गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

बातें जिन पर हम गौर नहीं करतें हैं .....

शादी -ब्याह तय करते वक्त हम लोग बहुत सी बातें छिपा जातें हैं .जो बतलाई जातीं हैं उन पर ठीक से गौर नहीं करते .जो बतलाया जाता है वह ज्यादा महत्वपूर्ण होता है ।
मसलन एक लड़की के पिता ने बतलाया ,हमने देखा भी शादी से पूर्व वहां सम्बन्ध जोड़ने से पहले ,वह घर में बने मंदिर में ही सोतें हैं ,जमीन पर गद्दा बिछाकर .हमने देखा एक रिचुअल की तरह गली के दो कुत्तों को नियमित रोटी दूध में चूर कर अपने हाथ से परोस्तें हैं .यह साहिब पेशे से हाकिम है ।
एक लड़की को मैं नज़दीक से जानता हूँ ,कई लड़कों को भी जो अब मर्द बन चुकें हैं ,ग्रिस्थ बन चले हैं ,हफ्ते में एक से ज्यादा व्रत रखतें हैं ,कई बार इनके मनोरोग विद ने एंटी -साईं कोटिक ड्रग्स के साथ ऐसा ना करने की सलाह दी (जी हाँ यह लोग दवा लेतें हैं मनोरोगों की )।
बच्चा ब्रेकफास्ट किये बिना भले ही स्कूल चला जाए ,पति दफ्तर, इनका पूजा पाठ ,इबादत चलती रहनी हैं ,अल्ला ताला के नाराज़ होने का ख़तरा जो है .बिला नागा यह लोग हनुमान मंदिर जायेंगे ,साईं के दरबार में गुरूवार को हाजिरी देंगें ,बंदरों को चने खिलायेंगें ।
भाई साहिब यह सब एब्नोर्मल है .नोर्मल बात नहीं है .कोई भी अति एक ही और बराबर इशारा करती है -एब्नोर्मल बिहेविअर मनोरोगों का बेकग्राउंड .

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

कुछ बातें मेरी आपकी सबकी ....

सुबह माई ने चाय सर्व करने के बाद कहा -अंकल एक बोतल पापा के लिए चाहिए नए साल की (हमारे घर में रमकी होतीं हैं ,पाई जातीं हैं ,काम के बदले रम )मैंने बोतल दे तो दी सोचने लगा "उसके पापा तो डाय-बेटिक हैं ,कुछ दिन पहले इंसुलिन पर थे .,पूछा हफ्तें में कितने दिन पीतें हैं ,अंग्रेजी या देसी "-रोज़ पव्वा ,देसी या अंग्रेजी ?",पता नहीं .,"-ज़वाब मिला ।
मैंने कहा डाय -बेटीज़ तो पूरे परिवार की बीमारीहै ,पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है .आँख भी जा सकती है (डायबेटिक रेतिनोपेथी से )किडनी भी .पाँव भी कट सकता है इस उम्र में ज़ख्म होने पर भरता कहाँ है ।
मैं और आप ,हम तमाम लोग दो तरह के लोगों को जानते हैं .एक वह जो नियम -निष्ठा से दवाई खातें हैं ।
पापा कहा करते थे -एन्तेरिक फीवर (टाय- फाइड)हो जाने पर दवा एक दिन फ़ालतू खानी चाहिए ,कहीं ज़रासीम (पेथोजंस )अपना कुनबा फिर से ना बसा लें ,बीमारी जड़ से जाए ।
एक और किस्म के लोग हैं हमारे गिर्द ,डॉक्टर के पास जाने का शौक है ,दवा पूरी कभी नहीं खाते .कहतें हैं दवा गर्म होतीं हैं .नजर कमज़ोर पड़ने पर चस्मा नहीं बनवाते ,बनवा लेतें हैं तो लगातें नहीं हैं .लड़की के मामले में कहा जाता है -"शादी नहीं होगी "छिपा जातें हैं ,कोंटेक्ट लेंस लगाए घूमतीं हैं ,लौंडिया ,किसी को पता ना लग जाए ,लड़की चस्मा लगाती है ,बीनाई (नजर कमज़ोर है ),शादी कैसे होगी ?
भाई साहिब -"लड़की तमाशा है ,दिखावे की तीहल है ?"

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

झुर्रीदार चेहरा असली कुसूरवार कौन ?

केस वेस्टर्न रिजर्व स्कूल आफ मेडिसन ,क्लीव्लेंद(ओहायो ) से सम्बद्ध एल्मा बारों और साथियों ने अपने एक हालिया अध्धय्यन से पता लगाया है :धूम्र -पान की आदत और मोटापा और बेहिसाब धूप में बिताएगए पल खानदानी गुणसूत्रों से ज्यादा हमें बुढापे की मांद में ले आतें हैं .हमारे चेहरे की बेहिसाब झुर्रिया इन्हीं आदतों और पर्यावरणी घटकों (धूप में ज्यादा देर तक बने रहना )की सौगातें हैं ।
हमारे खानदानी जींस (जीवन खंड /जीवन इकाइयां )इस रूझान में भागीदार हैं भी या नहीं इसका पता लगाने के लिए अध्धय्यन ६५ जुड़वां जोड़ों पर संपन्न किया गया था ।
ज़ाहिर है जुडवाओं(ट्वीन्स)का माहौल यकसां नहीं था उनकी आदतें और परिवेश जुदा थे .बेशक उनकी खानदानी विरासत सामान थी ,जीवन इकाइयां यकसां थीं ।
पता चला झुर्रियों का सम्बन्ध हमारी जीवन शैली से ज्यादा है ,माहौल और रहनी सहनी आदतों से ज्यादा है ।
बेशक जीवन शैली को सुधार कर ,धूम्र -पान से परहेज़ और मोटापे को टाले रखकर बुढ़ाने को कुछ तो लगाम लगाईं ही जा सकती है .

रविवार, 27 दिसंबर 2009

स्टेम सेल्स (कलम कोशिकाओं )का भंडारण कैसे किया जाता है ?

कन्सेप्शन (गर्भ धारण यानी ओवम और स्पर्मेताज़ोंयाँ के मिलन )के एक पखवारे तक कोशिका विभाजन से प्राप्त कोश्काओं को स्टेम सेल्स कहा जाता है .इन्हें अन दिफ्रेंशियेतिद सेल्स भी कह दिया जाता है यानी विभाजन (फिशन )की इस स्टेज तक तमाम कोशिकाएं यकसां हैं .बेशक यह गुप्त रूप से एक सोफ्ट वेयर एक प्रोग्रेम लियें हें हैं .आगे चलकर फिशन के अगले पड़ाव में यह अपना विशिष्ठ काम अंजाम देतीं हैं .हमारी काया के अलग अलग अंगों का निर्माण यह इसी सोफ्ट वेयर के तहत करतीं हैं .लेकिन अब इन्हें दिफ्रेंशियेतिद सेल्स कहा जाता है .गर्भ नाल के रक्त में इनका डेरा है .यदि इन्हें निम्नतर ज़रूरी तापमान पर संजो कर रख लिया जाए तब आगे चलकर वही व्यक्ति इनका वक्त ज़रुरत के हिसाब से स्तेमाल कर सकता है .इनसे मनमाफिक अंगों को प्रयोगशाला में तैयार किया जा सकता है ,अंग प्रत्या -रोपण में इनका स्तेमाल किया जा सकता है .इन अंगों को हमारे इम्यून -सिस्टम (रोग रोधी प्रति रक्षा तंत्र )से भी सहज स्वीकृति मिल जाती है ।
सवाल है इन्हें कैसे संभाल कर रखा जाए .कैसे किया जाए कलम कोशिकाओं का भंडारण जो ला इलाज़ बने हुए अल्ज़ैमार्स ,पार्किन्सन सिंड्रोम ,दाया -बितीज़ जैसे रोगों से निजात दिलवा सकतीं हैं ।
जिस विधि से इनका भंडारण किया जाता है वह "क्रयो -प्रीज़र्वेशन "प्रशीतिकरण कहलाती है यानी शून्य से १५० सेल्सियसनीचे का तापमान (-१५० सेल्सियस )पर इन्हें नाइट्रोजन -वाष्प से संसिक्त (भिगोकर )रखना पड़ता है प्र्शीतिकरण में .इनकी जीवन क्षमता बनाए रखने के लिए इस निम्नतर तापमान पर इन्हें एक अतिनिम्न ताप संरक्षक "करायो -प्रोटेक्टिव एजेंट "की ज़रुरत पड़ती है .दिक्कत यह है यह संरक्षी टोक्सिक (विषाक्त गुण लिए है )पाया गया है ,ऐसे में इन्हें स्तेमाल से पूर्व विष मुक्त करना ज़रूरी हो जाता है .वरना गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे स्तेमाल -करता को ।
नान -टोक्सिक प्रोटेक्टिव एजेंट्स की तलाश ज़ोरों पर है .उमीद पे दुनिया कायम है ,एक रोज़ यही स्टेम सेल्स स्वास्थ्य विज्यान को नै परवाज़ देंगी .

ग्रीन एनर्जी से हमारा मतलब क्या है ?

हरित ऊर्जा (ग्रीन एनर्जी )की अवधारणा को आत्म सात करने से पहले हमें यह समझना होगा "ऊर्जा स्रोतों के संरक्षण और निरंतरता "से हमारा क्या आशय है ?आज हम जिन ऊर्जा स्रोतों को बरत रहें हैं कहीं हम उनका बिलकुल सफाया ही ना कर दें ,आइन्दा आने वाली पीढ़ियों के लियें भी कुछ सोचें .यानी किसी भी ऊर्जा स्रोत का "होणा" उसकी "इज्नेस "बनी रहे भावी पीढ़ियों के लिए .अलबत्ता ग्रीन एनर्जी एक ब्रोड -स्पेक्ट्रम टर्म है ,व्यापक अर्थ है हरित ऊर्जा का .कायम रहने लायक ऊर्जा स्रोतों को ग्रीन ऊर्जा कहा जा सकता है .पुनर प्रयोज्य ऊर्जा स्रोतों का भी यही अर्थ लगाया समझा जाएगा ."क्लीन डिवेलपमेंट मेकेनिज्म "स्वच्छ ऊर्जा को भी हम ग्रीन एनर्जी कहेंगें .ज़ाहिर है उत्पादन की ऐसी प्रकिर्या हमें चाहिए जो हमारे पर्यावरण को कमसे कम क्षति पहुंचाए .यही कायम रह सकने लायक विकास है .जब हम ही नहीं रहेंगे तो हमारी हवा पानी मिटटी को निरंतर गंधाने वाले ऊर्जा स्रोतों की प्रासंगिकता का मतलब ही क्या रह जाएगा ?इसीलिए "ग्रीन एनर्जी /क्लीन एनर्जी "इस दौर की ज़रूरीयात है ,महज़ लफ्फाजी नहीं है .इस दौर में हम कोयला और जीवाश्म ईंधनों का बला की तेज़ी से सफाया कर रहें हैं ,कल यह स्रोत रहें ना रहें .पर्यावरण तो टूट ही रहा है जलवायु का ढांचा ,मौसम का मिजाज़ डांवां-दोल है .इसे बचाने के लिए "ग्रीन एनर्जी चाहिए ।
जैव ईंधनों (बायो -फ्यूल्स )सौर ऊर्जा पवन ऊर्जा तरंग ऊर्जा ,भू -तापीय एवं ज्वारीय ऊर्जा जिनका स्तेमाल अभी अपनी शैशव अवस्था में हैं ग्रीन एनर्जी के तहत ही आयेंगी ।
ऊर्जा दक्षता में इजाफा करने वाली अभिनव प्रोद्योगिकी को इसी श्रेणी में रखा जाएगा इनमे पहली पीढ़ी की जल और भूतापीय ऊर्जा दूसरी की सौर एवं पवन ऊर्जा तथा तीसरी की "जैव -मात्रा गैसीकरण "यानी बायोमास गैसीफिकेशन सौर -तापीय इसी वर्ग में जगह पाएंगी .

