Too much TV breeds criminal traits
एक नवीन अध्ययन के अनुसार वह बच्चे एवं किशोर जो बहुत ज्यादा टीवी देखते हैं वयस्क होते न होते उनमें
समाज विरोधी और आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ते चले जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है .न्यूज़ीलैंड के
ओटागोविश्वविद्यालय के रिसर्चरों के अनुसार वह नौनिहाल और किशोर जो बहुत ज्यादा समय बुद्धू बक्से के
आगे बिताते हैं उनके अपराध से आरोप पत्रित होने की संभावना और मौके बहुत बढ़ जाते हैं बालिग़ होते हुए
इनमें आपराधिक ट्रेट्स विकसित हो जाने के मौके भी बहुत बढ़ जाते हैं .
अपने अन्वेषण और वक्तव्य को स्पस्ट करते हुए इस अधययन के सहअध्येता कहतें हैं :ऐसा नहीं है की जो बच्चे
पहले ही आपराधिक प्रवृत्ति लिए हैं वह ज्यादा टीवी देखतें हैं ,तथ्य यह है जो नौनिहाल और किशोर -किशोरियां
ज्यादा देर तक रोजाना टीवी देखते हैं उनमें आपराधिक और समाज विरोधी चरित्र की विशिष्टता का प्रगटीकरण
वयस्क होते होते होने लगता है .
रिसर्चरों ने न्यूज़ीलैंड के Dunedin नगर में 1972-73 में पैदा हुए 1000 नौनिहालों का विवरण जुटाना शुरू किया
.5-15 की उम्र के दरमियान हर दो साल बाद इनसे पूछा जाता रहा वह रोज़ कितनी देर टीवी देखते हैं .इनकी
टीवी देखने की आदत का मानिटरन भी किया गया .निगरानी रखी गई इनकी आदतों पर .न्यायालय द्वारा
इन्हें दोषी ठहराए जाने की क्रिया (दोष सिद्धि )युवापन के देहलीज़ पर खड़े होते हरअतिरिक्त घंटा ( सप्ताहांत
की रात देखे
गए अतिरिक्त घंटों में ) ३ ० %के हिसाब से बढ़ती देखी गई .
यह भी पता चला बचपन में जो बच्चे बहुत ज्यादा टीवी देखते थे उनके बालिग़ होने पर उनमें न सिर्फ ज्यादा
आक्रामकता घर कर गई ,नकारात्मक संवेग (निगेटिव इमोशंस ) भी ज्यादा पैदा होने लगे .एंटीसोशल
पर्सनेलिटी डिसओर्डर का जोखिम भी बढ़ गया .यह एक ऐसा मनोविकार है जिसमें असामाजिक और आक्रामक
व्यवहार का एक पैट्रन ही उभर के सतह पर आ जाता है .
इस रिसर्च रिपोर्ट का लब्बोलुआब भी संक्षिप्त और दो टूक है ,सीधा है -
(१)रील लाइफ़ और रीयल लाइफ़ के बीच फासला इतना बढ़ गया है ,बच्चे और किशोरवृन्द अपनी दुनियाअलग
जीने
लगें
हैं .इसमें माँ बाप की दखल अंदाजी उन्हें पसंद नहीं है .
(२)माँ बाप की व्यस्तता अपनी खुद की होबी और तकाज़े पूरा करने का दंश झेलने के लिए बच्चे -किशोर वृन्द
अभिशप्त हैं .
(३ )शुरुआत इस चित्त निर्माण की माइंड सेट की ,बच्चों के मन की बुनावट की माँ बाप की तरफ से ही तब
हो जाती है जब अपनी
व्यस्तता और समय अभाव के चलते वह बच्चे को उठते ही टीवी के आगे बिठा देते हैं ,भले उसकी आँखें अभी बंद
हों .टीवी की आवाजें सुनके ही उसकी आँख खुलतीं है .
.धीरे -धीरे उसकी अलग दुनिया बन जाती है .
(४)कोई खुद गिरके संभलता है कोई किसी दूसरे का गिरना देखके ही संभल जाता है .आज एक ही घर में मौजूद
तीन पीढ़ियों में कमसे कम पचास साल का अंतराल आ गया है .हम इन तीन में से पहली पीढ़ी के लोग माँ बाप के
अभावों उपलब्धियों को देखते बूझते बड़े हुए .उसके साथ हमने एडजस्ट करना सीखा .इधर बोले उधर थप्पड़ पडा
कई घर तो ऐसे भी थे .अपना कुसूर न
होने पर भी हम अपना कुसूर मान लेते थे .
