एम् बी बी एस कोर्स में एक चेप्टर होता है ,प्लेसिबो इफेक्ट ऑफ़ दा ड्रग .आदमी इसलिए अच्छा हो जाता है ,फेमिली डॉक्टर ने उसे दवा दी है ,भले ही दवा गलत लिखी गई हो या फिर दवा के नाम पर सिर्फ मीठी गोली (छद्म दवा )ही दी गई हो .दिमाग को एक पोजिटिव सोफ्ट वेयर जाता है .ईट इज आल इन दा ब्रेन .प्लेसिबो अपना असरकारी जैविक प्रभाव भी दिखाने लगती है यही लब्बो लुआब है उस अध्ययन का जो एक रिव्यू के रूप में विज्ञान पत्रिका "लांसेट में छपा है ।
यानी यहाँ दिमाग बाज़ी जीत जाता है माइंड विन्स ओवर मैटर .अंतर्राष्ट्रीय माहिर एक राय हैं ,नीम हकीम भी छद्म दवा (गलत नुस्खा लिखकर )फायदा पहुंचा सकतें हैं ,मरीज़ का अपने भगवान् (डॉक्टर )पर भरोसा जो है .ठीक हो जाने का डॉक्टर द्वारा दिया भरोसा ब्रेन केमिस्ट्री को असरग्रस्त बना देता है .(आखिर ज्यादा तर रोग साइको -सोमाटिक ही तो हैं ,मन से काया में आ जातें हैं ,मन के हारे हार है मन के जीते जीत )।
बहरसूरत रिसर्च के नतीजों पर लौटतेंहैं ।
मनो विज्ञानी लिंडा ब्लेयर के मुताबिक़ (बाथ बेस्ड साइकोलोजिस्ट एंड स्पोक्स -वोमेन फॉर दी ब्रिटिश साइकोलोजिकल सोसाइटी )फायदा प्लेसिबो से नहीं होता है ,लोगों के उस विस्वास से होता है जो उन्होंने इनर्टपदार्थ (जड़ द्रव्य )में आरोपित किया हुआ है ।
डॉक्टरों को यह अच्छी तरह मालूम था ,ड्रग का प्लेसिबो इफेक्ट होता है ,लेकिन यह नहीं मालूम था ,छद्म दवा से भौतिक परिवर्तन भी हो सकतें हैं ।
लांसेट में प्रकाशित अध्धययन पर लौटतें हैं ,पार्किन्संस डिजीज से ग्रस्त लोगों को डमी टेबलेट्स दी गईं ,फिर भी उनके दिमागमें बायो केमिकल डोपामीन पैदा हुआ .दिमाग की दूसरी एक्टिविटीज़ में भी बदलाव आया .यही न्युरोत्रेंस मीटर सुखानुभूति (फील गुड की नवज बनता है )।
वाल्टर ब्राउन (क्लिनिकल प्रोफ़ेसर ऑफ़ साइकोलोजी )क्या कहतें हैं इस बाबत ?
आपके यह सोचने की देर होती है ,आप वह दवा ले रहें हैं जिससे फायदा होने वाला है ,और बस फायदा होने लगता है ,दिमाग ऐसा ही समझने लगता है .लेकिन यह विचार अमली जामा कैसे पहनता यह अभी अनुमेय ही है ।
सन्दर्भ सामिग्री :प्लेसिबोज़ में हेव बायलोजिकल इफेक्ट एज वेळ .(टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,फरवरी २० ,२०१० ).
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
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