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

टी -रेज़ जल्दी ले सकतीं हैं एक्स रेज़ का स्थान .

कन्त्रा बेन्ड(चोरी - छिपे तस्करी द्वारा लाया गया सामान ),टेरर बोम्म्स ,दवाओं का पता लगाने के लिए अब एक्स रेज़ से ज्यादा ,अन्दर तक बींधने वाली (पेनित्रेतिंग )टी रेज़ का स्तेमाल किया जा सकेगा .टेरा-हर्ट्स फ़्रीक्युएन्सि (ए मिलियन मिलियन हर्ट्स ) का विकिरण जल्दी ही कई जगह" एक्स रे आई "की जगह हथिया लेगा ।
विद्युत् चुम्बकीय विकिरण के एक छोर पर बहुत अधिक लम्बी उतनी ही कमतर आवृत्ति की रेडियो -विकिरण हैं तो दूसरे सिरे पर एक दम से छोटी गामा -किरणें हैं जिनकी आवृत्ति सबसे ज्यादा है .कास्मिक किरणों का यही बहुलांश हैं .इनके नीचे टेरा रेज़ और नीचे एक्स रेज़ ,परा -बेंगनी (अल्ट्रा -वायलट लाईट ),बेंगनी ,नीली हरी पीली नारंगी लाल रोशनियाँ हैं .फिर परा -लाल (अवरक्त ),माइक्रो वेव्स ,रेडियोवेव्स आदि हैं बढती हुई लम्बाई की तरंगों के रूप में कम होती आवृत्ति के रूप में ॥
इन दिनों ए एंड एम् यूनिवर्सिटी में असोशियेत प्रोफ़ेसर के पद पर आसीन अलेक्सी बेल्यानिं जो तेक्साज़ में फिजिक्स और खगोल विज्यान पढ़ा रहें हैं ,टेरा रेज़ का विकाश कर रहें हैं ताकि अब तक कमतर स्तेमाल में ली गईं इन किरणों का चलन खुफिया तंत्र में अधिकाधिक किया जा सके ।
इनका पूरा ध्यान पूरी तवज्जो इन दिनों टी एच जेड (टेरा -हर्ट्स )आवृत्ति की तरंगों अदृश्य विकिरण पर है जो एक्स रेज़ की जगह लेंगी .इन्हें ही आम भाषा में टी -रेज़ कहा जा रहा है .जिनकी भेदन क्षमता अपार है .(जितनी ज्यादा भेदन क्षमता किसी विकिरण की होती है उसी अनुपात में उसकी आयनी करणक्षमता (आयोनाइज़िन्ग पावर )कमतर होती चली जाती है .जांच किये गए सामान को वह उतना ही कमतर नुक्सान पहुंचा पाती है .

एल एस डी और एक्सटेसी की तरह घातक है शराब .

एडिक्शन (लत )के माहिर तथा ओटागो विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर के बतौर कार्य -रत डौग सेल्लमन के मुताबिक़ जहां तक सम्बद्ध खतरों का सवाल है एल्कोहल हेरोइन और जी एच बी की तरह ही खतरनाक है ।
जहां तक भांग (केनाबीज़ ,मारिजुयाना )का सवाल है एल्कोहल जितना ख़तरा इनसे नहीं हैं ।
आधे मामलों में मारपीट (भौतिक और शारीरिक हमला ),यौन हिंसा के पीछे शराब का ही हाथ होता है .एक साल में १००० से ज्यादा लोगों की जान ले लेती है शराब .इनमे आधे से ज्यादा युवा होतें हैं .(भारत के सन्दर्भ में शराब पीकर गाडी चलाने वाले एक साल में कितनी दुर्घटनाएं करतें हैं ,रोड रेज का खुला तमाशा करतें हैं ,इसका जायजा लेना खासा दिलचस्प होगा .यहाँ शराब पीकर गाडी चलाना आम बात है ,फेशनेबिल समझा जाता है ।).
एल एस डी :एन इल्लीगल ड्रग देत मेक्स यु सी थिंग्स एज मोर ब्यूटीफुल स्ट्रेंज फ्राईत्निंग ,आर मेक्स यु सी थिंग्स देत दू नात एग्जिस्ट (हेल्युसिनेशानस )।
ईट इज ए हेल्युसिनोजेनिक ड्रग मेड फ्रॉम लाइसर्जिक एसिड देत वाज़ यूस्ड एक्स्पेरिमेंतली एज ए मेडिसन एंड इज टेकिन एज एन इल्लीगल ड्रग .

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

सूचना की सुनामी क्या दिमाग पर भारी पड़ रही है ?

एक सेकिंड में २.३ और एक दिन में तकरीबन एक लाख अभिनव शब्दों से पाला पड़ता है हमारे दिमाग का .यूँ चौबीस घंटों के दिन में आदमी ले देकर १२ घंटा ही सक्रीय रहता है .इस दरमियान सूचना की बमबारी हर तरफ़ से होती
है फ़िर चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्त्रोनी ,नेट सर्फिंग हो या कंप्यूटर गेम्स .हमारा दिमाग भले ही एक लाख शब्दों का संसाधन संग्रहण ना कर पाये आँख कान शब्द बाण से बच नही सकते ।
एक अनुमान के अनुसार ३४ गीगा बाइट्स के समतुल्य सूचना हमारे दिमाग को झेलनी पड़ती है .एक हफ्ती में इतनी इत्तला से एक लेपटोप का पेट भर जाएगा ।
केलिफोनिया यूनिवर्सिटी ,सां डिएगो के साइंस दानों के अनुसार जहाँ १९८० में शब्दों की यह भरमार ४५०० ट्रिलियन थी वहीं २००८ में यह बढ़कर १०,८४५ ट्रिलियन हो गई ।
(ऐ थाउजंद बिलियन इज ऐ ट्रिलियन )।
सूचना संजाल (टेलिविज़न कंप्यूटर ,प्रिंट मीडिया आदि )से रिसती कुल सूचना का यह दायरा २००८ में ३.६ जेतता -बाइट्स (वन जेड इ टी टी ऐ -बाइट्स =वन बिलियन गीगा बाइट्स )।
साइंस दानो के मुताबिक़ इस सबका असर हमारे सोचने समझने के ढंग को असरग्रस्त कर सकता है .हो सकता है दिमाग की संरचना अन्दर खाने बदल रही हो ?
एक और विचार रोजर बोहन ने रखा है ,"जहाँ तक सोचने समझने का सवाल है ,ध्यान को टिकाये रखने का सवाल है ,हम शायद इस शब्द बमबारी के चलते गहराई से नहीं सोच पा रहें हैं ,विहंगा अवलोकन कर रहें हैं ,सिंघा -अवलोकन नहीं कर पा रहें हैं .थोड़ी देर ही टिकता है कहीं हमारा दिमाग "।
एक मनोरोग विद ईद्वार्ड हल्लोवेल्ल इससे पहले दिमाग को इतनी सूचना संसाधन कभी नहीं करनी पड़ी थी .हमारे सामने एक पूरी पीढ़ी पल्लवित हो रही है ,जिसे कंप्यूटर शकर कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा .सेल फोन और कंप्यूटर इनकी चर्या से चस्पां हैं ।
यह लोग सोचने समझने की ताकत खो रहें हैं ?ऊपरी सतही सूचना तक सिमट के रह गएँ हैं ये तमाम लोग ?
आदमी आदमी से कट गया है .एक और दुनिया उसने बना ली है ,वर्च्युअल -कायनात ?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शरीर किर्या -विज्यान (फिजियोलाजी )के प्रोफ़ेसर जॉन स्तें कहतें हैं "सूचना की यह बमबारी यदि यूँ ही ज़ारी रहती है तब दिमाग इवोल्व भी कर सकता है .मेमोर्री असर ग्रस्त हो सकती है .ऐसा तब भी सोचा गया था जब छपाई खाना (प्रिंटिंग प्रेस )अस्तित्व में आई थी .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था .अब भी नहीं होगा .दिमाग की क्षमता अकूत है .हम कमतर समझ रहें हैं .इसलिए मैं ज़रा भी विचलित नहीं हूँ ।"
कन्तिन्युअस पार्शियल अटेंशन इस दौर की सौगात है क्योंकि लोग बाग़ एक साथ कई काम करतें हैं ,एक तरफ़ नेट सर्फिंग दूसरी तरफ़ बातचीत .आदमी गाड़ी भी चला रहा है तीन फोन काल भी ले रहा है ।
तो क्या दिमाग की ओवर लोडिंग हो रही है ?
"नहीं ऐसा हो ही नहीं सकता इसमे से बहुत सी सूचना ऐसी भी है जिसका संसाधन दिमाग ने पहले भी किया था ."

कैसे काम करतें हैं नाईट विज़न गोगिल्स ?

