Nature nurtures the brain
एकाग्रता बढ़ाता है प्रकृति का संग साथ ,पहाड़ों,पर्बतों घाटियों की सैर ,नदियों और सागर का किनारा .तदनुरूप
हो
जातें हैं प्रकृति के सानिद्द्य में संसर्ग में हमलोग .हमारी रचनात्मकता ,मुश्किल सवालों के हल निकालने की
हमारी दक्षता बढ़
जाती है .पूरब का खासकर योग का यह बुनियादी दर्शन रहा है अब शोध के झरोखे से छनके इसी की पुष्टि होने
लगी है .
बस करना यह है गेजेट्स ,मोबाइल ,आई पॉड्स ,स्मार्ट फोन्स ,हेड फोन्स फैंक दीजिये प्रकृति से उसके
उपादानों से जुड़िये .
रिसर्चरों के अनुसार बेक्पेकर्स ने रचनात्मक परीक्षणों ,किर्येटिव टेस्टों में पचास फीसद बेहतर प्रदर्शन तब किया
जब उनके इलेक्ट्रनिक उपकरणों से उन्हें अलग करके खाने पीने का सामान पीठ पे लादके कुदरत के नज़ारे
देखने के लिए चार दिन के लिए अलग कर दिया गया .
Outward Bound Organisation ने 56 स्वयंसेवियों को बेकपैक देके पर्बतों घाटियों की सैर के लिए अलग अलग
टुकड़ियों में बांटके एक अभियान के तहत भेज दिया .अभियान से पहले और बाद में इनका रचनात्मक परीक्षण
किया गया .अभियान से पहले जहां इनके दस में से चार सवाल ही ठीक पाए गए वहीँ चार दिनी अभियान के
बाद दस में से छ :सवालों के ज़वाब सही दिए .ज़ाहिर है प्रकृति के संसर्ग में रहने ,दैनिक जीवन की आकस्मिक
घटनाओं ,सायरन ,हॉर्न ,टेलीफोन की घंटियों ,टेलीविजन की सिग्नेचर ट्यून से सिर्फ चार दिन ही बचे रहने से
इनके रचनात्मक प्रदर्शन में प्रोब्लम सोल्विंग स्किल्स में सुधार आया .
पूर्व के अध्ययनों से पुष्ट हुआ था लम्बी सैर पे निकल जाने से ऐसा करते रहने से प्रूफ रीडिंग में सुधार आता है
.प्रकाश से पैदा मृग मरीचिका (Optical illusion ) से भर्मित चकित होने में कमी आती है ,परसेप्शन सुधरता है .
उलटी गिनती करने की क्षमता सुधरती है .
अफ़सोस यही है प्रकृति से हमारा नाता उसके संसर्ग में बिताये फुर्सत के क्षण अब दिवा स्वप्न होते जा रहें हैं
सैर को निकलते वक्त भी हमारे कानों में हेड फोन चस्पां होतें हैं या आई पोड पे चलता तेज़ संगीत।ऐसे में प्रकृति
नटी से तदानुरूप कैसे होवें ?
Psychologists from the University of Utah who led the study said :"Our modern society is filled with
sudden events (sirens ,horns ,ringing phones ,alarms ,television )that hijack attention .By contrast
natural environments are associated with gentle soft fascination ,allowing the executive attention
system to replenish."
एग्ज़िक्युतिव अटेंशन का मतलब होता है एक टास्क से दूसरी पर बिना एकाग्रता खोये तेज़ी से जाना
.आधुनिक जीवन की प्रोद्योगिकी का यह सहज तकाजा है .लेकिन फोन की घंटी की आवाज़ ,सायरन .हॉर्न
आदि की अवांछित आवाजें ध्यान भंग करती है .
कार्यनिष्पादनपरक एकाग्रता (executive attention )इन्हीं विक्षोभों से भंग होती है .
पब्लिक लाइब्रेरी आफ साइंस (PLoS) के आन लाइन जर्नल में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है .
साइंसदानों के लिए एक सवाल खड़ा हुआ है :प्रदर्शन में सुधार क्या प्रकृति से जुड़ने से आया या इलेक्ट्रोनी
गेजेट के चौबीसों घंटा होने वाले आकस्मिक हमले से बचाव की वजह से ?या फिर दोनों से ?
