता हो सकता है एपिलेप्टिक फिट्स से ...

चन्द्र कलाओं -ईद का चाँद ,दूज का चाँद ,पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र ,अर्द्ध चन्द्रऔर चन्द्र हीन अमावस्या का ज़िक्र साहित्य और कलाओं तक ही महदूद नहीं हैं -पूर्णिमा की रात का आत्म ह्त्या के उद्दीपक के तौर पर भी ज़िक्र किया जाता रहा है ।
अब विज्यानी एक अन्तर सम्बन्ध एपिलेप्टिक फिट्स की बारंबारता (फ़्रीक्युएन्सि )और फेज़िज़ ऑफ़ दा मून में भी तलाश रहें हैं ।
अपस्मार (एपिलेप्सी या आम जुबान में मिर्गी )के दौरों की आवृत्ति (फ़्रीक्युएन्सि ,बारंबारता )एक दम से घट जाती है "पूर्णिमा "को ,फुल मून नाइट्स में ,जबकि घुप्प अँधेरी रातों में (कृष्ण पक्ष )के दौरान आवृत्ति बढ़ जाती है ।
चिकित्सा कर्मियों के मुताबिक़ ऐसा होने के पीछे शायद मेलेटोनिन का हाथ है जिसका स्राव अँधेरी रातों (आम तौर पर घुप्प अंधेरे में अपेक्षा कृत ज्या दा होता है ,इसीलियें लोग बेड रूम में अन्धेरा पसंद करते हैं सोने के वक्त .)में ज्यादा होता है ।
यूनिवर्सिटी कोलिज लन्दन के चिकित्सा छात्रों ने एक पूर्णतया समर्पित (देदिकेतिद )एपिलेप्टिक यूनिट से जहाँ २४ घंटा फिट्स का हिसाब किताब लोग -इन किया जाता है ना सिर्फ़ आंकड़े जुटाए शुक्ल पक्ष (चांदनी रातों के दरमियान पड़ने वाले दौरों )फिट्स का मिलान क्रष्ण पक्ष के करेस्पोंडिंग फिट्स से किया ।
यानी शुक्ल पक्ष की पहली रात को आने वाले फिट्स का मिलान कृष्ण पक्ष की पहली रात को पड़ने वाले सीज़र्स से किया गया ।इसीतरह बाकी रातों को पड़ने वाले सीज़र्स का जायजा लिया गया .
अध्धय्यन से उक्त निष्कर्ष निकाले गए -आलोकित रातों को दौरों की आवृत्ति कम हो जाती है जबकि अँधेरी रातों में अपेक्षा कृत बढ़ जाती है ।
हम जानतें हैं -अपस्मार या मिर्गी के साथ जो लोग रह रहें हैं उनके दिमाग के एक हिस्से में अचानक न्यूरोन डिस्चार्ज (बिजली का स्राव )होने लगता है ,हाथ पाँव एंठने लगतें हैं ,मुख से झाग उबलने लगता है ,जीभ के दांतों के बीच आ जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है .२-३ मिनिट के लिए मरीज मूर्छा में चला जाता है या फ़िर एक दम से भाव शून्य और निष्क्रिय हो जाता है .लेकिन इस स्तिथि का बाकायदा इलाज़ है ,शल्य भी उपलब्ध है .

रविवार, 22 नवंबर 2009

मक्का में मौजूद है एच१ एन१ इन्फ़्लुएन्ज़ा -ऐ

मक्का से सउदी लौटे चार यात्री लौटने के २-३ दिन दिन बाद ही स्वाइन फ्लू से ग्रस्त होकर चल बसे .इन चारों को ही एच१ एन१ रोधी बचावी टीके नहीं लगे थे .सउदी kऐ स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की है ।
इसके साथ ही विश्व -स्वास्थ्य संगठन की चिंता आगामी २६ नवम्बर से आरम्भ हो रही हज -यात्रा को लेकर बढ़ गई है ।
गौर तलब है मुसलामानों के इस पाकीज़ा मजहबी स्थल पर (तीर्थ )पर १६० देशों से तक़रीबन ३० ,००० लोग हर बरस पहुंचतें हैं .अंदाजा लगाया जा सकता आगे क्या कुछ हो सकता है .

टेमी फ्ल्यू रोधी किस्म मिली एच१ एन१ इन्फ़्ल्युएन्ज़ा टैप -ऐ की

स्वास्थ्य अधिकारियों के मुताबिक़ उत्तरी केरोलिना में चार लोगों में जांच के बाद एच१ एन१ विषाणु की ऐसी किस्म मिली है जिस पर तेमिफ्ल्यु असर कारी साबित नहीं होती है .ये चारोंइसी किस्म के साथ पाजिटिव हैं .,खून की जांच के बाद यह पुष्ट हुआ है .ड्यूक यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर में गत ६ सप्ताहों में यह अब तक का सबसे बड़ा समूह है ।
स्वाइन फ्ल्यू के विरुद्ध प्रभावी रहने वाली दो दवाओं में से "टेमी -फ्ल्यू "एक असर कारी दवा रही है .स्वास्थ्य अधिकारी इस बात पर निगाह रखे हुए हैं ,कहीं वायरस एच१ एन१ अपना बाहरी कोट बदल कर म्युतेत (उत्परिवर्तित )तो नहीं हो रहा है ?आख़िर दवा बे -असर क्यों और कैसे हो रही है ?
अप्रैल २००९ से लेकर अब तक दुनिया भर में ५० मामले स्वाइन फ्ल्यू के दवा रोधी (तेमिफ्ल्यु -रेज़िस्तेंत )पाये गए हैं .

म्युतेतिद स्ट्रेन (उत्परिवर्तित किस्म )मिली इन्फ़्लुएन्ज़ा टैप ऐ एच १ एन १ वायरस की

नोर्वे में दो लोगों की एच १ एन १ इन्फ़्ल्युएन्ज़ा वायरस -ऐ से मौत के बाद उनके जिस्म से इस विषाणु की खतरनाक उत्परिवर्तित किस्म मिली है .जबकि एक व्यक्ति अभी गंभीर रूप से बीमार है इसी विषाणु से संक्रिमित होने के बाद ।
यह नोर्वे में इस म्युतेतिद किस्म से होने वाली पहली मौतें हैं .दोनों के ही शरीर से नमूने लेकर विश्व -स्वास्थ्य संगठन जांच के काम में जुट गया है .अलबत्ता अभी इस बात की किसी को भी भनक नहीं है ,क्या यह उत्परिवर्तित किस्म अन्यइंसानों को भी कहीं संक्रमण की चपेट मेंतो नहीं ले लेगी ।
चिंता यह भी है ,एच १ एन१ इन्फ़्ल्युएन्ज़ा वायरस अब पूर्वी यूरोप और एशिया की तरफ़ बढ़ रहा है ,पश्चिमी यूरोपके कुछ हिस्सों के अलावा और अमरीका में भी यह पहले ही शीर्ष को छू चुका है ।
विश्व -स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ उत्तरी गोलार्द्ध के कुछ हिस्सों में इस बीमारी ने शिखर को छू लिया है .अप्रेल २००९ में स्वेन फ्ल्यू की इस नै किस्म के दिखलाई देने के बाद से अब तक दुनिया भर में कुल ६७७० लोग इस बीमारी से ग्रस्त होने के बाद मौर के मुह में चले गए है .अब इस संक्रमण को अंदरूनी स्वास्नी क्षेत्र (डीपर एंड इनर रेस्पैरेत्री ट्रेक्ट )को खतरनाक तरीके से असर ग्रस्त बनाने वाली उत्परिवर्तित किस्म ने चिंता को और भी बढ़ा दिया है .