प्रकाश की तीव्रता को दस हज़ार गुना बढ़ा सकने में सक्षम "नाईट विज़न गोगिल्स "परिवेशीय प्रकाश ,आस पास की रौशनी )दूर दराज़ के सितारों ,पड़ोसी चाँद से आती मद्धिम रोशनियों को एकत्र कर एक ट्यूब में ज़मा कर लेतें हैं .यह कोई साधारण ट्यूब ना होकर विशेष तौर पर इसी काम के लिए तैयार की गई है ।
यह विशेष ट्यूबज़मा प्रकाश के ऊर्जा स्तर (एनेर्जी लेवल ) को बढ़ा कर प्रकाश को एक "फास्फोरस स्क्रीन "पर प्रक्षेपित कर किसी भी पिंड से ग्रहण किए गए प्रकाश का आवर्धित प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करवाने में विधाई भूमिका निभाती है वान्दर्बिल्ट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के साइंस दानों ने एक अभिनव प्रोद्योगिकी का स्तेमाल करके यह नूतन नाईट विज़न गोगिल्स तैयार किए हैं ।
पूर्व में प्रतिरक्षा सेवाओं के अलावा खोजी मिशंस में इनका स्तेमाल किया जाता रहा है .अब एयर एम्बुलेंस सेवाओं में इनका चलन शुरू होने को है .यात्री विमान सेवाओं के पायलट और इतर स्टाफ को यह गोगिल्स मुहैया करवाए जायेंगें ।
वान्दर्बिल्ट लाइफ फला -इट्स के कुल चार बेसिस में से तीन में इनका चलन शुरू किया जा चुका है .चौथा बे -स २०१० तक प्रशिक्षण पूरा कर लेगा ।
बकौल विल्सन मेथ्युज़ (आर एन ,इ एम् टी ,चीफ फला -इट्स नर्स ,लाइफ -फला ईट बे स ,तेंनेस्सी )जहाँ तक इन गोगिल्स की क्षमता का सवाल है ,इन्हें पहन कर दस मील दूरखड़े किसी व्यक्ति के हाथों में सुलगती सिगरेट की रौशनी देखी जा सकती है ,पेड़ पौधों के पत्तों की बनावट का जायजा लिया जा सकता है ।
अब सीन लेंडिंग के दौरान पायलट ,नर्सें इतर एम्बुलेंस सेवा कर्मी टेडी मेढ़ी पहाड़ियों ,पावर लाइंस ऊंचे नीचे दरख्तों को साफ़ साफ़ देख सकेंगें .आपात कालीन लेंडिंग के दरमियान खतरें कम हो सकेंगें .इस प्रकार सिविलियन एवियेशन ऑपरेशंस की सुरक्षा को भी अब पुख्ता किया जा सकेगा .

रविवार, 13 दिसंबर 2009

पोर और ऊंगली के जोड़ों को चटकाने पर चाट चट-चट की आवाज़ क्यों आती है ?

एक गाढा (विस्कस) और पार दर्शी तरल हमारे जोड़ों के लियें एक कुदरती स्नेहक (लुब्रिकेंट )के बतौर कामकरता है .इसे स्निवोयल फ्लूइड कहा जाता है .इसी तरल में जब नाइट्रोजन के बुलबुले फूटतें हैं तब चट चट की ध्वनी पैदा होती है ।
ऐसा तब होता है जब हम देर तक काम करने के बाद ,लिखते रहने के बाद या फ़िर आदतन अपने पोर और ऊंगलियों के जोड़ों को खींचतें हैं .वास्तव में ऐसा करते ही इस तरल द्वारा पैदा दाब (फ्लूइड प्रेशर )कम हो जाता है फलस्वरूप इसमे मौजूद गैसें पूरी तरह घुल जातीं हैं (दिज़ोल्व हो जातीं हैं )।
गैसों के घुलने के कारण और इसके साथ साथ ही एक प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसे केविटेष्ण कहतें हैं ,इसी की वजह से बुलबले बनते हैं .(फीटल की लिंग जांच के वक्त भी केविटेष्ण की वजह से बुलबुलों का बन्ना और फ़िर फटना भ्रूण को नुक्सान पहुंचा सकता है )।
जोड़ों को खींचने से ऊंगली चटकाने मोड़ने की किर्या में तरल दाब (सिनोवियल प्रेशर )के कम हो जाने पर बुलबले फट कर चट चट की ध्वनी करतें हैं ।
आपने देखा होगा एक बार ऊंगली चटकाने के बाद दोबारा कुछ अंतराल के बाद ही ऐसा हो सकता है क्योंकि गैस को दोबारा घुलने में २५ -३० मिनिट का वक्त लग जाता है .

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

स्तन पान कम करता है मधुमेह और हृद रोगों का ख़तरा .

जो माताएं अपने नवजातों को ज्यादा अवधि तक स्तन पान (ब्रेस्ट फीडिंग )करवातीं हैं उनके लिए आगे चलकर प्रोढा-वस्था मेंजीवन शैली मधुमेह(सेकेंडरी दायाबीतीज़ ) और हृद रोगों का ख़तरा कमतर हो जाता है .एक अध्धय्यन के मुताबिक़ जो महिलायें नवजातों को कमसे कम एक माह तक नियमित स्तन पान करवातीं हैं उनमे प्री -दायाबीतीज़ का जोखिम घटकर आधा रह जाता है .आगे चलकर यही पूर्व -मधुमेह रोग की स्तिथि पूरे लक्षणों के संग दायाबीतेज़ और हृद रोगों की वजह बनती है ।
२०सालों तक ज़ारी रहने वाले इस अध्धय्यन के अनुसार जो महिलायें इस दरमियान पैदा होने वाले अपने नौनिहालों को स्तन पान करवाती रहीं हैं उनमे बोतल से दूध पिलाने वाली महिलाओं के बरक्स खून में घुली चर्बी और शक्कर का स्तर स्वास्थाय्कर स्तरों पर दर्ज किया गया है ।
अध्धय्यन में उन ७०४ महिलाओं पर निगरानी रखी गई जो अपने पहले बच्चे का इंतज़ार कर रहीं थीं .बच्चे के जन्म के दो दशक बाद तक इनमे मेटाबोलिक सिंड्रोम डिवलपमेंट (प्री- दायाबीतीज़ कंडीशन) का जायजा लिया जाता रहा ।
इनमे से उन महिलायेंमें जो गर्भावस्था में "जेस्तेश्नल दायाबीतीज़ "की लपेट में आ गई थीं उनमे सेकेंडरी दायाबीतीज़ प्रोढा -वस्था में होने का ख़तरा ४४ -८६ फीसद के बीच घट गया .यह सब कमाल था "स्तन पान "का .केलिफोर्निया के कैसर पेर्मनेंते केयर ओर्गेनाइज़ेशन की गुन्दरसों के अनुसार अलबत्ता यह बतलाना मुस्किल है (अनुमेय ही है ),किस प्रकार स्तन पान इन खतरों को कम करता है ।
लेकिन आप ने यह भी जोड़ा ,इस लाभ की वजह वेट गेंन में अन्तर फिजिकल एक्टिविटी का अन्तर नहीं रहा है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-ब्रेस्ट फीडिंग कट्स दायाबीतीज़ ,हार्ट दिज्जीज़ रिस्क इन मोम्स (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसंबर ७ ,२००९ ,पृष्ठ १३ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कैसे पता लगाया जाता है सितारों का ताप मान ?

आपने निरअभ्र आकाश के नीचे लेटे हुए शुक्ल पक्ष की रातों में अपने बचपन में ज़रूर आकाश को निहारा होगा .हो सकता है सितारे गिनने की कोशिश भी की हो .आपने सितारों को रंग बदलते भी देखा होगा ,कोई सितारा लाल कोई नीला तो हरा भी दिखा होगा .यहाँ रंग सितारे के तापमान का द्योतक होता है ,तापमान की ख़बर देता है .रंग का मतलब सितारे से निकलने वाले प्रकाश की तरंग की लम्बाई भी है ।
लाल रंग का प्रकाश तरंग दीर्घता (वेव लेंग्थ )में सबसे ज्यादा और नीले रंग का न्यूनतम लम्बाई की वेव लिए होता है .इसका मतलब लाल दिखलाई देने वाला सितारा अपेक्षतया कम गर्म तथा नीला सबसे ज्यादा गर्म होता है .गर्मी की मात्रा (तीव्रता )तापमान है .इसका निर्धारण आकलन करने के लिए यूँ हमारे पास "वीन्स-डिस्प्लेसमेंट ला "है .जो हमें बतलाता है :दी प्रोडक्ट ऑफ़ वेव लेंग्थ फॉर मैक्सिमम एमिशन फॉर ऐ स्टार एंड दी फोर्थ पावर ऑफ़ इट्स टेम्रेचार रेमेंस कोंस्तेंत ।इसे यूँ भी कह सकतें हैं :तेम -रिचर ऑफ़ ऐ स्टार इज इन्वार्ज्ली प्रोपोर्शनल तू दी फोर्थ पावर ऑफ़ इट्स एब्सोल्यूट टेम्रेचार .
ताप मान के आकलन के लिए इन दिनों प्रकाश विद्युत् प्रकाश मापी (photoelectric फोटोमीटर )का स्तेमाल किया जाता है ,जिसमे प्रकाश को अलग अलग कई फिल्टरों से गुजारा जाता है ,तथा इनके पार गई प्रकाश की मात्रा का मापन किया जाता है .अब प्रकाश की इस तीव्रता (मात्रा )के आधार पर ही तापमान का आकलन स्तान्दर्द स्केल्स पर किया जाता (यह एक प्रकार का केलिब्रेशन ही होता है ,देत इज कम्पेरिज़न ऑफ़ ऐ अन -नॉन क्वान्तिती विद ऐ नॉन स्तान्दर्द ).

खान पान भी खानदानी और क्षेत्रीय जीवन इकाइयों से ताल्लुक रखता है ?

कहा जाता है हिन्दुस्तान में तीन कोस पर बोली बदल जाती है .हो सकता है बोली के भी खान दानी जींस एक दिन पता चलें बहरहाल इधर साइंस दानों और शोध कर्ताओं ने बतलाया है आप जिस क्षेत्र विशेष में पैदा होतें हैं वहीं का खान पान पसंद आता है आप को और यह महज इत्तेफाक नहीं हैं इस प्रवृत्ति का फैसला आपके जींस में छिपा होता है .आप एक विशेष खान पान के प्रति लगाव लिए ही इस दुनिया में आयें हैं ,इसकी वजह आप की आंचलिकता (क्षेत्रीयता )में छिपीं हैं .क्षेत्रीय खान पान के प्रति मौजूद इस जन्म जात रूझान को "टेस्ट दाय्लेक्त "कहा जा रहा है .इस टेस्ट डाय-लेक्त का सम्बन्ध व्यक्ति या फ़िर समुदाय के जन्मस्थान /अंचल से है जो उसकी आनुवंशिक बनावट में छिपा रहता /अभिव्यक्त होता है .हज़ारों हज़ार लोगों की जांच करने पर उक्त तथ्य की पुष्टि हुई है .यही वजह हर व्यक्ति को अपने अंचल का खाना ज्यादा पसंद आता है .बाकी टेस्ट वह बाद को कल्तिवेत करता है .

कैसे रोक लेता है ओजोन कवच परा -बैंगनी किरणों को ?

