शनिवार, 5 जनवरी 2013

हाँ देह आगे होती है सम्बन्ध पीछे

हाँ देह आगे होती है सम्बन्ध भावना पीछे

एक वक्त था औरत की  देह समाज के बीच में होती थी उससे अलग नहीं .उसपे  नजर  ज़रूर पड़ती थी,

अगले ही पल एक इल्म होता था यह मेरी माँ है ,चाची  है ,भाभी है , बहन है या फिर बेटी . इस सम्बन्ध

भावना के ऊपर एक विवेक होता था सामाजिक समबुद्धि रहती  थी ,विवेक होता था संयम होता था .

नारी देह अब डाईनिंग टेबिल पर सजी सलाद की प्लेट हो गई है .विज्ञापन से लेकर कैट वाल्क तक प्रदर्शन

की चीज़ हो गई है .दिखाऊ और उठाऊ सबसे बड़ा संकट इस सोच का है .


इसका सबूत है यह सोच और गीत संगीत -'तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त '

आज समाज के पास राष्ट्र के पास कोई आचार संहिता नहीं है सरकार के पास कोई कार्यक्रम नहीं है अच्छा

नागरिक बनाने वाला .

कोई दृष्टि नहीं है विवेक नहीं है .कैसे महिला को आधी आबादी को सुरक्षा प्रदान की जाए .उसकी मर्यादा का

कोई हनन न करने पाए .ऐसा कोई कार्यक्रम या सोच नहीं है सरकार के पास .मंद मति राजनीतिक आधी

आबादी को  ही

मर्यादा का पाठ पढ़ा रहें हैं .

सीता तो वेशधारी बहरूपिए भिखारी भेष भरके आये रावण को भिक्षा देते वक्त अपना धर्म ही निभा रही थी .
उसने कोई अपराध नहीं किया था .लक्ष्मण रेखा का सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन रावण ने किया था

.आज भी  कर रहा है   ,कोई    सीता   या निर्भया  नहीं .

अधिकारी ,अनाधिकारी, पात्र ,अपात्र सब अपनी राय दे रहें हैं .चैनल वाले इधर उधर से दो चार शब्द सुने

सुनाये पकड लेतें हैं इन्हीं पर परिचार्चा आयोजित करा देते हैं  .भले इनकी आवाज़ बहुत दूर तक जाती है

लेकिन कोई दूरदृष्टि भी हो समझ हो इनके

पास  इसका

कोई सबूत नहीं मिलता .

परिचर्चाओं में माहिर भी ऐसे ही होते हैं .एक माहिर कह रहे थे जुडो काराटे   सिखाओ लड़कियों को तीन

साल

की उम्र से ही .

कोई सामाजिक कार्यक्रम नहीं है इनके पास .फ्रायड साहब और उनके अनुयाई फरमाते हैं शिशु में भी काम

वासना होती है स्तन पान करते वक्त .उनके बहुत सारे चेले मनोविज्ञान के चंद पाठ पढ़ आयें हैं ,लेकिन

मानव मन की असंख्य परतों


,उनसे चालित भावों संवेगों ,अनुभावों का पूरा ब्योरा और खाका किसी के पास नहीं है .

हर कोई लक्षणों का इलाज़ करना चाहता है सामाजिक बीमार सोच का नहीं .कैसे चलेगा बिना सोच के

नैतिक  पाठ के समाज .

एक अल्प वयस्क  बर्बर वहशियाना अपराध  करता है क़ानून कहता है वह अभी 18 साल का नहीं है .दो दिन

बाद होगा

अठारह साल का .जैसे दो दिन बाद वह राष्ट्र को  चार चाँद लगा देगा   .कैसा क़ानून है यह ?

भाई साहब वोट के अठारह साल और अपराध के अठारह साल बराबर नहीं होते .अठारह साल में आठ दिन

कम रह जाने से अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती  है .

सजा के बारे में भी तरह तरह के सुझाव आ रहे हैं .सरकार यही चाहती थी  ऐसा ही हो जैसा फ़िज़ूल

का बहस मुबाहिसा हो रहा है .लोग असल मुद्दों से भटक जाएं .

एक साहब कह रहे थे लड़की के पीछे आने वालों के लिए उसे तंग करने वालों स्टालकअर्स के लिए सजा

उतनी नहीं होनी चाहिए .जैसे  पीछे पीछे आना आतंकित करना पीछे से कपडे फाड़ना संविधान स्वीकृत है .

यह संकट नैतिक है और हमला औरत की अस्मिता पर है यदि इसे हलके में लिया गया तो इसकी अंतिम

परिणति

बलात्कार में ही होगी .अस्मिता पे हमला हमला है फिकरे बाज़ी भी पीछे आके डराना डराते रहना लगातार

तो बहुत गंभीर बात है  .एक नैतिक क़ानून ,सामाजिक मान्यता का अपमान है   यह फिकरे बाज़ी ये

लम्पटप व्यवहार .



.उसके लिए एक मानक सज़ा सबके लिए होना ज़रूरी है तुरता सजा .







3 टिप्‍पणियां:

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

आपने सही फ़रमाया सर ! गुनाह सामने, गुनहगार सामने.... फिर न्याय में देरी आख़िर क्यूँ ???
इन्हें सज़ा देने में अब वक़्त नहीं लगना चाहिए...! ऐसे बर्बर, हैवानियत से भरे गुनाह के लिए... कोई रियायत नहीं होनी चाहिए !
~सादर!!!

Rohitas Ghorela ने कहा…

फ्रायड तो खुद कहता है की मैं पागल हूँ ...उसका अँधा अनुसरण करना तो गलत ही है ..ओशो भी कुछ ऐसा सा ही कहता है। ये सही भी है सज़ा अपराध को देखते हुए मिलनी चाहिए न की उम्र को... अपराध अपराध ही होता है। कानून तो बने हुए ही है साथ ही पर उनसे बचने के लिए गलियां निकाल दी जाती है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

स्थूल से ही सूक्ष्मता की ओर बढ़ता है संसार।