एकाग्रता बढ़ाता है प्रकृति का संग साथ ,पहाड़ों,पर्बतों घाटियों की सैर ,नदियों और सागर का किनारा .तदनुरूप
हो
जातें हैं प्रकृति के सानिद्द्य में संसर्ग में हमलोग .हमारी रचनात्मकता ,मुश्किल सवालों के हल निकालने की
हमारी दक्षता बढ़
जाती है .पूरब का खासकर योग का यह बुनियादी दर्शन रहा है अब शोध के झरोखे से छनके इसी की पुष्टि होने
लगी है .
बस करना यह है गेजेट्स ,मोबाइल ,आई पॉड्स ,स्मार्ट फोन्स ,हेड फोन्स फैंक दीजिये प्रकृति से उसके
उपादानों से जुड़िये .
रिसर्चरों के अनुसार बेक्पेकर्स ने रचनात्मक परीक्षणों ,किर्येटिव टेस्टों में पचास फीसद बेहतर प्रदर्शन तब किया
जब उनके इलेक्ट्रनिक उपकरणों से उन्हें अलग करके खाने पीने का सामान पीठ पे लादके कुदरत के नज़ारे
देखने के लिए चार दिन के लिए अलग कर दिया गया .
Outward Bound Organisation ने 56 स्वयंसेवियों को बेकपैक देके पर्बतों घाटियों की सैर के लिए अलग अलग
टुकड़ियों में बांटके एक अभियान के तहत भेज दिया .अभियान से पहले और बाद में इनका रचनात्मक परीक्षण
किया गया .अभियान से पहले जहां इनके दस में से चार सवाल ही ठीक पाए गए वहीँ चार दिनी अभियान के
बाद दस में से छ :सवालों के ज़वाब सही दिए .ज़ाहिर है प्रकृति के संसर्ग में रहने ,दैनिक जीवन की आकस्मिक
घटनाओं ,सायरन ,हॉर्न ,टेलीफोन की घंटियों ,टेलीविजन की सिग्नेचर ट्यून से सिर्फ चार दिन ही बचे रहने से
इनके रचनात्मक प्रदर्शन में प्रोब्लम सोल्विंग स्किल्स में सुधार आया .
पूर्व के अध्ययनों से पुष्ट हुआ था लम्बी सैर पे निकल जाने से ऐसा करते रहने से प्रूफ रीडिंग में सुधार आता है
.प्रकाश से पैदा मृग मरीचिका (Optical illusion ) से भर्मित चकित होने में कमी आती है ,परसेप्शन सुधरता है .
उलटी गिनती करने की क्षमता सुधरती है .
अफ़सोस यही है प्रकृति से हमारा नाता उसके संसर्ग में बिताये फुर्सत के क्षण अब दिवा स्वप्न होते जा रहें हैं
सैर को निकलते वक्त भी हमारे कानों में हेड फोन चस्पां होतें हैं या आई पोड पे चलता तेज़ संगीत।ऐसे में प्रकृति
नटी से तदानुरूप कैसे होवें ?
Psychologists from the University of Utah who led the study said :"Our modern society is filled with
sudden events (sirens ,horns ,ringing phones ,alarms ,television )that hijack attention .By contrast
natural environments are associated with gentle soft fascination ,allowing the executive attention
system to replenish."
एग्ज़िक्युतिव अटेंशन का मतलब होता है एक टास्क से दूसरी पर बिना एकाग्रता खोये तेज़ी से जाना
.आधुनिक जीवन की प्रोद्योगिकी का यह सहज तकाजा है .लेकिन फोन की घंटी की आवाज़ ,सायरन .हॉर्न
आदि की अवांछित आवाजें ध्यान भंग करती है .
कार्यनिष्पादनपरक एकाग्रता (executive attention )इन्हीं विक्षोभों से भंग होती है .
पब्लिक लाइब्रेरी आफ साइंस (PLoS) के आन लाइन जर्नल में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है .
साइंसदानों के लिए एक सवाल खड़ा हुआ है :प्रदर्शन में सुधार क्या प्रकृति से जुड़ने से आया या इलेक्ट्रोनी
गेजेट के चौबीसों घंटा होने वाले आकस्मिक हमले से बचाव की वजह से ?या फिर दोनों से ?
2 टिप्पणियां:
यह कृत्रिम मनुष्य है
प्रकृति का मन से ग़ज़ब साम्य है।
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