गीता दूसरा अध्याय (श्लोक संख्या १६ - २२ )
(१६ )असत वस्तु का भाव नहीं होता है और सत का अभाव नहीं होता है। तत्व दर्शी मनुष्य (असत और सत )दोनों को तत्व से जानते हैं।
इस श्लोक में भगवान् ने सत्य और असत्य की पहचान बताई है। भगवान् सत्य और असत्य का लक्षण बतला रहे हैं। जो असत्य है उसकी कोई सत्ता नहीं है। सत्य का कभी भी अभाव नहीं है। सत्य कभी भी अनुपस्थित (गैर -हाज़िर )नहीं है।
जहां परिवर्तन है वहां असत्य है। जहां परिवर्तन नहीं है वह सत्य है। सत्य थोड़ा सा भी घटे या बढ़ेगा नहीं। झूठ का जितना मरजी चीर खींच लो। झूठ का कोई ओर छोर नहीं होता। जितना बढ़ा लो। सत्य हमेशा एक समान रहता है। असत्य क्षण प्रति क्षण बदलता रहता है। हम भयभीत रहते हैं क्योंकि हम जुड़े हुए रहते हैं परिवर्तन शील चीज़ों से। हमारे जीवन में दो चीज़ें हैं एक वह जो प्रति क्षण बदल रही हैं अस्थिर हैं ठहरी हुई नहीं रहती हैं। हमने महत्व दिया है पदार्थ को ,लोगों को। जब हमारी दोस्ती शाश्वत ,अनश्वर के साथ होगी ,इमाटल के साथ होगी ,हम मर नहीं सकते। संसार के साथ हम दोस्ती करेंगे तो भिखारी हो जायेंगे। सत्य कल भी था ,आज भी है कल भी रहेगा। असत्य न कल था न आज है ,न कल को रहेगा। अब समझा इस गीत का मतलब "सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था ,आज भी है और कल भी रहेगा ".सौ साल पहले और उससे भी पहले से पहले तो परमात्मा ही था। जो कभी नहीं बदलता वह सत्य है। संसार जो लगातार बदल रहा है असत्य है।
(१७ )उस अविनाशी तत्व को जानो ,जिससे ये सारा जगत व्याप्त है ,इस अविनाशी का नाश करने में कोई समर्थ नहीं है ।
भगवान् कहते हैं :हे अर्जुन अविनाशी तत्व तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। और इस अ-व्यय का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है। जितनी भी चीज़ें परमात्मा से जुड़ीं हैं वे अविनाशी हो जायेंगी। और ऐसे अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता है। जो विनाशी तत्व (शरीर ,देह ,देह के सर्व सम्बन्धों ,पदार्थ )से जुड़ेगा वह विनाश को प्राप्त होगा। नदी में डूबता व्यक्ति यदि मगरमच्छ को पकड़ेगा तो मगर मच्छ का लंच और ब्रेकफास्ट दोनों हो जाएगा। हम जिसके शरणागत बनें वह सत्य ,ज्ञान ही होना चाहिए।
(१ ८ )इस अविनाशी ,असीम और नित्य जीवआत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं ;इसलिए हे भरत -वंशी अर्जुन ,तुम युद्ध करो।
तू कर्म कर। जो भी ये शरीर तुम्हें दिखाई दे रहे हैं ये प्रतिक्षण मर रहे हैं जन्म के बाद से ही।यम राज इनकी जीवन अवधि काट रहे हैं। ये मृत्यु के नज़दीक पहुँच रहे हैं। ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं। जो आत्मा नित्य है उसके ये शरीर विनाशी हैं। इनके कर्मों ने ही इनको मार दिया है। तुम्हें तो इनका अग्नि संस्कार ही करना है।
(१ ९ )जो इस आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानते हैं ,वे दोनों ही ना -समझ हैं ,क्योंकि आत्मा न किसी को मारता है न किसी के द्वारा मारा जा सकता है।
सच में जो मृत्यु होती है वह शरीर की होती है। जो मारने वाला है वह अहंकार है ,मानव द्वेष है ,मोह है। यह आत्मा किसी भी काल में न तो किसी को मारता है और न ही खुद मरता है। जो व्यक्ति इस आत्मा को मरने वाला और मारने वाला मानता है वह सच्चाई को नहीं जान ता।
अब पूछा जा सकता है फिर कचहरी में जज हत्यारे अपराधी को सजा किस बात की देता है। भगवान् कहते हैं प्राण और पिंड का जो वियोग होता है दंड उसका होता है।
(२ ० )आत्मा कभी न जन्म लेता है और न मरता ही है। आत्मा का होना फिर न होना नहीं होता है। आत्मा अजन्मा ,नित्य ,शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर इसका नाश नहीं होता।
भगवान् कहते हैं जीवआत्मा वासनाओं के कारण जन्म जन्मान्तरों में भटकता रहता है। वासनाओं से मुक्ति ही मोक्ष है। आत्मा का ब्रह्म में लीन होना है।अमर होना है। जब व्यक्ति ज्ञान के द्वारा संसार की असलियत को जान लेता है,तभी उसे पता चलता है -जो हमारा होना है "बींग "being ,Isness है वही तो ब्रह्म है। हम ब्रह्म स्वरूप हैं।
( २ १ )हे पार्थ ,जो मनुष्य आत्मा को अविनाशी ,नित्य ,जन्म रहित और अ -व्यय जानता है ,वह कैसे किसको मरवाएगा और कैसे किसको मारेगा ?
