"गोइंग फार आई वी ऍफ़ ?ब्रेस फार ट्विन्स विद स्पेसल रिस्क्स "यह शीर्षक है टाइम्स आफ इंडिया ,अक्टूबर १२ ,२००९ अंक में प्रकाशित एक एहम ख़बर का ।
बेशक इन -वीट्रो -फर्तिलाई जेशन ने लोगों को संतान मुहैया कराने में एक एहम रोल अता किया है -लेकिन इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है .अक्सर ऐसे प्रीमीज़ पैदा हुए हैं जो मेंटल रितार्देशन के अलावा अनेक तरह की लर्निंग दिस -ओर्दार्स साथ लाये हैं .ले देकर इनके नन्ने फेफडों में आक्सीजन पहुंचा कर ,ट्यूब्स -नारिश्मेंट दिलाकर विशेष इन्क्युबेतार्स के ज़रिये बचातो लिया जाता है -लेकिन इनके माँ -बाप एक तरफ़ भारी ट्रोमा झेल ते नन्ने शरीरों को देखने का कष्ट उठातें हैं दूसरी तरफ भारी खर्ची ।
अस्पताल से ये बच्चे घर तो सही सलामत आ जातें हैं लेकिन इनके माँ -बाप को लाखों डालर चुकाने पड़ जातें हैं ।
फर्टिलिटी इंडस्ट्री पर किए गए एक अन्वेषण से पता चला है -हजारों शिशु बेशक परख नली गर्भाधान से हर साल पैदा हो जातें हैं,इन्हें भारी खर्ची के बाद बचा भी लिया जाता है लेकिन संतान के इच्छुक माँ -बाप को नहीं मालूम अक्सर इस प्रोद्योगिकी से पैदा हमशक्ल शिशु कई जन्म जात विसंगतियां ,मानसिक और शारीरिक लेकर पैदा होतें हैं -कारण होता है -गर्भाधान की आम अवधि (४० सप्ताह )से बहुत पहले इस दुनिया में आ जाना .६० फीसद ऐसे ही बच्चे पैदा होतें है (३६ हफ्ते से पहले या बहुत पहले ).इन्हें ही प्रीमीज़ कहा जाता है ।
यहीं से अर्ली डेथ (असामयिक मृत्यु )आँख और नाक सम्बन्धी समस्यायें ,सीखने की क्षमता का अभाव (डिस्लेक्सिया )और मानसिक -रितार्देशन (मानसिक मन्दं -अन )पैदा होता है ।
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
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