गीता दूसरा अध्याय :सांख्य योग
श्लोक (४ ):
अर्जुन बोले -हे मधुसूदन ,मैं इस रणभूमि में भीष्म और द्रोण के विरुद्ध बाणों से कैसे युद्ध करूँ ?हे अरिसूदन वे दोनों ही पूजनीय हैं। यहाँ अर्जुन ने भगवान के लिए अपने पूरे विवेक सहित मधुसूदन और अरिसूदन संबोधनों का प्रयोग किया है। मधुसूदन एक राक्षस था जिसको भगवान कृष्ण ने मारा था तथा अरिसूदन शत्रुओं का संहार करने वाले को कहा जाता है।
अर्जुन कहना चाहते हैं तुमने तो भगवन राक्षस और शत्रुओं का संहार किया था भीष्म और द्रोण के प्रति मैं कैसे वह प्रत्यंचा खींचूँ जिस पर उन्होंने ही मुझे बाण रखना सिखाया था ?जिन कृपाचार्य ने हमें संस्कृति दी ये सब भद्र जन मेरे पूजनीय हैं इन पर मैं बाण कैसे चलाऊँ। क्या यह अच्छी बात होगी ?
(५)अर्जुन कह रहें हैं इन महानुभाव गुरुजनों को मारने से अच्छा इस लोक मैं भिक्षा का अन्न खाना है,क्योंकि गुरुजनों को मारकर तो इस लोक में उनके रक्त से सने हुए अर्थ और कामरूपी भोगों को ही तो भोगूंगा।
इन्हें मारकर तो जो राज्य मिलेगा वह भी इनके खून से सना हुआ ही होगा। जो भी पदार्थ हमें मिलेंगे सब रक्तरंगी ही दिखेंगे।
यहाँ हम अर्जुन से सहमत नहीं हैं क्योंकि व्यक्ति निष्ठा से सत्य की निष्ठा श्रेष्ठ है। गुरु भी अगर अ -सत्य के साथ चल रहा है मानवता के विरुद्ध काम कर रहा है ,उसे रोका जाना चाहिए।
(६ )अर्जुन कहे जा रहे हैं कृष्ण सुने जा रहे हैं -और हम यह भी नहीं जानते कि हम लोगों के लिए (युद्ध करना या न करना ,इन दोनों में )कौन -सा काम अच्छा है। अथवा यह कि हम जीतेंगे या वे जीतेंगे। जिन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते ,वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।
इन परिश्थितियों में युद्ध करना श्रेयकर है ,हम यह भी नहीं जानते। धृत राष्ट्र पक्ष के लोग ही सब हमारे सामने खड़े हैं ऐसे पापियों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता मिलेगी ?
अधर्मियों को देख कर अर्जुन का आत्मविशावस छीजने लगता है यह वही अर्जुन थे जो युद्ध स्थल का निरीक्षण करने पूरे आत्मविश्वास से उतरे थे -चलो देखें तो सही कौन लोग हैं जो मुझसे युद्ध में जीतना चाहते हैं।
(७ )अर्जुन यह सोचते हुए -शायद मेरे अन्दर ही कोई कमी रही होगी सोचते हुए भगवान् से पूछते हैं :
इसलिए करुणापूर्ण और कर्तव्य पथ से भ्रमित मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि मेरे लिए जो निश्चय ही कल्याण कारी हो उसे आप कृपया कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ ,शरण में आये मुझको आप शिक्षा दीजिये।
आजतक दुर्बलताओं ने ही हमाए मन पर राज्य किया है। अक्सर हम अपने दोषों को नहीं देखते हैं उन्हें भरसक ढके रहने की चेष्टा करते हैं। "ऐसा नहीं है वैसा नहीं है "हम कहते हुए अपने दोषों पे पर्दा डालते रहते हैं। लेकिन अर्जुन साफ़ अपने दोषों का बखान खुद ही कर रहा है। "हो सकता है मुझे अपने दोष दिखाई न देते हों इसलिए कायरता रुपी दोषों के स्वभाव से भरा हुआ मैं आपसे पूछता हूँ -इस धर्म के मार्ग में मैं अब बिलकुल भर्मित हूँ। हमारा कल्याण जिसमें हो वह हमें बताइये।"- अब मैं आपका शिष्य हूँ मेरे ऊपर अब अनुशाशन भी आपका ही होना चाहिए।
धर्म की परिभाषा की जा सकती है। धर्म वह शाश्वत नियम है जो सृष्टि और संसार की व्यवस्था को चलाता है ,बनाए रखता पोषित करता है। सृष्टा और सृष्टि के बीच यह शाश्वत सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त धर्म का अर्थ जीवन पद्धति ,कर्तव्य ,न्याय संगत व्यवहार ,आदर्श आचरण ,गुण श्रेष्ठता ,प्रकृति ,गुणात्मकता ,नैतिक सिद्धांत और सत्य भी है। अधर्म धर्म का विलोप है। विलोम शब्द है धर्म का। संकट कालीन समय में विज्ञ जनों का मार्ग दर्शन अपेक्षित .
