शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

श्रीमद भगवत गीता किसी सम्प्रदाय (धर्म विशेष )विशेष का ग्रन्थ नहीं है

जय भगवत गीते ! जय भगवत गीते !
हरि हिय कमल विहारिणि सुन्दर सुपुनीते !

कर्म सुमर्म प्रकाशिनि, कामासक्ति हरा ।
तत्वज्ञान विकाशिनि विद्या ब्रह्मपरा ॥


Yogi Anand Ji ने एक कड़ी साझा किया
जय भगवत गीते ! जय भगवत गीते !
हरि हिय कमल विहारिणि सुन्दर सुपुनीते !

कर्म सुमर्म प्रकाशिनि, कामासक्ति हरा ।
तत्वज्ञान विकाशिनि विद्या ब्रह्मपरा ॥

अति सुन्दर मनोहर। गुरु आनंदजी के मुख कमल का आभूषण है गीता। श्रृंगार है उनके तनबदन 

आत्मा का। 

श्रीमद भगवत गीता किसी सम्प्रदाय (धर्म विशेष )विशेष का ग्रन्थ नहीं है। यह तो जीवन के 

नियमों सम्पूर्ण मानवता का ग्रन्थ है गीता।


कार्य व्यापारों के सुचारू संचालन के लिए अनुदेश देने वाला ग्रन्थ है। सृष्टि के नियमों के संचालन का 

ग्रन्थ है गीता। कर्म फल की चिंता से मुक्त करती है हमें गीता। प्राणी तू कर्म करता जा फल की 

चिंता 

कर एनर्जी न गँवा।संकल्पों को व्यर्थ न कर। चिंता का सृजन कर उसका चर्वण न कर। मानसी 

सृष्टि 

है चिंता तुम्हारे मन की ही संतान है।  

यहाँ इस सृष्टि मंच पर आत्मा का आना जाना लगा रहता है। शरीर ही जन्म लेते  हैं मरते रहतें

 हैं। 

आत्मा नए वस्त्र पहन फिर कर्म में जुट जाती है।  समय चक्र से निबद्ध हो अपने पुराने  वस्त्र 

बदलती 

रहती है। यहाँ कुछ भी थिर (स्थिर ,जड़ )नहीं है ,इलेक्ट्रोन की तर्क कर्मशील है गतिमान है। 

ॐ शान्ति


इन सेकुलरिष्टों को सेकुलैरिटी ही खायेगी -


सेकुलरिज्म क्या है

- दुर्गा शक्ति ही समझाएगी ,

मुलायम की अब मुलामियत छोड़ो -

बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी 

ॐ शान्ति 

7 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

आनदं आनदं

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सबके लिये ईश्वर का गीत, गीता।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

@प्राणी तू कर्म करता जा फल की चिंता कर एनर्जी न गँवा।
इस बात मैं सहमत नहीं हूँ . बिना फल की चिंता किये किसी भी काम में मन लगाना या लगन से करना असंभव है.विद्यार्थी को अच्छा अंक प्राप्त करना है इसीलिए उसे पढना है. उसे अच्छा पैसा वाला नौकरी चाहिए ,इसीलिए एम् बी ए करना है . उसे वैज्ञानिक या डॉक्टर बनना है तो विज्ञानं पढना है इतिहास पढ़कर डॉक्टर नहीं बन सकते.इसीलिए पहले फल की चिंता आरके ही कर्म करे. तभी आशानुरूप फल मिलेगा अन्यथा नहीं . असल में गीता का श्लोक "कर्मणि +अधिकार +असते मा फलेषु कदाचन " का गलत अर्थ निकाल जाता है . उसका सही अर्थ होना चाहिए " कर्म आपके अधिकार क्षेत्र में है ,आप जैसा चाहे करे . लगन से करे या बे -दिली से करे ,आपके ऊपर निर्भर है .परन्तु उस कर्म का फल कैसे और कितना मिलने वाला है उसपर आपका कोई कंट्रोल नहीं है .यह तो न्यायाधीश (ईश्वर) की मर्जी पर निर्भर है .लगन से अच्छा काम किया तो अच्छा फल मिलेगा ,नहीं किया तो नहीं मिलेगा .लेकिन फल के इच्छा के बिना कोई कम वास्तव में होता ही नहीं. महाभारत का युद्ध भी जितने (फल )की इच्छा से किया गया था
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ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही सुंदर और साम्यिक सटीक.

रामराम.

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुंदर ..प्रासंगिक और ज्ञानवर्धक व्याख्या

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

वाह . अच्‍छा लगा पढ़कर

Unknown ने कहा…

बात तो सही है।