गर्म होने पर ही प्रभावी होती है -आयरन (बिजली की प्रेस )

कलफ लगें हों या साधारण ,सूती हों या फ़िर गर्म हाट आयरन ही निकालती है कपड़ों की शिकन .यूँ ठंडा लोहा भी काम कर सकता है लेकिन गर्म होने पर लोहा (बिजली की प्रेस )आयरन मुलायम हो जाता है .कपड़े पर आराम से आगे पीछे घुमाया जा सकता है ,मन मुताबिक़ कम या ज्यादा ,मोड़ा जा सकता आयरन करने के दौरान ।
असलमें बिजली से सम्पर्कित करने या फ़िर कोयले से गर्म करने पर आयरन साफ्ट हो जाता है ,इसके अणु तेज गति करने इधर उधर हर दिशा में .(रेंडम मोशन बढ़ जाता है लोहे में ,जिसकी वजह से लोहा नम्यहो जाता है ,गादुले लुहार और हमारे पुराने कारीगर लुहार आदि इस तथ्य से भली भाँती वाकिफ थे .ये लोग तरह तरह के हथियार अन्यलोह पात्र उपकरण आदि बना लेतें हैं ,अंग्रेज़ी में मुहावरा है -बेंड दी आयरन व्हेन हाट .)

क्या मतलब होता है "स्पा "का ?

आम भाषा में खनिज की धारा निकालने का स्थान "स्पा "कहलाता है ।
एक कुदरती गरम पानी का सोता जहाँ जल कुदरती तौर पर खनिजों से भी भरपूर रहता है -स्पा कहलाता है ।
एक इतिहासिक सपा टाउन भी है -पूरबी बेल्जियम में जहाँ लोग खनिज परिपूर्ण जल का सेवन और स्नान के लियें आतें हैं ।
यहाँ तैरने की भी सुविधा दी गई है ।
इन दिनों "हेल्थ्स्पा 'का बोलबाला है जहाँ स्वास्थ्य सचेत लोग तैरने के अलावा अनेक तरह के व्यायाम ,ब्यूटी त्रीत्मेंट्स के लिए भी आतें हैं .यहाँ सौन्दर्य प्रसाधन और सौन्दर्य प्रसाधक दोनों एक साथ उपलब्ध हैं ,जो कुदरती तौर पर आपके सौन्दर्य रख रखाव को चार चाँद लगातें हैं ।
स्पा बात का अपना मज़ा है ,बस आपको एक स्वीमिंग पूल में उतरना भर होता है ,चारों और से आती गरम जल की धाराएं तन -मन की श्रान्ति हर लेतीं हैं ।
जकुज्ज़ी (जे ऐ सी यु जेड जेडआई )।
इन दिनों मौज मस्ती के ऐसे रिज़ोर्ट्स को जहाँ लोग मिनरल स्प्रिंग्स का मज़ा लेने आतें हैं स्पा कहा जाता है ।
पूरबी बेल्जियम में स्पा एक आमोद प्रमोद का प्रमुख स्थल है ।
ऐ बात विद ऐ डिवाइस फॉर एरैतिंग एंड स्वर्लिंग वाटर इज काल्ड स्पा ।
स्पा इज एन एक्रोनियम (सनुस पैर अक्युं -ऍम )ओरिजिनेतिंग ड्यूरिंग दी रोमन एम्पायर व्हेन बेतिल वियारी लीज़ेन्रीज़ सौत ऐ वे तू रिकवर फ्रॉम देयर मिलिट्री वुंड्स एंड एल्मेंट्स .दे सौत आउट हाट स्प्रिंग्स एंड बिल्ट बाथ्स सो दे कूद हील देयर एकिंग बोदीज़ कालिंग दीज़ प्लेसिज़ "सानस पर एक्युयम ""स्पा "एस पी ऐ "।
मीनिंग हेल्थ थ्रू वाटर ।
ड्यूरिंग दिस पीरियड दी टाउन स्पा इन ईस्टर्न बेल्जियम वाज़ फा -उन्दिद .

क्या चीज़ है जो फल -फूल और मसालों में सुगंध भर देती है ?

फल -फूल और मसालों में कुछ वाष्प -शीलरसायन (वोलाताइलकेमिकल्स ) होतें हैं जो लगातार वाष्प बनके उड़ते रहतें हैं .आस पास के परिवेश को इन्हीं रसायनों के अणु सुगंधी से भर देतें हैं ।
इसका मतलब यह है ,पुष्प एक कुदरती इतर फुलेल पैदा करतें हैं ,यह सेंटपरफ्यूम्स की मानिंद एक यौगिक हैअनेकानेक रसायनों का ,जिनका अणु भार कमतर होता है ,जो वाष्प शील होतें हैं ,जैसे इस्टर .यही अणु वाष्पीकरण और विसरण (दिफ्युज़ं न )की प्रक्रिया के तहत आस पास के परिवेश में ठहर जातें हैं ,और वायुमंडल को एक सुरभि से भर देतें हैं ।
इन योगिकों की प्रकृति जुदा होती है हर फल फूल में ,इसीलिए हरेक की अपनी एक परिचित सुवास है ।
जिन पादपों का परागन मधु मख्खी ,इतर मख्खियाँ करतीं हैं उनकी सुवास मीठी जबकि भृंग द्वारा इतर कीट पतंगों द्वारा जिनका परागन होता है उनकी गंध मस्ती और स्पाइसी होती है .कई मर्तबा बासा ,दुर्गंधित ,पुरानी किताबों सी .

किसे कहा जाता है अब क्रेगर ?

एक ऐसा व्यक्ति जो अपने पर्यावरण -पारिस्तिथिकी के प्रति सचेत है और लगातार अपना कार्बन फुट प्रिंट कमतर करने में मशगूल है ,तथा "कार्बन रिडक्शन एक्शन ग्रुप "का सदस्य है -इन दिनों "क्रेगर "कहा समझा जाता है ।
कोल्लिंस शब्द कोष के हरित शब्द -संग्रह (ग्रीन लेक्सिकोन्न )में क्रेगर को स्थापित किया गया है ।
इन दिनों पर्यावरण और उसके संरक्षण से जुड़े मुद्दों को ग्रीन -इस्युज़ में शुमार किया जाता है .ग्रीन पोलिटिक्स ,ग्रीन पीस ,ग्रीन पार्टी ,ग्रीन हाउस गैसिज़ (जी एच जीज़ )आज कल आम फ़हम बोलचाल में आ चुके शब्द हैं ।
हेव ग्रीन फिंगर्स ,हेव ग्रीन थम्ब ,बी गुड अत मेकिंग प्लांट्स ग्रो .

शनिवार, 21 नवंबर 2009

शीघ्र पतन (प्रिमेच्युओर इजेक्युलेष्ण )से राहत के लिए स्प्रे ...