भारत की आज यही स्थिति है धर्म का प्राय: लोप हो चुका है। श्रेष्ठाचार के स्थान पर भ्रष्टाचार का ही बोल बाला है उसी का अनुरक्षण भी किया जा रहा है। अपना दोष देख लेने में समर्थ अब कोई अर्जुन भी नहीं है यहाँ।
ॐ शान्ति
संदर्भ सामिग्री :स्काइप क्लास योगी आनंद जी का क्लास रूम।
श्लोक (४ ):
अर्जुन बोले -हे मधुसूदन ,मैं इस रणभूमि में भीष्म और द्रोण के विरुद्ध बाणों से कैसे युद्ध करूँ ?हे अरिसूदन वे दोनों ही पूजनीय हैं। यहाँ अर्जुन ने भगवान के लिए अपने पूरे विवेक सहित मधुसूदन और अरिसूदन संबोधनों का प्रयोग किया है। मधुसूदन एक राक्षस था जिसको भगवान कृष्ण ने मारा था तथा अरिसूदन शत्रुओं का संहार करने वाले को कहा जाता है।
अर्जुन कहना चाहते हैं तुमने तो भगवन राक्षस और शत्रुओं का संहार किया था भीष्म और द्रोण के प्रति मैं कैसे वह प्रत्यंचा खींचूँ जिस पर उन्होंने ही मुझे बाण रखना सिखाया था ?जिन कृपाचार्य ने हमें संस्कृति दी ये सब भद्र जन मेरे पूजनीय हैं इन पर मैं बाण कैसे चलाऊँ। क्या यह अच्छी बात होगी ?
(५)अर्जुन कह रहें हैं इन महानुभाव गुरुजनों को मारने से अच्छा इस लोक मैं भिक्षा का अन्न खाना है,क्योंकि गुरुजनों को मारकर तो इस लोक में उनके रक्त से सने हुए अर्थ और कामरूपी भोगों को ही तो भोगूंगा।
इन्हें मारकर तो जो राज्य मिलेगा वह भी इनके खून से सना हुआ ही होगा। जो भी पदार्थ हमें मिलेंगे सब रक्तरंगी ही दिखेंगे।
यहाँ हम अर्जुन से सहमत नहीं हैं क्योंकि व्यक्ति निष्ठा से सत्य की निष्ठा श्रेष्ठ है। गुरु भी अगर अ -सत्य के साथ चल रहा है मानवता के विरुद्ध काम कर रहा है ,उसे रोका जाना चाहिए।
(६ )अर्जुन कहे जा रहे हैं कृष्ण सुने जा रहे हैं -और हम यह भी नहीं जानते कि हम लोगों के लिए (युद्ध करना या न करना ,इन दोनों में )कौन -सा काम अच्छा है। अथवा यह कि हम जीतेंगे या वे जीतेंगे। जिन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते ,वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।
इन परिश्थितियों में युद्ध करना श्रेयकर है ,हम यह भी नहीं जानते। धृत राष्ट्र पक्ष के लोग ही सब हमारे सामने खड़े हैं ऐसे पापियों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता मिलेगी ?
अधर्मियों को देख कर अर्जुन का आत्मविशावस छीजने लगता है यह वही अर्जुन थे जो युद्ध स्थल का निरीक्षण करने पूरे आत्मविश्वास से उतरे थे -चलो देखें तो सही कौन लोग हैं जो मुझसे युद्ध में जीतना चाहते हैं।
(७ )अर्जुन यह सोचते हुए -शायद मेरे अन्दर ही कोई कमी रही होगी सोचते हुए भगवान् से पूछते हैं :
इसलिए करुणापूर्ण और कर्तव्य पथ से भ्रमित मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि मेरे लिए जो निश्चय ही कल्याण कारी हो उसे आप कृपया कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ ,शरण में आये मुझको आप शिक्षा दीजिये।
आजतक दुर्बलताओं ने ही हमाए मन पर राज्य किया है। अक्सर हम अपने दोषों को नहीं देखते हैं उन्हें भरसक ढके रहने की चेष्टा करते हैं। "ऐसा नहीं है वैसा नहीं है "हम कहते हुए अपने दोषों पे पर्दा डालते रहते हैं। लेकिन अर्जुन साफ़ अपने दोषों का बखान खुद ही कर रहा है। "हो सकता है मुझे अपने दोष दिखाई न देते हों इसलिए कायरता रुपी दोषों के स्वभाव से भरा हुआ मैं आपसे पूछता हूँ -इस धर्म के मार्ग में मैं अब बिलकुल भर्मित हूँ। हमारा कल्याण जिसमें हो वह हमें बताइये।"- अब मैं आपका शिष्य हूँ मेरे ऊपर अब अनुशाशन भी आपका ही होना चाहिए।
धर्म की परिभाषा की जा सकती है। धर्म वह शाश्वत नियम है जो सृष्टि और संसार की व्यवस्था को चलाता है ,बनाए रखता पोषित करता है। सृष्टा और सृष्टि के बीच यह शाश्वत सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त धर्म का अर्थ जीवन पद्धति ,कर्तव्य ,न्याय संगत व्यवहार ,आदर्श आचरण ,गुण श्रेष्ठता ,प्रकृति ,गुणात्मकता ,नैतिक सिद्धांत और सत्य भी है। अधर्म धर्म का विलोप है। विलोम शब्द है धर्म का। संकट कालीन समय में विज्ञ जनों का मार्ग दर्शन अपेक्षित .
भारत की आज यही स्थिति है धर्म का प्राय: लोप हो चुका है। श्रेष्ठाचार के स्थान पर भ्रष्टाचार का ही बोल बाला है उसी का अनुरक्षण भी किया जा रहा है। अपना दोष देख लेने में समर्थ अब कोई अर्जुन भी नहीं है यहाँ।
ॐ शान्ति
संदर्भ सामिग्री :स्काइप क्लास योगी आनंद जी का क्लास रूम।
"स्वदेशो भुवनत्रयम्"
इस जगत में जो लोग भी अपना अस्तित्व संसार से मानते हैं, उनके लिये ये संसार कभी ना कभी बेवफा, बेगाना अवश्य हो जायेगा, परन्तु जो अपना अस्तित्व एक मात्र भगवान से मानते हैं, उनके लिये तो यह बेगाना संसार भी भगवान का ही एक स्वरुप बन जाता है ।
इस जगत में जो लोग भी अपना अस्तित्व संसार से मानते हैं, उनके लिये ये संसार कभी ना कभी बेवफा, बेगाना अवश्य हो जायेगा, परन्तु जो अपना अस्तित्व एक मात्र भगवान से मानते हैं, उनके लिये तो यह बेगाना संसार भी भगवान का ही एक स्वरुप बन जाता है ।
06 August 2013 Murli
Murli Pdfs
Murli Video
Audio Murli Hindi
Hindi Murli
मुरली सार:- “मीठे बच्चे – माया की पीड़ा से बचने के लिए बाप की शरण में आ जाओ, ईश्वर की शरण में आने से 21 जन्म के लिए माया के बंधन से छूट जायेंगे”प्रश्न:- तुम बच्चे किस पुरूषार्थ से मन्दिर लायक पूज्यनीय बन जाते हो?
उत्तर:- मन्दिर लायक पूज्यनीय बनने के लिए भूतों से बचने का पुरूषार्थ करो। कभी भी किसी भूत की प्रवेशता नहीं होनी चाहिए। जब किसी में भूत देखो, कोई क्रोध करता है या मोह के वश हो जाता है तो उससे किनारा कर लो। पवित्र रहने की स्वयं से प्रतिज्ञा करो। सच्ची-सच्ची राखी बांधो।गीत:- तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है…..धारणा के लिए मुख्य सार :-
1. श्रीमत पर पतित मनुष्यों को पावन देवता बनाने की सेवा करनी है। बाप का पूरा-पूरा मददगार बनना है।
2. ज्ञान सागर का सारा ज्ञान हप करना है। बाप की याद से विकर्मों को दग्ध कर विकर्माजीत बनना है।वरदान:- कर्मयोगी बन हर कार्य को कुशलता और सफलता पूर्वक करने वाले चिंतामुक्त भव
कई बच्चों को कमाने की, परिवार को पालने की चिंता रहती है लेकिन चिंता वाला कभी कमाई में सफल नहीं हो सकता। चिंता को छोड़कर कर्मयोगी बन काम करो तो जहाँ योग है वहाँ कोई भी कार्य कुशलता और सफलता पूर्वक सम्पन्न होगा। अगर चिंता से कमाया हुआ पैसा आयेगा भी तो चिंता ही पैदा करेगा, और योगयुक्त बन खुशी-खुशी से कमाया हुआ पैसा खुशी दिलायेगा क्योंकि जैसा बीज होगा वैसा ही फल निकलेगा।स्लोगन:- सदा गुण रूपी मोती ग्रहण करने वाले होलीहंस बनो, कंकड़ पत्थर लेने वाले नहीं।
"स्वदेशो भुवनत्रयम्"
इस जगत में जो लोग भी अपना अस्तित्व संसार से मानते हैं, उनके लिये ये संसार कभी ना कभी बेवफा, बेगाना अवश्य हो जायेगा, परन्तु जो अपना अस्तित्व एक मात्र भगवान से मानते हैं, उनके लिये तो यह बेगाना संसार भी भगवान का ही एक स्वरुप बन जाता है ।
इस जगत में जो लोग भी अपना अस्तित्व संसार से मानते हैं, उनके लिये ये संसार कभी ना कभी बेवफा, बेगाना अवश्य हो जायेगा, परन्तु जो अपना अस्तित्व एक मात्र भगवान से मानते हैं, उनके लिये तो यह बेगाना संसार भी भगवान का ही एक स्वरुप बन जाता है ।
5 टिप्पणियां:
बहुत ज्ञानवर्धक प्रस्तुति...आभार
सही ज्ञान होना, अपने बारे में, विश्व के बारे में और उनके बीच अन्तर्निहित संबंध के बारे में। यही द्वितीय अध्याय कहता है।
। धर्म वह शाश्वत नियम है जो सृष्टि और संसार की व्यवस्था को चलाता है ,बनाए रखता पोषित करता है।
धर्म की सुंदर परिभाषा...
धर्म के असल रूप को लक्ष्य करती ... द्वितीय अध्याय के ज्ञान से परिपूर्ण पोस्ट ...
बहुत ही सुंदर, अपना बोध होना ही सांख्य ज्ञान है. सुंदर अमृत धारा बह रही है.
रामराम.
एक टिप्पणी भेजें