अतिथि गज़ल :डॉ .वागीश मेहता
साँसों पे बंदिश हुई हजरात क्या ,
दिन क़यामत की हुए सौगात क्या .
सूर्य की किरणें जहां हों ,कैद में ,
चांदनी की वाँ भला औकात क्या .
ज़िन्दगी हो गई किराने की दू काँ,
आदमी के अब भला ज़ज्बात क्या .
रोज़ का भुगतान हो जब आदमी ,
तब नए एहसास की शुरुआत क्या .
जिनका जीना हो शहादत की किताब ,
उनके सीने पर भला तगमात क्या .
हर बशर की साख रुसवा हो गई ,
मौत से बदतर हुए हालात क्या .
रौशनी का हो गया चेहरा स्याह ,
बेरहम इतनी हुई कायनात क्या .
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरू भाई )
साँसों पे बंदिश हुई हजरात क्या ,
दिन क़यामत की हुए सौगात क्या .
सूर्य की किरणें जहां हों ,कैद में ,
चांदनी की वाँ भला औकात क्या .
ज़िन्दगी हो गई किराने की दू काँ,
आदमी के अब भला ज़ज्बात क्या .
रोज़ का भुगतान हो जब आदमी ,
तब नए एहसास की शुरुआत क्या .
जिनका जीना हो शहादत की किताब ,
उनके सीने पर भला तगमात क्या .
हर बशर की साख रुसवा हो गई ,
मौत से बदतर हुए हालात क्या .
रौशनी का हो गया चेहरा स्याह ,
बेरहम इतनी हुई कायनात क्या .
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरू भाई )
4 टिप्पणियां:
"खरामे खरामे जिए जा रहे हैं ,जह्रार
जिन्दगी का पिए जा रहें हैं ,अपनी अर्थी
उठा हम चले जा रहें हैं ,कफ़न खुद अपना
बुने जा रहें हैं ....बेहतरीन
प्रभावी प्रस्तुति ||
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें-
आज गणतंत्र दिवस पर बहुत मौजू है यह कविता और आत्मचिंतन को उद्वेलित कर रही है!
बहुत खूब, दमदार अभिव्यक्ति..
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