जापानी दवा कम्पनीशिओनोगी की एक डिविज़न "ड्रग मेकर स्सिएले फार्मा ने अमरीकी दवा संस्था को एक स्प्रे को मंजूरी देने के लिए आवेदन किया है ,जिसके मैथुन से ५ मिनिट पहले स्तेमाल से पुरुषों को शीघ्र पतन से थोड़ी राहत मिल सकती है ।
एक अनुमान के अनुसार १८ -५९ साला एक तिहाईअमरीकी मर्द मैथुन रत होने के एक मिनिट बाद ही शिखर को छूलेते हैं ।लेकिन आदिनांक ऐसा कोई भी इलाज़ ऍफ़ दी ऐ से स्वीकृत इन लोगों को मयस्सर नहीं हैं .
यह दवा प्रायोगिक नाम पी एस दी ५०२ के नाम से जानी जा रही है .यह कोम्बो है दो नम्बिंग (सुन्न करने वाली )एजेंट्स "लिदोकैने "और "प्रिलोकैने "का .केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी सां -फ्रांसिस्को के इरा शर्लिप और साथियों ने इसका परिक्षण ३०० ऐसे मर्दों पर किया है जो प्री -इजेक्युलेष्ण की समस्या से ग्रस्त थे .इन्हें मैथुन से पाँच मिनिट पहले शिश्न पर इस स्प्रे को छिड़कने के लिए कहा गया .तीन माह तक जारी इस अध्धय्यन के अंत में पता चला जो मर्द पहले मैथुन रत होने के एक मिनिट बाद ही स्खलित हो जाते थेउनमे से ६० फीसद अब तीन मिनिट तक मैथुन रत रहने के बाद ही शिखर पर पहुँच रहें हैं ।
स्टानले अल्थोफ़ (सेंटर फॉर मेरिटल एंड सेक्स्युअल हेल्थ ,साउथ फ्लोरिडा )समय से पहले स्खलन (प्री मेच्युओर इजेक्युलेषण )औरत और मर्द दोनों के ही यौन जीवन पर नकारात्मक असर छोड़तें हैं .कुछ के लिए तो यह शर्मिंदगी का सबब बन जाता है ।सेक्स्युअल मेडिसन सोसायटी ऑफ़ नोर्थ अमरीका ,की सां डिएगो में आयोजित एक बैठक में शोध कर्ताओं ने बतलाया -स्प्रे की आज़माइश जिन ५०० लोगों पर की गई उन्हें
स्प्रे के स्तेमाल के बाद संतुष्ट देखा गया । यौन संबंधों से जुड़ी है हमारे मानसिक स्वास्थ्य की नवज ।
सुरक्षा कवच धारण कर कुरुक्षेत्र के मैदान में कूदना ही काफ़ी नहीं है ,कोई हताहत भी तो हो शिखर को छूने से पहले इधर उधर बमबारी कर ना खिसक ले .अक्सर होता यही है .

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में चेहरे पर पाँच सौ रसायनों का लेप .

दर्शनीय बनने संवर ने में महिलाए रोजाना जितने तरह के सौन्दर्य प्रसाधनों का स्तेमाल आज कर रहीं हैं ,विज्यान कर्मियों ,सौन्दर्य प्रसाधनों के माहिरों ने पता लगाया है उनमे कमस कम ५०० किस्म के रसायनों का डेरा होता है ।

फ़िर चाहे वह गोरा बनाने वाली कथित क्रीम हो या या कथित दुर्गन्ध नाशी (डियोडरेंट ),या फ़िर लिपस्टिक ,सभी में से एक एक में कमसे कम २० तक रसायन पाये जातें हैं ,इनमे से कितने कार्सिनोजंस (कैंसर कारी एजेंट का काम करतें हैं ,इसका कोई निश्चय नहीं ).हस्त -पाद -नख प्रसाधन भी रसायनों की इस मारा मारी से मुक्त नहीं हैं ।

ताम्बई (ताम्र रंगी )दिखने बन ने संवर ने की कीमत हर औरत को चुकानी पड़ती है ।

(बतला -देन आपको चुम्बन में विटामिन के अलावा रसायन भी होते हैं ,जिनमे से कई कैंसर भी पैदा कर सकतें हैं .सीरियल -किस्सर्स से क्षमा याचना सहित )।

एक डियोड्रेंट फर्म "बिओंसें "ने पता लगा या है ,एक सौन्दर्य सचेत आधुनिका रोजाना १३ प्रसाधन रोजाना औसतन स्तेमाल में लेतीं हैं ।

इनमे संयोजी (एडिटिव्स )भी शामिल होतें हैं ।

अब सद्य स्नाता नायिका का दौर नहीं हैं ,ब्यूटी क्लिनिक में सब कुछ मिलता है -ताम्बई रंगत से लेकर बिहारी कविवर की नायिका जो अभी अभी स्नान करके हाज़िर हुई है ।

अब स्तन ही सिलिकान के नहीं हैं ,बरौनी भी बनावटी बनवाई जातीं हैं

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

धूम्र पान की तरह ही घातक है अवसाद ग्रस्त होना ...

एक अध्धय्यन के मुताबिक़ अवसाद मौतके खतरे की उतनी ही बड़ी वजह बन रहा है जितना धूम्र पान .बेर्गें यूनिवर्सिटी नोर्वे और किंग्स कोलिज लंदन के मनोरोग संस्थान के विज्यानियों ने एक चार साला सर्वे में ६०००० लोगों के मृत्यु सम्बन्धी आंकड़ों को जुटाया .पता चला ,इस दरमियान मौत का ख़तरा अवसाद ग्रस्त लोगों और धूम्र पान करने वालों में एक जैसा बढ़ा हुआ दर्ज किया गया ।
यह भी पता चला अवसाद ग्रस्त लोगों में मौत का जोखिम ज्यादा बढ़ जाता है बनिस्पत उन लोगों के जो अवसाद के साथ साथ एन्ग्जायती (औत्सुक्य )की भी गिरिफ्त में आ जातें हैं ।
बत्लादें आपको -दी एस एम् -४ (डायग्नोस्टिक स्तेतिस्तिकल मेन्युअल -४ )के मुताबिक़ अब डिप्रेशन (अवसाद )को एक स्वतंत्र रोग का दर्ज़ा हासिल है ।पहले इसे किसी और रोग का एक और लक्षण मात्र समझा जाता था .
इस रोग में व्यक्ति अपना आत्म विशवास खोकर ख़ुद की ही नज़रों में नाकारा (बेकार )हो जाता है .उसकी किसी भी चीज़ में दिलचस्पी नहीं रह जाती है .जीवन निरर्थक लगने लगता है ,बेमकसद .आत्म ह्त्या की प्रवृत्ति अक्सर बढ़ जाती है ।ऐसे मरीज़ को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए .नियमित दवा देना भी अपनी(तीमार दार की ) देख रेख में ज़रूरी है .
सन्दर्भ सामिग्री :-"डिप्रेशन इज एज डेडली एज स्मोकिंग (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर १९ ,पृष्ठ २१ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

विनाश की ओर ले जायेगी तापमान वृद्धि ....