वायु मंडल में तकरीबन तीस किलोमीटर ऊपर एक ओजोन की परत बनी रहती है .ओजोन की यह छतरी सौर विकिरण के खतरनाक परा -बैंगनी अंश को ऊपर ही रोक कर हमारे जैव मंडल की हिफाज़त करती है ।
सवाल यह है कैसे बनता है यह ओजोन मंडल ?
सौर विकिरण का परा बैंगनी अंश जब वायुमंडल में मौजूद ओक्सिजन अणुओं से टकराता है तब यह ओक्सिजन अनु वायु से एक और नवजात हाइड्रोजन परमाणु लेकर ओक्सिजन के तीन अणुओं का एक गठबंधन तैयार कर लेता है .ऐसा परा -बैंगनी विकिरण की मौजूदगी में ही हो पाता है जो ओक्सिजन के दो एटमी गठबंधन से तैयार अनु (ओ -२ )को तोड़कर नवजात ओक्सिजन (ओ )पैदा कर देता है .यही नवजात ओक्सिजन अनु (ओ)ओ-२ से गठबंधन कर ओ ३यानि ओजोन तैयार कर लेता है .यहाँ परा -बैंगनी विकिरण एक उत्प्रेरक का काम करता है .इस प्रकार तैयार ओजोन मंडल परा बैंगनी विकिरण को ओजोन मंडल में ही रोक लेता है .

क्या है ट्रिपल वेट हाइड्रोजन यानी ट्रा-इतीयं ?

कुदरत में बहुत ही कम मात्रा (अल्पांश )में पाया जाने वाला एक रेडियो -आइसा -टॉप है ट्रा -इतीयं जिसकी उत्पात्ति तब होती है जब सुदूर अन्तरिक्ष से आने वाली शक्ति शाली कोस्मिक रेज़ (ब्रह्माण्ड ईय किरणे)हमारे वायुमंडल में दाखिल होकर नात्रोजन अणुओं से टकरातीं हैं ।
प्रकृति में यह हाइड्रोजन का १२.३ वर्ष अर्द्ध जीवन अवधि वाला रेडयो -धर्मी समस्थानिक(रेडियो -आसो -टॉप विद ऐ हाल्फ लाइफ ऑफ़ १२.३ ईयर्स )रंग और गंध हीन जल के रूप में ही ट्रेस -अमाउंट (अल्पांश )में दिखलाई देता है यूँ नाभिकीय अश्त्रों के विस्फोट में भी इसका अल्पांश पैदा हो जाता है ।एटमी बिजली घरों में यह एक उप -उत्पाद के रूप में हासिल होता है ।
इसका अल्पांश (बहुत कम अंश )हमारे वायुमंडल में रोजाना पसरा रहता है यहाँ तक की यह हमारी खाद्य -श्रृंखला में भी बहुत कम मात्रा में ही सही शरीक ज़रूर है ।
अक्सर इसकी एक न्यूनतम निर्धारित मात्रा निरापद समझी बतलाई गई है ,क्योंकि इससे निसृत बीटा किरणें (फास्ट मोविंग इलेक्त्रोंस ) की हमारी चमड़ी को बींधने की क्षमता बहुत ही नामालूम सी है ।
आम तौर पर त्रैत्रियम युक्त जल पीने से यह हमारे शरीर तंत्र में दाखिल हो जाता है ।
हाल फिलाल इस रेडियो -धर्मी -आइसोटोप की चर्चा तब हुई जब हमारे भारी पानी चालित एक एटमी बिजली घर के परिसर में (बिजली घर से दूर )रखेएक कूलर के जल में इसके कुछ वायाल्स चुराकर कुछ शरारती तत्वों ने ,मिलाकर जल को संदूषित कर दिया ,तथा इस जल को पीने से कई मुलाजिम बीमार हो गए ।
यह बहुत खतरनाक भी हो सकता था क्योंकि यह सीधे सीधे कोशिकाओं को ही नष्ट कर देता अधिक डोज़ होने पर ।
ऐसे में कैंसर का ख़तरा भी सहज ही पैदा होजाता है ।
यह कुदरत की हम पर इनायत है इसकी कम मात्रा शरीर में दाखिल होने पर पेशाब और बारास्ता पसीना अपशिष्ट के रूप में बाहर आ जाती है ।
एटमी बिजली और एटमी अश्त्रों के अलावा इसका स्तेमाल कई स्वय्यम प्रदीप्त (सेल्फ ल्युमिनिसेंत )दिवैसिस (युक्तियों )में किया जाता है ।
एयर क्राफ्ट डायल हो या किसी इमारत के प्रवेश और निकासी द्वार चिन्ह (एंट्री एंड एक्सिट साइन ऑफ़ ऐ बिल्डिंग ),कई गेज़िज़ और हाथ घड़ी के डायल इसी से प्रदीप्त होतें हैं ।
लाइफ साइंस रिसर्च में भी यह रेडियो -सक्रीय सम -स्थानिक प्रयुक्त होता है .कैगा बिजली घर मिस -हेप को लेकर यह पिछले दिनों ख़बरों में था ,इसी के साथ हमारे एटमी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा का भी सवाल उठा था .

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

माउथ वाश से मुख कैंसर का ख़तरा कितना और कब ?

दांतों के संक्रमण और सूज़न(शौजिश ) से निजात पाने के लिए अक्सर आपका डेंटिस्ट माउथ वाश का स्तेमाल आनुषांगिक चिकित्सा के तौर परतजवीज़ कर देता है .हवाई -जहाज़ की नियमित उडानों में भी यह वाश रूम /रेस्ट रूम्स /तोइलिट्स में दिखलाई दे जाता है .कुछ लोग यूँ ही दुर्गंध नाशी ,मुख प्रक्षालक के बतौर इसका स्तेमाल करने लगतें हैं .गरज यह ,इसका चलन बहु विध हो रहा है ,जबकि इनमे से कई मुख -शोधक एल्कोहल से लदे होतें हैं ,२६ फीसद तक एल्कोहल इनमे देखा गया है ।
कितना निरापद है इनका चलन ?शोध की खिड़की से देखतें हैं .ऑस्ट्रेलियाई साइंस दानों की मानें तो इनमे से बहुलांश में एल्कोहल मौजूद रहता है जो मुख कैंसर (कैंसर ऑफ़ ओरल केविटी )के खतरे को नौ गुना तक बढ़ा सकता है .क्युइंस -लेंड और और मेल -बोर्न विश्व -विद्यालय के अनुसार बेशक डेंटल प्लाक हठाने और जिन्जिवैतिस में राहत देते हैं यह माउथ वाश ,इनका स्तेमाल बिल्कुल कम अवधि और ब्रशिंग एंड डेंटल फ्लासिंग के अलावा गौण रूप में ही किया जाना चाहिए ,दीर्घावधि तक नहीं .बेशक ओरल हाई जीन मुख स्वास्थ्य एक बड़ी चीज़ है ,लेकिन किस कीमत पर हासिल कीजिएगा ?यह भी आपको ही देखना है ।
धूम्र पान सेवी यदि माउथ वाश का नियमित स्तेमाल करतें हैं ,दुर्गन्ध को छिपाने में तब ओरल कैंसर का ख़तरा ९ गुना तथा सुरा पान करने वालों के लिए (पियक्कड़ों )के लिए यदि वह भी इसके गुलाम हैं ,पाँच गुना बढ़ जाता है ।
जो लोग शाराब का सेवन नहीं करते उनके लिए यह ख़तरा पाँच गुने से कमतर ही रहता है ।
जो माउथ वाश २० फीसद से ज्यादा एल्कोहल से लदे होतें हैं उनसे मसूड़ों की बीमारी जिन्जिवा -इतिस के अलावा फ्लेट रेड स्पोट्स (पेतेचिए)मुख अस्तर से कोशिकाओं के छिटक कर अलग हो जाने (दितेच मेंट ऑफ़ दी सेल्स ला -इन -इंग दी माउथ )का जोखिम खासा बढ़ जाता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-माउथ वाश कैन राइज़ ओरल कैंसर रिस्क ना -इन फोल्ड (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसंबर ५ ,२००९ ,पृष्ठ १७ ।)
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

लम्बी उम्र के लिए शाकाहार .

एक नए अध्धय्यन के अनुसार -शाकाहारी खुराख दीर्घ जीवी होने की कुंजी है .पता चला है एक ख़ास प्रोटीन हैं जो मचछी-मॉस और कुछ नट्स में पाई जाती है .इसकी मात्रा का सेवन सीमित करके बुढ़ानेकी प्रकिर्या का घटाया जा सक्ता है .और फ़िर लम्बी उम्र की कामना भी की जा सकती है ।
अपने अध्धय्यन में ब्रितानी शोध कर्ताओं ने फ्लाईज़ पर कुछ आजमाइशेंकी है जिसके तहत इनकी खुराख में कुछ अमीनो -अम्लों की की मात्रा कम ज्यादा की गई .पता चला अमीनो -अम्ल मेथियोनाइन इनकी जीवन अवधि (लाइफ स्पेन )को प्रभावित करता है ।
हालाकि अन्य सभी प्रोटीनों के संसाधन (तैयार करने में ) "मेथियो -नाइन "एक ज़रूरी प्रोटीन है .मॉस -मच्छी ,ब्राज़ील नट्स ,वीत जर्म्स(दी सेंटर ऑफ़ ऐ ग्रेन ऑफ़ वीत विच इज गुड फॉर हेल्थ एंड इज एडिड तू अदर फूड्स ) और सेसमे सीड्स (एक प्रकार का बीजों वाला पौधा जिसका स्तेमाल सलाद्स में भी किया जाता है ,तेल भी जिसका निकाला जाता है ,तिल का पौधा ,तिल ,तिल का तेल जो खाने में प्रयुक्त होता है )।
बेशक होमियो -सेपियंस (आधुनिक इंसान )में फ्रूट फ्लाई के बरक्स चार गुना ज्यादा जींस (जीवन के सूत्र धार )हैं लेकिन इनमे से कितने ही यकसां हैं जिनका जैविक काम करने का ढंग यकसां है ।
बेशक यह प्रयोग फ्लाईज़ पर किए गए हैं लेकिन माइस पर की गई आजमाइशों के भी ऐसे ही नतीजे मिलें हैं ।
सवाल प्रोटीन संतुलन कायम रखने से जुदा है ,खासकर उन लोगों के लिए जो एटकिन्स खुराख (हाई -प्रोटीन्स डाईट लेतें हैं ),बोदी बिल्डर्स द्वारा लिया जाने वाला प्रोटीन संपूरक ।
बेशक पूर्व में संपन्न अध्धय्यनों में बतलाया गया था ,खुराख में ३० फीसद केलोरीज़ कम करके हृद रोग और कैंसर ले जोखिम को घटाकर आधा और उम्र को एक तिहाई बढाया जा सकता है ।
अब कहा जा रहा है -सवाल यह नहीं हैं आप कितनी केलोरीज़ ले रहें हैं ,सवाल उन खाद्य पदार्थों से छिटकने का है जिनमे इस प्रोटीन का डेरा है .

कहाँ गया कलावती का "ग्रीन चूल्हा "?