(५)जिन परफोर्मिंग आर्ट्स फॉर्म को देखते हुए हम बड़े हुए उनका स्वरूप समाज को एक नैतिक ऊर्जा से भर देता
था .नैतिक आंच प्रदान करता था .आज वैसा कुछ नहीं है ,रील लाइफ़ और रीयल लाइफ़ में ऐसा नहीं है कि तब
फासला न था .लेकिन इतना न था .आज तो दोनों में कम्पीट डिसकनेक्ट है .
(६ )रील लाइफ़ में हर समस्या का समाधान यांत्रिक हो गया है .सेक्स भी इससे अछूता नहीं रहा है उसकी तमाम
सम्वेगात्मकता ,रागात्मकता ,भाव समाधि का स्थान यौन आक्रात्मकता ने छीन लिया है .
(७ )जुवेनाइल शातिर इसी अंतराल से निर्मित हो रहें हैं सामाजिक प्रयोगशाला में .वजह बन रहा है बुद्धू बक्सा
.बच्चे का चित्त निर्माण इसी रील लाइफ़ से पूरी तरह हो रहा है .रीयल लाइफ़ से वह कट सा गया है .नतीजा है
खीझ ,आक्रामकता और अपराध प्रवृत्ति निर्माण .
सन्दर्भ -सामिग्री :-Too much TV breeds criminal traits /TIMES TRENDS /THE TIMES OF INDIA
,MUMBAI ,FEBRUARY 19 ,2013 ,P17
एक नवीन अध्ययन के अनुसार वह बच्चे एवं किशोर जो बहुत ज्यादा टीवी देखते हैं वयस्क होते न होते उनमें
समाज विरोधी और आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ते चले जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है .न्यूज़ीलैंड के
ओटागोविश्वविद्यालय के रिसर्चरों के अनुसार वह नौनिहाल और किशोर जो बहुत ज्यादा समय बुद्धू बक्से के
आगे बिताते हैं उनके अपराध से आरोप पत्रित होने की संभावना और मौके बहुत बढ़ जाते हैं बालिग़ होते हुए
इनमें आपराधिक ट्रेट्स विकसित हो जाने के मौके भी बहुत बढ़ जाते हैं .
अपने अन्वेषण और वक्तव्य को स्पस्ट करते हुए इस अधययन के सहअध्येता कहतें हैं :ऐसा नहीं है की जो बच्चे
पहले ही आपराधिक प्रवृत्ति लिए हैं वह ज्यादा टीवी देखतें हैं ,तथ्य यह है जो नौनिहाल और किशोर -किशोरियां
ज्यादा देर तक रोजाना टीवी देखते हैं उनमें आपराधिक और समाज विरोधी चरित्र की विशिष्टता का प्रगटीकरण
वयस्क होते होते होने लगता है .
रिसर्चरों ने न्यूज़ीलैंड के Dunedin नगर में 1972-73 में पैदा हुए 1000 नौनिहालों का विवरण जुटाना शुरू किया
.5-15 की उम्र के दरमियान हर दो साल बाद इनसे पूछा जाता रहा वह रोज़ कितनी देर टीवी देखते हैं .इनकी
टीवी देखने की आदत का मानिटरन भी किया गया .निगरानी रखी गई इनकी आदतों पर .न्यायालय द्वारा
इन्हें दोषी ठहराए जाने की क्रिया (दोष सिद्धि )युवापन के देहलीज़ पर खड़े होते हरअतिरिक्त घंटा ( सप्ताहांत
की रात देखे
गए अतिरिक्त घंटों में ) ३ ० %के हिसाब से बढ़ती देखी गई .
यह भी पता चला बचपन में जो बच्चे बहुत ज्यादा टीवी देखते थे उनके बालिग़ होने पर उनमें न सिर्फ ज्यादा
आक्रामकता घर कर गई ,नकारात्मक संवेग (निगेटिव इमोशंस ) भी ज्यादा पैदा होने लगे .एंटीसोशल
पर्सनेलिटी डिसओर्डर का जोखिम भी बढ़ गया .यह एक ऐसा मनोविकार है जिसमें असामाजिक और आक्रामक
व्यवहार का एक पैट्रन ही उभर के सतह पर आ जाता है .
इस रिसर्च रिपोर्ट का लब्बोलुआब भी संक्षिप्त और दो टूक है ,सीधा है -
(१)रील लाइफ़ और रीयल लाइफ़ के बीच फासला इतना बढ़ गया है ,बच्चे और किशोरवृन्द अपनी दुनियाअलग
जीने
लगें
हैं .इसमें माँ बाप की दखल अंदाजी उन्हें पसंद नहीं है .