एक अध्धय्यन के मुताबिक़ पृथ्वी का तापमान इस शती के अंत तक ६ सेल्सिअस बढ़ जाएगा .(पृथ्वी के तापमान में सिर्फ़ ४ डिग्री सेल्सिअस की घटबढ़ हिम युग और जलप्लावन (दिल्युज़ )की वजह बन जाती है ,इतना नाज़ुक है पृथ्वी का हीट बजट ।
ज़ाहिर है हम विनाश की और बढ़ रहें हैं ।
इसकी वजह २००२ के बाद से ही वायुमंडल में कार्बन की मात्रा का बेहिसाब बढ्जाना है ,इतनी मात्रा इस ग्रीन हाउस गैस की कुदरती तौर पर ज़ज्ब करने की पृथ्वी में भी नहीं है ,इसी से यह संकट मुह्बाये खडा है .पर कोई समझे तब न ।
ग्लोबल कार्बन स्टडी में मशगूल सात देशों के साइंस दानों ने पता लगाया है ,जीव अवशेषी ईंधनों के बड़े पैमाने पर होने वाले सफाए से २००० -२००८ के दरमियान कार्बन उत्सर्जन २९ फीसद बढ़ गया है ।
१९० देशों की अगले माह के सात दिसंबर को होने वाली कोपेनहेगन बैठक दुनिया के सामने आखिरी मौक़ा है ,संगठित कदम उठाने का ताकि जलवायु को नियोजित तरीके से उद्द्योगिक पूर्व के सुरक्षित मानक (स्तर ) के ऊपर लाकर स्तेब्लाईज़ किया जा सके .
यदि इसमे कोताही बरती गई (जैसी की आशंका है ),या फ़िर एक दम से लचर समझौता होता है गरीब अमीर देश अपना वायदा और ज़वाब देही से मुकर जातें हैं ,तापमान मात्र २.५ -३ सेल्सिअस नहीं शती के अंत तक ५-६ सेल्सिअस तक बढ़ जायेंगे ।
वक्त हाथ से निकल रहा है (दी टाइम स्केल्स हेयर आर एक्स्ट्रीमली टाईट फॉर वाट इज नीदिद तू स्तेबिलैज़ दी क्लाइमेट ).,अभी नहीं तो फ़िर कभी नहीं ।
सन्दर्भ सामिग्री :-अर्थ हेदिद फॉर सिक्स सेल्सिअस राइज़ इन टेम्प्रेचर (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर ,१९ ,२००९ ,पृष्ठ २१ )

बुधवार, 18 नवंबर 2009

सिगरेट छुड़ाई के लिए सुइंयाँ

ग्लेक्सो स्मिथ क्लाइन पी एल सी और नबी बायो -फार -मासितिकल्स मिलजुलकर अब एंटी -स्मोकिंग वेक्स्सींस पर काम कर रहें हैं .नबी "निच्वेक्स "नाम से एक वेक्स्सीन तैयार कर रही है .यह वेक्स्सीन हमारे रोग रोधी तंत्र से एंटी -बोदीज़ तैयार करवाएगी जो निकोटिन से आबद्ध हो जायेंगीं .ऐसा होने पर निकोटिन अणु दिमाग तक पहुँच ही नहीं पायेंगे .ऐसे में सुरूर (मौज मस्ती )का एहसास ही नहीं होगा स्मोकर्स को .यही कुंजी है -सिगरेट छुडाने की ।
आजमाइशों से पता चला है ,एंटी -स्मोकिंग सुइयां लगवाने वाले स्वयं सेवियों में से आधे ही दोबारा इस लत की गुलामी कर पातें हैं .आधों को इस लत से छुटकारा मिल जाता है ।
निकोटिन पेच से लेकर बाबिल-गम्स तक तमाम तरह के उपाय इस लत से छुटकारे के लिए आजमाए जा रहें हैं ,कामयाबी सबमे जुदा जुदा है ।
रोक विले मेरिलेंड की दवा कम्पनी "नबी ""निच्वेक्स "एक नैदानिक परिक्षण संपन्न कर लेने के करीब है .दूसरे परिक्षण की तैयारी है ।
आजमाइशों की कामयाबी के बाद ही "रेग्युलेटर्स "से ,विनियामकों से ,सुइयों के आम स्तेमाल की स्वीकृति मिलेगी ।
अमेरिकन लंग असोसिएशन के मुताबिक़ धूम्र पान छोड़ने के एक साल बाद ही ९० फीसद लोग दोबारा इसकी गिरिफ्त में चले आतें हैं ।
यदि उक्त जेब्स, निकोटिन रोधी सुइयां ,काम- याब रहती हैं तब दुनिया भर में यक़ीनन लाखों लोगों को तम्बाखू जनित (स्मोकिंग रिलेटिड )मौत से बचाया जा सकेगा ।
सन्दर्भ सामिग्री :-ऐ वेक्स्सीन तू हेल्प स्मोकर्स किक दी बट (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर १८ ,२००९ ,पृष्ठ २३ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

मिर्गी के बारे में पूछे गए आम सवाल ....

क्या है "मिर्गी "/अपस्मार /एपिलेप्सी ?
यह एक प्रकार का न्युरोलोजिकल दिस -ऑर्डर (तंत्रिका वैज्यानिक विकार )है .स्नायुविक यानी नर्वस सिस्टम से ताल्लुक रखने वाला एक विकार है जिसमे ,मरीज़ को बार बार /अक्सर दौरे पडतें हैं और वह चेतना खो बैठता है २-३ मिनिट तक रहती है सीज़र्स की अवधि .अक्सर इसमे हाथ पैर को फडकन ,जर्किंग ऑफ़ लिम्ब्स .मुह से झाग निकलना देखा जा सकता है ,मरीज़ पर ख़ुद का नियंत्रण नहीं रहता ,इस स्तिथि में उसकी जीभ अपने ही दांतों के बीच आ सकती है ।
ज़रूरी नहीं है ,मरीज़ हमेशा चेतना ही खोये .कई मर्तबा मरीज़ एक दम से निष्क्रिय हो शून्य में ताकने लगता है (ब्लेंक स्टे -आर ,विचार शून्य ,लक्ष्य हीनसपाट चेहरा हो जाता है मरीज़ का ),प्रतिकिर्या हीन होती है यह स्तिथि .गिर भी सकता है मरीज़ इसी स्तिथि में मरीज़ का इस प्रकार से गिरना भी सीज़र्स का ही हिस्सा होता है ।
इस स्तिथि में एंटी सीज़र्स दवाएं दी जातीं हैं ।
दौरा /सीज़र्स /न्यूरोन डिस्चार्ज वास्तव में हैं क्या ?सीज़र्स का मतलब है -दिमाग की रिदम का टूटना .इस स्तिथि में सारे शरीर में तनाव /मरोड़ /झटके लगने के साथ मरीज़ बेहोश भी हो सकता है .मरीज़ सिर्फ़ घूरता भी रह सकता है -जैसे किसी चीज़ को घूर रहा हो.(स्टे -अरिंग स्पेल कहतें हैं इसी को )।
मरीज़ के शरीरका कोई भी एक हिस्सा भी असर ग्रस्त होते देखा जाता है मसलन चेहरे का ऐंठना (फेशियल त्विचिंग )./केवल एक हाथ या एक पैर में झटके लगना ,फडकन होना ,एंठना किसी भी हिस्से का देखा जा सकता है ।
क्या एपिलेप्सी खानदानी बीमारी है /परिवारों में चलने वाला रोग है ?
केवल एक फीसद मामले खानदानी विरासत होतें हैं (हेरिदित्री होतें हैं )।
क्या एपिलेप्सी एक ला- इलाज़ ठीक ना होने वाला रोग है ?
अन्य रोगों की तरह इसका भी बाकायदा इलाज़ है .अलबत्ता कोई शोर्ट कट नहीं है .दौरा मुक्त अवधि में भी दवा चलती है ,३ -४ साल तक या और भी ज्यादा अवधि के लिए ।
क्या एपिलेप्सी के मरीज़ शादी ब्याह रचा सकतें हैं .संतान होतीं हैं इनकी ?
बाकायदा शादी करके आम जीवन बिता सकतें हैं .फेमिली भी चिकित्सक की निगरानी में प्लान कर सकतें हैं ,शुरू से ही प्री नेटल केयर लेते हुए कामयाबी से स्वस्थ संतान पैदा कर सकतें हैं .ज़रूरत एक स्वस्थ नज़रिए जीवन दृष्टि की है .बीमारी को लेकर पुराने तमाम मिथक टूट चुकें हैं .एक आम फ़हम रोग है जिसके साथ सामान्य जीवन जिया जा सकता है .पीपुल विद एपिलेप्सी कोई अजूबा नहीं हैं .८००,००० लोग है ऐसे हिन्दुस्तान में .