यह मात्र अज्ञानता में है। सच तो यह है -संसार में किसी भी चीज़ का विनाश संभव नहीं है.यहाँ केवल रूप परिवर्तन होता है चाहे वह आत्मा हो या अनात्मा। पदार्थ हो या अ -पदार्थ (ऊर्जा ,चैतन्य ऊर्जा ,एनर्जी इन एक्शन बोले तो आत्मा )ज़ैसे दूध से किण्वन के बाद दही और फिर उसे मथने के बाद मख्खन पैदा होता है,दूध कभी नष्ट नहीं होता।
जिसमें एहम नहीं है ,अहंकार नहीं है ,अज्ञान नहीं है मोह माया नहीं है वह चाहे सारे संसार को मार दे पाप नहीं लगता है। क्योंकि आत्मा तो एक प्रकाश स्वरूप है दीपक लौ स्वरूप है।ज्योति ही जिसकी पहचान है। मृत्यु मात्र अज्ञानता का ही प्रतीक है।जिस मरने से जग डरे ,उससे ही मुझे आनंद प्राप्त होता है। क्योंकि जब हमारी आसक्ति मर जाती है पूरा संसार ही हमारे लिए मर जाता है। तभी हमें आनंद प्राप्त होता है।
(२ २ )जैसे मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को उतारकर दूसरे ,नए वस्त्र धारण करता है ,वैसे ही जीव मृत्यु के बाद अपने पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर प्राप्त करता है।
भगवान् कहते हैं आत्मा शाश्वत है अनादि है। पुराने से भी पुराना है। न इसका सृष्टि की तरह कोई आदि है न अंत। यह सदा रहा है। सदा रहेगा। ये पूरी सृष्टि ,सारी कायनात ,तमाम नीहारिकाएं (गेलेक्सीज़ )आत्माओं से भरी पड़ी हैं। यहाँ पुण्य आत्माएं भी अपने सूक्ष्म शरीर में विचरण कर रही है तो दुष्टात्माएं भी हैं ।
जैसे व्यक्ति किसी तीर्थस्थान मंदिर आदि पे जाता है वहां परिसर में लगे वृक्षों की परिक्रमा करता मन्नतें मांगता है। अपनी इच्छाएं दोहराता है उस वृक्ष के इर्द गिर्द जो पुण्य आत्माएं होतीं हैं वही उस व्यक्ति का उद्धार कर देती हैं उसकी मनोकामना पूर्ण कर देती हैं।बस आप एक दीपक अपने घर के किसी कौने में जलाके रख दें - और फिर चिंतन करें शांत चित्त से -यहाँ पर जो भी पुण्य आत्माएं हैं वह हमारा मार्ग दर्शन करें आपको मदद मिलेगी। आप ऐसा कर देखें। बस नियाग्रा प्रपात की तरह हमारे मन में ख्यालात चले आते हैं चले आतें हैं ,कभी भी किसी मुश्किल में पड़ो यही आवाहन -पुण्य आत्माओं आओ हमारी मदद करो करके देखो।
आत्माओं के अलग अलग अस्तित्व की अवधारणा क्या
है ?
यह वैसे ही है जैसे आप अलग अलग रंगों के गुब्बारों में हाइड्रोजन गैस भरके उन्हें उड़ा दो -सोचो जो हवा गुब्बारे में हैं वही तो बाहर भी है। गुब्बारे का रबर वासना की दीवार है। उनमें से कुछ की वासनाएं पुण्य में लिपटी हुईं हैं ,कुछ की पाप में।इस सृष्टि में हाड्रोजन तत्व का ही प्राबल्य है।
अधोगति प्राप्त आत्मा को तामसिक आत्माओं का सहयोग मिलता रहेगा। इसीलिए कहा गया है चोर चोर मौसेरे भाई। (सांसदों से क्षमा याचना सहित )..
जैसे यह मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र ग्रहण करता है वैसे ही यह जीव (जीवात्मा )अपने पुराने शरीर को छोड़ नए को ग्रहण करता है। कोई न कोई वासना जब तक शेष रहती है आत्मा एक शरीर छोड़ दूसरे में जाती ही रहती है।
ॐ शान्ति
सन्दर्भ -सामिग्री :योगी आनंदजी का स्काइप पर क्लास ईस्टर्न टाइम (दस बजे रात से ग्यारह बजे रात्रि ).
अंग्रेजी में पढ़ें गुंजन शर्मा की प्रस्तुति श्लोक (१२ -१५ ):
Sri Bhagwat Gita: Chapter 2, Verses 12-15
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिः धीरः तत्र न मुह्यति ॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः । आगमापायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत ॥
यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषं पुरुषर्भ । समदुःखसुखम् धीरम् सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
(१६ )असत वस्तु का भाव नहीं होता है और सत का अभाव नहीं होता है। तत्व दर्शी मनुष्य (असत और सत )दोनों को तत्व से जानते हैं।
इस श्लोक में भगवान् ने सत्य और असत्य की पहचान बताई है। भगवान् सत्य और असत्य का लक्षण बतला रहे हैं। जो असत्य है उसकी कोई सत्ता नहीं है। सत्य का कभी भी अभाव नहीं है। सत्य कभी भी अनुपस्थित (गैर -हाज़िर )नहीं है।
जहां परिवर्तन है वहां असत्य है। जहां परिवर्तन नहीं है वह सत्य है। सत्य थोड़ा सा भी घटे या बढ़ेगा नहीं। झूठ का जितना मरजी चीर खींच लो। झूठ का कोई ओर छोर नहीं होता। जितना बढ़ा लो। सत्य हमेशा एक समान रहता है। असत्य क्षण प्रति क्षण बदलता रहता है। हम भयभीत रहते हैं क्योंकि हम जुड़े हुए रहते हैं परिवर्तन शील चीज़ों से। हमारे जीवन में दो चीज़ें हैं एक वह जो प्रति क्षण बदल रही हैं अस्थिर हैं ठहरी हुई नहीं रहती हैं। हमने महत्व दिया है पदार्थ को ,लोगों को। जब हमारी दोस्ती शाश्वत ,अनश्वर के साथ होगी ,इमाटल के साथ होगी ,हम मर नहीं सकते। संसार के साथ हम दोस्ती करेंगे तो भिखारी हो जायेंगे। सत्य कल भी था ,आज भी है कल भी रहेगा। असत्य न कल था न आज है ,न कल को रहेगा। अब समझा इस गीत का मतलब "सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था ,आज भी है और कल भी रहेगा ".सौ साल पहले और उससे भी पहले से पहले तो परमात्मा ही था। जो कभी नहीं बदलता वह सत्य है। संसार जो लगातार बदल रहा है असत्य है।
(१७ )उस अविनाशी तत्व को जानो ,जिससे ये सारा जगत व्याप्त है ,इस अविनाशी का नाश करने में कोई समर्थ नहीं है ।
भगवान् कहते हैं :हे अर्जुन अविनाशी तत्व तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। और इस अ-व्यय का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है। जितनी भी चीज़ें परमात्मा से जुड़ीं हैं वे अविनाशी हो जायेंगी। और ऐसे अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता है। जो विनाशी तत्व (शरीर ,देह ,देह के सर्व सम्बन्धों ,पदार्थ )से जुड़ेगा वह विनाश को प्राप्त होगा। नदी में डूबता व्यक्ति यदि मगरमच्छ को पकड़ेगा तो मगर मच्छ का लंच और ब्रेकफास्ट दोनों हो जाएगा। हम जिसके शरणागत बनें वह सत्य ,ज्ञान ही होना चाहिए।
(१ ८ )इस अविनाशी ,असीम और नित्य जीवआत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं ;इसलिए हे भरत -वंशी अर्जुन ,तुम युद्ध करो।
तू कर्म कर। जो भी ये शरीर तुम्हें दिखाई दे रहे हैं ये प्रतिक्षण मर रहे हैं जन्म के बाद से ही।यम राज इनकी जीवन अवधि काट रहे हैं। ये मृत्यु के नज़दीक पहुँच रहे हैं। ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं। जो आत्मा नित्य है उसके ये शरीर विनाशी हैं। इनके कर्मों ने ही इनको मार दिया है। तुम्हें तो इनका अग्नि संस्कार ही करना है।
(१ ९ )जो इस आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानते हैं ,वे दोनों ही ना -समझ हैं ,क्योंकि आत्मा न किसी को मारता है न किसी के द्वारा मारा जा सकता है।
सच में जो मृत्यु होती है वह शरीर की होती है। जो मारने वाला है वह अहंकार है ,मानव द्वेष है ,मोह है। यह आत्मा किसी भी काल में न तो किसी को मारता है और न ही खुद मरता है। जो व्यक्ति इस आत्मा को मरने वाला और मारने वाला मानता है वह सच्चाई को नहीं जान ता।
अब पूछा जा सकता है फिर कचहरी में जज हत्यारे अपराधी को सजा किस बात की देता है। भगवान् कहते हैं प्राण और पिंड का जो वियोग होता है दंड उसका होता है।
(२ ० )आत्मा कभी न जन्म लेता है और न मरता ही है। आत्मा का होना फिर न होना नहीं होता है। आत्मा अजन्मा ,नित्य ,शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर इसका नाश नहीं होता।
भगवान् कहते हैं जीवआत्मा वासनाओं के कारण जन्म जन्मान्तरों में भटकता रहता है। वासनाओं से मुक्ति ही मोक्ष है। आत्मा का ब्रह्म में लीन होना है।अमर होना है। जब व्यक्ति ज्ञान के द्वारा संसार की असलियत को जान लेता है,तभी उसे पता चलता है -जो हमारा होना है "बींग "being ,Isness है वही तो ब्रह्म है। हम ब्रह्म स्वरूप हैं।
( २ १ )हे पार्थ ,जो मनुष्य आत्मा को अविनाशी ,नित्य ,जन्म रहित और अ -व्यय जानता है ,वह कैसे किसको मरवाएगा और कैसे किसको मारेगा ?
यह मात्र अज्ञानता में है। सच तो यह है -संसार में किसी भी चीज़ का विनाश संभव नहीं है.यहाँ केवल रूप परिवर्तन होता है चाहे वह आत्मा हो या अनात्मा। पदार्थ हो या अ -पदार्थ (ऊर्जा ,चैतन्य ऊर्जा ,एनर्जी इन एक्शन बोले तो आत्मा )ज़ैसे दूध से किण्वन के बाद दही और फिर उसे मथने के बाद मख्खन पैदा होता है,दूध कभी नष्ट नहीं होता।
जिसमें एहम नहीं है ,अहंकार नहीं है ,अज्ञान नहीं है मोह माया नहीं है वह चाहे सारे संसार को मार दे पाप नहीं लगता है। क्योंकि आत्मा तो एक प्रकाश स्वरूप है दीपक लौ स्वरूप है।ज्योति ही जिसकी पहचान है। मृत्यु मात्र अज्ञानता का ही प्रतीक है।जिस मरने से जग डरे ,उससे ही मुझे आनंद प्राप्त होता है। क्योंकि जब हमारी आसक्ति मर जाती है पूरा संसार ही हमारे लिए मर जाता है। तभी हमें आनंद प्राप्त होता है।
(२ २ )जैसे मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को उतारकर दूसरे ,नए वस्त्र धारण करता है ,वैसे ही जीव मृत्यु के बाद अपने पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर प्राप्त करता है।
भगवान् कहते हैं आत्मा शाश्वत है अनादि है। पुराने से भी पुराना है। न इसका सृष्टि की तरह कोई आदि है न अंत। यह सदा रहा है। सदा रहेगा। ये पूरी सृष्टि ,सारी कायनात ,तमाम नीहारिकाएं (गेलेक्सीज़ )आत्माओं से भरी पड़ी हैं। यहाँ पुण्य आत्माएं भी अपने सूक्ष्म शरीर में विचरण कर रही है तो दुष्टात्माएं भी हैं ।
जैसे व्यक्ति किसी तीर्थस्थान मंदिर आदि पे जाता है वहां परिसर में लगे वृक्षों की परिक्रमा करता मन्नतें मांगता है। अपनी इच्छाएं दोहराता है उस वृक्ष के इर्द गिर्द जो पुण्य आत्माएं होतीं हैं वही उस व्यक्ति का उद्धार कर देती हैं उसकी मनोकामना पूर्ण कर देती हैं।बस आप एक दीपक अपने घर के किसी कौने में जलाके रख दें - और फिर चिंतन करें शांत चित्त से -यहाँ पर जो भी पुण्य आत्माएं हैं वह हमारा मार्ग दर्शन करें आपको मदद मिलेगी। आप ऐसा कर देखें। बस नियाग्रा प्रपात की तरह हमारे मन में ख्यालात चले आते हैं चले आतें हैं ,कभी भी किसी मुश्किल में पड़ो यही आवाहन -पुण्य आत्माओं आओ हमारी मदद करो करके देखो।
आत्माओं के अलग अलग अस्तित्व की अवधारणा क्या
है ?
यह वैसे ही है जैसे आप अलग अलग रंगों के गुब्बारों में हाइड्रोजन गैस भरके उन्हें उड़ा दो -सोचो जो हवा गुब्बारे में हैं वही तो बाहर भी है। गुब्बारे का रबर वासना की दीवार है। उनमें से कुछ की वासनाएं पुण्य में लिपटी हुईं हैं ,कुछ की पाप में।इस सृष्टि में हाड्रोजन तत्व का ही प्राबल्य है।
अधोगति प्राप्त आत्मा को तामसिक आत्माओं का सहयोग मिलता रहेगा। इसीलिए कहा गया है चोर चोर मौसेरे भाई। (सांसदों से क्षमा याचना सहित )..
जैसे यह मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र ग्रहण करता है वैसे ही यह जीव (जीवात्मा )अपने पुराने शरीर को छोड़ नए को ग्रहण करता है। कोई न कोई वासना जब तक शेष रहती है आत्मा एक शरीर छोड़ दूसरे में जाती ही रहती है।
ॐ शान्ति
सन्दर्भ -सामिग्री :योगी आनंदजी का स्काइप पर क्लास ईस्टर्न टाइम (दस बजे रात से ग्यारह बजे रात्रि ).
अंग्रेजी में पढ़ें गुंजन शर्मा की प्रस्तुति श्लोक (१२ -१५ ):
Sri Bhagwat Gita: Chapter 2, Verses 12-15
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिः धीरः तत्र न मुह्यति ॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः । आगमापायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत ॥
यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषं पुरुषर्भ । समदुःखसुखम् धीरम् सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
BIG IDEA
To further console distressed and demoralized Arjun, Lord Krishna continues the following words:
At no point in time did I, You or the warriors and kings standing in front of you ceased to exist. They were here several thousand years ago and will continue to exist several years from now. Meaning the very composition, the very elements of a ‘soul’ are un-destructive and un-destroyable. The soul is immortal and remains in this world forever.
All beings enter a constant state of change when they take abode in this human body. They switch various forms and appearances right from being a baby to an adolescent, to youth and eventually attain old age; hence there is nothing in this world which is constant or unchanging. We are all in the continuous state of entropy every second progressing forward from order to disorder. The Soul keeps changing bodies just like body changes clothes. Learned and patient people understand this process of constant change and do not lament over mere loss of body.
Anything which is produced from the combination of sensuousness and material presence is only short lived and transitory. Just like various seasons come and go, happiness and sorrows are continuously changing hands with each other. In such a world where nothing is constant, one should understand the very transient nature of this world and witness various phases, ups and downs of life with great patience and tenacity without getting too absorbed in it.
Those who are able to perceive and sustain the state of happiness and sorrow with the same detached outlook, without getting too attached to the finer details or too affected by the final outcome, truly deserve and achieve salvation in this life!
THE TAKEAWAYS
Our over indulgence into worldly things, materialism, lust, wants, and affection only gives birth to worries, fear and lamentation. We are lost in a constant chase of desires and those in turn give us back more frustration and emptiness. It’s a continuous cycle that never ends and we keep running in circles trying to find the end.
As humans we need to be more analytical, patient and detached towards the worldly attractions and temptations. We need to work hard to acquire pragmatism and knowledge to be able to treat every situation in life with an unwavering and neutral mind.
When we will attain the level-headedness where the probabilities of good and bad, suitable and unsuitable, favorable and unfavorable will not have a positive or negative impact on us, we will reach the state of salvation!
Om Shri Gurave Namahe!
Gunjan Sharma
Om Shri Gurave Namahe!
Gunjan Sharma
1 टिप्पणी:
सुन्दर सिद्धान्तों के विन्यास से भरा है, दूसरा अध्याय..
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