बुधवार, 6 जनवरी 2010

पढ़े लिखे समाज में .(लघु कथा )

जी हाँ पढ़े लिखे समाज में हुआ था यह सब .उसकी लाश ना मालूम कितने दिनों से गंधा रहा थी .यूनिवर्सिटी केम्पस के लोग नाक पर उस क्वाटर के आगे से रूमाल ढककर निकल जाते थे .किसी भले मानुष की हिम्मत नहीं हुई ,आखिर पता करें मांजरा क्या है .यह दरवाज़ा कबसे नहीं खुला कोई नहीं जानता था .भला हो उन छात्रों को जो उस रोज़ अपने "सर "को ढूँढने आ निकले थे .कई दिनों से देखा जो नहीं था .टीचर छात्रों के दिलों में ही तो ज़िंदा रहता है .यूँ मैं भी उनसे सीखता समझता था ,एक कलीग के नाते ,अंग्रेजी के एक धुरंदर विद्वान के नाते मैं सदैव ही शिष्य भाव से उनके संग बैठता .तब मैं भी कहाँ जानता था ,कैलाश विशाल राठी साहिब बाई -पोलर इलनेस से ग्रस्त हैं .मैं भी सुनी सुनाई बातों को ही सच मानता था -"पागल है साला ,ठरकी भी अपने को अति महान मानता समझता है ......"और यह सच भी था -महान होने का बोध उन्हें था भी .दस साल इंग्लेंड में रहे .डेनियल जोन्स का यह शिष्य वास्तव में उच्चारण का महारथी था .कहतें हैं ,आखिरी दिनों में इन्होने अपने क्वाटर में एक सुरंग खोद ली थी ,कई मर्तबा रास्ते में आये मेंन होल के सामने खड़े होकर सावधान की मुद्रा में ,जन गन मन अधिनायक ,का जय घोष करने लगते .लेकिन यह आदमी यूँ चला जाएगा ,अनाम सा ,बिना इलाज़ ,सोचा नहीं था .मनो रोगोयों को हमारा समाज ,पागल ही तो मान बैठा है ,जबकि थोड़ा बहुत पागल पन ,आम व्यवहार से विचलन हम सब में है .पता नहीं उनकी अस्थियों का क्या हुआ ?.छात्र अवशेष ले तो गए थे उनके जवान पुत्र और पत्नी के पास जो कब के उनसे पल्ला झाड चुके थे .वो भी कहाँ जानते थे ,इस नेक इंसान को इलाज़ की भी ज़रुरत है ,जबकि यूनिवर्सिटी से ही सम्बद्ध मेडिकल कालिज और अस्पताल है ,अलग से मनो रोग विभाग है ,कोंसेलिंग सेल है .सब बेकार .पहल कौन करे इस अध् कचरे पड़े लिखे समाज में .मनो रोगियों से ज्यादा हलूसिनेशन से यही पढ़ा लिखा समाज ज्यादा ग्रस्त है ,जो मनो रोग को साफ़ छिपा जाता है .ज़िंदा रहता ता उम्र नकार की मुद्रा बनाए .

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