नेशनल एपिलेप्सी डे ....

अपस्मार या मिर्गी के दौरे के तकरीबन ८०,००० मरीज हैं हमारे देश में जिनके साथ सरकारी /गैर -सरकारी /पारिवारिक /सामाजिक हर स्तर पर भेदभाव होता है .एक सामाजिक अभिशाप इस बीमारी के साथ चस्पां हो गया है .यद्यपि किसी को एपिलेप्टिक कहना सामाजिक तौर पर वांछित नहीं हैं ,गाली देने के समान है ।
अब इस इलाज योग्य बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को कहा जाता है -"पर्सन विद एपिलेप्सी "ना की एपिलेप्टिक ।
बिना किसी नस्ल भेद के किसी भी उम्र के व्यक्ति को यह असर ग्रस्त बना सकती है .भौगोलिक हदबंदी का इस बीमारी ने सदैव ही अतिक्रमण किया है ।
गत ४००० सालों से आदमी (औरत मर्द )इस बीमारी से वाकिफ है ,आधुनिक चिकित्सा के पास इसका इलाज़ और रोग निदान दोनों है ,लेकिन असल बात सामाजिक रवैये की है .जबकि ७५ -८० फीसद मामलों में रोग इलाज़ करवाने पर ,इलाज़ पर टिके रहने पर काबू में रहता है ।
वोमेन लिविंग विद एपिलेप्सी कैन प्लान देयर प्रेग्नेंसीज़ हालाकि फिमेल हारमोंस इस्ट्रोजन और प्रोजेस्तिरों- न कुछ दिमागी कोशिकाओं को प्रभावित करतें हैं जहाँ से न्युरोंस डिस्चार्ज होतें हैं ,सीज़र्स यहीं से शुरू होतें हैं .लेकिन अपनी चिकित्सक की देखभाल में शुरू से ही सावधानी बरतने ,प्रीनेटल केयर लेते रहने पर ९० फीसद मामलों में स्वस्थ और एक दम से सामंन्य बच्चे पैदा होतें हैं ।
अब नै नै दवाएं उन युवतियों को भी मयस्सर है जो युवा वस्था की देहलीज़ पर पाँव रखते ही एपिलेप्सी के साथ रह रहीं हैं .इन दवाओं के पार्श्व प्रभाव (दुश प्रभाव या साइड इफेक्ट्स )अंडाशय ,वेट गें- न और बाल झड़ने का जहाँ तक सवाल है ,कमतर हैं .(वैसे भी दवा का फायदा कितना ज्यादा है यह देखा जाता है,अवांछित प्रभाव नहीं जो कुछ ना कुछ तो होता ही है )।
क्या है ट्रीटमेंट गेप ?
इस समय तमाम तरह के लोग हैं गावों शहरों ,महा नगरों ,विश्व -नगरियों में जो एपिलेप्सी के साथ बिना इलाज़ के रह रहें हैं .कारण ,सोसल स्टिग्मा ही तो है .यही है ट्रीटमेंट गेप .,जो भारत में ५० -७८ फीसद तक दिखलाई देता है .बेंगलुरु में यह गेप ५० फीसद दर्ज किया गया जबकि ग्रामीण भारत में (कंट्री साइड में )यह बढ़कर ७८ फीसद तक पहुँच जाता है ।
पूर्ण साक्षर केरल भी इस पिछड़ेपन से मुक्त नहीं है ,यहाँ ३८ फीसद दर्ज किया गया है ट्रीटमेंट गेप ।
एक हिचक है लोगों में सामाजिक अस्वीकृति की वजह से जो रोग निदान को तरजीह ही नहीं देते .यहीं पर सूचना और शिक्षा का एहम रोल है .हर नागरिक का फ़र्ज़ है वह लोगों को बतलाये रोग निदान और इलाज़ के बेहतर साधन ,दवाएं इलाज़ के लिए आज भारत में उपलब्ध हैं ।
विकल्प के बतौर शल्य चिकित्सा भी उपलब्ध है ।
रोग निदान के बाद नए मामलों में एक तिहाई मरीजों में आदर्श चिकित्सा के बावजूद "फिट्स "/सीज़र्स /न्यूरोन डिस्चार्ज ज़ारी रहतें हैं .ऐसे में दौरों की प्रभावी रोक थाम के लिए दवा की बड़ी खुराकें देना बेहद खर्ची का वायस (वजह )बन जाता है ., मरीज़ का बौद्धिक ,मनोविज्यानिक ,सामाजिक और शैक्षिक जीवन इसकी चपेट में आता है ।
शल्य चिकित्सा इन्हीं लोगों के लियें हैं जिसके तहत "दी एपिलेप्तो -जेनिक फोकस इज लोके -लाइज्द एंड रिसेक्तिद "यानी दिमाग का वह चुनिन्दा हिस्सा जहाँ से "न्यूरोन डिस्चार्ज होता है "जो सीज़र्स /दौरे के लिए उत्तरदायी है काट कर फेंक दिया जाता है ।
इस सब का फैसला हाई -क्वालिटी एम् आर आई ,वीडियो ई ई जी तेलिमीत्री टेस्ट्स आदि के बाद लिया जाता है ,चंद अस्पतालों में ही यह सुविधा उपलब्ध है .आरंभिक स्तिथि में उन मरीजों के मामले में इसे आजमाया जाता है जिनके दौरे बस एक दो साल से ही रोग निदान और आदर्श चिकित्सा के बावजूद बे काबू हुए हैं .दुनिया भर में इस तकनीक का पूरा दोहन होना बाकी है .

अवसाद रोधी दवा वियाग्रा का काम करेगी ......

यूनिवर्सिटी ऑफ़ नोर्थ केरोलिना के जॉन थोर्प के मुताबिक़ अब एक अवसाद रोधी दवा "फ्लिबंसेरिन" उन महिलाओं के लिए वियाग्रा के समान असरकारी हो सकती है जिनकी सेक्स में बहुत कम दिलचस्पी रहती है (दिमिनिश्द लिबिडो वाली /फ्रिजिड वोमेन ).तीन अलग अलग अध्धय्यनों से पुष्ट हुआ है -एंटी -डिप्रेसेंट के रूप में दी जाने वाले यह दवा दिमागी तौर पर (दिमागी रसायनों को असर ग्रस्त कर )यौन संबंधों में ख़ास रूचि ना लेने वाली महिलाओं को यौन संबंधों के लिए उकसाएगी .यह एक प्रकार से अफ्रोदिज़ियाक का काम करेगी ,यौन मुखातिब बनाएगी ठंडी महिलाओं को बतर्ज़ वियाग्रा ।
सन्दर्भ सामिग्री :-एंटी -डिप्रेसेंट "वियाग्रा "फॉर वोमेन (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर १७ ,२००९ ,पृष्ठ २३ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

कामोत्तेज़क डिज़र्ट .....