(२)माँ बाप की व्यस्तता अपनी खुद की होबी और तकाज़े पूरा करने का दंश झेलने के लिए बच्चे -किशोर वृन्द
अभिशप्त हैं .
(३ )शुरुआत इस चित्त निर्माण की माइंड सेट की ,बच्चों के मन की बुनावट की माँ बाप की तरफ से ही तब
हो जाती है जब अपनी
व्यस्तता और समय अभाव के चलते वह बच्चे को उठते ही टीवी के आगे बिठा देते हैं ,भले उसकी आँखें अभी बंद
हों .टीवी की आवाजें सुनके ही उसकी आँख खुलतीं है .
.धीरे -धीरे उसकी अलग दुनिया बन जाती है .
(४)कोई खुद गिरके संभलता है कोई किसी दूसरे का गिरना देखके ही संभल जाता है .आज एक ही घर में मौजूद
तीन पीढ़ियों में कमसे कम पचास साल का अंतराल आ गया है .हम इन तीन में से पहली पीढ़ी के लोग माँ बाप के
अभावों उपलब्धियों को देखते बूझते बड़े हुए .उसके साथ हमने एडजस्ट करना सीखा .इधर बोले उधर थप्पड़ पडा
कई घर तो ऐसे भी थे .अपना कुसूर न
होने पर भी हम अपना कुसूर मान लेते थे .
(५)जिन परफोर्मिंग आर्ट्स फॉर्म को देखते हुए हम बड़े हुए उनका स्वरूप समाज को एक नैतिक ऊर्जा से भर देता
था .नैतिक आंच प्रदान करता था .आज वैसा कुछ नहीं है ,रील लाइफ़ और रीयल लाइफ़ में ऐसा नहीं है कि तब
फासला न था .लेकिन इतना न था .आज तो दोनों में कम्पीट डिसकनेक्ट है .
(६ )रील लाइफ़ में हर समस्या का समाधान यांत्रिक हो गया है .सेक्स भी इससे अछूता नहीं रहा है उसकी तमाम
सम्वेगात्मकता ,रागात्मकता ,भाव समाधि का स्थान यौन आक्रात्मकता ने छीन लिया है .
(७ )जुवेनाइल शातिर इसी अंतराल से निर्मित हो रहें हैं सामाजिक प्रयोगशाला में .वजह बन रहा है बुद्धू बक्सा
.बच्चे का चित्त निर्माण इसी रील लाइफ़ से पूरी तरह हो रहा है .रीयल लाइफ़ से वह कट सा गया है .नतीजा है
खीझ ,आक्रामकता और अपराध प्रवृत्ति निर्माण .
सन्दर्भ -सामिग्री :-Too much TV breeds criminal traits /TIMES TRENDS /THE TIMES OF INDIA
,MUMBAI ,FEBRUARY 19 ,2013 ,P17
10 टिप्पणियां:
न्यूक्लियर परिवारों में तो टीवी मन बच्चों का साथी ही है.... सचेत करती जानकारी
*मानो
टीवी अधिक देखने से जानकारिया इतनी अधिक बढ़ जाती हैं की बच्चा समय से पहले ही बड़ा हो जाता है इस कारण इस तरह का डिसऑर्डर होने लगता है |बढ़िया लेख |
आशा
हमारा तो अब टीवी देखने का मन ही नहीं करता है।
अच्छा आलेख !साथ ही यह भी कहूँगा की हमारी आंचलिक भाषा में दो शब्द है ठग बहरा और उचबक , जिसका हिन्दी अर्थ है जानबूझकर बहरा बनने की कोशिश करना और उचबक का मीनिंग हुआ सेंस आफ ह्यूमर की कमी। जो बच्चे बचपन से टीवी सीरिअलस में ज्यादा झुकाव रखते है आगेचालकर ये दो प्रकार की बीमारिया उनमे निश्चित तौर पर देखने को मिलती है।
बढ़िया लेख...Congratulations...
आशा जी ने सही फरमाया है,सचेत करती हुई उपयोगी प्रस्तुति.
हर वैज्ञानिक उपलब्धि में गुण व दोष दोनों होते हैं. इस लेख में जो सदेश आपने दिया है उससे लोगों में चेतना आनी चाहिए. साधुवाद.
एक और कटु सत्य-
सचेत करती है आज की पीड़ी को आपकी पोस्ट ...
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