जैसा चेहरा वैसा क़ानून
इस देश में बाला केशव ठाकरे साहब के लिए और कानून था .अब वो चले गएँ हैं ,उनकी संततियों के लिए
कुछ और रहेगा ,गडकरी के लिए कानून कुछ और वाड्रा क़ानून और तथा शाहीन जैसी आम खातून के लिए
कुछ और है .अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अपने एक सम्पादकीय में लिखा -भारत में सीमित अर्थों में
ही प्रजातंत्र है ?
राजनेताओं को संसद में एक दूसरे को अप वचन बोलने की खुली छूट है ,लेकिन अभिव्यक्ति की
आज़ादी के मायने आम आदमी के लिए कुछ और हैं .वह सिर्फ गैर -विवादास्पद ब्यान ही दे सकता है जो
चित्त को सभी के शांत प्रशांत करता हो बस और कुछ कहने की छूट उसे हासिल नहीं है .
अखबार आगे लिखता है :पाकिस्तान
के कुछ तालिबान नियंत्रित हिस्सों में लड़कियों को कुछ बोलने पर गोली मार दी जाती है हिन्दुस्तान में
जेल में डा ल दिया जाता है .
अखबार की इस राय से हम सहमत नहीं है कमसे कम पाक अपनी विचार धारा में स्पस्ट है 14 वीं शती
का क़ानून उसे
चलाना है तो चलाना है खुलकर उसकी कमसे कम नीति तो स्पस्ट है .यहाँ तो कोई नीति ही नहीं है मुंह
देखके क़ानून लागू किया जाता है .
मुंबई की शाहीन और उसकी सखी रीना के मुद्दे पे अब चंद पुलिस वालों को निलंबित कर दिया जाएगा
उन्हें मोहरा बना दिया जाएगा लेकिन उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा जिन्होनें उनपे यह धत कर्म करने
का दवाब बनाया .कहेगा तो वोट मारे जायेंगे .
भाई साहब यह तो एक फिलर था देखा गया ठाकरे के बाद अब शिव सेना क्या बची है ?
ये सब उस कठपुतली सरकार की वजह से ही हो रहा है जो दिल्ली में बैठी है .वहां की पुलिस को रात के अँधेरे
में संत रामदेव को धर लेने का हक़ हासिल है लेकिन यह सब कुछ करवाने वाली शीला दीक्षित जी
आदरणीय चोगा पहने घूम रहीं हैं .
अंधेर नगरी चौपट राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
भाई साहब हमारे पास एक अखबार नहीं है अगर हो तो हम इन नेताओं की कुर्सी के नीचे आग लगा दें ताकि
ये उसपे बैठ ही न सकें .अखबारों के पास सूक्ष्म विश्लेषण आ जाए तो वह विचारक न बन जाएँ .मोटी
स्थूल बात ही करते हैं अखबार
नेताओं का सारा चिलत्तर इस मुहावरे में मुखर हो जाता है :
"भुस में आग लगाए , ज़मालो दूर खड़ी "
डरे हुए क़ानून की फांसी
मर्सी पिटीशन किसके लिए होता है ?
यह प्रावधान उसके लिए रखा गया था जो आवेश में आके कोई गुनाह ज़रूर कर गया लेकिन अपराधी
मनोवृत्ति का व्यक्ति नहीं है और अब पछता रहा है अन्दर से . यह प्रावधान केवल देश के नागरिकों के
लिए है . राष्ट्रपति देश के नागरिकों का होता है .आतंकवादियों या षड्यंत्रकारियों का नहीं .
अफज़ल गुरु एक नियोजित षड्यंत्रकारी रहा है जिसने नियोजित तरीके से संसद पर हमला करने का षड्यंत्र
रचा था .उसे राष्ट्रपति की दयायाचिका पे गत छ :सालों से क्यों रखा गया है ?
जिस देश में क़ानून वोट बैंक देखके बनाया और लागू किया जाता है उसकी सरकार की भी कोई इज्ज़त नहीं
करता है .आपको याद होगा शाहबानो का हक़ भी इसी वोट बैंक को देख के छीना गया था .कितनी भद्द पिटी
थी तब तत्कालीन सरकार की .तब यही लोग थे ,आज भी यही हैं .
आज लश्करे तैयबा के आदमखोर इसी लिए सरकार को धमका रहे हैं .
पूछा जा सकता है इतना डर डर के छिपछिपाकर कसाब को फांसी क्यों दी गई ?
क़ानून का पालन करना धर्म निष्ठ होता है आध्यात्मिक उत्कर्ष है न कि छिपके किया जाने वाला अपराध
.आज केंद्र की सरकार की कोई इसीलिए इज्ज़त ही नहीं करता सरकार क़ानून का पालन करना और
करवाना भूल गई है .जो क़ानून का फंदा डालके विकलांगों का फंड खा रहा था उसे सरकार ने विदेश मंत्री
बना दिया पहले यही कोयले से मुंह वाला आदमी क़ानून मंत्री था . .