कूलाम्बियाई पाक शाश्त्र के माहिरों ने वियाग्रा को पेशन फ्रूट के साथ मिलाकर एक ऐसा डिज़र्ट (भोजन के आख़िर में स्वीट डिशके बतौर लिया जाने वाला मिष्ठान ,एंड कोर्स आफ्टर ऐ मील )तैयार किया है जो काम उत्तेजना को बढाता है ।
(दी एडिबल फ्रूट ऑफ़ ऐ पेशन फ्लावर स्पेशिअली ऐ ग्रंदिला इज पेशन फ्रूट .पेशन फ्लोवर इज ऐ क्लाइम्बिंग वाइन विद लार्ज फ्लोवार्स एंड एडिबिल फ्रूट नेटिव तू सेन्ट्रल साउथ अमेरिका )
पाक कला के ये छात्र बावर्ची के बतौर बुजुर्गों के लिए विशेष तौर पर तैयारएक पोषण योजना (न्यूट्रीशन प्रोजेक्ट )पर काम कर रहे थे बतौर .प्रधान बावर्ची जूँ सेबास्तियन गोमेज़ तभी उनके दिमाग में यह विचार कौंधा .,जिसका खुलासा इन्होनें एक एक अंतर्राष्ट्रीय पाकविद्या मेले में किया ।
बिना बताये इसका सेवन एक ग्रुप (समूह )के तमाम लोगों को करवाया गया .इन्हें यह नहीं बतलाया गया था यह भोजन के बाद लिया जाने वाला एंड कोर्स (डिज़र्ट /मिष्ठान्न /स्वीट डिश )वियाग्रा युक्त भी है ।
जबकि एक दूसरे समूह के तमाम लोगों को बाकायदा बता दिया गया था ,यह डिज़र्ट वियाग्रा के साथ पेशन फ्रूट मिलाकर तैयार किया गया है .दोनों को अतरिक्त काम उत्तेजना का एहसास हुआ .बोथ एक्सपीरियेंस्ड हाई -टिंड लिबिडो .गोमेज़ खाने के चीज़ों का चयन कर तैयार कर खाने की कला का अध्धय्यन नेशनल कोलिज में कर रहें हैं .इस कला को कहा जाता है -क्युलिनरी आर्ट्स ।
सन्दर्भ -सामिग्री :-विअग्रा लेस्द पेशन फ्रूट फॉर डिज़र्ट (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर १६ ,२००९ ,पृष्ठ १५ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

सोमवार, 16 नवंबर 2009

जलवायु बदलाव बदल सकता है खानपान ......

विज्ञानियों ने अनुमान लगाया है ,२०२० तक इटली के दुरुम (गेहूं की एक किस्म जिससे पास्ता तैयार किया जाता है )की उपज प्रति एकड़ उत्पाद के हिसाब से घटनी शुरू हो जायेगी और शती के अंत तक इसका पूरी तरह सफाया हो जाएगा .यानी इटली का raashtriy नाश्ता "पास्ता "खाने की mez से गायब हो जाएगा ।
बढ़ता तापमान और ghattaa वर्षा पात इसकी वजह banegaa .इस kshetr me शुरू हो चुके जलवायु बदलाव ऐसी ही ittalaa दे रहें हैं ।
yurop की जीवन shaili khaan paan को असर grast banaayegaa जलवायु parivartan ।
yuoropiy yunian dvaaraa संपन्न एक ५ saalaa adhdhayyan (five year ensembles प्रोजेक्ट )जिसमे २० deshon को shareek किया gayaa है .,से ऐसे ही nateeze niklen हैं ।
britaani मौसम vibhaag के विज्ञानियों के netritv me ukt adhdhayyan संपन्न huaa है जिसके nateeze इस saptaah होने वाली baithak के samksh रखे jaayengen ।
supar computers की मिली jhuli ताकत का इस baithak me zaayzaa liyaa जाएगा vibhinn kshetron me होने वाले .,जलवायु बदलाव का satik अनुमान lagaanaa आज सम्भव huaa है to इसके peechhe कंप्यूटर का भी बड़ा हाथ rahaa है .अब बढ़ते ताप मान और बरसात का badaltaa mizaaz बहुत कुछ कह bataa detaa है .food production इससे सीधे सीधे असर grast hotaa है ।
एक pramukh अनाज utpaadak होने की वजह से ही इटली को इस adhdhayyan के लिए जो dhur दक्षिण me padtaa है shareek किया gayaa है ।बढ़ते तापमान का इटली पर विशेष असर padegaa ।
poland me paidaa होने वाले aalu और गेहूं का भी ukt adhdhayyan me zaayzaa liyaa जाएगा .baithak me इसकी sameekshaa की जायेगी ।
pahle batlaayaa gayaa thaa .carbondioxide का बढ़ता str अनाज utpaadan को badhaayegaa .पौधे jaisaa हम jaanten हैं carbondioxide का stemaal protins और carbohydrates बनाने me karten हैं .इनके बने रहने और vriddhi के लिए भी carbon dioxide ज़रूरी है ।
लेकिन जलवायु parivartan इस badhvaar पर भारी padegaa ।
France जलवायु parivartan के चलते अपनी कई behtreen vaains (wines )और "champagne "नही बना sakegaa ।
spain fruits और vegetables के pramukh utpaadak के रूप me badhat नहीं बनाए रख sakegaa ।
बढ़ते तापमान spain के एक बड़े hisse को registaan me बदल dengen .
सन्दर्भ samigri :-मामा mia ,Warning may rob Italy ऑफ़ Pasta (times ऑफ़ इंडिया ,november १६ ,२००९ ,prishth १५ )
प्रस्तुति :-virendra शर्मा (veerubhaai )

हलक बता देता है सेहत का हाल ....

मेरिलेंडयूनिवर्सिटी डेंटल स्कूल के प्रोफेसर ली मो के मुताबिक हमारा हलक हमारी सेहत का पूरा हाल बयान कर देता है ।
गालों का अस्तर लँग कैंसर पूर्व की स्तिथि की सूचना दे सकता है क्योंकि गालों के अंदरूनी ऊतक की जांच फेफडों की रोगात्मक स्तिथि का भी आइना होती है .खासकर तम्बाखू जनित रोगों की ख़बर गालों की अंदरूनी सतह के ऊतक जांच करने पर दे सकतें हैं .इस तरह से लंग कैंसर को समय रहते बे काबू होने से रोका जा सकेगा ।
ली मो के मुताबिक हलक के अन्तः स्तर (ओरल एपिठेलिंयम् )के अणुओं में उसी तरह के तम्बाखू जनित बदलाव देखने को मिलेंगे जैसे की लंग में paidaa हो jaaten हैं ।
इस prakar हमारा मुख स्वास्थ्य हमारी आम सेहत का आइना समझा जा सकता है .

रविवार, 15 नवंबर 2009

क्या है आइवरी ?