कोई बीस बरस पहले गैर -परम्परा गत ऊर्जा मंत्रालय ने "धूम्र -रहित चूल्हा "की अवधारणा प्रस्तुत की थी .कहा गया था यह गाँव की कलावातियों को घरेलू प्रधुशन से निजात दिलाकर उनके सारे दुख -दर्द दूर कर देगा .जलावन लकड़ी ,कोयला और काओ -डंग(उपला ) ही गाँवों में रसोई का प्रधान ईंधन बना रहा है जिसने बांटी हैं दमा और लोवर एंड अपर रिस्पाय्रेत्री ट्रेक्ट इन्फेक्शन की सौगातें ।
विश्व -स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ भारत में हर बरस पाँच लाख कलावातियाँ भारतीय चूल्हे की भेंट चढ़ जाती हैं लेकिन इस मुद्दे को गत दो दशकों से ठंडे बसते में डाला हुआ है ।
उम्मीद की जा सकती है नव गठित "नव एवं पुनर -प्रयोज्य ऊर्जा मंत्रालय "इसकी सुध लेगा .कारबन -उत्सर्जन के २०२० तक के लक्ष्यों को पूरा करने के केन्द्र में "धूम्र -रहित "चूल्हे को रखा जाना चाहिए ,तभी कहा समझा जा सकेगा "कांग्रेस का हाथ वास्तव में आम आदमी के साथ है "फिल वक्त तो यह हाथ उसकी जेब में दिखलाई देता है ।
गाँव की रसोई नौनिहालों और महिलाओं के स्वास्थ्य को ही कमोबेश लीलती है ,बेवक्त बीनाई (आंख की रौशनी )ले उड़ता है गाँव का चूल्हा ।
वजह भारतीय चूल्हे से पैदा प्रदूषण का स्तर न्यूनतम सह्या स्तर से ३० गुना ज्यादा होना है .(स्रोत :विश्व -स्वास्थ्य संगठन ).कार्बन -दाई -आक्सा- ईद और मीथेन को कमतर करने का भरोसे मंद ज़रिया बन सकता है "ग्रीन चूल्हा "इसे ना सिर्फ़ स्थानीय स्तर पर तैयार किया जा सकता है ,इसे कायम रखने चालू रखने के लिए ज़रूरी इंतजामात भी स्थानीय स्तर पर किए जा सकतें हैं ।
सूट(अध् जला कार्बन ) और कार्बन -डा -इ -आक -साइड इस दौर में विश्व -व्यापी तापन की एहम वजह बने हुए हैं सर्द -मौसम में शाम के झुर-मुठ में कलावातियाँ घास -फूस हरी टहनियां का स्तेमाल रोटी पकाने के लिए करती देखी जा सकती हैं ।
धान की लम्बी टहनियां भी दाने निकालने के बाद जल्दी से दूसरी फसल लेने के लिए बड़े पैमाने पर जला दी जातीं हैं कई दिनों तक सुलगती है यह आग .राईस हस्क से बाकायदा बिजली बनाई जा सकती है .बिहार के एक कम्युनिकेशन इंजीनीयर ने यह करके दिखाया है .ऐसी एक यूनिट मात्र १० लाख में खड़ी हो जाती है ।
ज़रूरत इस प्रोद्योगिकी को प्रोत्साहित करने की है .हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चोखा ।
फारूख अब्दुल्ला साहिब से अनुरोध है जो नव एवं पुनर -प्रयोज्य ऊर्जा मंत्रालय की कमान संभाले हुए हैं एक बार फ़िर पूरे दम ख़म से बायो -मॉस कोकिंग स्तोव्स को नवजीवन प्रदान कर ग्रामीण महिलाओं के हाथ मजबूत करें .इनके मकानात में हवा की आवा जाही के अनुरूप संशोधन करवाएं .टेक्नोलोजी त्रेंस्फार एंड फंडिंग के लिए विश्व -स्वास्थ्य संगठन की क्लीन डिवेलपमेंट मिकेनिज्म से सहयोग लिया जा सकता है .जहाँ चाह वहाँ राह ।
ग्रीन -चूल्हे के अलावा सौर लाल तें न (सोलर लेंत्रें ),स्थानीय कचरे को ऊर्जा में बदलने की प्रोद्योगिकी को भारतीय गाँवों में विक्सित किया जा सकता है .

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

औरत हो या मर्द जींस (जीवन खंड /जीवन इकाइयों )में छिपा है शोपिंग स्टाइल का राज़

अक्सर शादी शुदा मर्द खासकर शोपिंग के लिए अपनी औरत के संग स्टोरेस में घुसने से कतराता है .वह ख़ुद जब भी किसी शोपिंग माल या स्टोर में प्रवेश करता है झट -पट वह आइटम खरीद कर बाहर आ जाता है जैसा गया ही ना हो .और औरत ?चयन में खासा वक्त लगाती है .इसकी वजह जीवन की मूल भूत इकाइयों (जींस )के अलावा प्रागेतिहासिक काल में छिपीं हैं .जब औरत को ही हंटर गेदर आर के रूप में भोजन जुटाना पड़ता था ।
तब औरत का काम छांट छांट कर कांड मूल (एडिबिल प्लांटस और फंगी आदि जुटाना होता था .ज़ाहिर है चयन में ढूंढ निकालने में वक्त लगता था .मर्द हिंसक पशुओं का शिकार करता था .यूँ जाता था और यूँ आता था .हालाकि ६४ फीसद केलोरीज़ उसे ही जुटानी पड़तीं थीं ।
मिशगन यूनिवर्सिटी के डेनियल कृगेर शोपिंग स्टाइल में अन्तर की यह बड़ी वजह बतलातें हैं ।
अब आप कल्पना कीजिये बास्किट भर के सामान आपको लाना है वह भी अलग अलग जगह से (बेशक उसी स्टोर्स से ),कितना वक्त लगेगा आपको /आपकी श्री -मतीजी को ?घूम गया ना आपका भेजा ?
जबकि मर्द के लियें यह लाजिम था "गोश्त जुटा कर वह झट -पट उलटे पाँव लौटे ।
आज भी मर्द के दिमाग में एक ख़ास आइटम ही होता है जब वह "ओल्ड नेवी "या' कोह्ल्स "या फ़िर बेस्ट बाई या फ़िर आईकिया में प्रवेश करता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-शोपिंग स्टाइल्स ता -ईद तू जींस (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसंबर ४ ,२००९ ,पृष्ठ १७ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

कैसे काम करता है हमारा दिमाग -बतलायेगा एच .एम् का दिमाग .

हेनरी मोलैसों नाम है उस भले आदमी का जिसने बरसों पहले अपना मष्तिष्क साइंस दानों को दान में देने का निश्चय कर लिया था .हार्टफोर्ड में बीता एच एम् का बचपन .किशोरावस्था से ही एच एम् को सीज़र्स (हाथ पैरों की एंठन के साथ दौरा ) का सामना करना पडा .युवावस्था तक आते आते वह बेहद आजिज़ आ चुका था इन दौरों से ,आख़िर मात्र २६ साल की उम्र में उसने सीज़र्स से छुटकारा पाने के लिए दिमागी शल्य करवाने का फैसला कर लिया ।
उस दौर के दिमागी चिकित्सा के माहिर ब्रेन सर्जन विलियम स्कोविल्ले ने उसके दिमाग से दो स्लग साइज़ के (पतले नुकीले ऊतक )दिमाग के दोनों हिस्सों (वाम और दक्षिण अर्ध -गोलों )से अलग कर लिए .(ही सक्शंड आउट तू स्लग साइज्ड स्लाइवार्स ऑफ़ टिश्यु ,वन फ्रॉम ईच साइड ऑफ़ दी ब्रेन )।
नियति का खेल एच एम् की याददाश्त जाती रही .वह कुछ भी नया याद रखने में असमर्थ था .बेशक उसे सीज़र्स से निजात मिल गई लेकिन बतरस का शौक़ीन ,बातूनी एच एम् १५ मिनिट में तीन मर्तबा वही बात एक ही अंदाज़ में दोहरा देता था ,यहाँ तक की आवाज़ का उतार चढ़ाव भी जस का तस होता था ।
बहुत पहले उसने अपनी वसीयत में अपनी ब्रेन डोनेट करने की इच्छा व्यक्त कर दी थी .गत बुद्धवार (२दिसम्बर २००९ को )एच एम् की बरसी थी ।
एक नायाब तोहफा इस दुनिया से कूच करते करते भी वह विज्यानियों को थमा गया .८२ वर्ष की उम्र में २ दिसंबर २००८ को वह इस नश्वर शरीरको छोड़ गया ।
इसी के साथ उसके ब्रेन के ज़रिये दिमागी शोध को आगे बढ़ाने ,दिमाग की गुथ्थियाँ समझने का काम शुरू हो चुका है .उसके जीते जी भी शोध की कई खिड़कियाँ खुलीं थीं ।
न्यूरोसाइंस दान उसके दिमागके २५०० टिश्यु साम्पिल्स तैयार कर चुके हैं .बतर्ज़ गूगल अर्थ विज्यानी दिमाग का पूरा नक्शा तैयार कर लेना चाहतें हैं ।
आख़िर कब कैसे और कहाँ दिमाग के कौन से हिस्से में यादें घर बनातीं हैं यह बिलियन डॉलर का सवाल है .होली ग्रेल ऑफ़ न्यूरो -साइंस है .आख़िर भूली बिसरी बातें कैसे स्मृति पटल पर लौट आतीं हैं .विज्यानी तो यहाँ तक कहतें हैं ,शिशु -अवस्था के उस दौर की यादें भी स्मृतिं में कौंध सकतीं हैं ,जब आप भाषा भी नहीं जानते समझते थे .उस दौर की तमाम गंधें आप पहचानतें हैं लेकिन उसे कोई नाम नहीं दे सकतें हैं .और जब आप भाषा सीख जातें हैं ,गंधों की भाषा की आपको ज़रूरत नहीं रह जाती है ,वरना मानव शिशु भी जन्म के समय १०,००० तक गंधें पहचानतें हैं .माँ को गंध आंजने की ताकत ही तो ढूंढ लेती है शिशु की .

