कबीर दास ने जीवन की निस्सारता को लेकर बहुत कुछ लिखा है -"हाड जरे ज्यों लाकडी ,केश जरें ज्यों घास /सब जग जरता देख कर ,भाया कबीर उदास
और यह भी -"मन फूला फूला फिरे जगत में झूठा नाता रे /जब तक जीवे माता रोवे ,बहन रोये दस मासा रे /तेरह दिन तक तिरिया रोवे ,फेर करे घर वासा रे ।
फ़िर भी हम लोग बे -शाख्ता जीवन के कर्म -कांडी स्वरूप में फंसे मिटटी से प्यार करतें रहतें हैं ।
अन्तिम संस्कार के लिए हिन्दू -रीति रिवाज के तहत ९ मन लकड़ी चाहिए (जलावन लकड़ी ),देशी घी और हव्वय सामिग्री चाहिए ।
भारत में ईंधन के बतौर जलावन लकड़ी और उपलों (काओ -दंग केक ) का प्रयोग ,शव -दाहन की परम्परा गत प्रक्रिया ख़ुद हमारी पृथ्वी के लिए एक ख़तरा बनती जा रही है .बेशक हमारा कार्बन -फुट प्रिंट अपेक्षया कमतर है ,लेकिन ग्रीन हाउस गैसें हम लगातार वायु -मंडल में झोंक रहें हैं .एक और पृथ्वी चाहिए इसे झेलने के लिए ।
किसी भी नै पहल का हम विरोध करने को तत्पर रहतें हैं ।चाहें फ़िरवह हमारी सलामती से ही ताल्लुक रखती हो ।
ऐसी ही एक पर्यावरण -सम्मत पहल "तापेयी "में की गई है .शवदाह ग्रह के प्रांगन में ही एक "फ्यूनरल पार्लर "बनाया गया है ,जो शव दहन - में प्रयुक्त ऊर्जा का स्तेमाल (ऋ -साईं कलिंग )पुनर -प्रयोजन एक एअर -कंडीशनिंग प्लांट को चलाने के अलावा कोफी ब्र्युइंग के लिए किया जा रहा है ।
एक करोड़ की लागत से तैयार हुआ है यह -"फ्यूनरल पार्लर "।
लेकिन लोग नाक -भौं सीकोड रहें हैं ।
"यदि आपको बतलाया जाए वेट -इंग लांज में कोफी पीने के दरमियान -यह जो कोफी आप पी रहें हैं यह आपकी आंटी या फ़िर माशुका की" बोदी -हीत "शव दहन से निकली गरमी से तैयार की गई है ,आप भावुक होकर इसका विरोध करेंगे ।
ज़रा यह भी तो सोचिये -ग्रीन हाउस गैसों (जी .एच .जी ।) को लगातार अपने परिमंडल में झोंक कर कहीं हम ख़ुद अपने शव -दहन का इंतजाम तो नहीं कर रहें हैं .फ़िर यह -ऊर्जा के पुनर -प्रयोजन ,संरक्षण का दौर है .फ़िर यह तो मात्र ऊर्जा का रूपांतरण ही है -आत्मन जब काया को छोड़ गई ,फ़िर मिटटी से मोह कैसा .काया बदल ही तो है -मृत्यु .आत्मा एक और काया में प्रवेश कर जाती है .आपकी मोह माया उसे सस्पेंदिद एनिमेशन में रख सकती है .अपना दृष्टि कोण बदलिए ।
सन्दर्भ सामिग्री :-बाडी हीत
रविवार, 11 अक्टूबर 2009
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