मुहावरा प्रसिद्ध है "हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और अर्थात नेता ".सवाल उठता है यह जो क्रीमी वाईट कलर का हाथी दांत है ,सख्त पदार्थ है ,देन्तिन(देंतीं- न )है जो गजराज के अलावा समुद्री घोडे (वालरस ),दरियाई घोडे यानी स्तनपाई जीव hippo -potamus , दरियाई घोडे के अलावा sperm whale और killer whale के daanton को majbooti प्रदान kartaa है .,इसकी sanrachnaa ,bunaavat क्या है ? chemistry क्या है ?
आपको batlaaden गजराज को tusker भी कहा jaataa है -tusk की वजह से ही ।
aaivari tusk और teeth दोनों me ही एक inner pulpcavity होती है ।
जो dentine को घेरे रहती है ।
(दी sensitive tissue at दी सेंटर ऑफ़ ऐ tooth consisting ऑफ़ nerves and blood vessels ,that iz दी inside ऑफ़ ऐ tooth इस called pulp .दी हार्ड part ऑफ़ ऐ tooth that lies underneath दी enamel and surrounds दी pulp and root canals iz called दी dentine ।)
यह एक connective tissues का milaajhulaa रूप है .jinme khanij(minerals ) और collagen maujood है .kaarbanik तत्व collagen aaivari की badhvaar और toot foot की marammat (durusti ,repair )kartaa है .इसमे रक्त nalikaayen (blood vessels ) नहीं हैं .collagen porous होने की वजह से namee (moisture ) को zazb भी कर लेता है ,namee chhodtaa भी है ।
collagen एक aisaa reshedaar protin है जो हमारी chamdi (त्वचा ,skin )asthi (bone )yaa हड्डी tathaa anny aabandhi ootakon (conective tissues )me maujood rahtaa है ।).
लेकिन हाथी दांत को हाथी दांत banaataa है ,majbooti (strength and rigidity )प्रदान kartaa है khanij युक्त ootak (mineralised tissues .).

इकोतेरियन कौन ?

आज आपके हर काम की समीक्षा और नाम करण का आधार पर्यावरण बन रहा है .अगर आप साइकिल चलातें हैं तो आपका वाहन इको -फ्रेंडली है .इसी प्रकार से क्या आप खाद्य संरक्षी से परहेज़ रखते हुए एक ऐसी खुराख ले रहें हैं जो पर्यावरण की कमसे कम नुकसानी का सबब बन रही है .क्या आप ओरगेनिक फ़ूड ले रहें हैं ,जिसे तैयार करने में किसी प्रकार के रासायनिक खाद ,कीट नाशी आदी की ज़रूरत नहीं पड़ी है ?जिसे डिब्बा बंद करने के लिए पर्यावरण नाशी पोलिथीन तिन फोइल आदि अन्य सामिग्री की भी ज़रूरत नहीं आई है .स्थानीय साधनों से जुटाया गया है आप का भोजन इको फ्रेंडली माहौल में ?इसका कार्बन फ़ुट प्रिंट ना मालूम सा ही रहा है तब आप शाका हारी हैं या मासा - हारी इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता .बशर्ते शामिश भोजी रहते आप सिर्फ़ पोल्ट्री और पोर्क पर गुज़ारा कर सकतें हैं .तब आप इकोतेरियन कहलायेंगे .इको तेरियन इको फ्रेंडली भोजन करता है .

कुदरत का नायाब नज़ारा "विंटर लाइन "क्या है ?

सूरज जब शिवालिक की पहाडियों के पीछे रात्री विश्राम के लिए चला जाता है तब दूँ घाटी से कुदरत का एक बेहतरीन नज़ारा (मौसमी अचम्भा )मसूरी की शाम को सैलानियों के लिए अक्टूबर मध्य से दिसम्बर मध्य तक बेहद खूबसूरत बना देता है ।
शाम की यही रंगत स्वित्ज़र्लेंद से भी देखी जा सकती है .यहाँ भी पश्चिमी क्षितिज रंगों की नुमाइश से सराबोर हो उठता है -पीला ,गहरा लाल ,नारंगी ,चमकीला लाल गुलाबी जामुनी रंग एक साथ मुखरित होतें हैं।
उत्तरांचल की हिल क्वीन मसूरी का माल रोडपर गश्त करता सैलानी शाम होते ही कुदरत के इस अप्रतिम अनचीन्हें नजारे को देखने के लिए सड़कों के किनारे पडी बेंचों पर आ बैठता है ।
हवा की दो विभिन्न तापमान वाली परतों को एक काल्पनिक किरमिजी गहरे लाल रंग की रेखा यहाँ अलगाए रहती है ।अस्ताचल को जाता -
सूरज एक जाली (नकली )क्षितिज के पीछे छिप जाता है ,तब पैदा होती है एक भूरी चमकीली लाल गुलाबी जामुनी रंगों की पट्टी ।
साफ़ तौर पर एक श्याम पट्टी (ब्लेक लाइन ) तब वायुमंडल की भूरी गंदली परत को अस्ताचल को जाते सूरज की गोल्डन ब्राउन और गहरे लाल (क्रिमसन रेड )परत से अलग करती दिखलाई देने लगती है .यही है -विंटर लाइन ।
ऐसा लगता है प्रकृति के किसी दिव्य चितेरे ने कूची - ब्रश संभाल लिया है ।
कुछ विज्ञानी इसे प्रकाश के अपवर्तन (रिफ्रेक्सन )की घटना बतलातें हैं ,जब प्रकाश एक ख़ास कोण पर दो अलग अलग वर्त्नांक वाली परतों में प्रवेश करने पड़ मूड जाता है ,विचलित हो जाता है रिजू मार्ग से तब पर्बतीय क्षेत्रों से पश्चिमी क्षितिज की साफ़ घाटी की तरफ़ निहारने पर कुदरत का यह मौसमी नज़ारा दिखलाई देता है ।
अलबत्ता शाम के इस आश्चर्य लोक की सृष्टि स्नो -फाल के दौरान क्यों नहीं होती और केवल सर्दी के दो महीनों में ही क्यों होती है यह अभी अनुमेय ही है ।
संभवतय सर्दी के मौसम में पैदा होने वाला तापमान कंट्रास्ट अस्ताचल को जाते सूरज की अप्वार्त्नीय रश्मियों (रिफ्रेक्तिंग रेज़ )के साथ किर्या -प्रतिक्रया (इन्तारेक्त )करता है ।
(दी क्लोजेस्ट मितीयोरोलोजिकल एक्सप्लेनेशन फॉर दिस इवनिंग वंडर वित्नेस्द फ्रॉम मसूरी एंड स्वित्ज़र्लेंद इस देत दी कंट्रास्ट इन दी टेम्प्रेचर ड्यूरिंग विंटर इन इन्तेरेक्सं- न विद दी रिफ्रेक्तिंग रेज़ ऑफ़ दी सेटिंग सन में बी दी रीज़न फॉर इट्स अक्रेंस ।)