गुणकारी लहसुन -स्वाद भी इलाज़ भी

एंटीबायोटिक ही नहीं एन्तिफंगल (फफूंद रोधी )और एंटीवायरल (वायरस/विषाणु रोधी )गुणों से भी भर -पूर है लहसून .आपको याद होगा "गार्लिक पर्ल्स "बाज़ार में उतारे थे दवा निगम रेनबेक्सी ने ।
गुणकारी लहसुन कफ़, कोल्ड और फ्ल्यू से बचाए रखने में मदद गार है .सूप सलादद्रेसिंग्स , चटनी आदि में भी स्तेमाल किया जाता है लहसुन .यूँ स्वाद वर्धक के बतौर इसका अचार भी परोसा जाता है .गाडुले लुहार (घुमंतू ट्राइब्स ) बेहतरीन चटनी तैयार करतें हैं लाल मिर्ची नमक और लहसुन को घोट पीसकर .नमकीन में स्वाद वर्धक के रूप में भी इसका चलन है ।
हो भी क्यों ना ?रोगों से जूझने वाले हमारे कुदरती प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूती प्रदान करता है लहसुन का नियमित सेवन .स्तन ,मूत्राशय (ब्लेडर )त्वचा और आमाशय कैंसर से बचावी चिकित्सा के बतौर आजमाया गया है लहसुन ।
एस्पिरिन की टिकिया सा काम करता है गार्लिक क्लोव (लहसुन की एक कलि) का नियमित सेवन ,खून के थक्कों को घुलाने गलाने की अद्भुत क्छमता से लैस है लहसुन ।
इस प्रकार दिल के दौरों और सेरिब्रो -वेस्क्युलर एक्सीडेंट (स्ट्रोक )से बचाए रखने में भी कारगर हो सकता है लहसुन का सेवन ।
खून में घुली शक्कर का विनियमन करने की काबिलियत रखता है लहसुन .एलोपेशिया एरिआता (गंज के पेचीज़ ),पेची हेयर लोस के मामले में लहसुन की ५-६ कलियाँ कूट पीसकर क्रस्श करके प्रभावित गंज पर लगाने पर लाभ पहुंचता है .कई मामलों में ऐसा देखा गया है ।
दांतों के बेहद के रेडियेटिंग पेन में भी गार्लिक क्रश करके प्रभावित दांत पर मलने से आराम आता है ।
जिन लोगों को गैस ज्यादा बनती है उन्हें सुबह सवेरे लहसुन की कलियाँ ताज़ा पानी या फ़िर दूध के संग लेते देखा जा सकता है .कहा जा सकता है एक "प्राकृतिक चिकित्सक "सा है गुणों की खान लहसुन ।
सन्दर्भ सामिग्री :-किचिन क्युओर" गार्लिक" -डॉ .प्रीती छाबरा .,आयुर्वेदिक कंसल्टेंट (वेलनेस /माइंड बोदी स्पिरिट एंड यु /वाट इज हाट/ टाइम्स ऑफ़ इंडिया सप्लीमेंट /दिसंबर ४ ,२००९ .,पृष्ठ १४ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

मदद करने की जन्मजात प्रवृत्ति के साथ आया है इंसान ?

आख़िर यह इंसानी चोला क्यों मिला है हमें ?जीवन का आखिर मकसद क्या है ?क्या इंसान सिर्फ़ गलतियों का पुतला है ?पापमय और युद्ध उन्मांदी है ?स्वार्थी और हिंसक जहाँ सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता ही विकाश का आधार बनी हुई है ?मूल प्रवृत्ति में हिंसक है इंसान जैसा विलियम गोल्दिंग्स अपने उपन्यास :लोर्ड ऑफ़ दा फ्लाईज़ में दर्शातें हैं जहाँ निर्जन प्रदेश में भटकने को विवश बच्चे देखते ही देखते हिंसक और उग्र हो उठतें हैं ,सवाल सर्वाइवल का जो है ?क्या हाड तोड़ प्रतियोगिता के इस आलमी दौर में सहयोग सहकार ,आलमी मुद्दों पर मिल बैठ कर मंत्रणा करना अब बेमानी है ?
या फ़िर मदद को सहज भाव से आगे आना इंसान की जन्मजात फितरत है ,जो शिशूं -ओं में भी प्रगट होती है ।
अपनी किताब "वाई वी को -ओपरेट में मिचेल तोमसेलो जो पेशे से एक डिवलपमेंट साइकोलोजिस्ट है साबित करतें हैं -मौके के अनुरूप शिशु भी अपने नन्ने हाथ सहज बुद्धि से प्रेरित हो अनजान की मदद को भी बढ़ादेतें हैं .मिचेल ना सिर्फ़ शिशुयों को सीधे सीधे ओब्ज़र्व करतें हैं उनकी तुलना चिम्पेंजी के नवजातों और शिशूं यों से भी करतें हैं सिर्फ़ डेड़ साला (१८ माह )की उम्र में शिशु जब देखतें है किसी के दोनों हाथ में सामान है और वह दरवाज़ा खोलना चाहता है या उसके हाथ से कपड़ा सूखाने की क्लिप (चिमटी ,क्लाड्स -स्पिन )गिर गई है तो बच्चे आप से आप समबुद्धि से उत्प्रेरण लेकर मदद को आगे आ जातें हैं ।
कैरट एंड स्टिक एप्रोच किसी भी प्रकार के प्रलोभन से उपकार और मदद को हाज़िर होने की यह प्रवृत्ति ना घटती है और ना बढती है ।
मिचेल "मेक्स प्लांक इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉर एवोल्युश्नरी अन्थ्रो -पोलोजी "के सह -निदेशक हैं .,जो जर्मनी के लिपजिग में स्तिथ है .विकासात्मक मानव विज्यान के माहिर मिचेल कहतें हैं -मदद को आगे आना अन्तर्जात ,एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है शिशूयों की. समाज में उठने बैठने के कायदे क़ानून तो माँ बाप बाद में ही सिखातें हैं यह प्रवृत्ति तो हार्ड -वायर्ड है ।
बेशक प्रागेतिहासिक दौर में आदमी भोजन जुटाने के लिए शिकार पर निकलता था .उनमे भी तो डिविज़न ऑफ़ लेबर था -श्रम विभाजन था ,एक अध्धय्यन के अनुसार इन घुमंतू समाजों में ६८ फीसद केलोरीज़ जुटाने का जिम्मा मर्द का होता था .इनकी संतानें २० साल से नीचे जितना खर्च करते थे उतना जुटाना उनकी मजबूरी नहीं थी .दोनों सेक्सों में ही नहीं बच्चों को भी माँ बाप कापरस्पर सहयोग और संरक्षण मिलता था ।
संरक्षण की यह लम्बी अवधि उन्हें भोजन जुटाने के लिए तैयार करती थी । न्यू -मेक्सिको यूनिवर्सिटी के मानव विज्यानी हिलार्द कप्लान मानवीय विकास के अनेक चरणों में सहयोगकी इस अविरल धारा को कल कल बहते देखतें हैं ।
किसी ने ग़लत नहीं लिखा है -दुनिया में आया है तो फूल खिलाये जा /आंसू किसी के लेके खुशियाँ लुटाये जा
"परहित सरस धरम नहीं भाई "/चाइल्ड इज दी फादर ऑफ़ ऐ में न विलिं यम वर्ड्स वर्थ ने यूँ ही नहीं कहा होगा .

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

ग्लोबल वार्मिंग की न्यूनतम निर्धारित सीमा का अतिक्रमण करने की कगार पर पहुँच सकतें हैं हम लोग .

हमने अक्सर अपने आलेखों में दोहराया है -बड़ा ही नाज़ुक है पृथ्वी का हीटबजट जिसमे ४ सेल्सिअस की घटबढ़ एक छोर पर आइस एज , दूसरे पर जलप्रलय ला सकती है ।
क्रोसिंग दी थ्रेश -होल्ड :जस्ट ४ सेल्सिअस होतर एंड ऐ लिविंग हेल काल्ड अर्थ .शीर्षक है उस ख़बर का जिसमे हमारेद्वारा बारह बतलाई गई उक्त बात की पुष्टि हुई है ।
पृथ्वी का तापमान ४ सेल्सिअस बढ़ जाने पर यह ग्रह नरक बन जाएगा .कोई एलियंस (परग्रह वासी ) भी इधर का रूख नहीं करेगा .हालाकि कोपेनहेगन में आयोजित७ -१८ दिसंबर जलवायु परिवर्तन बैठक को लेकर कई माहिर भी हतोत्साहित है ,वहाँ सिवाय लफ्फाजी के ,थूक बिलोने के कुछ होना हवाना नहीं हैं ।
माहिरों के अनुसार पूर्व ओद्योगिक युग की तुलना में तापमानों में ४ सेल्सिअस की वृद्धि होना कोई असंभव घटना नहीं होगी ,ऐसा होने का पूरा पूरा अंदेशा है ।
यदि सच मुच ऐसा हो गया तब क्या कुछ हो सकता है .जानना चाहतें हैं ,दिल थाम के कमर कसके बैठ जाइए .समुन्दरों में जल का स्तर ३.२५ फीट तक बढ़ गया है ,कई तटीय द्वीप डूब गएँ हैं ,जल समाधि ले चुके हैं (कोई मनु नहीं बचा है यह लिखने लिखाने को -हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर /बैठ शिला की शीतल छाँव /एक पुरूष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह /नीचे जल था ऊपर हिम था /एक तरल था एक सघन /एक तत्व की ही प्रधान ता कहो इसे जड़ या चेतन -कामायनी ,जयशंकर प्रसाद )
थाईलेंड ,बांग्ला देश ,वियेतनाम ,इतर डेल्टा -नेशंस के कई करोड़ लोग पर्यावरण रिफ्यूजी बन गए हैं ,बेघर हो गएँ हैं .सुरक्षित अपेक्षया समुद्र तल से ऊंचे स्थानों के लिए कूच हो रहा है .छीना झपटी है अफरा तफरी है ।
ध्रुवीय रीछ (पोलर बेयर) इतिहास शेष रह गए हैं .आलमी औसत तापमानों के बरक्स उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र के तापमानों में तीन गुना तक वृद्धि हो चुकी है ।
(ऑस्ट्रेलिया इज रूतिन्ली स्वेप्त बाई वाईट हाट फायर्स ऑफ़ दी का -इंद देत क्लेम्ड १७० लाइव्स लास्ट फेब्रारी )।
हिमालयीय हिमनद सूख गए हैं .एशिया का वह शाश्वत जीवन निर्झर कहीं नहीं हैं ।
दक्षिणी एशियाई मानसून आवारा ,हो गया है ,कभी सूखा कभी अतिरिक्त मूसला धार अति -वर्षं न ।
जीवन की सुरक्षा और गुणवता दोनों खटाई में पड़ गईं हैं .मौसम चक्र टूट गएँ हैं ।
अरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में बतौर प्रोफ़ेसर कार्य रत पामेला म्सल्वी ऐसी ही तस्वीर प्रस्तुत करतें हैं .खालाजी का घर नहीं हैं ४ सेल्सिअस की वृद्धि आलमी तापमानों में ।
२०६० तक ऐसा हो सकता है यह कहना है ब्रितानी मौसम विभाग का जो जलवायु परिवर्तन से सम्बद्ध काम करने वाली एक एहम संस्था है ।
अभूतपूर्व परिदृश्य हमारे बच्चों को आज की युवा भीड़ को देखने को मिलेंगें .२०८० में तीन अरब लोग एक घूँट पानी के लिए छीना झपटी कर रहे होंगें .फसली उत्पाद गिर जायेंगें .कितने लोगों को भूखा सोना पडेगा इसका कोई निश्चय नहीं ।
सन्दर्भ -सामिग्री ;-टाइम्स आफ इंडिया ,पृष्ठ ३ /दिसंबर ३ ,२००९ .

तीन मिनिट में चलेगा गर्भाशय -ग्रीवा कैंसर का पता .

ब्रितानी साइंस दानों ने सर्वाइकल -कैंसर के निदान की एक ऐसी विधि विक्सित कर ली है जो गर्भाशय -गर्दन कैंसर की शिनाख्त हफ़्तों की जगह तीन मिनिट में ही प्रस्तुत कर देगी ।

"ऐ पी एक्स "नाम की यह डिवाइस देखने में एक टीवी रिमोट जैसी है जिसके सिरे पर एक अन्वेषी लगा है जो पेन की तरह लगता है ।

अब पेप स्मीयरलेकर जांच करने का कष्ट कारी चक्कर ख़त्म .इस डिवाइस में एक बहुत कम शक्ति का (कमतर एम्पीयारेज )करेंट सर्विक्स में भेजा जाएगा ,कोशिकाओं के स्तर पर ,इसका मूवमेंट, गति -आन्दोलन दर्ज किया जाएगा ।

यह पद्धति इस बात पर आधारित है ,कैंसर ग्रस्त कोशिकाओं का स्किन रेसिस्टेंस कमतर हो जाता है ,इसलिए विद्युत् इनमे द्रुत गति से प्रवाहित हो जाती है बरक्स स्वस्थ कोशिकाओं के .यही अन्तर कैंसर की शिनाख्त का आधार बन जाता है .शेफील्ड यूनिवर्सिटी के विज्यानियों ने रोग निदान की यह नायाब तरकीब विकसित की है ।


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दुनिया से कूच करते वक्त पर्यावरण को नुकसान क्यों ...

पारसी लोग शव को खुले में रख देतें हैं .एक तरफ़ इसे पक्षी जीमते है तो दूसरी तरफ़ पर्यावरण को कोई क्षति नहीं पहुँचती .जीवन भर हम अपना कार्बन फुटप्रिंट छोड़तें चलतें हैं ,चलते चलते इस नुकसानी से बच सकतें हैं .ह्यूमेन एल्केलाइन हाई -द्रोलिसिस को साकार कर रहें हैं "मेथ्युज़ इंटरनेश्नल कोर्पोरेशन. पिट्सबर्ग ,पेन्सिल्वेनिया आधारित यह निगम ताबूत ,भस्म -बक्शे ,इतर शव सम्बन्धी सामान तैयार करता है ।
सेंटपिट्सबर्ग ,फ्लोरिडा में यह निगम जनवरी २०१० से काम करने लगेगा ।
एल्केलाइन हाई -द्रोलिसिस में शव को स्टेन लेस स्टील से बने एक कक्ष में को डुबो दिया जाता है बाकी काम ऊष्मा (हीट),दाब ,सोप और ब्लीच बनाने में प्रयुक्त पोतेसियम-हाई -द्रोक -साइड पूरी कर देता है .तमाम ऊतक इस घोल में विलीन हो जातें हैं (घुल जातें हैं ).दो घंटा बाद अवशेष के रूप में बच जाता है ,अस्थियाँ और एक सिरपी-ब्राउन घोल ,जिसे फ्लश करके बहा दिया जाता है .अस्थियाँ सगे सम्बन्धियों को लौटा दी जातीं हैं ।
इस प्रकार परम्परागत शव दाह के बरक्स इस विधि में (एल्केलाइन हाई -द्रोलिसिस में )कार्बन उत्सर्जन में ९० फीसद कमी की जा सकती है ।
आज आदमी कमोबेश "साईं बोर्ग "बन चुका है जिसमे मशीनी अंग लगे रहतें हैं ,नकली घुटने नकली हिप ,सिल्वर टूथ फीलिंग्स तो अब आम हो ही चलें हैं .सिलिकान इम्प्लान्ट्स का भी चलन है ।
एक स्तेंदर्द क्रेमेशन से वायुमंडल में ४०० किलोग्रेम कार्बन दाई -ऑक्साइड शामिल हो जाता है ,इस ग्रीन हाउस गैस के अलावा दाई -आक्सींस तथा मरकरी वेपर भी शव दाह ग्रह से उत्सर्जित होतें हैं ,कारण बनती है सिल्वर टूथ फिलिंग ।
एल्केलाइन हाई द्रोलिसिस शव को ठिकाने लगाने वाली एक रासायनिक प्रकिर्या है जिसे विज्यानी "बायो -क्रेमेशन "(जैव शव दाह )कह रहें हैं ।
जाते जाते अपना कार्बन फुट प्रिंट कम करने की प्रत्याशा में अब अधिकाधिक लोग इसके लिए तैयार हैं .इस विधि में ऋ -साईं -किल्ड कार्बोर्ड से बनी शव पेटियां (ताबूत )काम में ली जायेंगी .एक तिहाई अमरीकी और अपनी आबादी के आधे से ज्यादा कनाडा वासी इसके लिए तैयार हैं .यह लोग एम्बाल्मिंग (शव संलेपन )के भी ख़िलाफ़ हैं ,जिसमे पर्यावरण -नाशी रसायनों का स्तेमाल शव को सुगन्धित कर संरक्षित करने के लियें किया जाता है .आख़िर में यह तमाम रसायन भी हमारी मिटटी में रिस आतें हैं .मिटटी से (काया से )मोह कैसा ?

मच्छर भगाओ रसायनों से गर्भस्थ शिशु को हाइपो -स्पेदिअस ?

हाइपो -स्पाडिया /ह्य्पोस्पदिअस :इट इस ऐ कोंजिनैतल बर्थ डिफेक्ट ,एन एब्नोर्मल कोंजिनैतल ओपनिंग ऑफ़ दी मेल युरिथ्रा अपों- न दी अन्दर सर्फेस ऑफ़ दी पेनिस /आल्सो इन केस ऑफ़ ऐ फेमेल चाइल्ड ऐ युरेथ्रल ओपनिंग इनटू दी वेजैना ।
न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर ऑफ़ टोक्सिकोलोजी एंड ओक्युपेश्नल हेल्थ के बतौर कार्य रत च्रिस विंदर ने अपने एक अध्धय्यन में बतलाया है ,ऐसे बच्चों की संख्या अप्रत्याशित तौर पर बढ़ रही है जिनकी संतानें जन्मजात विकृतियों से ग्रस्त हैं .हाइपो -स्पदिअस भी उनमे से एक है जिसमे बच्चे के शिश्न की निकासी (ओपनिंग )का स्थान अपनी सुनिश्चित सामान्य जगह पर ना होकर अगर सिरे से हठकरशिश्न (पेनिस )की सतह से नीचे की और चला आता है ।
मच्छर भगाओ नुस्खे भी इस जन्मजात विकृति को हवा दे रहें हैं ,अध्धय्यन से ऐसी आशंका ज़रूर पैदा हो गई है ,बेशक अभी ऐसे और भी अध्धय्यन और भी होने चाहिए ,इस आशंका की पुष्टि के लिए ।
अपने अध्धय्यन में ज़नाब च्रिस विंदर साहिब ने हाइपोस्पेदिआस् से ग्रस्त ४७१बच्चों की माताओं से तथा ४९० अनन्य शिशूं ओं की माताओं से जिनका चयन रेंडमली किया गया गर्भावस्था के दौरान इनकी जीवन शैली तथा स्तेमाल में लिए गए रसायनों के बारे में विस्तृत पूछताछ की गई ।
गर्भावस्थाकी पहली तिमाही में मच्छर भगाने वाले रसायनों का स्तेमाल हाइपो स्पदिअस के जोखिम को ८१ फीसद बढ़ाने वाला पाया गया ।
मच्छर भगाने वाले रसायनों का आम इन्ग्रेदियेंत एन ,एन -दाई इथाइल -मेटा -टोलू -अमा -ईद होता है ,हालाकि इन तमाम माताओं ने प्रयुक्त इन्सेक्ट -रिपेलेंट का ब्योरा उपलब्ध नहीं करवाया था .मच्छर भगाओ रसायनों में आम तौर पर पाये जाने वाले इस रसायन को दीत (दी इ इ टी )भी कहा जाता है ।
सलाह यही है संतान चाहने वाली महिलायें इन रसायनों से बचें या फ़िर इनका कमतर स्तेमाल करें .हैपोस्पडिया नर शिशुओं के पाये जाने वाली आम जन्मजात विकृति बन रहा है ,पर्यावरण में मौजूद हैं इस रोग के कारक ,बचा जाए इनसे .

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

सार्वजनिक स्थान पर हम भारतीय यूँ ही नहीं थूकतें हैं ...

भारतीय द्वारा थूकना गंदगी को बढ़ाना नहीं हैं ,थूकना सफाई का दर्शन हैं ,वह अन्दर की सुवास को बनाये रखने के लिए बाहर की और थूकता है .थूक एक प्रतिकिर्या है बाहर फैली गंदगी के प्रति .भारत में चारों तरफ़ धूल मिटटी और गंदगी का डेरा है .बाहर के मुल्कों में (विकसितदेशों में) पर्यावरण और आपके आस पास का माहौल एक दम से साफ़ सुथरा रहता है इसलियें भारतीय वहाँ थूक नहीं पाते .यह कहना है मनोविज्यानी प्रोफ़ेसर डॉ .इद्रजीत सिंह मुहार का ।
हमारे साहित्य कार मित्र डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश का कहना है -थूकना एक मामूली किर्या मात्र नहीं है ,दर्शन है .अलबत्ता थूकना मानवाधिकार है या नहीं इसकी पड़ताल होनी चाहिए .थूकने पर किसी व्यक्ति विशेष का कापी राईट नहीं हैं .आप जहाँ चाहें थूकें ।
अलबत्ता कई जगह पर डिब्बे रखे होतें हैं ,लिखा होता है ,यहाँ थूकें .अबआप को थूक आ रहा है तभी आप थूकेंगे ,जहाँ थूक आता है ,वहाँ डिब्बा नहीं होता ।
मुग़ल कालीन दरबारी संस्क्रती थूकने पर कसीदे पद्वाती रही है .चाटुकार कहते रहें हैं ,वाह साहिब क्या निशाना है .थूक्कड़ प्रशंशा के पात्र रहें हैं .दो दीवारों के बीच के कौने में जहाँ कुत्ते मूतते थे थूकड़ कलात्मक ढंग से थूक कर गंदगी और बदबू को कम करते थे .दरबारी उनका यशोगान लिखते थे .वाह साहिब क्या थूकतें हैं .पान थूकदों ने आधुनिक कला को जन्म दिया है ।
हमारी संसद में सिवाय थुक्का फजीहत के अब क्या होता है .लिब्रहान कमीशन सत्रह सालों तक थूक बिलोता रहा है .थूक बिलोना सेवा निवृत्त समाज द्वारा समादृत लोगों के रोज़गार का ज़रिया रहा -बारास्ता जांच कमीशन ।
अगर में ग़लत कह रहा हूँ ,आप मेरे मुह पर थूकना ।
थूक कर चाटना ,अपनी बात से मुकर जाना आम औ ख़ास ने बड़ी ही मह नत से सीखा है .चाटुकारिता थूक की ही देन है . चिरकुटों की भीड़ यही करती आ रही है ।
अलबत्ता कुछ कायर किस्म के लोग पीठ पीछे थूकतें हैं .तो कुछ नासमझ आसमान की और मुह उठाकर ही थूक देतें हैं ,समाज में समादृत ऊंची पहुँच वालों के ख़िलाफ़ प्रलाप करने लगतें हैं ।
कुछ लोग बात बे बात कह देतें हैं ,मैं तो तेरे घर थूकने भी ना आवूं .एहम पीड़ित हैं यह तमाम लोग .भाई साहिब थूकने के लिए आप इतनी दूर जायेंगे भी क्यों ?
मुह पे थूकना -किसी के भी और किसी के लिए भी अच्छी बात नहीं है .फ़िर भी लोग अपनी बात का वजन बढ़ाने के लिए अक्सर कह देतें हैं ,मेरी बात ग़लत निकले तो तू मेरे मुह पे थूक देना ।
कुछ लोग सरे आम व्यवश्थापर थूकतें हैं ,अपने गुर्गों से थूक वातें हैं
हैं ,इन्हें "ठाकरे "कहा जाता है ।
कुछ ज़हीन किस्म के लोग किसी के खाने को देखकर ही थूक देतें हैं .सामिष भोजी इनसे बर्दाश्त नहीं होतें .टेबिल मैनर्स का इन्हें इल्म नहीं होता ।
थुक्का फजीहत और थूकना भी क्या मौलिक अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता ?
अंत में हम शोध छात्रों को एक विषय अनुसंधान के लिए देतें हुए अपना वक्तव्य समाप्त करतें हैं -इतना थूकने पर भी भारतीयों का हाजमा सेलाइवा (लार की कमी होने )से कम क्यों नहीं होता ?

