किस कांग्रेस पर गर्व करते हैं मनीष तिवारी ?
1885 में एक अँगरेज़ ए .ओ .ह्युम ने इंडियन नेशनल कोंग्रेस की स्थापना की .पहला अधिवेशन मुंबई में
हुआ जिसके अध्यक्ष थे उमेश चन्द्र बनर्जी .1908 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का संविधान तैयार किया
गया .इसमें यह साफ़ लिखा गया कोंग्रेस का स्वीकार्य ध्येय संविधानिक उपायों से एक ऐसी शासन प्रणाली
की स्थापना करना है जो ब्रितानी साम्राज्य के प्रशासनिक सदस्यों के अनुरूप हो .इसे कोंग्रेस की घोषित
नीति के रूप में स्वीकार कर लिया गया .इसका पहला काम यदि भारत की शासित होने वाली जनता और
शासन के बीच कोई गलतफहमी होती है तो उसे दूर कर शासन को सुचारू रूप से चलाये रखने में सहायक
सिद्ध होना बतलाया गया .
1919 तक साल दर साल अधिवेशन होते रहे .इस साल पंडित मोती लाल नेहरु की अध्यक्षता में अमृतसर
अधिवेशन हुआ .अब तक कोंग्रेस की नीति तो नहीं बदली थी हाँ कुछ गर्म दल के लोग इसमें आगये थे
.कोंग्रेस को इन क्रान्तिवीरों के 1857 की क्रान्ति को आगे बढाने के संकल्प की वजह से अपना स्वर बदलना
पड़ा .
1920 में कोंग्रेस को शान्ति पूर्ण उपायों से स्वराज्य की प्राप्ति अपना ध्येय इन क्रांतिवीरों के दवाब के चलते
बनाना पड़ा .यह अधिवेशन नागपुर में हुआ .
इस प्रकार अपनी स्थापना के बाद (1885 -1920 ) के पैतीस वर्षों तक कोंग्रेस का ध्येय गोरों के शासन को
निर्बाध बनाए रखना भर था .इस दरमियान इसमें स्वाधीनता की कोई भी लपट पैदा नहीं हुई थी .भारत को
आज़ाद कराने की कोई गंध पैदा नहीं हुई थी .
1920 के बाद महाराष्ट्र ,पंजाब ,बंगाल आदि के क्रांतिवीरों की पहल से कोंग्रेस को यह बोध हुआ भारत को
अपनी स्वाधीनता के लिए काम करना चाहिए .
कह सकतें हैं स्थापना के बाद के पहले साढ़े तीन दशक कांग्रेस के लिए अपनी गुलामी को बनाए रखने के
दशक थे .1857 में
जो गोरों पर मार पड़ी थी उस सबको दरकिनार करके अंग्रेजों की सहायता करने के लिए इस संस्था का जन्म
हुआ था .
1920 के बाद से ही लाल -बाल -पाल(लाला लाजपत राय ,बाल गंधाधर तिलक,विपिन चंद पाल )
,अरविन्द ,खुदीराम बोस ,नेताजी सुभास बोस आदि का दवाब बनता चला गया . इन्हीं के नेत्रित्व में युवा
इस संगठन से जुड़ते चले गए ,कूका आन्दोलन के तहत नामधारियों ने बलिदान दिया .
1929 में लाहौर अधिवेशन की सदारत पंडित जवाहरलाल नेहरु ने की .क्रांतिवीरों के त्याग और इनके प्रति
सम्मान और सही दृष्टि रखने वाले कांग्रेसियों का भी अन्दर से दवाब बना .इस दरमियान 1857 की क्रान्ति
बारहा उमड़ पड़ती थी .गर्म दल का दवाब बरपा था .ये भगत सिंह चन्द्र , आज़ाद ,बिस्मिल जैसों की टोली
थी जो सर पे कफन बांधे घूमती थी .
1946 में नौ सेना का विद्रोह हुआ ,एक तरफ सरदार पटेल का आन्दोलन दूसरी तरफ गांधीजी का सत्याग्रह
इस सारी उथल पुथल में अंग्रेजों ने भी जब थोड़ाथोड़ा स्वीकारना शुरू कर दिया कि अब आगे दाल नहीं
गलेगी तब जाके कोंग्रेस की हिम्मत हुई कि वह कोंग्रेस के संविधान में संशोधन करे .
गांधीजी तो इस संस्था के चवन्निया सदस्य भी नहीं थे (सदस्यता शुल्क तब चवन्नी ही थी )उन्हीं की आड़
लेकर कोंग्रेस भी अब खड़ी हो गई .पहला और दूसरा महा युद्ध हो चुका था अंग्रेजों के भी पैर उखड़ने लगे थे .
कोंग्रेस को किसानों के आन्दोलन का श्रेय लेने का हक़ नहीं जाता जिन्होनें नील की खेती को लेकर
आन्दोलन किया था कुर्बानियां दी थीं .
यदि किसी एक बात का श्रेय कोंग्रेस को जाता है तो वह आज़ादी की लड़ाई का नहीं है ,भारत के विभाजन
का है .नेहरु जैसे लोग इतना ही नहीं कश्मीर के मुद्दे को भी संयुक्त राष्ट्र संघ तक घसीट के ले गए .देश का
नहीं तो कमसे कम मनीश तिवारी जी कोंग्रेस का ही इतिहास पढ़ लें
कोंग्रेस ने एक ऐसी शातिर पार्टी होने का काम किया है जो दूल्हे के ऊपर से होने वाली वार फेर के सारे पैसे
चादर फैलाके बटोर लेती है .
आज़ादी के बाद की कोंग्रेस को शासन का सहारा लेके आपातकाल लगाने के घृणित शोषणकारी कार्य का
भी श्रेय दिया जा सकता है
.127 साल पुरानी कोंग्रेस अपनी गुलाम मानसिकता और चापलूसी की आदत पे गर्व कर सकती है पहले
अंग्रेजों की करती थी अब वोट बैंक के रहनुमाओं की करती है .
कोंग्रेस की सूरत कैसी है आज इसे चार पंक्तियों में डॉ .वागीश मेहता ने यूं व्यक्त किया है :
साल सवा सौ बूढी औरत ,घर बैठे कई भरतार ,
कुर्सी चस्का बहुत पुराना ,लंठ शंठ सब साझीदार .
और नीयत कैसी है कोंग्रेस की उसकी एक बानगी और देखिये :
ख़ास वोट पर गिद्ध निगाहें ,घाव देश पर लगे हज़ार ,
मुंबई ,जयपुर ,पूना दिल्ली ,शहर स्टेशन सब लाचार ,
शीशे में सेकुलर सरकार .
सुशील शर्मा जैसे लोग जो पत्नी को तंदूरी मुर्ग बनाके निकल गए कोंग्रेस की असली वृत्ति के प्रतीक हैं .
मंत्री पद जैसे जिम्मेदार व्यवहार को छोड़कर ढोलक बजाने जैसी बातें करना यह कोंग्रेसी व्यवहार है
.मनीष तिवारी आज यही कर रहें हैं .किस बात पे गर्व करतें हैं मनीष तिवारी क्या अपनी बदजुबानी पर ?
आपने ही भारत के शौर्य के प्रतीक सेनापति को कहा था -उनकी औकात क्या है वह सरकारी नौकर हैं .
ये वही कोंग्रेस है जिसने क्रान्तिवीरों के प्रति कभी आदर नहीं रखा कुर्सी के लिए ही सदैव समझौते किए
शहीदों की फांसी के खिलाफ दिखावे को भी अपील नहीं की .
देखिये उदगार मित्रवर रविकर जी के इस दोगली कांग्रेस के इतिहास पर :
रविकर
मिले ब्रितानी को ख़ुशी, ह्युम ढालते ढाल |
सत्तावन की मार से, जो बिगड़े थे हाल |
जो बिगड़े थे हाल, गाल नहिं आज बजाओ |
छद्म गान्धि-सन्तान,चाट तलुवे सहलाओ |
भला करे भगवान्, गर्म दल की नहिं सानी |
अधिवेशन अमृतसर, हुवे सीधे ब्रितानी |
अपने मुंह मिट्ठू बने, मंत्री मियां मनीष ।
करवा कत्ले-आम वह, आम आदमी पीस ।
आम आदमी पीस, झेलते आम-शूल हैं ।
कर ले जलसे-आम, किन्तु यह आम-भूल है ।
निश्चित तेरी मौत, काठियावाड़ी घोडा -
मरेगा इक लात, नजर नहीं आय भगोड़ा ।।
सत्तावन में थे मरे, जब अंग्रेज हजार ।
कान्ग्रेस का जन्म हो, धर धरती हथियार ।
धर धरती हथियार, सँभाले तिलक बोस थे ।
लाल बाल अरविन्द, पाल से भरे जोश थे ।
बाँट बाँट के काट, किये टुकड़े हैं बावन ।
खड़ी होय अब खाट, पुन:आया सत्तावन ।।
करते कत्ले आम हो, पड़ें आम पर लात ।
आम आदमी की करो, किस मुंह से तुम बात ।
किस मुंह से तुम बात, राष्ट्रवादी इक साइड ।
बहू-राष्ट्र की पकड़, विदेशी जिसके गाइड ।
आम आदमी आज, तड़प करके हैं मरते ।
नेताओं का शौक, बड़े से गड्ढे करते ।।