शनिवार, 14 नवंबर 2009

प्रयोगशाला में तैयार किया गया शिश्न गर्भाधान में कामयाब

वेक फॉरेस्ट यूनिवर्सिटी बेप्टिस्ट मेडिकल सेंटर के इंस्टिट्यूट ऑफ़ रिजेंरेतिव मेडीसिन के विज्ञानी अन्थोनी अटाला के नेत्रित्व में शोधकर्ताओंने क्रत्रिम शिश्न तैयार करने में कामयाबी हासिल की है ,इतना ही नहीं इसका प्रत्यारोप प्राप्त हो जाने के बाद खरगोश गर्भाधान करने में कामयाब रहें हैं .अटाला जो पेशे से एक पीडियाट्रिक यूरोलोजिस्ट हैं अक्सर आपको मूत्राशय के जन्मजात रोगों के अलावा ऐसे अनेक मामले देखने पडतें हैं जहाँ बच्चा देफिशियेंत जेनितेलिया ( आधे अधूरे बाहरी प्रजनन अंग )लिए पैदा होता है .अटाला इस शोध को उन लोगों के लिए उम्मीद की नै किरण मानतें हैं जो या तो किसी दुर्घटना में अपने प्रजनन अंग चोट ग्रस्त कर लेतें हैं या फ़िर जन्म जात ही बाहरी प्रजनन अंग आधे अधूरे लिए ही इस दुनिया में आ जातें हैं ,या फ़िर पीनाइल कैंसर (शिश्न कैंसर ),ट्रोमेटिक पीनाइल इंजरी ,ओरगेनिक इरेक्टाइल डिसफंक्शन (लिंगोथ्थान अभाव )का शिकार होतें हैं ।
कुल प्रक्रिया मात्र ६ हफ्ते लेती है जिसके तहत शिश्न प्रत्यारोप बालक के शरीर केअन्य अंगों की तरह ही शरीर के साथ ही बढ़ने लगता है .शरीर का हिस्सा बनजाता है .अटाला आश्वस्त हैं ,देर सवेर इसी विधि से शरीर के अन्य पेचीला अंग -प्रत्यारोप भी तैयार करके रोर्पे जा सकेंगें ।
पूर्व में अटाला की यही टीम क्लितोरल तिस्यु (क्लितोरल इस दी मोस्ट सेंसिटिव पार्ट ऑफ़ फिमेल जेनितेलिया ,अकिन तू ऐ मेल पेनिस )भी तैयार कर चुकी है ,कृत्रिम मूत्राशय भी तैयार कर चुकी है मरीजों की अपनी ही कोशिकाओं से ।
लेकिन खरगोशों पर संपन्न प्रयोग कामयाबी की दिशा में एक बड़ा कदम हैं ।
अटाला माहिर हैं रिजेंरेतिव मेडिसन के जिसके तहत शरीर से ही कोशिकाएं लेकर टूट फ़ुट ,शरीर के क्षतिग्रस्त अंगों को ठीक कर लिया जाता है ।
संदर्भित प्रयोग के तहत अटाला की टीम ने पहले तो एक खरगोश से शिश्न लेकर एक स्केफोल्ड (ढांचा )तैयार किया इसमे से तमाम जीवित कोशिकाओं को निकाल दिया गया ,सिर्फ़ उपास्थियाँ (कार्तिलेजिज़ )छोड़ दी गईं ।
अब एक और खरगोश के शिश्न (पेनिस )से एक छोटा सा ऊतक का टुकडा लिया गया और कोशिकाओं को एक लेब डिश में संवर्द्धित किया गया (ग्रो किया गया )।
१८ साल लगें हैं इस काम को अंजाम तक ले जाने में .इस दरमियान एक एकदम सटीक ग्रोथ्फेक्टर ,कोशिकाओं के संवर्धन बढ़ वार के लिए सही सूप (माध्यम )की खोज जारी रही है ।
सुनिचित किया गया दो सेल टाइप्स की उपलब्धि को (स्मूथ सेल्स एंड इंडो ठेलिअल सेल्स यानी अन्तः स्तरीय कोशिकाएं ).रक्त कोशिकाओं का अस्तर ऐसी ही कोशिकाएं तैयार करतीं हैं .स्मूथ मसल सेल्स ओरगन (पेनिस )को स्पोंजी बनाने में कारगर साबित हुए तथा अन्तः स्तरीय सेल्स रक्त नालियां तैयार करवाने में मदद गार रहे .आखिर शिश्न कोलिंगोथ्थान के लिए पूरा रक्त चाहिए .दी सेल्स वर सीदिद ओं न तू दी स्केफोल्ड ,बस ६ सप्ताह बाद पेनिस तैयार हो गए और रोप दिए गए उन खरगोशों को जिनके शिश्न काट कर अलग कर दिए गए थे .जैसे ही इन्हें पिंजरे में मुक्त छोडा गया यह ना सिर्फ़ सम्भोग रत हुए कामयाब रहे गर्भाधान करवाने में अपने मेट को .चार खर्गोश्नियों ने बाकायदा गर्भ धारण कर लिया .जिन्हें सिर्फ़ स्केफोल्ड रोपा गया था वह निष्क्रिय रहे .स्केफोल्ड का नोटिस भी नहीं लिया इन्होनें .एस्क्स्युअल एक्टिविटी का ऐसे में सवाल ही कहाँ था .

वजन भी कम हो सकता है स्तन पान करवाने से ...

६०० केलोरीज़ ले उड़ता माँ से नवजात स्तन पान के ज़रिये ,इसलिये वजन कम करना है तो बच्चे को स्तनपान करवाइए तब तक जब तक दूध बनता है ।
दादी नानियाँ कहतीं थीं -शिशु को सलीके से आंचल में ढक ढांप छिपाकर स्तन पान करवाओ ताकि किसी की नजर ना लगे .एक स्वस्थ माँ को एक घडा भर दूध उतरता है .कालिदास ने नवप्रसूता को पीनास्तनी कहा है ।
दीर्घावधि अध्धय्यनों से सिद्ध हुआ है -स्तनपान वजन कम करने का बेहतरीन साधन है महज मिथ नहीं है ।
स्तन पान के दौरान माँ की मेटाबोलिक रेट्स (रेत ऑफ़ बर्निंग केलोरीज़ )बढ़ जाती है ।
हर हफ्ता एक पोंड तक वजन कम हो जाता है स्तनपान करवाने वाली माँ का ।
नार्थ केरोलिना विश्व -विद्य्यालय,ग्रीन्सबोरो में पोषण विज्ञान की प्रोफेसर चेरय्ल लव लेडी उक्त तथ्य की पुष्टि करतीं हैं ।
मजेदार बात यह है ये औरतें ना तो किसी प्रकार की डा -इटिंग ही करतीं हैं उल्टे रोजमर्रा की खुराख से ५०० केलोरीज़ फालतू ही लेतीं हैं ताकि पर्याप्त मात्रा में दूध बनता रहे ।
अब सवाल पैदा होता है -क्या स्तनपान वेट लोस को पंख लगा देता है ,तेज़ी से घटता है वजन स्तनपान करवाने से ?
कोई सीधा सपाट ज़वाब नहीं है इस सवाल का .कई बातें हैं जो तय करतीं हैं वजन की घटबढ़ को ।
गतवर्ष ३६००० डेनमार्क की महिलाओं पर एक अध्धय्यन इसी बात की पड़ताल के लिए किया गया .जिस महिला ने अधिक अवधि तक (०-२ वर्ष के दरमियान )उत्तर्प्रसव(पोस्ट पर -तं म ) और कम अन्तराल से हर रोज़ स्तन पान करवाया ६ महीने के बाद उनके वजन में ज्यादा कमी दर्ज की गई .इस के अलावा इस बात को भी मद्दे नजर रखा गया ,क्या गर्भावस्था से पूर्व महिला का वजन आदर्श कद काठी के अनुरूप निर्धारित भार से अधिक था ,गर्भ धारण की तैयारी के दरमियान उसका वजन कितना था ?ये तमाम घटक मिलकर ही अन्तिम निष्कर्ष तक ले जातें हैं ,किसको कितना फायदा हुआ ,किसका कितना वजन कम हुआ ।
कोर्नेल में प्रोफेसर कथ्लीन रासमुस्सेन भी उक्त तथ्य की पुष्टि करतीं हैं ।
सन्दर्भ सामिग्री :-ब्रेस्त्फीदिंग हेल्प्स बर्न केलोरीज़ (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,नवम्बर १३ ,२००९ .पृष्ठ १७ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )