खुला खेल फर्रुखाबादी (लम्बी कविता :डॉ .वागीश मेहता )
पिछले दिनों मंत्री मंडल की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने कहा ,आरोपों से बिल्कुंल न डरो ,बस
अपना
काम करते रहो .अब इस काम करने से क्या अभिप्राय है यह तो लोग समझतें हैं .बस इसी व्यंग्य विडंबन के
साथ डॉ .वागीश जी ने यह कविता लिखी है .
वीरुभाई .
आरोपों से क्या डरना है ,अपना अपना काम करो .
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
अपना दल और अपना बल है ,पैंसठ सालों का अनुभव है ,
हमने तो बस सीखा इतना ,भोजन भूखे का संबल है .
इत्मीनान से भोजन करके ,खूब मौज आराम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(2)
पेड़ों पर तो फल लगता है ,बन्दर का भी मन करता है ,
उछल कूदकर नीचे ऊपर ,कितना उसका दम लगता है ,
कलम दस्तखत ,धरती पैसा ,सब कुछ अपने नाम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(3)
बुरे दिनों का है यह शोशा ,कुछ लोगों ने मिलकर कोसा ,
कागज़ तो सब ठीक ठाक हैं ,पर वैरी का नहीं भरोसा ,
स्याही छोड़कर खून से लिखो ,ऐसा रोशन नाम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(4)
सरकारें तो सरक रहीं हैं ,भीतर से पर दरक रहीं हैं ,
कोयला 'टूजी ',खेल -एशिया ,घोटालों से धड़क रहीं ,
रिश्ते नाते जीजू -स्साले ,दूर से इन्हें प्रणाम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(5)
मौन रखूँ मैं कितना आखिर ,कौवा आ बैठा है सिर पर ,
अच्छे तो ये शकुन नहीं हैं ,बुद्धू -बक्सा कितना शातिर ,
बाबे -बूबे 'स्वामी' मिलकर कहतें हैं ,प्रस्थान करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,कुछ इसका सम्मान करो .
प्रस्तुती :वीरुभाई (कैंटन ,मिशिगन )
पिछले दिनों मंत्री मंडल की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने कहा ,आरोपों से बिल्कुंल न डरो ,बस
अपना
काम करते रहो .अब इस काम करने से क्या अभिप्राय है यह तो लोग समझतें हैं .बस इसी व्यंग्य विडंबन के
साथ डॉ .वागीश जी ने यह कविता लिखी है .
वीरुभाई .
आरोपों से क्या डरना है ,अपना अपना काम करो .
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
अपना दल और अपना बल है ,पैंसठ सालों का अनुभव है ,
हमने तो बस सीखा इतना ,भोजन भूखे का संबल है .
इत्मीनान से भोजन करके ,खूब मौज आराम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(2)
पेड़ों पर तो फल लगता है ,बन्दर का भी मन करता है ,
उछल कूदकर नीचे ऊपर ,कितना उसका दम लगता है ,
कलम दस्तखत ,धरती पैसा ,सब कुछ अपने नाम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(3)
बुरे दिनों का है यह शोशा ,कुछ लोगों ने मिलकर कोसा ,
कागज़ तो सब ठीक ठाक हैं ,पर वैरी का नहीं भरोसा ,
स्याही छोड़कर खून से लिखो ,ऐसा रोशन नाम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(4)
सरकारें तो सरक रहीं हैं ,भीतर से पर दरक रहीं हैं ,
कोयला 'टूजी ',खेल -एशिया ,घोटालों से धड़क रहीं ,
रिश्ते नाते जीजू -स्साले ,दूर से इन्हें प्रणाम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
(5)
मौन रखूँ मैं कितना आखिर ,कौवा आ बैठा है सिर पर ,
अच्छे तो ये शकुन नहीं हैं ,बुद्धू -बक्सा कितना शातिर ,
बाबे -बूबे 'स्वामी' मिलकर कहतें हैं ,प्रस्थान करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,कुछ इसका सम्मान करो .
प्रस्तुती :वीरुभाई (कैंटन ,मिशिगन )
13 टिप्पणियां:
अत्यंत प्रभावशाली रचना हम तक पहुँचाने के लिए वीरेंद्र सर आपको अनेक-2 धन्यवाद।
कवि का वाक्प्रहार
ये कलम है
या तलवार।
बेहद धारदार व्यंग्य गीत !
खुला खेल खेला किये, वाह फरुक्खाबाद |
देश अपाहिज झेलता, नाजायज औलाद |
नाजायज औलाद, निकाला काला मुँह कर |
पर कानून विदेश, वजारत करता रविकर |
मान रहा सलमान, काम अपना कर प्यारे |
मनमोहनी सलाह, लुटेरे चौकस सारे ||
वाह क्या धार है
खुला खेल फर्रुखाबादी तो ठीक है फर्रुखाबादी सलमान खुर्शीद का क्या करे जिनके घोटाले के बाद प्रोमोशन भी हो गया.
वागीश जी कि कविता बहुत सुंदर है और आजके माहौल के लिये सटीक है.
आज तो देश में हर तरफ़ खुला खेल फ़्र्रुखाबादी ही चल रहा है।
वाह!
आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 05-11-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1054 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
अपना दल और अपना बल है ,पैंसठ सालों का अनुभव है
बेहद धारदार व्यंग्य गीत
अच्छी खरी-खरी सुनाई हैं !
डॉ वागीश जी कविता व तंज बेहद लाजवाब और बेजोड़ हैं।उनकी कविता साँझा करने के लिए आपका कोटि कोटि धन्यवाद :)
आरोपों से क्या डरना है ,अपना अपना काम करो .
वाह ... बहुत ही बढिया।
sundar aur aakramk prastuti आरोपों से क्या डरना है ,अपना अपना काम करो .
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
अपना दल और अपना बल है ,पैंसठ सालों का अनुभव है ,
हमने तो बस सीखा इतना ,भोजन भूखे का संबल है .
इत्मीनान से भोजन करके ,खूब मौज आराम करो ,
खुला खेल फर्रुखाबादी ,इसका भी सम्मान करो .
देश खोखला कर दिया, लूट लिया आराम।
फर्रूखाबादी हुए, फोकट में बदनाम।।
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