इस देश में बाला केशव ठाकरे साहब के लिए और कानून था .अब वो चले गएँ हैं ,उनकी संततियों के लिए
कुछ और रहेगा ,गडकरी के लिए कानून कुछ और वाड्रा क़ानून और तथा शाहीन जैसी आम खातून के लिए
कुछ और है .अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अपने एक सम्पादकीय में लिखा -भारत में सीमित अर्थों में
ही प्रजातंत्र है ?
राजनेताओं को संसद में एक दूसरे को अप वचन बोलने की खुली छूट है ,लेकिन अभिव्यक्ति की
आज़ादी के मायने आम आदमी के लिए कुछ और हैं .वह सिर्फ गैर -विवादास्पद ब्यान ही दे सकता है जो
चित्त को सभी के शांत प्रशांत करता हो बस और कुछ कहने की छूट उसे हासिल नहीं है .
अखबार आगे लिखता है :पाकिस्तान
के कुछ तालिबान नियंत्रित हिस्सों में लड़कियों को कुछ बोलने पर गोली मार दी जाती है हिन्दुस्तान में
जेल में डा ल दिया जाता है .
अखबार की इस राय से हम सहमत नहीं है कमसे कम पाक अपनी विचार धारा में स्पस्ट है 14 वीं शती
का क़ानून उसे
चलाना है तो चलाना है खुलकर उसकी कमसे कम नीति तो स्पस्ट है .यहाँ तो कोई नीति ही नहीं है मुंह
देखके क़ानून लागू किया जाता है .
मुंबई की शाहीन और उसकी सखी रीना के मुद्दे पे अब चंद पुलिस वालों को निलंबित कर दिया जाएगा
उन्हें मोहरा बना दिया जाएगा लेकिन उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा जिन्होनें उनपे यह धत कर्म करने
का दवाब बनाया .कहेगा तो वोट मारे जायेंगे .
भाई साहब यह तो एक फिलर था देखा गया ठाकरे के बाद अब शिव सेना क्या बची है ?
ये सब उस कठपुतली सरकार की वजह से ही हो रहा है जो दिल्ली में बैठी है .वहां की पुलिस को रात के अँधेरे
में संत रामदेव को धर लेने का हक़ हासिल है लेकिन यह सब कुछ करवाने वाली शीला दीक्षित जी
आदरणीय चोगा पहने घूम रहीं हैं .
अंधेर नगरी चौपट राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
भाई साहब हमारे पास एक अखबार नहीं है अगर हो तो हम इन नेताओं की कुर्सी के नीचे आग लगा दें ताकि
ये उसपे बैठ ही न सकें .अखबारों के पास सूक्ष्म विश्लेषण आ जाए तो वह विचारक न बन जाएँ .मोटी
स्थूल बात ही करते हैं अखबार
नेताओं का सारा चिलत्तर इस मुहावरे में मुखर हो जाता है :
"भुस में आग लगाए , ज़मालो दूर खड़ी "
डरे हुए क़ानून की फांसी
मर्सी पिटीशन किसके लिए होता है ?
यह प्रावधान उसके लिए रखा गया था जो आवेश में आके कोई गुनाह ज़रूर कर गया लेकिन अपराधी
मनोवृत्ति का व्यक्ति नहीं है और अब पछता रहा है अन्दर से . यह प्रावधान केवल देश के नागरिकों के
लिए है . राष्ट्रपति देश के नागरिकों का होता है .आतंकवादियों या षड्यंत्रकारियों का नहीं .
अफज़ल गुरु एक नियोजित षड्यंत्रकारी रहा है जिसने नियोजित तरीके से संसद पर हमला करने का षड्यंत्र
रचा था .उसे राष्ट्रपति की दयायाचिका पे गत छ :सालों से क्यों रखा गया है ?
जिस देश में क़ानून वोट बैंक देखके बनाया और लागू किया जाता है उसकी सरकार की भी कोई इज्ज़त नहीं
करता है .आपको याद होगा शाहबानो का हक़ भी इसी वोट बैंक को देख के छीना गया था .कितनी भद्द पिटी
थी तब तत्कालीन सरकार की .तब यही लोग थे ,आज भी यही हैं .
आज लश्करे तैयबा के आदमखोर इसी लिए सरकार को धमका रहे हैं .
पूछा जा सकता है इतना डर डर के छिपछिपाकर कसाब को फांसी क्यों दी गई ?
क़ानून का पालन करना धर्म निष्ठ होता है आध्यात्मिक उत्कर्ष है न कि छिपके किया जाने वाला अपराध
.आज केंद्र की सरकार की कोई इसीलिए इज्ज़त ही नहीं करता सरकार क़ानून का पालन करना और
करवाना भूल गई है .जो क़ानून का फंदा डालके विकलांगों का फंड खा रहा था उसे सरकार ने विदेश मंत्री
बना दिया पहले यही कोयले से मुंह वाला आदमी क़ानून मंत्री था . .
2 टिप्पणियां:
सटीक और सार्थक प्रस्तुति!
सबके लिये एक बना रहे तभी कानून है..
एक टिप्पणी भेजें