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

लघु कथा -"नफासत "

मेरी नफासत क्या और कैसी है यह मुझे आज पता चला .हुआ यूँ मैं दिल्ली हाट और आई एन ऐ मार्किट को जोड़ने वाले पैदल पार पथ से गुजर रहा था .गुजरा कल भी था .रास्ता कल की तरह आज बासा गंधाता नहीं घूर रहा था .गुजारा करने लायक था .बुहार दिया गया था .मैं अपनी छड़ी की टेक लिए अपनी ढाल उतर रहा था सबवे की सीढियां . आखिरी पैड़ी(सीढ़ी )से उतरते ही मैंने अनायास थूक दिया .हालाकि मन में कहीं थोड़ा बहुत संकोच भी था ."अरे मैंने तो थूक दिया "सोचते हुए मैं आगे बढ़ा ही था ."वही शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति मुझे फटकार रहा था -यह थूकने की जगह है ?"बिल्कुल नहीं .भाई साहिब गलती हो गई ,यहाँ नहीं थूकना चाहिए था ,मैं गलती तस्दीक कर ही रहा था ,उसने कहा कैसे ले देकर हम सफाई करतें हैं .मैंने कहा उस्ताद जी आपने पहचाना नहीं .मैं निकलते बड़ते आप को आदाब करता हूँ .आपकी वेइंगमशीन पर वजन भी करता हूँ ."ताबे दार हैं "-ज़वाब मिला .बड़ा ही खुद्दार है यह आदमी जो अपने मुड़े हुए हाथ से बामुश्किल पैसे गिन कर खीसे के हवाले करता है ।
मुझे बहुत ज़ोर से एहसास हुआ -मेरी नफासत क्या है ?कैसी है ?कितने ज़हीन हैं हम लोग ?विकलांग यह नहीं मानसिक रूप से मैं हूँ .

कंगारू दिलवा सकतें हैं "स्किन कैंसर "से निजात .

मेलबोर्न यूनिवर्सिटी के शोध करता लिंडा फेकेटोवा और उत विल्ले ने ऑस्ट्रियन साइंस -दानों (इन्न्सब्रुच्क यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध ) के संग मिलकर कंगारूनों में मौजूद एक ऐसे एंजाइम पर नज़र टिकाई हुई है जो दी एन ऐ रिपेयर में कारगर है .समझा जाता है यह एंजाइम उस दी एन ऐ की मरम्मत कर सकता है जो चमड़ी के कैंसर में डेमेज होने लगता है .इस एंजाइम से वह जादुई क्रीम बनाई जा सकती है जो बस दिनभर सनबाथ लेने के बाद चमड़ी के असर ग्रस्त भाग पर लगाई जा सकती है ।
इस ड्रीम क्रीम पर सबकी निगाहें हैं .

अच्छी नहीं है ज्यादा कसरत प्रोढा-वस्था में ... .

एक अध्धय्यन में उन लोगों को आगाह किया गया है जो प्रोढा -वस्था में पहुंचकर भी ज़रूरत से ज्यादा व्यायाम करतें हैं .जाने -अनजाने ऐसे लोग अपने घुटनों को नुक्सान पहुंचा सकतें हैं ,देर सवेरओस्टियो -आर्थ -राईतिसका शिकार हो सकतें हैं ।
घुटनों को नाकारा बनादेने वाला एक ऐसा अप -विकासी रोग है -ओस्टियो -आर्थ -राईतिस जिसमे धीरे धीरे ही सही जोड़ों की अस्थियाँ का क्षय होने लगता है .(ओस्टियो -आर्थ -राईतिस इज ऐ फॉर्म ऑफ़ आर्थ -राईतिस करेक्तराइज़्द बाई ग्रेज्युअल लोस ऑफ़ कार्टिलेज ऑफ़ जोइंट्स युज्युअली अफेक्तिंग पीपुल आफ्टर मिडिल एज़िज़ ।)
केलिफोर्निया विश्व -विद्यालय ,सांन - फ्रांसिस्को के क्रिस्टोफ स्तेह्लिंग के अनुसार एक अध्धय्यन से पता चला है जो लोग प्रोढा -वस्था में आने के बाद भी ज़रूरत से ज्यादा एक्सरसाइज़ करतें हैं उनमे नी -एब्नोर्मेलिती का ख़तरा बढ़ जाता है .इसी के साथ ओस्टियो -आर्थ -राईतिस का जोखिम भी मुह्बाये खडा हो जाता है ।
जोड़ों की इस तकलीफ में जोड़ों में दर्द सूजन (शोजिश )के अलावा अकडन भी पैदा हो जाती है ।
सेंटर फॉर डीज़ीज़ कंट्रोल के अनुसार दो करोड़ सत्तर लाख अमरीकी जोड़ों के दर्द की शिकायत लिए हुए हैं .

कैंसर के ख़िलाफ़ जेहाद में खुम्बी कारगर ?

मूत्राशय और पौरुष ग्रंथि (प्रास्तेत )कैंसर के ख़िलाफ़ जंग में चीनी और जापानियों के भोजन में जगह बना चुकी मशरूम्स की एक किस्म "मिटाके मुश्रूम "कारगर हो सकती है .न्यू योर्क मेडिकल कोलिज के मूत्र रोग विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ युरोलोजी )के विज्यानियों ने पता लगाया है ,मशरूम्स की यह किस्म कैंसर गाँठ (ट्यूमर )को ७५ फीसद तक घटा देती है (श्रिंक कर देती है )।
नए इलाज़ भी खोजे जा सकेंगें .एक बात तय है कैंसर के रोगियों के शेष जीवन की गुणवता निश्चय ही इस नै शोध से सुधरेगी ।
युरोलोजी :इट इज ऐ ब्रांच ऑफ़ मेडिसन देत डील्स विद दी स्टडी एंड ट्रीटमेंट ऑफ़ दिसोर्दार्स ऑफ़ यूरिनरी ट्रेक्ट इन वूमेन एंड दी युरोजेनितल सिस्टम इन मेन
ऐ डॉक्टर हूँ त्रीट्स कंडीशंस रिलेतिंग तू दी यूरिनरी सिस्टम एंड मेंस सेक्स्युअल ओर्गेंस इस काल्ड ऐ यूरोलोजिस्ट।

विश्व -एड्स दिवस के मौके पर एक ज़रूरी बात ...

एच आई वी ट्रीटमेंट शुडस्टार्ट सूनर(टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसम्बर १ ,२००९ )शीर्षक से प्रकाशित इस ख़बर में बतलाया गया है ,विश्व्स्वास्थय संगठन ने एच आई वी एड्स के इलाज़ में पहले की गई सिफारिशों में रद्दोबदल किया है .अब तक जिस स्टेज में दवाएं दी जाती रहीं हैं वास्तव में चिकित्सकों को उससे १-२ साल पहले ही एंटी रेट्रोवायरल ट्रीटमेंट शुरू करने की अनुशंषा की गई है ।
आप को बत्लादें एच आई वी एड्स में करते करते वाईट ब्लड सेल्स की तादाद नष्ट होकर कम होने लगती है .एच आई वी एड्स की दोनों स्त्रेंस (एच आई वी -१ ,एच आई वी -२ ) ब्लड सेल्स सी दी -४ को निशाना बनातीं हैं .इनकी एक क्रांतिक तादाद हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की मुस्तैदी के लिए ,चाक चौबंद रहने होने के लिए ज़रूरी समझी गई है .अभी तक इलाज़ तब शुरू किया जाता था जब इनकी संख्या घटकर २०० के आस पास आ जाती थी ।
ताज़ा सिफारिशों के अनुसार सी दी -४ सेल्स की तादाद ३५० तक आते ही इलाज़ शुरू किया जाना चाहिए .

अवसाद और अस्थि -क्षय (ओस्त्यिओपोरोसिस )में रिश्ता है ..

हेब्र्यु यूनिवर्सिटी जेरुसलेम में संपन्न एक अध्धययन में रज यिर्मिया के नेत्रित्व में पता लगाया गया है ,युवतियों में डिप्रेशन भी अपेक्षया प्रोदाओं के रोग अस्थि क्षय (ओस्टियोपोरोसिस )की वजह बनता है .अस्थि क्षय एक अपविकासी रोग है जिसमे अस्थियाँ भंगुर होकर टूटने लगतीं हैं ,अस्थि घनत्व गिरने लगता है यानी लगातार शरीर से बोन मॉस का क्षय होने लगता है ।
हड्डियों का चरमरा कर टूटना गभीर विकलांगता के अलावा कभी कभार मौत की भी वजह बन जाता है ।
शोध दल ने आठ देशों में ज़ारी २३ प्रोजेक्ट्स से प्राप्त आंकड़ों का जायजा लिया ,पता चला युवतियों में मर्दों के बरक्स डिप्रेसन का ओस्टियोपोरोसिस से गहरा नाता है .यानी रजोनिवृत्ति से पहले ही के दौर में अवसाद इन मुग्धाओं को ओस्टियोपोरोसिस की ज़द में ले आता है ।
सन्दर्भ सामिग्री :-डिप्रेसन लिंक्ड तू ओस्टियोपोरोसिस इन यंग वूमेन (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,दिसम्बर १ ,२००९ )
प्रस्तुति :-वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )