श्रीमद्भागवत गीता (श्लोक ५१ -५५ )
(५ १ )ग्यानी कर्मयोगी जन कर्मफल की आसक्ति को त्यागने के कारण जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं तथा परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।
(५ २ )जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी दलदल को पार कर जायेगी ,उस समय तुम शाश्त्र से सुने हुए तथा सुनने योग्य वस्तुओं से भी वैराग्य प्राप्त करोगे।
(५ ३ )जब अनेक प्रकार के प्रवचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में निश्छल रूप से स्थिर हो जायेगी ,उस समय तुम समाधि में परमात्मा से युक्त हो जाओगे।
( ५४ )अर्जुन बोले -हे केशव ,समाधि प्राप्त ,स्थिर बुद्धि वाले अर्थात स्थितप्रज्ञ मनुष्य का लक्षण क्या है ?स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है और कैसे चलता है।
(५ ५ )श्रीभगवान बोले -हे पार्थ ,जिस समय साधक अपने मन की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण रूप से त्याग देता है और आत्मा में आत्मानंद से ही संतुष्ट रहता है ,उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
विस्तृत भाव- सार उपर्युक्त का :
सबसे पहले व्यक्ति को ज्ञान से जुड़ना चाहिए कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल अनुकूलता ,प्रतिकूलता से प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति निर्विकार पद मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। भगवान् यहाँ ऐसा करने की विधि बतला रहे हैं -
विवेक से जुड़े ग्यानी जन कर्म फल की आसक्ति को छोड़ देते हैं। हमारे जीवन में जो भी हालात आते हैं वह सभी हमारे ही कर्मों का फल हैं । सुख दुःख दोनों ही जीवन में आते हैं विवेकवान व्यक्ति दोनों को ही नहीं भोगेगा। सुख से अहंकार में नहीं आयेगा ,दुःख से विचलित नहीं होगा।
हमें ईशवर प्राप्ति तब होगी जब हम वैराग्य को प्राप्त कर लेंगें (वैराग्य का मतलब कुछ छोड़ना नहीं है ,बुद्धि का आसक्ति, राग द्वेष के दलदल से बाहर निकल आना है )ज़ब तक फलों के आकर्षण से सम्मोहित होकर लिप्त होकर हम कर्म करते रहेंगे ,वैराग्य नहीं मिलेगा। इनसे मन निकल जाने के बाद ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
शाश्त्रोक्त भाँति भाँति के वचनों ,बातों को सुनकर हमारी बुद्धि भ्रांत हो गई है। जब यह परमात्मा में ठहर जाती व्यक्ति मोक्ष पा जाता है।
जिसके जीवन में धर्म उतरा है जिसका ज्ञानोदय हो गया है जिसकी प्रज्ञा भगवान् में स्थिर हो गई है वही स्थितप्रज्ञ है।
शारदा माँ के अनुसार ज्ञान ,भक्ति ,और मुक्ति की कामनाओं को कामनाओं की कोटि में नहीं रखा जा सकता। क्योंकि ये उच्चतर कामनाएं हैं। पहले व्यक्ति को क्षुद्र कामनाओं की जगह उच्चतर कामनाएं ग्रहण करनी चाहिए ,फिर उच्चतम कामना का भी परित्याग करके पूर्णतया मुक्त हो जाना चाहिए।
ॐ शान्ति
(५ १ )ग्यानी कर्मयोगी जन कर्मफल की आसक्ति को त्यागने के कारण जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं तथा परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।
(५ २ )जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी दलदल को पार कर जायेगी ,उस समय तुम शाश्त्र से सुने हुए तथा सुनने योग्य वस्तुओं से भी वैराग्य प्राप्त करोगे।
(५ ३ )जब अनेक प्रकार के प्रवचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में निश्छल रूप से स्थिर हो जायेगी ,उस समय तुम समाधि में परमात्मा से युक्त हो जाओगे।
( ५४ )अर्जुन बोले -हे केशव ,समाधि प्राप्त ,स्थिर बुद्धि वाले अर्थात स्थितप्रज्ञ मनुष्य का लक्षण क्या है ?स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है और कैसे चलता है।
(५ ५ )श्रीभगवान बोले -हे पार्थ ,जिस समय साधक अपने मन की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण रूप से त्याग देता है और आत्मा में आत्मानंद से ही संतुष्ट रहता है ,उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
विस्तृत भाव- सार उपर्युक्त का :
सबसे पहले व्यक्ति को ज्ञान से जुड़ना चाहिए कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल अनुकूलता ,प्रतिकूलता से प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति निर्विकार पद मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। भगवान् यहाँ ऐसा करने की विधि बतला रहे हैं -
विवेक से जुड़े ग्यानी जन कर्म फल की आसक्ति को छोड़ देते हैं। हमारे जीवन में जो भी हालात आते हैं वह सभी हमारे ही कर्मों का फल हैं । सुख दुःख दोनों ही जीवन में आते हैं विवेकवान व्यक्ति दोनों को ही नहीं भोगेगा। सुख से अहंकार में नहीं आयेगा ,दुःख से विचलित नहीं होगा।
हमें ईशवर प्राप्ति तब होगी जब हम वैराग्य को प्राप्त कर लेंगें (वैराग्य का मतलब कुछ छोड़ना नहीं है ,बुद्धि का आसक्ति, राग द्वेष के दलदल से बाहर निकल आना है )ज़ब तक फलों के आकर्षण से सम्मोहित होकर लिप्त होकर हम कर्म करते रहेंगे ,वैराग्य नहीं मिलेगा। इनसे मन निकल जाने के बाद ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
शाश्त्रोक्त भाँति भाँति के वचनों ,बातों को सुनकर हमारी बुद्धि भ्रांत हो गई है। जब यह परमात्मा में ठहर जाती व्यक्ति मोक्ष पा जाता है।
जिसके जीवन में धर्म उतरा है जिसका ज्ञानोदय हो गया है जिसकी प्रज्ञा भगवान् में स्थिर हो गई है वही स्थितप्रज्ञ है।
शारदा माँ के अनुसार ज्ञान ,भक्ति ,और मुक्ति की कामनाओं को कामनाओं की कोटि में नहीं रखा जा सकता। क्योंकि ये उच्चतर कामनाएं हैं। पहले व्यक्ति को क्षुद्र कामनाओं की जगह उच्चतर कामनाएं ग्रहण करनी चाहिए ,फिर उच्चतम कामना का भी परित्याग करके पूर्णतया मुक्त हो जाना चाहिए।
ॐ शान्ति
Posted: 21 Aug 2013 09:47 PM PDT
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1 टिप्पणी:
अन्तर्मन से बतियाने को बाध्य करते श्लोक..
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